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________________ ३३२ जब पूर्व का भिक्षु पश्चिमी प्रदेशों में अधिक विहार करता है, तो उसकी भाषा में पूर्व एवं पश्चिम दोनों की ही बोलियों का प्रभाव आ जाता है । फलतः उनके द्वारा कण्ठस्थ आगम के भाषिक स्वरूप की एकरूपता समाप्त हो गई । ४. सामान्यतया बुद्ध के वचन बुद्ध के निर्वाण के २००-३०० वर्ष के अन्दर ही अन्दर लिखित रूप में आ गए। अतः उनके भाषिक स्वरूप में उनके रचनाकाल के बाद बहुत अधिक परिवर्तन नहीं आया, तथापि उनकी उच्चारण शैली विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न रही है। आज भी लंका, बर्मा, थाईलेण्ड आदि देशों के भिक्षुओं का त्रिपिटक का उच्चारण भिन्न-भिन्न होता है, फिर भी उनके लिखित स्वरूप में बहुत कुछ एकरूपता है। इसके विपरीत जैन आगमिक एवं आगमतुल्य साहित्य एक सुदीर्घकाल तक लिखित रूप में नहीं आ सका वह गुरुशिष्य परम्परा से मौखिक ही चलता रहा फलतः देशकाल - गत उच्चारण भेद से उनको लिपिबद्ध करते समय उनके भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन होता गया । मात्र यही नहीं, लिखित प्रतिलिपियों के पाठ भी प्रतिलिपिकारों की असावधानी या क्षेत्रीय बोली से प्रभावित हुए। श्वे ० आगमों की प्रतिलिपियां मुख्यतः गुजरात एवं राजस्थान में हुई, अत: उन पर महाराष्ट्री का प्रभाव आ गया। ५. भारत में कागज का प्रचलन न होने से भोजपत्रों या ताडपत्रों पर ग्रन्थों को लिखवाना और उन्हें सुरक्षित रखना जैन मुनियों की अहिंसा एवं अपरिग्रह की भावना के प्रतिकूल था । लगभग ई. सन् की ५ वीं शती तक इस कार्य को पाप - प्रवृत्ति माना जाता था तथा इसके लिये दण्ड की व्यवस्था भी थी । फलतः महावीर के पश्चात् लगभग १००० वर्ष तक जैन साहित्य श्रुत परम्परा पर ही आधारित रहा । श्रुत परम्परा पर आधारित होने से आगमों के भाषिक स्वरूप में वैविध्य आ गया । ६. आगमिक एवं आगम-तुल्य साहित्य में आज भाषिक रूपों का जो वैविध्य देखा जाता है, उसका एक कारण लहियों (प्रतिलिपिकारों) की असावधानी भी रही है । प्रतिलिपिकार जिस क्षेत्र का होता था, उस पर भी उस क्षेत्र की बोली / भाषा का प्रभाव रहता था और असावधानी से वह अपनी प्रादेशिक बोलो के शब्द रूपों को लिख देता था । उदाहरण के रूप में चाहे मूलपाठ में " गच्छति" लिखा हो लेकिन यदि उस क्षेत्र में प्रचलन में "गच्छइ" का व्यवहार है, तो प्रतिलिपिकार "गच्छइ" रूप ही लिख देगा । ७. जैन आगम एवं आगम तुल्य ग्रन्थों में आये भाषिक परिवर्तनों का एक कारण यह भी है कि वे विभिन्न कालों एवं प्रदेशों में सम्पादित होते रहे हैं । सम्पादकों ने उनके प्राचीन स्वरूप को स्थिर रखने का प्रयत्न नहीं किया, अपितु उन्हें सम्पादित करते समय अपने युग एवं क्षेत्र की प्रचलित भाषा और व्याकरण के आधार पर उनमें परिवर्तन भी कर दिया । यही कारण है कि अर्धमागधी में लिखित आगम भी जब मथुरा में संकलित एवं सम्पादित तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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