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________________ अष्टमांगलिक चिह्न और उनके सामूहिक अंकन ए० एल० श्रीवास्तव विचारों का आदान-प्रदान मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति रही है । इसी प्रवृत्ति के फलस्वरूप मनुष्य की भाषा का जन्म हुआ । आपस में बोलकर या बातचीत करके विचारों का आदान-प्रदान संभव हुआ । परन्तु इसके लिए परस्पर बात करने वालों को उस भाषा से परिचित होना आवश्यक है । दो विभिन्न भाषाओं के जानकारों के बीच संभाषण के माध्यम से विचारों का आदान-प्रदान कदापि संभव नहीं है । चूंकि विश्व में अनेक भाषाएं हैं, इसलिए वार्तालाप द्वारा विचार-विनिमय सार्वभौमिक न होकर किसी भाषा - विशेष के परिक्षेत्र तक ही सीमित रहता है । भाषा की इस कमी को पूरा किया कला ने । कला (चित्रकला अथवा मूर्तिकला ) में अंकित फल-फूल, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, नदी-पर्वत, धरती - आकाश, सूर्य-चन्द्र आदिआदि संसार के सभी मनुष्यों को समानरूप से मालूम हो जाते हैं । इतना ही नहीं, मूर्तियों की मुखमुद्राओं से नाना प्रकार के भावों - हास्य, उल्लास, क्रोध, दु:ख, दीनता, विवशता अथवा वीभत्सता को सभी देशों के मनुष्य सहज ही जान लेते हैं । स्पष्ट है कि विचारों के आदान-प्रदान के लिए भाषा की अपेक्षा कला का क्षेत्र अधिक विस्तृत और सार्वभौम है। इससे भी बढ़कर कला ने अमूर्त विचारों, विश्वासों और आध्यात्मिक सिद्धान्तों को भी साकार बनाया है । भारतीय कला भारतीय जीवन का प्रतिबिम्ब है । यहां धर्म, दर्शन और यहां की विराट संस्कृति कला में स्पष्टरूप से अभिव्यक्त हुई है । इस महत् कार्य के लिए भारतीय विद्वान् कलाकारों ने कतिपय प्रतीकों अथवा चिह्नों का सहारा लिया है। → प्रतीक या चिह्न ही भारतीय कला की वर्णमाला कहे जा सकते हैं । इन्हीं के माध्यम से धार्मिक मान्यताएं, लौकिक एवं पारलौकिक आचार-विचार, नीति- परम्पराएं और सामाजिक रीति-रिवाज़ भारतीय कलाकृतियों में प्रतिबिम्बित हुए हैं। ये कला-प्रतीक केवल विचारों को अथवा विशिष्ट भावों को अभिव्यक्त ही नहीं करते हैं, अपितु शोभा, आरक्षा और मांगलिकता की सृष्टि भी करते हैं । इसीलिए धार्मिक अनुष्ठानों, सामाजिक उत्सवों अथवा पारिवारिक समारोहों और त्योहारों के अवसर पर चौक, अल्पना, रंगोली, माला, बन्दनवार, झालर, पताका तथा अन्यान्य साजसज्जा में इन प्रतीकों की प्रतिष्ठा करके मांगलिक वातावरण की सृष्टि जाती है । तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं : अंक २३ खंड ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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