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________________ उपलब्ध हैं, वे सब अविरूद्ध हैं। __ आर्ष-प्रयोग में संस्कृत-सिद्ध रूपों के प्रतिरूप भी मिलते हैं। शौरसेनी में ‘णं' ननु के अर्थ में निपात है, किन्तु आर्ष प्रयोगों में वह वाक्यालंकार में भी प्रयुक्त होता है । आगम-सूत्रों के व्याख्याकार व्याकरण से सिद्ध न होने वाले आर्ष प्रयोगों को अलाक्षणिक और सामयिक कहते हैं । 'वत्थगंध-मलंकारं' (दसवेआलियं २।२) इस पद में 'मलं कार' का 'म' अलाक्षणिक है। हरिभद्रसूरी ने लिखा है- अनुस्वार अलाक्षणिक है । मुख-सुखोच्चारण के लिए इसका प्रयोग किया गया है।" प्राकृत व्याकरण में पकार के लुक् का विधान है" और पकार को वकार वर्णादेश भी होता है।" इन दोनों की प्राप्ति होने पर क्या करना चाहिये, इस जिज्ञासा के उत्तर में आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है - जिससे श्रुतिसुख उत्पन्न हो, वही करना चाहिए।" 'दंतसोहणमाइस्स' (उत्तरा० १९।२७) इस पद में भी मकार अलाक्षणिक माना जाता है । किन्तु इन सबके पीछे सुखोच्चारण तथा छंदोबद्धता का दृष्टिकोण है। 'वत्थगंधालंकारं' तथा 'दंतसोहणा इस्स'- इन प्रयोगों में उच्चारण की मृदुता भी नष्ट होती है और छंदोभंग भी हो जाता है । हरिभद्र सूरी ने 'गोचर' शब्द को सामायिक (समय या आगमसिद्ध) बतलाया है । प्राकृत व्याकरण के नियमानुसार 'गोचार' होना चाहिए था।" आगमिक प्रयोगों में विभक्तिरहित पद भी मिलते हैं । गिण्हाहि साहगुण मंचडसाह (दस० ९।३।११) यहां 'गुण' शब्द द्वितीया विभक्ति का बहुवचन है। पर यहां इसकी विभक्ति का निर्देश नहीं है। 'इंगालधूमकारण'---इस पद में विभक्ति नहीं है। आचार्य मलयगिरि ने इस प्रकार के विभक्ति लोप का हेतु आर्षप्रयोग बतलाया है ।।१।। आर्ष या सामयिक प्रयोग के प्रतिपादन का हेतु काल का अन्तराल है। आगम सूत्रों के कुछ प्रयोग व्याकरण सिद्ध नहीं हैं, इस धारणा के पीछे दो हेतु थे १. प्राकृत व्याकरणकारों के समय जो व्याकरण उपलब्ध थे या उन्हें जो नियम ज्ञात थे, उनसे वे प्रयोग सिद्ध नहीं होते थे । २. प्राकृत व्याकरणकार प्राकृत की प्रकृति संस्कृत मानकर चले । आगम सूत्रों में बहुत सारे देशी भाषा के प्रयोग हैं, जिनका संस्कृत से कोई सम्बन्ध नहीं है । __ इन धारणाओं से उन्होंने उन प्रयोगों को अलाक्षणिक, आर्ष या सामयिक कहा। थदि हम काल के अन्तराल पर ध्यान दें तो कुछ नए तथ्य उद्घाटित होंगे। निशीथ भाष्य २ में आगमसूत्रों को 'पुराण' कहा गया है । उनका विषय भगवान् महावीर के द्वारा प्रतिपादित और उनका संकलन गणधरों द्वारा कृत है, इसलिए वे पुराणप्राचीन है। उनकी भाषा 'प्राकृत अर्द्धमागधी' है और उसमें अठारह देशी भाषाओं का सम्मिश्रण है। ___आगम सूत्रों की मूलभाषा अर्द्धमागधी रही है। देवद्धिगणी ने आगमों का नया संस्करण वल्लभी में किया था। महाराष्ट्र में जैन श्रमणों का विहार होने लगा। उस स्थिति में आगमसूत्रों की अर्धमागधी भाषा महाराष्ट्री से प्रभावित हो गई। आचार्य तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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