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करके इस खाई को चौड़ा क्यों किया जा रहा है ?
(ख) उपरोक्त आगमिक प्रमाणों की चर्चा के अलावा व्यावहारिक एवं ऐतिहासिक तथ्य भी इसी की पुष्टि करते हैं
१. यदि महावीर ने अपने उपदेश अर्धमागधी में दिये तो यह स्वाभाविक है कि गणधरों ने उसी भाषा में आगमों का प्रणयन किया होगा। अत: सिद्ध है कि आगमों की मूलभाषा क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित मागधी अर्थात् अर्धमागधी रही है, यह मानना होगा। २. इसके विपरीत शौरसेनी आगम तुल्य मान्य ग्रन्थों में किसी एक भी ग्रन्थ में
एक भी सन्दर्भ ऐसा नहीं हैं, जिससे यह प्रतिध्वनित भी होता हो कि आगमों की मूल भाषा शौरसेनी प्राकृत थी। उनमें मात्र यह उल्लेख है कि तीथंकर की जो वाणी खिरती है, वह सर्व भाषारूप परिणत होती है। उसका तात्पर्य मात्र इतना ही है कि उनकी वाणी जन साधारण को आसानी से समझ में आती थी। यह लोकवाणी थी। उसमें मगध के निकटवर्ती क्षेत्रों की क्षेत्रीय वोलियों के शब्द रूप भी होते थे और यही कारण था कि उसे मागधी न कहकर अर्धमागधी कहा गया था। ३. जो ग्रन्थ जिस क्षेत्र में रचित या सम्पादित होता है, उसका वहां की बोली से प्रभावित होना स्वाभाविक है । प्राचीन स्तर के जैन आगम यथा आचारांग, सूत्रकृतांग, इतिसभासियाई (ऋषिभाषित), उत्तराध्ययन, दशवकालिक आदि मगध और उसके समीपवर्ती क्षेत्र में रचित हैं उनमें इसी क्षेत्र के नगरों आदि की सूचनाएं हैं। मूल आगमों में एक भी ऐसी सूचना नहीं है कि महावीर ने बिहार, बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश से आगे विहार किया हो । अतः उनकी भाषा अर्धमागधी रही होगी। ४. पुनः आगमों की प्रथम वाचना पाटलीपुत्र में और दूसरी वाचना खण्डगिरी (उड़ीसा) में हुई, ये दोनों क्षेत्र मथुरा से पर्याप्त दूरी पर स्थित हैं, अतः कम से कम प्रथम और द्वितीय वाचना के समय तक अर्थात् ई. पू. दूसरी शती तक उनके शौरसेनी में रूपान्तरित होने का या उससे प्रभावित होने का प्रश्न
ही नहीं उठता है।
यह सत्य है कि उसके पश्चात् जब जैन धर्म एवं विद्या का केन्द्र पाटलीपुत्र से हटकर लगभग ई. पू. प्रथम शती में मथुरा बना तो उस पर शौरसेनी का प्रभाव आना प्रारम्भ हुआ हो । यद्यपि मथुरा से प्राप्त दूसरी शती तक के अभिलेखों का शौरसेनी के प्रभाव से मुक्त होना यही सिद्ध करता है, जैनागमों पर शौरसेनी का प्रभाव दूसरी शती के पश्चात् ही प्रारम्भ हुआ होगा। सम्भवतः फल्गुमित्र (दूसरी शती) के समय या उसके भी पश्चात् स्कंदिल (चतुर्थ शती) की माथुरी वाचना के समय उन पर शौरसेनी प्रभाव आया था, यही कारण है कि यापनीय परम्परा में मान्य आचरांग, उत्तराध्ययन, दशवकालिक, निशीथ, कल्प आदि जो आगम रहे हैं, वे शौरसेनी से प्रभावित रहे हैं । यदि डॉ० टांटिया ने यह कहा है कि आचारांग आदि श्वेताम्बर
बंर २३, बैंक ३
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