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देने वाली अगूरीदेवी (छह माह की सजा भोगने वाली) जैन वाला आश्रम, आरा की स्थापना करनेवाली ब्रह्मचारिणी पण्डिता चन्दाबाई, भारत छोड़ो आंदोलन (सन् १९४२) में ८ माह १८ दिन जेल काटनेवाली श्रीमती नन्हीबाई, सन् १९३३ के नागपुर झंडा आंदोलन में दो वर्ष जेल यातना सहन करने वाली श्रीमती माणिक गौरी और विधायिका रही श्रीमती विद्यावती देवड़िया जिनके नागपुर सेन्ट्रल जेल में ६ माह और जबलपुर जेल में एक वर्ष का कारागारवास भोगने आदि का विवरण बहुत रोमांचकारी है।
पुस्तक के अन्त में लेखिका ने ५० संदर्भ ग्रंथों के नाम आदि का सम्पूर्ण विवरण दिया है जिनके आधार पर यह इति वृत्त लिखा गया है ।
पुस्तक संग्रहणीय है और महिला संगठनों में वितरण-योग्य है।
३. सर्वोवयी जैन तंत्र-लेखक : डॉ. नन्दलाल जैन, प्रकाशक : पोतदार धार्मिक एवं पारमार्थिक न्यास, पोतदार निवास, टीकमगढ़ (मध्य प्रदेश) मूल्य-२५/रुपये ।
प्रस्तुत कृति सन् १९९३ में प्रकाशित 'जैन सिस्टम इन नटशैल' का हिन्दी अनुवाद है जो 'निज ज्ञान सागर शिक्षा कोष, सतना, के प्रोत्साहन पर मूलत: अंग्रेजी में लिखी गई थी।
'जैन सिस्टम इन नटशल' को देश-विदेश में समादर मिला और अमेरिका के प्रो. डेविड एम. बुकमैन, प्रो. नोएल. एच. किंग और प्रो. काम्बल क्राफोर्ड तथा ब्रिटेन के प्रो. के. ही. मरडिया जैसे विद्वानों ने उसे अत्यन्त उपयोगी माना । मुनिवर्य नंदिघोषविजय एवं एलाचार्य ने श्री नेमीसागरजी ने इस कृति को अपना मंगल आशीर्वाद दिया।
इसीलिए पोतदार धार्मिक एवं पारमार्थिक ट्रस्ट ने रत्नत्रय धर्म की व्याख्या करने वाले ग्रन्थ ,रत्नकरण्डक श्रावकाचार' के प्रकाशन बाद इस सर्वोदयी जैन तन्त्र को प्रकाशित करने का निर्णय लिया और यह लघु परन्तु अतीत महत्त्वपूर्ण कृति पाठकों को उपलब्ध हुई है।
जैन सिद्धांत क्या हैं ? सुख-दुःख क्यों हैं ? जैन सिद्धांत की दृष्टि अर्थात् १४ गुण, ८ कर्म, ७ तत्त्व, ४ कषाय और ३ रत्न आदि पर इस लघु कृति में संक्षिप्त पर सटीक विवरण है । कुछ एक जैन मान्यताओं को तो गणितीय रूप दे दिया गया
इस प्रकार सर्वोदयी जैन तन्त्र में जैन जगत् के सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक जीवन का निष्पक्ष विहगावलोकन हो गया है । वस्तुत: लेखक ने धर्म शब्द की जगह तन्त्रशब्द का प्रयोग करके अपनी नीर क्षीर विवेकिनी दृष्टि को उजागर किया है और जैनेतर लोगों को आकर्षित करने को अनायास ही सफल प्रयोग कर दिया है।
आशा है कति लोक प्रिय होगी और इसके अनेकों संस्कारण होंगे।
तुलसी प्रमा
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