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________________ अंकों की आकृतियां अंक तो ९ ही है क्योंकि शून्य ० को कहीं पर भी अंक नहीं लिखा है। शून्य को ०, एक को १, दो को २, तीन को ३ किसने कब और क्यों यह आकृति दी है। ० तथा १ आकृति का यह रूप मेरी समझ में नीचे लिखे अनुसार आया है। शेष २,३,४.........."९ की आकृति मैंने स्वयं खोजने का प्रयास किया है। ___ रोटी, पुरी, लड्डू, रुपया, छल्ला, सूर्य, पृथ्वी आदि की गोल आकृति से शून्य को • आकृति देना, समझना सरल है । ० को अनन्त, आकाश का प्रतीक मान लेना भी सरल है। ० में जहां पर अथ है वहीं पर इति भी है । जो प्रारम्भिक बिन्दु है वही अन्तिम बिन्दु भी है। ० को त्रीविभीय (Three dimensional) गोलाकार (Sphere) मानकर इन तीनों अक्षों का विस्तार वेद मन्त्रों से लिए संध्या की छः दिशाओं में हैं। यदि इस त्रीविभीय गेंद को फुलावें प्रसारित करें तो अनन्त रूप में मुनि यास्क के खं ब्रह्म और ॐखं ब्रह्म समान यत्र तत्र सर्वत्र सर्वव्यापी स्थिति हो जाएगी। अतः . को अनन्त आकाश (Space) का प्रतीक सरलता से मान सकते हैं। ० से १ बनना तो मेरे लिए एक चमत्कार सा ही है । कोई ८० वर्ष पहले पाठशाला से छुट्टी के बाद हम कई बालकों ने तालाब के किनारे बैठे घास में मेंढ़क के नवजात शिशुओं को पानी में पूंछ हिला-हिला कर भागते देखा कि उनके बिन्दुवत् सिर में एक जरा सी पूंछ है। कोई और अंग दिखाई नहीं देता है । कई वर्ष बाद कॉलेज में जब सूक्ष्मदर्शी में मानव वीर्य के शुक्राणु (Sperm) को तालाब में मेंढ़क के नवजात शिशुओं के समान आकृति वाल पूंछ हिला हिला कर समान रूप से भागते देखा तो मुझे यह चमत्कार सा ही लगा। जीव विज्ञान की पुस्तक में गर्भाधान (Fertilisation) का सचित्र अध्ययन किया तो • रूपी स्त्री डिम्ब (Ovum) में मेंढ़क शिशु के समान पुरुष शुक्राणु (Sperm) को सिर के बल टक्कर मार डिम्ब में प्रवेश कर एकाकार हो ० बन जाना देखा जिसे भ्रूण (Zygote) कहते हैं । जो ऋग्वेद मन्त्र (१०-१८४-३) तथा निरुक्त सूत्र (१४-६) अनुसार मादा की बच्चेदानी को दीवार से चिपक रस लेकर नौ माह में पूर्ण शरीर पाकर दसवें मास में हम आप सब जन्म लेते हैं। यह ० से १ आकृति बनना मुझे चमत्कार सा ही लगा। शतपथ ब्राह्मण कहता है-पुरुषो वै सहस्र स्वप्रतिमा, पुरुष ही परमात्मा की प्रतिमा, कापी, प्रतिरूप है । अंग्रेजी में भी इसी का अनुवाद God created man in his own image तभी मुझे आकाश वाणी हुई–१ को वै पुरुष स्व प्रतिमा, १ ही मानव की आकृति है, कापी है, प्रतिमा है । किसी तरुण को सावधानी की मुद्रा (Attention position) में ज़रा पैर उठाए पार्श्व से देखें तो मानव अंक १ की ही सी आकृति का लगता है । मानो वह गतिशील मानव (man is action) चरैवेति चरैवेति श्रुति का पालन कर रहा है । गणित कहता है ९+२=११ तो साहित्य इसे कहता है कि वह नौ दो ग्यारह हो गए । चोर भाग गए। अंक ११ से यह भावना कितनी स्पष्ट है कि यह जोड़ी दो मानवों के भागते हुए का दृश्य है। यह सुन्दरता सुमसी प्रमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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