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________________ १४. दे० रायल एशियाटिक सोसाइटी, बम्बई की पत्रिका (१९५८, पृ० १४७ ____ आदि) में प्रकाशित महामहोपाध्याय डॉ. पांडुरंग वामन काणे का लेख । १५. टीकाओं के रचे जाने की यह तिथि शाके ८८८, उस तिथि-'शाके ८९०' से केवल दो वर्ष पूर्व है, जो कोल ब्रुक द्वारा प्रकाशित सूची में दी गई है। यह तिथि उज्जैन के ज्योतिषयों द्वारा प्रदत्त सूची में दी हुई थी। १६. यथा-(अ) अकलंक चरित में विक्रमाब्द के लिए --शकाब्द का प्रयोग हुआ है -विक्रमाङ्क शकाब्दीय शत सप्त प्रमाजुषि । (आ) कात्यायन-स्मार्त मंत्रार्थ दीपिका में भी शाके का प्रयोग विक्रमाब्द के लिए हुआ है- शाके वसु वसु षट्क् प्रथमाङ्ग परमिते । ग्रन्थोऽयं निर्मितः काश्यामनन्ताचार्य धीमता ॥ इस ग्रन्थ का हस्तलेख कलकत्ता की एशियाटिक सोसाइटी के संग्रह में है, जिसका लिपिकाल सं० १७२१ वि० है। अत: १६८८ शाके का अर्थ १६८८ विक्रमाब्द ही संभव है। (इ) अनन्ताचार्य के ही 'काण्वयजु भाष्य' में भी रचना-काल संबंधी श्लोक में विक्रमाम्द के लिए शक का प्रयोग हुआ है त्रिपर्वत रसैकश्च मिते विक्रमे शके । एषोधि काश्यनन्तेन प्रणीतोऽयं ग्रन्थमुत्तमः ।। यहां विक्रमाब्द के लिए 'शक' का प्रयोग स्पष्ट है। इसी प्रकार धारा के देवपाल देव के चारवा शिलालेख में भी 'शाका' शब्द का प्रयोग विक्रमान्द के लिए किया गया है। इस प्रकार के कुछ और उदाहरणों के लिए 'इंडियन एण्टिक्वेरी' खं० १९ (१८९० ई०) द्रष्टव्य है। १७. बृहत्संहिता के आठवें अध्याय के बीसवें श्लोक में वराहमिहिर ने 'शकेन्द्र काल' पद का प्रयोग किया है, जो उत्पल की टीका के अनुसार विक्रमाब्द का ही सूचक है। १८. बहत्संहिता और बृहज्जातक की टीका का नाम 'विवृत्ति' है, जो टीका-काल सूचक श्लोकों से स्पष्ट है, किंतु बृहज्जातक-टीका 'चिंतामणि' और 'जगच्चन्द्रिका' नाम से भी प्रसिद्ध है । लघुजातक-टीका का नाम 'हिता' या 'शिष्या हिता' है । उत्पल ने 'राहुचार' की टीका में और दो-तीन अन्य स्थानों में भी लिखा है --'अन्ये एवं व्याचक्षते'-- इससे ज्ञात होता है कि उनके पहले भी 'बृहत्संहिता' की कुछ टीकाएं थीं, किंतु उक्त टीकाओं में से एक भी इस समय उपलब्ध नहीं है । प्रतीत होता है उत्पल की टीका की श्रेष्ठता के आगे वे टिक न सकी । 'उत्पल परिमल' (ले० काश्यप गोत्री भास्कर) नामक उत्पल की टीका का एक संक्षिप्त संस्करण हस्तलिखित-ग्रंथ रूप में प्राप्त होता है। १९. बृहत्संहिता के ४४ वें अध्याय की टीकान्तर्गत (नीराजन विधि विषय में)। २०. कुछ हस्त लेखों के अन्त में उल्लिखित यह उल्लेख अत्यन्त भ्रामक है कि उत्पल, खण्ड २३ बंक ३ ३६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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