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________________ टीकाओं के उक्त श्लोक, जिनमें इन तिथियों का उल्लेख है, अधिकांशतया पाण्डुलिपियों में प्राप्त हैं, इसलिए इन्हें प्रक्षिप्त या जाली भी नहीं कह सकते ।। ___ अब प्रश्न यह है कि यदि उत्पल ने अपनी टीका शाके ८८८ (९६६ ई०) में लिखी तो सन् ८८६ के पूर्व अबू मशर ने उसका कथन कैसे उद्धृत किया ? किंतु यह विरोधाभास स्वतः ही दूर हो जाता है , जब हम 'शाके' शब्द पर गम्भीरता से विचार करते हैं। वास्तव में यहां 'शाके' शब्द से उत्पल का अभिप्राय ५७ ई० पूर्व से शुरू होने वाले विक्रम-संवत् से है, न कि सन् ७८ से आरम्भ होनेवाले शक काल से । विक्रमाब्द के लिए भी 'शक' या 'शाक' शब्दों का प्रयोग अभिलेखों में प्राप्त होता है। स्वयं उत्पल 'शक' एवं 'शाक' पदों का प्रयोग विक्रमाब्द के लिए करते हैं। शक काल के संबंध में बहत्संहिता ८।२० की व्याख्या द्रष्टव्य है। उन्होंने लिखा है ---- 'शका नाम म्लेच्छाजातयो राजानस्ते यस्मिन् काले विक्रमादित्यदेवेन व्यापादिताः स कालो लोके शक इति प्रसिद्धः । तस्माच्छकेन्द्रकालात् शक नृप वधकालादारभ्य...... ।' अर्थात् 'शक' म्लेच्छ राजाओं की संज्ञा है। जिस समय विक्रमादित्य ने उनका संहार किया था, वह काल लोक में 'शक' के नाम से प्रसिद्ध है। शकेन्द्र काल" शक नृपवध काल से अभिन्न है। इस प्रकार उत्पल शकेन्द्र काल का अर्थ किसी शक राजा के अभिषेक या राज्यारोहण से शुरू हुई गणना नहीं मानते, अपितु शकों का शासन मिटाकर विक्रमादित्य ने जिस गणना का आरम्भ किया, उसी विक्रमाब्द का ग्रहण करते हैं। यहां उत्पल ने शकेन्द्र काल के बदले शाके (शक) शब्द का प्रयोग किया है। अतः उत्पल का ८८८ शाके, विक्रमाब्द है, जिसका तात्पर्य ८३१ ई० सन् से है। इस प्रकार स्पष्ट है कि सन् ८८६ के पूर्व अबू मशर द्वारा उत्पल का वचन-उद्धरण का तथ्य उक्त विक्रमाब्द काल मानने पर बाधक नहीं। __ भट्टोत्पल ने कुल कितने ग्रंथों की रचना की, यह तो बता पाना अत्यन्त कठिन है, किंतु संप्रति उनके नाम से जो ग्रंथ उपलब्ध होते हैं, उनका उल्लेख किया जा रहा है-- उत्पल, ज्योतिर्विद वराहमिहिर के सुप्रसिद्ध टीकाकार हैं। इन्होंने उनके ग्रंथों में से बृहज्जातक, बृहत्संहिता, लघुजातक की टीकाएं की हैं।" बृहत्संहिता की टीका में उत्पल ने लिखा है-'यात्रायां व्याख्याम्'। इससे ज्ञात होता है कि उन्होंने 'यात्रा ग्रंथ' की भी टीका की थी, जो बृहत्संहिता से पहिले की है, किंतु यात्रा की यह टीका स्यात् इस समय उपलब्ध नहीं है। उन्होंने वराह के शेष ग्रंथों की भी टीका की थी, इसका प्रमाण नहीं मिलता। वराह के पुत्र पृथुयशा" के 'षट् पंचाशिका' नामक ग्रंथ पर भी इनकी टीका है, जिसमें शुभाशुभ प्रश्न पर विचार किया गया है। ब्रह्मगुप्त के 'खण्ड खाद्य' की टीका के समय का तो पता नहीं चलता, किंतु बृहत्संहिता-टीका (अध्याय ५॥१९) के 'खण्ड खाद्य करणे अस्मदीय-वचनम्' उल्लेख से ज्ञात होता है कि उसकी टीका इन्होंने इसके पहिले की थी। ७२ आर्याओं का 'प्रश्न बण्ड २३, बंक ३ ३६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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