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________________ बौद्ध, जैन और वैदिक परम्परा में शील की अवधारणा ब विनोदकुमार पाण्डेय __जीवन दुःखमय है इसलिए चेतनशील मनुष्य को सदैव सुख के निमित्त प्रयास करना चाहिए । लौकिक जीवन में अत्यान्तिक और एकान्तिक सुख संभव नहीं है । इसलिए आध्यात्मिक जीवन सुखमय हो इसके लिए शील का आचरण आवश्यक है। "शील" शब्द "शील उपधारणे" धातु से "अच्" प्रत्यय करने पर बना है जिसका अर्थ है स्वाभाव या प्रकृति । इस अर्थ में शील का प्रयोग विशेषण के रूप में होता है । यथा-दयाशील, पुण्यशील, विनयशील, दानशील इत्यादि । अमरकोश में शुद्ध आचरण को शील कहा गया है। संस्कृत-हिन्दी, हिन्दी-संस्कृत', प्राकृत हिन्दी, रत्नकोश इत्यादि विभिन्न कोशों में शील के लिए उत्तम स्वभाव, आचरण, करनी, चारित्र, जीवन, सदाचार, विनयपूर्वक शिष्ट-शुद्ध वृत्ति, रुचि, आदत, प्रथा इत्यादि पर्यायवाची शब्द लिखे हैं । आचार्य भर्तृहरि ने सद्गुण, नैतिकता, सदाचरण, सज्जीवन, शुचिता, ईमानदारी आदि अर्थों में शील का प्रयोग किया है। महाकवि कालिदास के कुमार सम्भव में शील और सौंदर्य दोनों को सहचर कहा गया है । ब्रह्म सूत्र पर शांकर भाष्य में भी चरण, चारित्र और आचार को शील का पर्याय कहा गया है। इस तरह स्पष्ट हो जाता है कि निर्दोष, स्वच्छ, निष्पाप, निष्कलंक, पवित्र तथा उज्ज्वल आचरण, व्यवहार, कर्म और चारित्र भी शील है। नैतिकता इसका मूल है और जीवन की उन्नतता को प्राप्त करना ही इसका प्रयोजन है। शील के पालनकर्ता को शीलवान कहा जाता है । भारतीय वाङ्मय में शील की अवधारणा क्या है ? उसका स्वरूप क्या है ? तथा इसकी महिमा का गायन किस रूप में हुआ है ? एतद्विषयक ज्ञान के लिए सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है । अर्थात्-बौद्ध, जैन और वैदिक परम्परा। बौद्ध दर्शन में शील ___ सर्वप्रथम बौद्ध दर्शन में शील का विवेचन करें क्योंकि बौद्ध दर्शन में शील शब्द का सम्यक् विवेचन है। बुद्ध-धर्म के तीन महनीय तत्व हैं-शील, समाधि और प्रज्ञा । शील का तात्पर्य सात्विक शुद्धि से है जिसमें मन, वचन और काय की शुद्धि होती है जबकि समाधि शुद्ध सात्विक चित्त में एकाग्रता का प्रयास है । जब चित्त शुद्ध और एकाग्र हो जाता है तब उसमें प्रज्ञा उत्पन्न होती है, जो परिनिर्वाण का हेतु है। संसार चक्र के मूल में तुलसी प्रज्ञा, साउन : खण्ड २३ अंक ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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