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जर्नल लगातार प्रकाशित हो रहा है। भाई अजयकुमार जैन के सद् उद्योग से जैन जगत् का यह प्राचीन जर्नल निरन्तर अतीत महत्त्वपूर्ण सामग्री को प्रकाश में लाने का संवाहक बना है।
प्रस्तुत अंक में जैन संस्कृति के विकास में नारी की भूमिका, जैन दर्शन के तीन अकार : अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह; Reference to Buddhist Philosophical Problems in Jain Anga Agamas; The Jain concept of Liberation as depicted is the Uttaradhyayana sutra आदि लेख और जर्नल में छपे लेखों की (भाग ३७ से ४५ तक) सम्पूर्ण सूची तथा मां श्री ब्रह्मचारिणी पं. चन्दाबाई एवं महापंडित राहुल सांकृत्यायन सम्बन्धी परिचयात्मक जानकारी पठनीय
७. शोधादशं (३३) सम्पादक-डॉ. शशिकांत एवं रमाकांत जैन, प्रकाशक-- श्री तीर्थंकर महावीर स्मृति केन्द्र समिति, उत्तर प्रदेश, लखनऊ-४, मूल्य-१५/रुपये।
____डॉ. शशिकांतजी राज्यसेवा से सेवानिवृत होने के बाद शोधादर्श के सम्पादनप्रकाशन में दत्तचित्त हैं और उन्होंने शोधादर्श के पिछले अंकों में जैन जगत् से जुड़े अनेकों संवेदनशील प्रश्नों को उठाने के अलावा शास्त्रीय चिन्तन और मनन के अनेकों सारगभित लेख प्रकाशित किए हैं । यह बहुत श्रेयस्कर पक्ष है कि इन वर्षों में अनेकों विद्वान् शोधादर्श से जुड़े हैं।
प्रस्तुत अंक में भी जैन समाज को अल्पसंख्यक की मान्यता, आवश्यकों की प्राचीन परम्परा, राजा चन्द्रगुप्त और आचार्य भद्रबाहु और भारतीय इतिहास के पुननिर्माण में जैन सामग्री के उपयोग की आवश्यकता जैसे विचारोत्तेजक लेख हैं। वृद्धों की समस्या, नास्तिक क्यों ? और जिज्ञासा जैसे शीर्षक भी शोधादर्श की जीवंतता को प्रदर्शित करते हैं।
पन्द्रह रुपये के स्वल्प व्यय में शोधादर्श अच्छी सामग्री प्रदान करता है। इसलिए प्रत्येक जैन पाठक को इसे आवश्यक क्रय करना चाहिए ।
-परमेश्वर सोलंकी
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तुलसी प्रमा
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