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अस्तित्व में आये । अच्छा होगा कि भाई सुदीप जी पहले मागधी और पाली तथा अर्धमागधी और महाराष्ट्री के अन्तर को एवं इनके, प्रत्येक के लक्षणों को तथा जैन आगमिक साहित्य के ग्रन्थों के कालक्रम को और जैन इतिहास को तटस्थ दृष्टि से समझ लें और फिर प्रमाणसहित अपनी कलम निर्भीक रूप से चलाये, व्यर्थ की आधारहीन भ्रान्तियां खड़ी करके समाज में कटुता के बीज न बोयें।
प्रो० सागरमल जैन निदेशक पार्श्वनाथ विद्या पीठ वाराणसी
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तुलसी प्रज्ञा
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