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संपादकीय
'अहिंसा' बनाम मानव-प्रशिक्षण
पुढवि न खणे न खणावए सीओदगं न पिए न पियावए ।
अगणिसत्थं जहा सुनिसियं तं न जले न जलावए जे से भिक्खू ।। अर्थात् पृथ्वी का खनन करना और कराना हिंसा है। शीतोदक पीना और पिलाना हिंसा है । शस्त्र के समान सुतीक्ष्ण अग्नि को जलाना और जलवाना हिंसा है। जो इस हिंसा से उपरत रहता है, वह भिक्षु है।
भगवान् महावीर की इस वाणी से बोध-पाठ लें तो मानव-जीवन में 'अहिंसा' का प्रभाव हो सकता है । गणाधिपति गुरुदेव तुलसी ने इसके लिए 'अहिंसा-प्रशिक्षण' की बात कही थी। उनका कहना था-"मैं जहां तक समझ पाया हूं, अहिंसा का प्रशिक्षण कठिन है फिर भी इतना कठिन नहीं कि उसे कोई पा नहीं सकता। मूल बात है आस्था की । पहले इस आस्था का निर्माण होना जरूरी है कि अहिंसा एक शक्ति है । अभ्यास से उस शक्ति को पाया जा सकता है, बढ़ाया जा सकता है और उसका उपयोग किया जा सकता है।'
इस प्रशिक्षण की कठिनाइयों को बताते हुए गुरुदेव ने स्पष्ट किया कि - 'अहिंसा के प्रशिक्षण से हिंसा समाप्त हो जाएगी, यह चिन्तन अति कल्पना से प्रसूत है। हिंसा समाप्त होने का अर्थ है संसार की समाप्ति । जब तक संसार है, मनुष्य में काम, क्रोध आदि निषेधात्मक भाव रहेंगे । जब तक निषेधात्मक भाव हैं, हिंसा की सत्ता को निःशेष नहीं किया जा सकता। हिंसा को मिटाया नहीं जा सकता, पर उसकी उग्रता को कम किया जा सकता है । अहिंसा के प्रशिक्षण को सबसे बड़ी सार्थकता यही है कि हिंसा के जो नए-नए चेहरे मानवीय गुणों को लीलने के लिए कटिबद्ध हो रहे हैं, उन्हें निष्क्रिय बनाने का प्रयत्न चलता रहे।'
२. प्रश्न किन्तु यह है कि मानव तो विश्व की सर्वश्रेष्ठ रचना है । वैदिकवाङ्मय में एक स्वर से कहा गया है-पुरुषो वै प्रजापतेर्नेदिष्ठम् । -योऽहं सोऽसौ, योऽसौ सोऽहम् । पुराण-पुरुष भगवान् व्यास ने भी कहा है-'गुह्य ब्रह्म! तदिदं ब्रवीमि-न हि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किञ्चित् ।' बंर २३, अंक ३
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