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________________ मैथुन और परिग्रह चार संज्ञाएं सोलह कषाय-(३४३४३४५४२४ ४४१६=१७२८०)-१७२८० भेद । [ख] अचेतन स्त्री संसर्ग से शील के भेद-काष्ठ, पाषाण और चित्र रचित तीन स्त्रियां दो योग (मन, काय)x तीन करणx पांच इन्द्रियांx द्रव्य, भावx क्रोध, लोभ, मान, माया चार-(३४२४३४५४२४४=७२०) ७२० भेद । इस प्रकार कुल मिलाकर १८००० संसर्ग हुए और इनका त्याग १८००० शील के भेद हुये। वैविक परम्परा में शील वैदिक वाङ्मय में शील के स्थान पर सदाचार', शिष्टाचार", चारित्र", समयाचारिक, निष्काम कर्म", और योग" इत्यादि शब्दों का प्रयोग है। अर्थात् उक्त अर्थों में भी शील का प्रयोग यहां उपलब्ध होता है, परन्तु यहां शील विवेच्च हैमनुस्मृति में शील, सदाचार और आत्मतुष्टि को धर्म का मूल कहा गया है । आचार्य गोविन्दराज ने शील का अर्थ करते हुए कहा है कि -- "शीलं रागद्वेष परित्याग इत्याह । हारित स्मृति के अनुसार शील बह गुण-समूह है जिसमें तेरह गुण सन्निहित है-ब्रह्मण्यता, देवपितृभक्तिता, मृदुता, अपारूण्य, मंत्रता, प्रियवादिता, कृतज्ञता, शरण्यता, कारूण्य और प्रसन्नता ।२° वाल्मीकीय रामायण में शील से युक्त स्त्रियों को साध्वी और शील हीन स्त्रियों को कुलटा और दुष्टा कहा गया है। महाभारत के शान्ति पर्व में२९ शील का विस्तृत विवेचन मिलता है-मन, वचन और काय से किसी पर द्रोह नहीं करना प्रत्युत् अनुग्रह करना और दान देना ही शील है। शील वह आधार तत्व है जिस पर सत्य, धर्म, सदाचार और बल आश्रित है।" मनुष्य का चरित्र अथवा आचरण शील से ही उन्नत होता है इसलिए जीवन में उन्नति चाहने वाले को शील का पालन करना चाहिए।" शीलवान पुरुष सौ वर्षों तक जीवित रहता है। नीतिशतक में भी शील की महिमा का गायन हुआ है "शीलं परं भूषणं उपसंहार ___ इस प्रकार शील के स्वरूप एवं महिमा का तुलनात्मक अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि तीनों ही परम्पराएं भले ही शील के बाह्य स्वरूप के सम्बन्ध में भिन्न-मत रखती हैं । परन्तु इसके आन्तरिक स्वरूप के सम्बन्ध में एकमत हैं। तात्पर्य यह है कि आचार, चरित्र, योग, निप्काम-कर्म और एक ही लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपनाया गया मार्ग शील है। तीनों ही परम्पराओं में मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य माना गया है तथा इसके हेतु के रूप में शील वा वर्णन हुआ है। संत कबीर ने कहा भी है "सीलवन्त सबसे बड़े सर्व रत्न की खान तीनों लोक की सम्पदा रही शील में आन ।" तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524593
Book TitleTulsi Prajna 1997 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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