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________________ जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? सागरमल जैन वर्तमान में 'प्राकृत विद्या' नामक शोध पत्रिका के माध्यम से जैन विद्या के विद्वानों का एक वर्ग आग्रह पूर्वक यह प्रतिपादन कर रहा है कि "जैन आगमों की मूल भाषा शौरसेनी प्राकृत थी, जिसे कालान्तर में परिवर्तित करके अर्धमागधी बना दी गई। इस वर्ग का यह भी दावा है कि शौरसेनी प्राकृत ही प्राचीनतम प्राकृत है, और अन्य सभी प्राकृतें यथा-मागधी, पैशाची, महाराष्ट्री आदि इसी से विकसित हुई हैं, अतः वे सभी शौरसेनी प्राकृत से परवर्ती भी हैं। इसी क्रम में दिगम्बर-परम्परा में आगमों के रूप में मान्य आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में निहित अर्धमागधी और महाराष्ट्री शब्ब रूपों को परिवर्तित कर उन्हें शौरसेनी में रूपान्तरित करने का एक सुनियोजित प्रयत्न भी किया जा रहा है। इस समस्त प्रचार-प्रसार के पीछे मूलभूत उद्देश्य यह है कि श्वेताम्बर मान्य आगमों को दिगम्बर-परम्परा में मान्य आगम तुल्य ग्रन्थों से अर्वाचीन और अपने शौरसेनी में निबद्ध आगमतुल्य ग्रन्थों को प्राचीन सिद्ध किया जाये। इस पारस्परिक विवाद का एक परिणाम यह भी हो रहा है कि श्वेताम्बर-दिगम्बर परम्परा के बीच कटुता की खाई गहरी होती जा रही है और इन सबमें एक निष्पक्ष भाषाशास्त्रीय अध्ययन को पीछे छोड दिया जा रहा है। प्रस्तुत निबन्ध में मैं इन सभी प्रश्नों पर श्वेताम्बर एवं दिगम्बर-परम्परा में आगम रूप में मान्य ग्रन्थों के आलोक में चर्चा करने का प्रयत्न करूंगा। क्या आगम साहित्य मूलतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध था? - यहां सर्वप्रथम मैं इस प्रश्न की चर्चा करना चाहूंगा कि क्या जैन आगम साहित्य मूलतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध था और उसे बाद में परिवर्तित करके अर्धमागधी रूप दिया गया ? कुछ जैन विद्या के विद्वानों की यह मान्यता है कि जैन आगम साहित्य मूलतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध हुआ था और उसे बाद में अर्धमागधी में रूपान्तरित किया गया। अपने इस कथन के पक्ष में वे श्वेताम्बर, दिगम्बर किन्हीं भी आगमों का प्रमाण न देकर प्रो० टॉटिया के व्याख्यान के कुछ अंश उद्धृत करते हैं। डॉ० सुदीप जन ने प्राकृतविद्या जनवरी-मार्च ९६ के सम्पादकीय में उनके कथन को निम्न रूप में प्रस्तुत किया है : "हाल ही में श्री लालबहादुरशास्त्री संस्कृत विद्यापीठ में सम्पन्न द्वितीय आचार्य कुन्दकुन्द स्मृति व्याख्यानमाला में विश्वविश्रुत भाषाशास्त्री एवं दार्शनिक विचारक प्रो० नथमलजी टॉटिया ने स्पष्ट रूप से घोषित किया कि "श्रमण-साहित्य का प्राचीनतुलसी प्रज्ञा, लारन : खंड २३ अंक ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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