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________________ वराहमिहिर के पुत्र और पृथुयशा के पिता थे । पृथ यशा, वराह मिहिर का पुत्र था, उत्पल का नहीं (दे० षट्पंचाशिका, श्लोक-१) । २१. 'वक्ष्येऽहंस्पष्टतरं 'प्रश्न ज्ञानं' हिताय देव विदाम् ।'' "आर्यासप्तत्येदं 'प्रश्न ज्ञानं' समासतो रचितम् ।" २२. इतिश्री भट्टोत्पल विरचितायां ज्ञान मालायां प्रश्न ग्रन्थः समाप्तः । २३. दे० अलबेरूनी का भारत (सचाऊ) खं० १, पृ० १५७-५८, ३३४,३३६,३६१ । वराहमिहिर के 'विवाहपटल' पर भी उत्पल की टीका का उल्लेख मिलता २४. वर्ष शतानां मध्यं न केनचित् पूरिता वृता च जनः । भट्टोत्पलस्तु पूर्णां चकार सारावलीं सकलाम् ।। २५. इससे ज्ञात होता है कि वराहमिहिर के पहले भी संहिता पर ८-१० आचार्यों ने ग्रन्थ लिखे थे। २६. अनेक प्राचीन ग्रंथों की जानकारी के लिए उत्पल की टीका एक बहुत बड़ा साधन है । उत्पल की टीका में सूर्य-सिद्धान्त के जो वचन उद्धृत किये गये हैं, वे इस समय के सूर्य-सिद्धान्त में नहीं मिलते हैं। इसी प्रकार अलबेरूनी द्वारा उत्पल-टीका से उद्धत एक वक्तव्य (खं०१, प० २९८) आजकल प्रचलित टीका में प्राप्त नहीं होता । अत: लगता है, बाद के प्रतिलिपिकारों ने संहिता पर उत्पल की टीका में थोड़ा-बहुत हेरफेर किया है । २७. पं० शंकर बाल कृष्ण दीक्षत ने इन पर शंका की है। उन्होंने शक-संवत् के रूप में इनकी गणना करने की चेष्टा की (दे० भारतीय ज्योतिष, लखनऊ, १९५७, पृ० ३२७) किंतु उनके ध्यान में यह बात नहीं आयी कि उत्पल 'शक' का क्या अर्थ मानते थे। उत्पल को रचनाकाल की तिथि और दिन का शुद्ध ज्ञान नहीं था, यह बात विश्वसनीय नहीं। विक्रमाब्द संवत् के रूप में दोनों तिथियां गणनात्मक दृष्टि से सही हैं । २८. जैसे-उत्पल ने व० सं० के २५।६; २७।९-१०; २८।१७ को अनार्ष माना है। उनके अनुसार अध्याय २७; ५०; ५१ वराहमिहिर रचित नहीं हैं और अध्याय १०२ विन्ध्यवासी का है। व० सं० २८।२३-२४ पर उन्होंने टीका नहीं की है। -वेद प्रकाश गर्ग १४, खटीकान, मुजफ्फर नगर-२५१००२ (उत्तर प्रदेश) तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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