________________
का ल भी हो जाता है। इसलिए यह अर्धमागधी है। किन्तु अर्धमागधी में अकारान्त पुल्लिग में प्रथमा विभक्ति में ए एवं ओ दोनों दिखलाई पड़ते हैं। जिनदास महत्तर के अनुसार अर्धमागधी में मागधी शब्दों के साथ-साथ देश्य शब्दों की भी प्रचुरता है । इसलिए यह अर्धमागधी कहलाती है। भगवान महावीर के शिष्य मगध, मिथिला, कौशल आदि अनेक प्रदेश, वर्ग एवं जाति के थे। इसलिए जैन साहित्य की प्राचीन प्राकृत में देश्य शब्दों की बहुलता है। अतः 'मागधी एवं देश्य शब्दों का मिश्रण अर्धमागधी कहलाता है'-- यह निशीथ चूणि का मत संभवत: सबसे प्राचीन है।
तत्त्वार्थ की वृत्ति के अनुसार अर्धमागधी भाषा वह होती है जिसमें आधे शब्द मगध देश की भाषा के हों और आधे शब्द भारत की अन्य सभी भाषाओं के
इसलिए समवायांग में अगले तेवीसवें अतिशय की व्याख्या में कहा गया है कि भगवान् की भाषा सभी के लिए सुबोध्य हो जाती है।
समवायांग के वृत्तिकार ने प्राकृत आदि छह भाषाओं-प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका और अपभ्रंश में मागधी को गिनाया है और यह कहा है कि 'असमाश्रितसमग्रलक्षणा' मागधी ही अर्धमागधी है। इसके लक्षण का निरूपण करते हुए उन्होंने 'रसोर्लशो मागध्याम्' का उल्लेख किया है अर्थात् मागधी में र का ल और स का श हो जाता है।
डॉ० पिशेल के अनुसार आर्ष और मागधी भाषा एक ही है। किन्तु, निशीथचूर्णिकार के अनुसार अर्धमागधी में केवल मागधी की ही नहीं किन्तु अठारह देशी भाषागत विशेषताएं उपलब्ध हैं। जैन वाङ्मय में अनेक स्थानों पर देशी भाषा सम्बन्धी उल्लेख प्राप्त होते हैं। उदाहरणार्थ नायाधम्म कहाओ में सम्राट् श्रेणिक के पुत्र मेघकुमार के वर्णन के प्रसंग में कहा गया है--तब वह कुमार"....'अठारह प्रकार की देशी भाषाओं में प्रवीण हुआ। राजप्रश्नीय" और औपपातिक" में प्रसंग है-वह दृढप्रतिज्ञ बालक.... ..अठारह प्रकार की देशी भाषाओं में विशारद था। विपाकसूत्र१२ में आया है ....."वाणिज्यनाम में कामोद्धता नामक वेश्या थी, जो...... अठारह देशी भाषाओं में कुशल थी। पर वे अठारह देशी भाषाएं कौन सी थीं ? नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि ने प्रस्तुत पाठ पर विवेचन करते हुए अष्टादश लिपियों का उल्लेख किया है, पर अठारह देशी भाषाओं का नहीं । जिनदासगणि महत्तर ने निशीथचूणि में मगध, मालवा, महाराष्ट्र, लाट, कर्नाटक, द्रविड़, गौड और विदर्भ इन आठ देशों की भाषाओं को देशी कहा है । बृहत्कल्पभाष्य" में आचार्य संघदासगणी ने भी इन्हीं भाषाओं का उल्लेख किया है। कुवलयमाला" में उद्योतनसूरि ने गोल्ल, मध्यप्रदेश, मगध, अन्तर्वेदि, कीर, ढक्क, सिन्धु, मरू, गुर्जर, लाट, मालवा, कर्नाटक, ताइय (ताणिक), कोशल, मरहट्ट और आन्ध्र इन सोलह भाषाओं का उल्लेख किया है। साथ ही सोलह गाथाओं में उन भाषाओं के उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं। डॉ० ए० मास्टर५ का सुझाव है कि इन सोलह भाषाओं में ओड्र और द्राविड़ भाषाएं मिला देने से जो अठारह भाषाएं देशी हैं, वे हो जाती हैं । इसलिए जिसे उत्तरवर्ती व्याकरणों ने आर्ष
तुलसी प्रज्ञा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org