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________________ उपनिषदों में जैनधर्म सुभाष चन्द सचदेवा ऋषिमेधा से संभूत आक्षरिक ज्ञान-सिन्धु का अन्वर्थक अभिधान है-उपनिषद् एवञ्च सम्यग्दर्शनसम्पन्न अनन्तज्योति-पुंज जिनेश्वरों [तीर्थंकरों] की आप्त-प्रज्ञा की शाब्दिक परिणति है-जैन धर्म । वैदिक काल से ही ये भारतीय संस्कृति की दो परम्परायें विद्यमान थीं। एक यज्ञ-याग संस्कृति को मानती थी और दूसरी कर्मवाद को । जो कर्म को प्रधान मानती थी वह 'समण' या 'श्रमण' कही गई और जो प्राकृतिक शक्तियों को प्रधान मानकर, यज्ञ-याग के रूप में उनकी पूजा करती थी, वही आगे चलकर ब्राह्मण [वैदिक संस्कृति के नाम से विख्यात हुई ।' श्रमण संस्कृति को नामान्तर द्रविड़, व्रात्य, अर्हत् संस्कृति हैं, जो जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित हुई। उपनिषद ब्राह्मण [वैदिक संस्कृति के प्रतिनिधि ग्रंथ हैं', अतः वेद के स्वतः प्रामाण्य में आस्था रखने वाले सभी भारतीय दर्शन उपनिषदों को वेद-प्रामाण्य के अन्तर्गत स्वीकार करते हैं । यद्यपि जैन दर्शन की वेद-प्रामाण्य में आस्था नहीं है, तथापि जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की स्पष्ट छाप उपनिषदों में दृष्टिगोचर होती है । ई० पू० का काल न केवल भारतीय दर्शन के इतिहास में अपितु विश्व के दार्शनिक इतिहास में स्वणिम युग कहा जा सकता है । ईसा पूर्व में जहां चीन में लाओत्जे और कन्फ्यूशियस; ईरान में जरथुम्न और ज्यूडिया में महान नबी की विचार धाराओं का सैद्धान्तिक पल्लवन हुआ; तो भारत वर्ष में उपनिषदों के ऋषि, तीर्थंकर महावीर एवं गौतमबुद्ध की चिन्तनधाराओं का दार्शनिक विश्लेषण हुआ।' इन धाराओं में तत्कालीन विचारकों को जो अधिक रुचिकर एवं अनुभव सिद्ध प्रतीत हुई उन्होंने उन्हीं को लेकर अपने सिद्धान्तों का स्वतंत्र विकास किया। इसी कारण जैन, बौद्ध एवं अन्य दर्शन-सम्प्रदायों का जन्म हुआ। वैचारिक दृष्टि से पर्याप्त मतभेद होने पर भी इन इन दार्शनिक-सम्प्रदायों [जैन एवं बौद्ध धर्म आदि] का औपनिषद् दार्शनिक चिन्तन से घनिष्ट सम्बन्ध बना रहा। यह तो सर्वमान्य एवं अनुभवसिद्ध तथ्य है कि चिन्तन की प्रत्येक विशिष्ट धारा अपनी युगीन विचारधारा से अवश्य प्रभावित होती है । इस चिरन्तन सत्य का साक्षात्कार उपनिषदों के उन अनेक स्थलों में होता है जहां जैन धर्म की मान्यताओं का न केवल उल्लेख ही हुआ है; अपितु इन मान्यताओं के प्रति प्रकारान्तर से आस्था का स्वर भी मुखरित हुआ है। तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं : खण्ड २३ अंक ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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