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________________ करना चाहिए। ज्ञानार्णव में कहा है कि धूर्त (मायावी), कामी, मांस भक्षी, नास्तिकमती, चार्वाकादि से व्यवहार में लाई हुई भाषा तथा संदेह उपजाने वाली व पापयुक्त भाषा बुद्धिमानों के लिए त्याज्य है तथा वचनों के दस दोष (कर्कश, पुरुष, कटु, निष्ठुर, परकोपी, छेद्याकुरा, मध्यकृशा, अतिमानिनी, भयंकरी और जीवों की हिंसा करने वाली) रहित, साधु पुरुषों को मान्य ऐसी भाषा को कहने वाले मुनि के भाषा समिति होती है। ३. एषणा समिति मूलाचार के अनुसार उद्गम आदि ४६ दोषों से रहित, भूख आदि मेटना व साधना आदि से युक्त, कृत कारित आदि नौ विकल्पों से विशुद्ध ठंडा-गरम आदि भोजन में राग-द्वेष रहित, समभाव कर भोजन करना ऐसे आचरण करने वाले के एषणा समिति है । उद्गम, उत्पाद, अशन दोषों से आहार, पुस्तक उपधि, वसतिका को शोधने वाले मुनि के शुद्ध एषणा समिति है। राजवातिक में गुण रत्नों को ढोने वाली शरीररूपी गाड़ी को समाधि नगर की ओर ले जाने की इच्छा रखने वाले साधु का जठराग्नि के दाह को शमन करने के लिए औषधि की तरह या गाड़ी में ओंगन देने की तरह अन्नादि आहार को बिना स्वाद के ग्रहण करना एषणा समिति कही है। ज्ञानार्णव में कहा है कि उद्गम दोष १६, उत्पादन दोष १६, एषणा दोष १०, धुआं अंगार प्रमाण संयोजन—ये चार मिलाकर ४६ दोष रहित तथा मांसादिक १४ मलदोष और अन्तराय शंकादि से रहित, शुद्ध, काल में पर के द्वारा दिया हुआ, बिना उद्देशा हुआ और याचना रहित आहार करने वाले मुनि के उत्तम एषणा समिति होती है । ४. आवान-निक्षेपण समिति ज्ञान के उपकरण, संयम के उपकरण, शौच के उपकरण व अन्य सांथरे आदि के निमित्त इनका यत्नपूर्वक उठाना, रखना वह आदान-निक्षेपण समिति कही है । शीघ्रता से बिना देखे, अनादर से बहुत काल से रखे उपकरणों का उठाना रखना स्वरूप दोषों का जो त्याग करता है उसके आदान-निक्षेप समिति होती है। राजवार्तिक के अनुसार धर्मविरोधी और परानुपरोधी ज्ञान और संयम के साधक उपकरणों को देखकर और शोध कर रखना और उठाना आदान-निक्षेपण समिति है ।" ज्ञानार्णव में शय्या, आसन, उपधान, शास्त्र और उपकरण आदि को पहले भली प्रकार देखकर बड़े यत्न से ग्रहण करते तथा पृथ्वी तल पर रखते हुए साधु के अविकल (पूर्ण) आदान-निक्षेपण समिति होना कहा है ।१५ ५. उत्सर्ग समिति मूलाचार में एकान्त स्थान, अचित्त स्थान, दूर, छिपा हुआ बिल तथा छेद रहित चौड़ा और जिसकी निन्दा व विरोध न करे ऐसे स्थान में मूत्र विष्ठा आदि देह के मल का क्षेपण करना प्रतिष्ठापना समिति कही गई है ।" राजवार्तिक के अनुसार जहां स्थावर या जंगम जीवों का विराधना न हो ऐसे निर्जन्तु स्थान में मल ३०६ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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