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भागमों का शौरसेनी प्रभावित संस्करण भी था, जो मथुरा क्षेत्र में विकसित यापनीय परम्परा को मान्य था, तो उनका कथन सत्य है क्योंकि भगवती आराधना की टीका में आचारांग, उत्तराध्ययन, निशीथ आदि के जो संदर्भ दिये गये हैं वे सभी शौरसेनी से प्रभावित हैं । किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि आगमों की रचना शौरसेनी में हुई थी और वे बाद में अर्धमागधी में रूपान्तरित किये गये । ज्ञातव्य है कि यह माथुरी वाचना स्कंदिल के समय महावीर निर्वाण के लगभग आठ सौ वर्ष पश्चात् हुई थी और उसमें जिन आगमों की वाचना हुई, वे सभी उसके पूर्व अस्तित्व में थे। यापनियों ने आगमों के इसी शौरसेनी प्रभावित संस्करण को मान्य किया था, किन्तु दिगम्बरों के लिये तो, वे आगम भी मान्य नहीं थे, क्योंकि उनके अनुसार तो इस माथुरी वाचना के लगभग दो सौ वर्ष पूर्व ही आगम साहित्य तो विलुप्त हो चुका था। श्वेताम्बरपरम्परा में मान्य आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, कल्प, व्यवहार, निशीथ आदि तो ई. पू. चौथी शती से दूसरी शती तक की रचनाएं हैं, जिसे पाश्चात्य विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। ज्ञातव्य है कि मथुरा का जैन विद्या के केन्द्र के रूप में विकास ई. पू. प्रथम शती से ही हुआ है और उसके पश्चात् ही इन आगमों पर शौरसेनी प्रभाव आया होगा। आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन : कब और कैसे ?
यहां यह भी ज्ञातव्य है कि स्कंदिल की इस माथुरी वाचना के समय ही समानान्तर रूप से एक वाचना वलभी (गुजरात) में नागार्जुन की अध्यक्षता में हुई थी
और इसी काल में उस पर महाराष्ट्री प्रभाव भी आया। क्योंकि उस क्षेत्र की प्राकृत महाराष्ट्री प्राकृत थी। इसी महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित आगम आज तक श्वेताम्बर परम्परा में मान्य हैं । अतः इस तथ्य को भी स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि आगमों के महाराष्ट्री प्रभावित और शौरसेनी प्रभावित संस्करण जो लगभग ईसा की चतुर्थ-पंचम शती में अस्तित्व में आये, उनका मूल आधार अर्धमागधी आगम ही थे। यहां भी ज्ञातव्य है कि न तो स्कंदिल की माथुरी वाचना में और न नागार्जुन की वलभी वाचना में आगमों की भाषा में सोच-समझ पूर्वक कोई परिवर्तन किया गया था । वास्तविकता यह है कि उस युग तक आगम कण्ठस्थ चले आ रहे थे और कोई भी कण्ठस्थ ग्रन्थ स्वाभाविक रूप से कण्ठस्थ करने वाले व्यक्ति की क्षेत्रीय बोली से अर्थात उच्चारण शैली से अप्रभावित नहीं रह सकता है, यही कारण था कि जो उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ मथुरा में एकत्रित हुआ उसके आगम पाठ उस क्षेत्र की बोली शौरसेनी से प्रभावित हुए और जो पश्चिमी भारत का निर्ग्रन्थ संघ वलभी में एकत्रित हुआ, उसके आगम पाठ इस क्षेत्र की बोली महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित हुए। पुनः यह भी स्मरण रखना चाहिए कि इन दोनों वाचनाओं में सम्पादित आगमों का मूल आधार तो अर्धमागधी आगम ही थे, यही कारण है कि शौरसेनी आगम न तो शुद्ध शौरसेनी में है और न वलभी वाचना के आगम शुद्ध महाराष्ट्री में है, उन दोनों में अर्धमागधी के शब्द रूप तो उपलब्ध होते ही हैं। शौरसेनी आगमों में तो अर्धमागधी
तुलसी प्रमा
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