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ISSN 0972-1002
श्रमण ŚRAMANA
A Quarterly Research Journal of Jainology
Vol. LXVI
No. II
April-June 2015
भक्तामरप्रणतमौलिमणिप्रभाणामुद्द्योतकं दलितपापतमोवितानम् । सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगं युगादावालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ।।
भक्तामरस्तोत्र-1
Parshwanath Vidyapeeth, Varanasi
Established : 1937
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श्रमण ŚRAMANA
(Since 1949) A Quarterly Research Journal of Jainology Vol. LXVI No. II April-June, 2015
Editor Dr. Shriprakash Pandey
Associate Editors Dr. Rahul Kumar Singh Dr. Om Prakash Singh
वाराणसी
मग
Parshwanath Vidyapeeth, Varanasi
(Established: 1937) (Recognized by Banaras Hindu University
as an External Research Centre)
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ADVISORY BOARD
Dr. Shugan C. Jain New Delhi Prof. Cromwell Crawford Univ. of Hawaii Prof. Anne Vallely Univ. of Ottawa, Canada Prof. Peter Flugel SOAS, London Prof. Christopher Key Chapple Univ. of Loyola, USA
Prof. Ramjee Singh Bheekhampur, Bhagalpur
Prof. Sagarmal Jain Prachya Vidyapeeth, Shajapur
Prof. K.C. Sogani Chittaranjan Marg, Jaipur Prof. D.N. Bhargava
Bani Park, Jaipur Prof. Prakash C. Jain
JNU, Delhi
EDITORIAL BOARD Prof. M.N.P. Tiwari
Prof. Gary L. Francione B.H.U., Varanasi
New York, USA Prof. K. K. Jain
Prof. Viney Jain, Gurgaon B.H.U., Varanasi
Dr. S. N. Pandey Dr. A.P. Singh, Ballia
PV, Varanasi ISSN: 0972-1002
SUBSCRIPTION Annual Membership
Life Membership For Institutions : Rs. 500.00, $ 50 For Institutions : Rs. 5000.00, $ 250
For Individuals : Rs. 150.00, $ 30 For Individuals : Rs. 2000.00, $ 150
Per Issue Price : Rs. 50.00, $ 10
Membership fee & articles.can be sent in favour of Parshwanath Vidyapeeth, I.T.I. Road, Karaundi, Varanasi-5
PUBLISHED BY Shri Indrabhooti Barar, for Parshwanath Vidyapeeth, I.T.I. Road, Karaundi, Varanasi 221005, Ph. 0542-2575890
Email: pvpvaranasi@gmail.com Theme of the Cover:Bhaktāmara-stotra verse-1 based picture, Yantraand Mantra. With curtesy : Sacitra Bhktāmara-stotra by Sushil Suri NOTE: The facts and views expressed in the Journal are those of authors only. (fach # Stahlfgra 77ezt sit faar nga ato 3747 )
Printed by- Mahaveer Press, Bhelupur, Varanasi
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सम्पादकीय 'श्रमण' के प्रस्तुत अंक में हम जैन आगम और साहित्य पर हिन्दी के चार तथा अंग्रेजी के दो आलेख प्रकाशित कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्माननीय पाठकों के लिये जैन कथा साहित्य में विशिष्ट स्थान रखनेवाली, काव्यगुणों से सम्पन्न प्राकृत भाषा में निबद्ध 'कहायणकोस' के कर्ता जिनेश्वरसूरि के शिष्य साधु धनेश्वरसूरि द्वारा विरचित 'सुरसुंदरीचरिअं' के दशम् परिच्छेद को मूल, उसकी संस्कृत च्छाया, गुजराती तथा हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित कर रहे हैं। प्राकृत में निबद्ध मूलत: इस प्रेमाख्यान में कुल सोलह परिच्छेद हैं। सभी परिच्छेदों की संस्कृत च्छाया तथा गुजराती अनुवाद प. पू. आचार्यप्रवर राजयशसूरीश्वरजी के शिष्य प. पू. गणिवर्य श्री विश्रुतयश विजयजी म.सा. ने किया है तथा हिन्दी अनुवाद एवं अंग्रेजी में परिचय लेखन स्वयं सम्पादक ने किया है। 'श्रमण' में इस ग्रन्थ का प्रकाशन धारावाहिक के रूप में जनवरी-जून २००४ के अंक से प्रारम्भ हुआ था। जनवरी-मार्च २०१० तक इसके आठ परिच्छेदों का प्रकाशन अनवरत रूप से हुआ किन्तु अपरिहार्य कारणों से यह आगे प्रकाशित नहीं हो पाया। नवम् परिच्छेद की संस्कृत च्छाया पूर्णत: तैयार न हो पाने के कारण, इस ग्रन्थ के दशम् परिच्छेद से हम पुन: इसका प्रकाशन प्रारम्भ कर रहे हैं जो एकान्तर रूप से प्रत्येक दूसरे अंक में प्रकाशित होता रहेगा। आशा है पाठक 'सुरसुंदरीचरिअं' काव्यरस का अब अनवरत रूप से रसास्वादन कर पायेंगे। इस अंक से हम ‘श्रमण' के मुखपृष्ठ पर मानतुंगाचार्य (ई.सन् १३०५) कृत 'भक्तामर स्तोत्र' के एक श्लोक और उसपर आधारित चित्र तथा पार्श्वपृष्ठ पर उसी श्लोक से सम्बन्धित यन्त्र और मन्त्र देने की श्रृंखला का प्रारम्भ कर रहे हैं। तदनुसार ही सचित्र 'भक्तामर स्तोत्र' के ४४ श्लोकों को क्रमश: प्रत्येक अंक के मुखपृष्ठ पर देने की हमारी योजना है। 'भक्तामर स्तोत्र' एक ऐसा बहुप्रचलित एवं पवित्र माना जानेवाला स्तोत्र है जिसे जैनों के सभी सम्प्रदाय समान रूप से स्वीकार एवं पाठस्मरण करते हैं। माना यह जाता है कि इस स्तोत्र के नियमित पाठ से व्यक्ति सभी प्रकार के भय और बीमारियों से त्राण पा जाता है। इस महाचामत्कारिक स्तोत्र के श्लोकों एवं तद् आधारित मन्त्रों के जाप से कैंसर जैसे असाध्य रोगों में लाभ पाया गया है। इस स्तोत्र के चिकित्सीय प्रयोग के सन्दर्भ में भारत एवं विदेशों में अनेक शोध चल रहे हैं। प्रो. हर्मन याकोबी ने सन् १८७५ में 'Jain Method of Curing' के अन्तर्गत भक्तामरस्तोत्र के महत्त्व को दर्शाया है। आशा है इस स्तोत्र के क्रमश: प्रकाशन से सम्माननीय पाठक लाभान्वित होंगे। हमारा सदा यही प्रयास रहता है कि 'श्रमण' का प्रत्येक अंक पिछले अंकों की तुलना में हर दृष्टि से बेहतर हो और उसमें प्रकाशित सभी आलेख शुद्ध रूप से मुद्रित हों। सुधी पाठकों से निवेदन है कि आप हमें अपने बहमूल्य सुझावों/विचारों/आलोचनाओं से अवश्य अवगत कराते रहें ताकि आगामी अंकों में तदनुसार सुधार लाया जा सके।
-सम्पादक
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Our Contributors
१. प्रो. कमलेश कुमार जैन
आचार्य एवं अध्यक्ष, जैन-बौद्ध दर्शन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,
वाराणसी २. डॉ० हेमलता जैन
जेनरल फेलो, आई. सी. पी. आर., संस्कृत विभाग, जयनारायण व्यास
विश्वविद्यालय, जोधपुर, राजस्थान . ३. डॉ० रजनीश शुक्ल
राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली ४. डॉ० श्वेता जैन
पोस्ट डॉक्टोरल फेलो, संस्कृत विभाग, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय,
जोधपुर, राजस्थान . ५. डॉ० ज्योति सिंह
पूर्व शोध-छात्रा, दर्शन एवं धर्म विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,
वाराणसी 6. Dr. Shriprakash Pandey
Joint Director, Parshwanath Vidyapeeth Dr. Jonardon Ganeri Recurrent Visiting Professor, Dept. of Philosophy, King's College, London
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Contents
1-9
10-16
17-28 -
29-34
35-45
कुन्दकुन्द साहित्य में श्रमण और श्रमणाभास प्रो० कमलेश कुमार जैन स्याद्वादकल्पलता में शब्द की द्रव्यत्व सिद्धि डॉ० हेमलता जैन मुद्राराक्षस में प्रयुक्त प्राकृतों का सार्थक्य डॉ० रजनीश शुक्ल आगमों में वादविज्ञान डॉ. श्वेता जैन . जैन एवं बौद्ध दर्शन में प्रमा का स्वरूप एवं उसके निर्धारक तत्त्व डॉ० ज्योति सिंह CONCEPT OF NIKŞEPA (POSITING) IN JAINA PHILOSOPHY Dr. Shriprakash Pandey THE COSMOPOLITAN VISION OF YAŚOVLJAYA GANI
Jonardon Ganeri स्थायी स्तम्भ
पार्श्वनाथ विद्यापीठ समाचार जैन जगत् साहित्य सत्कार
47-69
70-82
83-93 94-95
96
सुरसुंदरीचरिअं
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Statement About the Ownership & Other Particulars
of the Jouran)
ŚRAMAŅA
1.
Place of Publication
Periodicity of Publication Printer's Name, Nationality and Address
4.
Publisher's Name, Nationality and Address
5.
Editor's Name, Nationality and Address
: Parshwanath Vidyapeeth
I.T.I. Road, Karaundi, Varanasi-05 : Quarterly. : Indrabhooti Barar, Indian.
Prented at The Mahavir Press,
Bhelupur, Varanasi-10 : Indrabhooti Barar, Indian, Secretary
Parshwanath Vidyapeeth
I.T.I. Road, Karaundi, Varanasi-05 : Dr. Shreeprakash Pandey (Editor)
Dr. Omprakash Singh (Associate Edior) Dr. Rahul Kumar Singh (Associate Edior) Parshwanath Vidyapeeth
I.T.I. Road, Karaundi, Varanasi-05 : Indrabhooti Barar, Secretary,
Parshwanath Vidyapeeth Registerd Office Parshwanath Vidyapeeth, I.T.I. Road, Karaundi, Varanasi-05 (Pegistered under Act XXI as 1860)
6.
Name and Address of Individuals who own the Jounal and Partners or share-holders holding more than one percent of the total capital.
I, Indrabhooti Barar hereby declare that the particulars given above are true to the best of my knowledge and belief.
Dated : 1-4-2015
Signature of the Publisher
S/d Indrabhooti Barar
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कुन्दकुन्द साहित्य में श्रमण और श्रमणाभास
प्रो० कमलेश कुमार जैन जैन-धर्म-दर्शन में भगवत् कृपा के लिए कोई स्थान नहीं है, अपितु प्रत्येक जीव पुरुषार्थ के माध्यम से ही अपने आप को उत्तरोत्तर उन्नत बनाता हुआ श्रमण जीवन को स्वीकार कर अन्त में मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। जीव और कर्म का अनादिकालीन सम्बन्ध है। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि जब से जीव है तब से कर्म बन्धन है और इसी कर्मबन्धन को क्रमश: काटकर अन्त में कर्मबन्धन से पूर्ण छुटकारा मुक्ति है, मोक्ष है, जीव का निर्वाण है और यह सब सकल चारित्र रूप श्रमणचर्या को धारण किये बिना सम्भव नहीं है। क्योंकि तैंतीस सागर की आयु वाले सर्वार्थसिद्धि के देव भी, जो सतत् तत्त्वचर्चा में तल्लीन रहते हैं, वे भी सकल चारित्र को धारण किये बिना मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। यह है श्रमणचर्या का महत्त्व। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के पश्चात् अणुव्रतों का पालन करते हुए श्रावक द्वारा बारह व्रतों का निरतिचार पालन करना, पुन: ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करते हुए महाव्रतों को स्वीकार करना और अट्ठाइस मूलगुणों का पालन करना मुनिचर्या का सम्यक् स्वरूप है। इसी मुनिचर्या का सम्यक् रीति से पालन करने वाला व्यक्ति श्रमण संज्ञा से विभूषित होता है। चत्तारिदण्डक में साधु शब्द से आचार्य परमेष्ठी, उपाध्याय परमेष्ठी और साधु परमेष्ठी- इन तीन को ग्रहण किया गया है। इसलिए साधु और श्रमण- ये दोनों समानार्थक हैं। श्रमण सिंह के समान पराक्रमी, गज के समान स्वाभिमानी, बैल के समान भद्र प्रकृति, मृग के समान सरल, पशु के समान गोचरी वृत्ति वाले, पवन के समान निस्संग अर्थात् सभी जगह बेरोक-टोक विचरण करने वाले, सूर्य के समान तेजस्वी अर्थात् सदाकाल तत्त्वों का प्रकाशन करने वाले, सागर के समान गम्भीर, मेरु के समान अकम्प (अडोल), चन्द्रमा के समान शान्तिदायक, मणि के समान प्रभापुञ्ज युक्त, क्षिति के समान बाधाओं को सहने वाले, सर्प के समान अनियत वसतिका में रहने वाले, आकाश के समान निरालम्बी (निर्लेप) और सदाकाल परमपद का अन्वेषण करने वाले होते हैं।
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2 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 आचार्य सोमदेव सरि ने यशस्तिलकचम्पू में गुणों के आधार पर श्रमण के क्षपणक आदि तेईस नामों का उल्लेख किया है, जिनमें श्रमण भी एक है। उनके अनुसार तपश्चरण रूप श्रम के कारण मुनिराज को श्रमण कहते हैं। चूंकि तीर्थङ्कर भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा उपदिष्ट वाणी को गौतम आदि गणधरों ने गूंथा है और तदनन्तर उसी को आधार बनाकर आचार्य कुन्दकुन्द ने आगम तुल्य ग्रन्थों का सृजन किया है और सोलहवीं शती के बहुश्रुत विद्वान् आचार्य श्रुतसागरसूरि ने उन्हें कालिकाल सर्वज्ञ कहा है, अत: एक दृष्टि से आचार्य कुन्दकुन्द का भगवान् की वाणी से सीधा सम्बन्ध है और सीधा सम्बन्ध होने से उनके ग्रन्थों में जिनेन्द्र वाणी का सम्यक् प्रतिपादन हुआ है, इसलिए आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार यहाँ श्रमण के स्वरूप का विवेचन किया जा रहा है। क्योंकि श्रामण्य पद धारण किये बिना न तो दुःखों से छुटकारा पाया जा सकता है और न ही शाश्वत सुख के आधारभूत निर्वाण को प्राप्त किया जा सकता है। आचार्य कुन्दकुन्द का स्पष्ट कथन है कि यदि दुःखों से छुटकारा पाना चाहते हो तो श्रमण पद को स्वीकार करो। क्योंकि यह श्रमण रूप जैन लिङ्ग अपुनर्भव का मूल कारण है। बाह्यलिङ्ग और अन्तरङ्गलिङ्ग का वर्णन करते हुये आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी का कहना है कि जो सद्योजात बालक के समान निर्विकार निम्रन्थ रूप के धारण करने से होता है, जिसमें शिर और दाढ़ी-मूंछ के बाल उखाड़ दिये जाते हैं, जो शुद्ध है, निर्विकार है, हिंसादि पापों से रहित है और शरीर की सम्भाल तथा सजावट से रहित है वह बाह्यलिङ्ग है तथा मूर्छा - पर पदार्थों में ममत्व परिणाम और आरम्भ से रहित है, उपयोग और योग की शुद्धि से युक्त है, पर की अपेक्षा से दूर है एवं मोक्ष का कारण है वह अन्तरङ्गलिङ्ग अर्थात् भावलिङ्ग है। इसी को और स्पष्ट करते हुये पं० पन्नालाल साहित्याचार्य लिखते हैं कि- जैनागम में बहिरङ्गलिङ्ग और अन्तरङ्गलिङ्ग दोनों ही लिङ्ग परस्पर सापेक्ष रहकर ही कार्य के साधक बतलाये गये हैं। अन्तरङ्गलिङ्ग के बिना बहिरङ्ग केवल नट के समान वेष मात्र है। उससे आत्मा का कुछ भी कल्याण साध्य नहीं है और बहिरङ्गलिङ्ग के बिना अन्तरङ्गलिङ्ग का होना सम्भव नहीं है। क्योंकि जब तक बाह्य परिग्रह का त्याग होकर यथार्थ निर्ग्रन्थ अवस्था प्रकट नहीं हो जाती तब तक मूर्छा या आरम्भ रूप आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग नहीं हो सकता है और जब तक हिंसादि पापों का अभाव तथा शरीरासक्ति का भाव दूर नहीं हो जाता तब तक उपयोग और योग की सिद्धि नहीं
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कुन्दकुन्द साहित्य में श्रमण और प्रमणाभास : 3 हो सकती है। इस प्रकार उक्त दोनों लिङ्ग ही अपुनर्भव-फिर से जन्म धारण नहीं करना अर्थात् मोक्ष के कारण हैं।" आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने स्पष्ट लिखा है कि यदि आप मोक्षाभिलाषी हैं तो बन्धुवर्ग से पूछकर ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्याचार रूप पञ्चाचार को श्री गुरु से ग्रहण करें। श्रमण के जो द्रव्यलिङ्ग और भावलिङ्ग कहे गये हैं, उनमें श्रमण का यथाजात बाह्य रूप द्रव्यलिङ्ग है और उसकी अन्तरङ्ग शुद्धि भावलिङ्ग है -ये दोनों लिङ्ग ही मोक्ष प्राप्ति के उत्कृष्ट साधन हैं। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने श्रमण का लक्षण करते हुये प्रवचनसार में लिखा है कि
सुविदिदपयत्यसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो।
समणो समसुहदुक्खो, भणिदो सुद्धोवओगो त्ति ।। अर्थात् पदार्थों और सूत्रों को अच्छी तरह जानने वाले, संयम और तप से युक्त, राग से रहित, सुख और दुःख में समान भाव रखने वाले शुद्धोपयोगी श्रमण हैं। उपयोग तीन प्रकार का है- अशुभोपयोग, शुभोपयोग और शुद्धोपयोग। यहाँ आचार्य कुन्दकुन्द ने उसे ही श्रमण कहा है जो शुद्धोपयोगी है। क्योंकि शुद्ध के पास ही श्रामण्य है, शुद्ध के पास ही दर्शन और ज्ञान है, शुद्ध का ही निर्वाण होता है और शुद्ध ही सिद्ध स्वरूप है।
सद्धस्स य सामण्णं भणिदं सद्धस्स दंसणं णाणं।
सुद्धस्स य णिव्वाणं सोच्चिय सुद्धो णमो तस्स।।११ यद्यपि शास्त्रों में दो प्रकार के श्रमणों का उल्लेख है- एक शुद्धोपयोगी श्रमण और दूसरे शुभोपयोगी श्रमण किन्तु इनमें शुद्धोपयोगी श्रमण निरास्रव हैं और शेष अर्थात् शुभोपयोगी सास्रव हैं।१२ बिना सम्यक्त्व के शुद्धोपयोग सम्भव नहीं है और मोक्षमार्ग में सम्यक्त्व के बिना शुभोपयोग की भूमिका भी कार्यकारी नहीं है। क्योंकि पापारम्भ को त्यागकर सम्यक्त्व के बिना शुभ चारित्र में उद्यमी होता हुआ जीव यदि मोह आदि को नहीं छोड़ता है तो वह जीव अपने शुद्धात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता है।१३ शुद्धात्मा की प्राप्ति के लिये मोह का त्याग अवश्यम्भावी है। इसलिये आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने लिखा है कि
जो जाणदि अरहंतं दव्यत्त-गुणत्त-पज्जयत्तेहिं । सो जाणद अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लय।।१४
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4 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 अर्थात् जो द्रव्य, गुण और पर्यायों के माध्यम से अरहन्त भगवान् को जानता है, वह अपने को जानता है तथा उसका मोह निश्चय से विनाश को प्राप्त होता है। और जिसका मोह नष्ट हो जाता है वह शुद्ध आत्म तत्त्व को सम्यग् रूपेण प्राप्त कर लेता है। इसी प्रक्रिया को अपनाकर सभी अरहन्त भगवान् कर्मों का नाशकर मुक्ति को प्राप्त हुये हैं।१६ यह प्रक्रिया कोई नवीन नहीं है, अपितु यह सनातन काल से चली आ रही है। श्रमण के द्वारा जिन अट्ठाइस मूल गुणों का पालन करना नितान्त आवश्यक है, वे इस प्रकार हैं- पञ्च महाव्रतों का पालन, पञ्च समितियों का पालन, पञ्चेन्द्रिय निरोध, केशलौंच, षडावश्यकों का पालन, अचेलपना, अस्नानव्रत, भूमिशयन, अदन्तधावन, खड़े होकर भोजन करना, एक बार भोजन करना-ये अट्ठाइस प्रकार के मूलगुण हैं। इन मुलगुणों में प्रमत्त होता हुआ श्रमण छेदोपस्थापक होता है। मास, पक्ष आदि से दीक्षा को कम करके पुनः चारित्र की उपस्थापना करना छेदोपस्थापना है।
वदसमिदिदियरोधो लोचो अवसयमचेलमण्हाणं। खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च।। एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता।
तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि।१७ श्रमण के पास बाल के अग्रभाग के बराबर भी बाह्य परिग्रह का निषेध किया गया है।१८ यद्यपि श्रमण के पास एक मात्र देह ही होती है, किन्तु वह उस देह में भी ममत्व रहित परिकर्म वाला होता है। साथ ही उस देह को तप में लगाकर वह अपनी शक्ति को छिपाता नहीं है।१९ यहाँ अचेल का अर्थ है पाँच प्रकार के वस्त्रों का त्याग।२० यद्यपि वस्त्रों का त्याग श्रमण के द्रव्यलिङ्ग को ही प्रकट करता है, किन्तु यहाँ श्रमण का भावलिङ्गी होना भी अपेक्षित है। क्योंकि भाव रहित श्रमण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप-इन चार आराधनाओं को प्राप्त कर लेता है और भाव रहित श्रमण चिरकाल तक दीर्घ संसार में भ्रमण करता है।२१ भाव श्रमण कल्याणों की परम्परा से युक्त होकर सुखों को प्राप्त करते हैं अर्थात् तीर्थङ्कर होकर गर्भ, जन्म आदि कल्याणकों से युक्त होकर परम सुख को प्राप्त करते हैं और गव्य श्रमण मनुष्य, तिर्यञ्च तथा कुदेव योनियों में जन्म लेकर दुःखों को प्राप्त करते हैं।२२
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कुन्दकुन्द साहित्य में श्रमण और श्रमणाभास : 5 यहाँ भाव श्रमण का अर्थ सम्यग्दृष्टि श्रमण से है और द्रव्य श्रमण का अर्थ मिथ्यादृष्टि श्रमण से है। क्योंकि भाव श्रमण ही प्रथम लिङ्ग है। द्रव्यलिङ्ग परमार्थ नहीं है अर्थात् भाव के बिना द्रव्यलिङ्ग परमार्थ की सिद्धि करने में समर्थ नहीं है।२३ जो साधु शरीर आदि परिग्रह से रहित है, मान कषाय से पूर्णत: मुक्त है तथा जिसकी आत्मा आत्म स्वरूप में तल्लीन है, वस्तुत: वही श्रमण भावलिङ्गी है।२४ बाह्य परिग्रह का त्याग करना तथा समस्त शास्त्रों का पढ़ना भावरहित जीवों के लिये निरर्थक है।२५ भाव श्रमण अर्थात् सम्यग्दृष्टि मुनि सुखों को प्राप्त करता है और द्रव्य श्रमण अर्थात् मिथ्यादृष्टि मुनि दुःखों को प्राप्त करता है। इस प्रकार भाव और द्रव्य श्रमण के क्रमशः गुण और दोषों को जानकार भाव श्रमण होने का प्रयत्न करना चाहिए।२६ श्रमण को आगमचक्खू२७ कहा गया है। अर्थात् श्रमण की प्रवृत्ति आगमानुसारी होती है। वह आगम के प्रति समर्पित होता है। क्योंकि आगमानुसार की गई श्रमण की प्रवृत्ति श्रेष्ठ कही गई है। श्रमण एकाग्रता को प्राप्त होता है। एकाग्रता पदार्थों के निश्चय से आती है। पदार्थों के प्रति निश्चय आगम से होता है। अतः आगम में कही गई श्रमण की प्रवृत्ति ही श्रेष्ठ है।२८ श्रमणचर्या स्वीकार करने का मुख्य उद्देश्य कर्मों का पूर्णरूपेण क्षय करके मुक्ति को प्राप्त करना है, किन्तु जब श्रमण आगम से रहित होता हुआ न अपने को जानता है, न ही दूसरे को जानता है और जब वह स्व-पर पदार्थों को नहीं जानता है तो वह कर्मों का क्षय कैसे करेगा? अर्थात् ऐसी स्थिति में वह श्रमण कभी भी कर्मों का क्षय नहीं कर सकेगा। कर्मों का क्षय नहीं करेगा तो मुक्ति को प्राप्त नहीं होगा तथा संसारसागर में निरन्तर भ्रमण करते हुये दुःख प्राप्त करता रहेगा।
आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि।
अविजाणंतो अत्ये खवेदि कम्माणि किध भिक्खू।।२९ आगमानुसारी प्रवृत्ति करने से श्रमण पर पदार्थों के प्रति तटस्थ हो जाता है। इसलिये वह शत्रु और मित्र समूह में समान दृष्टि वाला होता है। सुख और दुःख की स्थिति में वह समान हो जाता है। वह किसी के द्वारा प्रशंसा करने पर फूलता नहीं है और निन्दा करने पर दुबला नहीं होता है। उसे मिट्टी के ढेले और स्वर्ण में कोई अन्तर दिखलाई नहीं देता है, अपितु उसकी दृष्टि में सभी पुद्गल की पर्यायें होती हैं। जीवन अथवा मरण में वह समभाव वाला होता है।३० जो सदा ज्ञान और दर्शन आदि में प्रतिबद्ध रहता है तथा मूल गुणों के पालन में प्रयत्नशील रहता है, वह परिपूर्ण श्रमण होता है।३१ श्रमण की एक विशेषता यह
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6 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 भी है कि वह आहार में, उपवास में, निवास में, गमन में, उपकरण में, विकथाओं में तथा श्रमण में भी आसक्ति नहीं करता है।३२ जीव मरे या जिये सावधानी न वरतने पर निश्चित रूप से श्रमण को हिंसा का दोष लगता है, किन्तु समितियों के पालन में प्रयत्नशील होने पर श्रमण को पाप बन्ध नहीं होता है।३३ यदि निरपेक्ष त्याग न हो तो भावों की विशुद्धि नहीं होती है और चित्त में विशुद्धि न होने पर कर्मों का क्षय नहीं होता है।३४ जिस वस्तु के ग्रहण करने और विसर्जन न करने में दोष न लगे, उसी को लेकर श्रमण काल और क्षेत्र को जानकर प्रवृत्ति करे।५ जो वस्तु अप्रतिसिद्ध है, असंयत जनों के द्वारा प्रार्थनीय नहीं है, मूर्छा आदि की प्रवृत्ति कराने वाली नहीं है, उसे ही श्रमण को अल्प मात्रा में ग्रहण करना चाहिये।३६ तीन वर्गों में से एक वर्ण वाला, रोगरहित, तप को करने में समर्थ, वयस्क, प्रशस्त सुख वाला, अपवाद रहित व्यक्ति इस निर्ग्रन्थ लिङ्ग को ग्रहण करने योग्य है।३७ श्रमण इस लोक में निरपेक्ष और परलोक में अभिलाषा रहित तथा उचित आहार-विहार करता हुआ कषाय रहित होता है।३८ श्रमण बाह्य अन्नाहार का ग्रहण एषणा दोष रहित करता है, अत: वह युक्त आहार ग्रहण करने पर भी निराहारी होता है।३९ श्रमण चाहे बालक हो या वृद्ध, थका हुआ हो, रोगी हो फिर भी वह करने योग्य चारित्र इस प्रकार करे कि उसके मूलगुणों का उच्छेद न हो। यदि श्रमण आहारविहार में देश, काल, श्रम, शक्ति और उपधि को अच्छी तरह जानकर ऐसी प्रवृत्ति करता है, जिसमें अल्प सावध हो तो उसके संयम का छेद नहीं होता है। इस प्रकार श्रमण की चर्या मोक्षमार्ग में कार्यकारी है। श्रमण चर्या ग्रहण करने का उद्देश्य संसार-सागर से पार उतरकर निर्वाण को प्राप्त करना है और निर्वाण शुद्धोपयोग के बिना सम्भव नहीं है। शुद्धोपयोग में आत्मभाव ही प्रमुख है। इसमें परभाव के लिये किञ्चित् भी स्थान नहीं है। अत: अपनी शुद्धात्मा में स्थिरचित्त होकर निर्वाण प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना चाहिये। इसके बिना अन्य कोई उपाय नहीं है। अब यहाँ श्रमणाभास के स्वरूप पर विचार करते हैं। अन्तरङ्ग में चित्त की शुद्धि न होना और ऊपर से श्रमण जैसा वेष धारण करना श्रमणाभास है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने श्रमणाभास का लक्षण करते हुये लिखा है कि
___ण हवदि समणो त्ति मदो संजमतवसुत्तसंपउत्तो वि। जदि सद्दहदि ण अत्थे आदपधाणे जिणक्खादे ।। ४२
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कुन्दकुन्द साहित्य में श्रमण और श्रमणाभास : 7 अर्थात् सूत्र, संयम और तप से संयुक्त होने पर भी यदि व्यक्ति जिनोक्त आत्मप्रधान पदार्थों में श्रद्धान नहीं करता है तो वह श्रमण नहीं है, अपितु बाह्य में श्रमण जैसा आचरण अथवा वेष धारण करने के कारण श्रमणाभास है। इसी को स्पष्ट करते हुये आचार्य अमृतचन्द सूरि ने लिखा है कि 'आगमज्ञोऽपि संयतोऽपि तपःस्थोऽपि जिनोदितमनन्तार्थनिर्भरं विश्वं स्वेनात्मना ज्ञेयत्वेन निष्पीतत्वादात्मप्रधानमश्रद्धानः श्रमणाभासो भवति'।४३ अर्थात् आगम का ज्ञाता होने पर भी, संयत होने पर भी, तप में स्थित होने पर भी जिनोक्त अनन्त पदार्थों से भरे हुये विश्व को अपने आत्मा द्वारा ज्ञेय रूप से जानता है, इस कारण उस विश्व में आत्म प्रधान है, जो जीव उसका श्रद्धान नहीं करता है वह श्रमणाभास है। जिसकी दृष्टि आगम का अनुसरण नहीं करती है, उसके संयम नहीं होता है और जिसके संयम नहीं होता है वह श्रमण नहीं होता है। यदि भगवान् जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित पदार्थों में श्रद्धान नहीं है तो मात्र आगम के ज्ञान से मुक्ति नहीं हो सकती है
और यदि पदार्थों के प्रति श्रद्धान है तो भी असंयत अर्थात् चारित्र रहित व्यक्ति के मुक्ति सम्भव नहीं है। ५ जिसकी देह आदि पदार्थों में परमाणु मात्र भी मूर्छा है, ऐसा सर्वागम का ज्ञाता भी मुक्ति को प्राप्त करने में समर्थ नहीं है।४६ यदि श्रमण अन्य द्रव्य का आश्रय करके अज्ञानी होता हुआ मोह करता है, राग करता है, अथवा द्वेष करता है तो वह विविध कर्मों का बन्धन करता है।४७ जिसने सूत्र के अर्थ और पदों का निश्चय किया है, जिसने कषायों का शमन किया है और अधिक तप करने वाला भी है, किन्तु यदि लौकिक जनों का संसर्ग नहीं छोड़ा है तो वह असंयत ही है। इसी प्रकार यदि कोई निम्रन्थ मुद्रा को ग्रहण कर लौकिक कार्यों में लग जाता है तो वह संयत तप युक्त होने पर भी लौकिक ही है, अलौकिक नहीं है।४९ वैयावृत्ति में उद्यत हुआ श्रमण यदि जीवों को कष्ट पहुँचाता है तो वह श्रमण नहीं है।५० जो श्रमण गुणों में हीन होने पर भी "मैं श्रमण हूँ' ऐसा मानकर गर्व करके गुणों में अधिक श्रमण से विनय की इच्छा करता है तो वह श्रमण अनन्त संसारी है।५१ यदि
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श्रामण्य में अधिक गुण वाले मुनि क्रियाओं में हीनगुण वाले मुनि के साथ प्रवृत्ति करते हैं तो वह परस्पर में एक जैसा होकर प्रभ्रष्ट चारित्र वाले हो जाते हैं । ५२
भगवान् की आज्ञा में चलने वाले श्रमण को देखकर जो द्वेषभाव से उनका अपवाद करता है और विनय आदि क्रियाओं में नहीं लगता है तो वह निश्चय से चारित्र रहित है । ३
इस प्रकार श्रमण वेषधारी जो व्यक्ति किसी भी प्रकार से शुद्धोपयोगी श्रमण से विपरीत क्रिया करता है वह श्रमण न होकर श्रमणाभासी है। उपर्युक्त प्रकार से शुद्धोपयोगी श्रमण एवं शुद्धोपयोग से रहित श्रमणाभासी के स्वरूप को जानकर हमें विवेकपूर्वक कार्य करते हुये अपना लक्ष्य निश्चित करना चाहिये ।
सन्दर्भ :
१. रत्नत्रय पारिभाषिक शब्दकोष, पृष्ठ ५०५-५०६
२. यशस्तिलकचम्पू, पृष्ठ ४११-४१२ (द्रष्टव्य, रत्नत्रय पारिभाषिक शब्दकोष, पृष्ठ ५०५-५०६)
३. लिंगप्राभृत और शीलप्राभृत को छोड़कर शेष छह पाहुडों की अन्तिम गाथा की प्रशस्ति में उल्लिखित ।
४. प्रवचनसार, गाथा २१४
५. वही, गाथा २१९
६. प्रवचनसार, कुन्दकुन्दभारती, गाथा ३ / ५-६ का हिन्दी अनुवाद
७. वही, गाथा ३ / ५-६
८. प्रवचनसार, गाथा २१५
९. वही, गाथा २१७-२१८
१०. वही, गाथा १४
११. वही, गाथा ३१०
१२ . वही, गाथा २८४ १३. वहीं, गाथा ८३
१४. वही, गाथा ८६
१५. वही, गाथा ८७
१६. वही, गाथा ८८
१७. वही, गाथा २२१-२२२
१८. सुत्तपाहुड, गाथा १७
१९. प्रवचनसार, गाथा २५८
२०. भावपाहुड, गाथा ९७ २९. वही, गाथा ९७
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कुन्दकुन्द साहित्य में श्रमण और श्रमणाभास : 9
२२. वही, गाथा ९८ २३. वही, गाथा २ २४. वही, गाथा ५६ २५. वही, गाथा ८७ २६. वही, गाथा १२५ २७. प्रवचनसार, गाथा २६७ २८. वही, गाथा २६५ २९. वही, गाथा २६६ ३०. वही, गाथा २७५ ३१. वही, गाथा २२७ ३२. वही, गाथा २२८ ३३. वही, गाथा २३० ३४. वही, गाथा २३५ ३५. वही, गाथा २४० ३६. वही, गाथा २४१ ३७. वही, गाथा २५२ ३८. वही, गाथा २५५ ३९. वही, गाथा २५७ ४०. वही, गाथा २६३ ४१. वही, गाथा २६४ ४२. वही, गाथा ३०२ ४३. वही, गाथा ३०२ की वृत्ति ४४. वही, गाथा २६९
गाथा २७०
गाथा २७२ ४७. वही, गाथा २७७
गाथा २७९ ४९. वही,
गाथा २८० ५०. वही, गाथा २८९ ५१. वही, गाथा ३०३ ५२. वही, गाथा ३०४ ५३. वही, गाथा ३०६
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स्याद्वादकल्पलता में शब्द की द्रव्यत्व सिद्धि
डॉ० हेमलता जैन भारतीय दार्शनिक परम्परा में न्याय-वैशेषिक दर्शन शब्द को आकाश के गुण के रूप में प्रतिपादित करता है। न्याय-वैशेषिक दार्शनिक शब्द को गुण मानते हैं, जो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आत्मा, काल, दिक् एवं मन इन आठ द्रव्यों में नहीं रहता, अत: परिशेषानुमान से उसे आकाश का गुण स्वीकार किया गया है। जैन दार्शनिक शब्द को गुण नहीं अपितु द्रव्य मानते हैं। २०६६ वर्ष पूर्व भगवान् महावीर ने शब्द को पुद्गल द्रव्य बताया है। आज विज्ञान भी शब्द के पौद्गलिक स्वरूप को स्वीकार करता है। इस अन्तराल में शब्द-स्वरूप के विषय में विभिन्न मत प्रचलित रहे हैं। जैन आचार्यों ने शब्द को ध्वनि की दृष्टि से पौद्गलिक अर्थात् पद्गल द्रव्य और अर्थबोध की दृष्टि से ज्ञानात्मक माना है। वैज्ञानिक प्रयोगों ने भी शब्द के पौद्गलिक स्वरूप को सिद्ध किया है। जैन परम्परा में आगम साहित्य से लेकर सिद्धसेन, समन्तभद्र, मल्लवादी, हरिभद्रसूरि, भट्ट अकलंक, अभयदेवसूरि, प्रभाचन्द्र, हेमचन्द्र, उपाध्याय यशोविजय आदि के द्वारा विरचित ग्रन्थों में इस विषय पर पर्याप्त चिन्तन हुआ है। यह शोधालेख जैनाचार्य हरिभद्रसूरि (७००-७७०ई०) विरचित शास्त्रवार्तासमुच्चय तथा उस पर उपाध्याय यशोविजय (१७-१८वीं शती) कृत स्याद्वादकल्पलता टीका पर केन्द्रित है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने शास्त्रवार्तासमुच्चय के १०वें स्तवक में शब्दस्वरूप के विषय में वेदवादी, मीमांसक, बौद्ध, नैयायिक आदि के मतों को समुचित रीति से प्रस्तुत कर उसका तार्किक निरसन किया है। इस शोधालेख में मात्र न्यायवैशेषिकों की मान्यता का खण्डन कर शब्द में द्रव्यत्व की सिद्धि की गई है। नैयायिकों के मतों का खण्डन करते हुए उपाध्याय यशोविजयजी ने नैयायिकों द्वारा मान्य स्पर्श, संयोग, संख्या, अल्पत्व परिमाण, महत् परिमाण आदि गुणों और क्रिया के आधार पर शब्द का द्रव्यत्व सिद्ध किया है। मैंने नैयायिकों के शब्द-स्वरूप विषय से सम्बद्ध मतों को पूर्वपक्ष में रखकर उपाध्याय यशोविजय के तर्कों को उत्तरपक्ष के रूप में यहाँ प्रस्तुत किया है। इसके साथ ही स्वयं के कुछ अनुभव भी साझा किए हैं। पूर्व पक्ष : न्याय-वैशेषिक का तर्क शब्द को अनित्य एवं द्रव्य स्वीकार करने वाले जैनों के सम्बन्ध में नैयायिक कहते
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स्याद्वादकल्पलता में शब्द की द्रव्यत्व सिद्धि : 11 वर्णो न नित्य इति तावदवादि युक्तं, द्रव्यत्वमस्य पुनरर्थवशाद् यदुक्तम्। व्योमैकवर्तिनि गुणे न विराजते तद्, गुञ्जव राजवनितामणिहारमध्ये।।। अर्थात् वर्ण (शब्द) नित्य नहीं है, यह युक्तिसंगत है, पर वर्ण का द्रव्य स्वरूप असंगत है। जैसे राजरानी के मणिमयहार के बीच गुञ्जा का ग्रंथन शोभा प्राप्त नहीं करता है वैसे ही एक मात्र आकाश के गुण को द्रव्य मध्य गिन लेना अशोभनकारी है। अत: नैयायिक शब्द के अद्रव्यत्व पक्ष में निम्न कथन करते हैं१. उदयनाचार्य कहते हैं- 'शब्दो गुणः, बहिरिन्द्रिय व्यवस्थापकत्वात्, रूपादिवत्। बहिरिन्द्रिय की व्यवस्था करने वाला गुण होता है। जैसे रूप का ग्रहण जिस इन्द्रिय से होता है वह चक्षु है, रस का ग्रहण जिससे होता है, वह रसना है। इसी तरह शब्द का ग्रहण जिससे हो वह श्रोत्र इन्द्रिय है। रूप, रसादि गुणों के समान ही शब्द भी श्रोत्र इन्दिय का व्यवस्थापक होने से गुण है, द्रव्य नहीं। २. नैयायिक दूसरा तर्क देते हैं कि यदि शब्द द्रव्य हो तो श्रोत्र से उसका ग्रहण नहीं होगा, क्योंकि श्रोत्र द्रव्य का ग्राहक नहीं है। ३. नैयायिकों का तीसरा तर्क है कि शब्द एक मात्र द्रव्य आकाश में आश्रित है और जो द्रव्य में आश्रित होता है, वह द्रव्य नहीं हो सकता है। उत्तर पक्ष : उपाध्याय यशोविजय कृत तार्किक खण्डन नैयायिकों की शब्द के सम्बन्ध में की गई उक्त स्थापना का निरसन टीकाकार निम्न प्रकार से करते हैं१. बहिरिन्द्रिय का व्यवस्थापक होने से जो शब्द को गुण कहा गया है, वह असंगत है, क्योंकि रूपादि की द्रव्य से रहित स्वतंत्र सत्ता असिद्ध है। अतः नैयायिकों का दृष्टान्त असिद्ध है। दूसरी बात यह है कि शब्द का ग्रहण चक्षु आदि अन्य इन्द्रियों से नहीं होता, उसका भिन्न इन्द्रिय श्रोत्र से ग्रहण होने के कारण शब्द को गुण मानने में गौरव होता है, जो एक दोष है। इससे न्याय-वैशेषिकों की यह मान्यता कि श्रोत्रेन्द्रिय द्रव्य का अग्राहक होता है, खण्डित हो जाती है। २. दूसरे तर्क के निरसन में टीकाकार कहते हैं कि शब्द के द्रव्यत्व का अनुमान शब्द के अद्रव्यत्व अनुमान से बलवान है। 'शब्दो द्रव्यम्, क्रियावत्त्वात् शरवत्'' इस अनुमान द्वारा शब्द का द्रव्यत्व सिद्ध है, क्योंकि जो क्रियावान् होता है वह द्रव्य होता है।
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12 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 नैयायिकों द्वारा शब्द को निष्क्रिय (क्रियारहित) मानने पर श्रोत्र द्वारा स्व से असम्बद्ध का ग्रहण होगा जिससे उसमें अप्राप्यकारित्व की आपत्ति होने लगेगी और यदि शब्द के साथ श्रोत्र के सम्बन्ध की कल्पना करें तो दो प्रकार की स्थितियाँ बनती हैं, यथा१. प्रथम यह कि श्रोत्र शब्द के जन्म स्थान में पहुँचकर शब्द के साथ सम्बन्ध स्थापित करे। २. द्वितीय यह कि शब्द स्वयं श्रोत्र स्थान में जाकर उससे सम्बन्ध स्थापित करे। दोनों ही पक्ष समीचीन नहीं हैं, क्योंकि प्रथम पक्ष में श्रोत्र आकाश स्वरूप होने से निष्क्रिय (क्रियारहित) है और द्वितीय पक्ष में शब्द की सक्रियता (क्रियायुक्तता) स्वयमेव स्वीकृत हो जाती है। अतः शब्द द्रव्य है, यह सिद्ध होता है। यहाँ पर यह कहना उपयुक्त होगा कि शब्द ध्वनि प्राय: चेतन और अचेतन दोनों को असाधारण रूप से प्रभावित करती है। स्थूल व श्रव्य ध्वनियों का प्रभाव तो दृष्टिगोचर होता है, पर अश्रव्य और सामान्य ध्वनि तरंगें भी कोई कम प्रभावित नहीं करती है। इसीलिए आज डाक्टर इन्फ्रासोनिक और अल्ट्रासोनिक ध्वनि-प्रवाह से रोगों का निदान करते हैं। इन्फ्रासोनिक शब्दों को एक शक्ति के रूप में प्रयुक्त करके रक्त संचार की गति को तेज किया जाता है, सड़े-गले ऊतकों को काटकर बाहर निकालने में, कीड़ों को मारने आदि में सहायता ली जाती है, लकड़ी तथा धातुओं की मजबूती परखी जाती है। इस तरह जब एक्स-रे द्वारा खीचें गए फोटोग्राफ अस्पष्ट आने लगे तब अल्ट्रासाउण्ड शब्द सामर्थ्य ने इस कार्य को सरल बना दिया। अति सूक्ष्म कम्पनों को जब विद्युत आवेश प्रदान किया जाता है तो भेदन क्षमता इतनी बढ़ जाती है कि वह सघन से सघन वस्तु के परमाणुओं का भेदन करके उसकी आन्तरिक रचना का स्पष्ट फोटोग्राफ प्रस्तुत कर देता है। अल्ट्रासाउण्ड के द्वारा चिकित्साशास्त्री नित नवीन सफलताएँ अर्जित कर रहे हैं। चिकित्सा जगत् में शब्द के सूक्ष्मतम प्रयोगों की उपलब्धियाँ शब्द के द्रव्यत्व को सिद्ध करती हैं। अत: महावीर द्वारा उद्घाटित शब्द द्रव्यता प्रामाणिक है। ३. तीसरी आपत्ति के सम्बन्ध में टीकाकार स्पर्श, वेग, अल्पत्व-महत्त्व, संयोग, संख्या आदि गुणों के आधार पर शब्द की द्रव्यता सिद्ध करते हैं। यथाक. स्पर्श गुण द्वारा शब्द की द्रव्यत्व सिद्धि : शब्द में स्पर्श की सत्ता सिद्ध है, क्योंकि कांसे के बर्तन आदि के ध्वनि से सम्बन्ध होने पर कर्णशष्कुली में अभिघात होता है। चूंकि अंभिघात स्पर्श एवं वेग सापेक्ष क्रिया से उत्पन्न होता है, अतः शब्द में स्पर्श गुण सिद्ध है।
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स्यावादकल्पलता में शब्द की द्रव्यत्व सिद्धि : 13 शब्दायमान ब्रह्माण्ड के सभी सूक्ष्म और स्थूल हम सभी को स्पर्श गुण द्वारा प्रभावित करते ही हैं। मुख से निकला प्रत्येक शब्द हमारे शरीर को चलायमान कर देता है। फलतः हमारी सूक्ष्म नाड़ियाँ झंकृत हो उठती हैं। शब्द की स्पर्शता के सम्बन्ध में मैंने भी कुछ अनुभव किया है, जिससे शब्द का स्पर्श गुण सिद्ध होता है। वे कुछ अनुभव इस प्रकार है१. यदि शब्द में स्पर्श गुण न हो तो पेड़-पौधों को संगीत सुनाए जाने पर उनके विकास में अनुकूल प्रभाव नहीं हो। किन्तु प्रयोगों के आधार पर यह देखा गया है कि श्रोत्रेन्द्रिय से रहित पेड़-पौधों पर संगीत का अनुकूल प्रभाव होता है। २. यदि शब्द में स्पर्श गुण नहीं हो तो ध्वनि कर्कश या मृदु प्रतीत नहीं हो। शब्द द्रव्य है तथा उसमें कर्कश, मृदु आदि स्पर्श-गुण रहते हैं। ३. मन्दिरों और घरों में अशुभ पुगलों के निवारणार्थ लोग मंत्रों, भजनों का सतत प्रयोग करते हैं। इसमें भी शब्द का स्पर्श गुण सिद्ध होता है। 8. Masaru Emoto was a Japanese author whose early work explored his theory that "Water could react to positive thoughts and words, and that polluted water could be made pure through prayer and positive visualization."८. मसेरू लेखक ने अपनी पुस्तक 'Hidden massage in water' में पानी के प्रयोग के बारे में लिखा है। इस प्रयोग में उन्होंने दो गिलासों को पानी से भरा। तत्पश्चात् एक गिलास को सामने रखकर अभद्र शब्दों का प्रयोग किया और उसे फ्रिज में जमने के लिए रख दिया। इस तरह दूसरी गिलास के सम्मुख प्रशंसा भरे शब्दों का प्रयोग किया और उसे भी फ्रिज में रख दिया। दूसरे दिन जब दोनों गिलास को देखा तो पाया कि अभद्र शब्दों वाले गिलास में बर्फ की आकृति बदसूरत है और प्रशंसात्मक शब्दों वाली गिलास में बर्फ की बहुत ही सुन्दर आकृतियाँ बनी हैं। यह प्रयोग लेखक ने अनेक बार किया तथा प्रत्येक बार परिणाम एक जैसा ही रहा। अत: इस प्रयोग से जलीय जीवन की सिद्धि के साथ श्रोत्रेन्द्रिय रहित जल पर शब्दों की स्पर्शता सिद्ध होती है। इस पुस्तक में लेखक कहता है कि गन्दे पानी को प्रार्थना और सकारात्मक दृष्टिकोण से शुद्ध किया जा सकता है। यह जल शुद्धिकरण का अहिंसात्मक उपाय है। नैयायिक शब्द की स्पर्शता पर एक शंका करते हुए कहते हैं कि स्पर्शवान शब्द द्रव्य जब कर्णछिद्र में प्रवेश करता है तब श्रोत्रद्वार पर लगे कसितूल को वायु प्रवेश की
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14 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 तरह धक्का लगना चाहिए। टीकाकार उत्तर देते हैं कि स्पर्शवान् द्रव्य से धक्का लगे, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि जैसे धूम स्पर्श से चक्षु में पीड़ा होती है पर नेत्र के बाल न तो हिलते हैं और न ही उन्हें कोई धक्का लगता है। उसी तरह शब्द स्पर्श से श्रोत्रस्थ कर्पासतूल को धक्के से बाधित होना आवश्यक नहीं है। टीकाकार यशोविजय यहाँ स्वयं शंका उठाकर कहते हैं कि यदि कोई यह कहे कि शब्द की सहचारी वायु से कर्ण का अभिघात होता है, अत: शब्द में स्पर्श गण की सिद्धि नहीं होती है। इस शंका के समाधान में वे कहते हैं कि यह अभिघात-विशेष शब्द की तीव्रता का अनुविधायी है, वायु का नहीं। कर्णरूप अवयव का अभिघात शब्द जन्य होने से शब्द स्पर्शवान् है, सिद्ध होता है। २. वेग-संस्कार गुण से शब्द की द्रव्यत्व सिद्धि : न्याय-वैशेषिकों के अनुसार वेग नामक संस्कार गुण जिसमें रहता है वह द्रव्य होता है। उनकी इस मान्यता के आधार पर उपाध्याय यशोविजय ने शब्द में द्रव्यत्त्व की सिद्धि की है। वे कहते हैं कि धूम और प्रभा की तरह शब्द का स्पर्श अनुद्भुत होता है। शब्द में अनुद्भुत स्पर्श मानने पर भी कर्ण का अभिघात होता है, क्योंकि अभिघात वेगवान निबिडावयव द्रव्य की क्रिया से होता है, उसमें स्पर्श की अपेक्षा नहीं है। जैसे पिशाच के पादप्रहार में वेगवान निबिडावयव होने से अभिघात होता है, ठीक वैसे ही शब्द में वेगात्मक गुण से अभिघात होता है। अत: वेगात्मक गुण से भी शब्द की गुणाश्रयता निर्बाध सिद्ध है। ३. अल्पतादि परिमाण गुण के अनुभव से शब्द की द्रव्यत्व सिद्धि : अमुक शब्द छोटा है और अमुक शब्द बड़ा है, इस प्रकार सर्वजन सिद्ध अनुभव से शब्द में अल्पत्व-महत्त्व सिद्ध है। पर यदि कोई यह कहे कि जो परिमाणवान होता है, उसकी इयत्ता का अवधारण होता है और शब्द में इयत्ता का अवधारण नहीं होता है तो टीकाकार कहते हैं कि जैसे वायु में इयत्ता का अवधारण न होने पर भी उसमें अल्पत्व-महत्त्व आदि परिमाण सर्वमान्य हैं, उसी प्रकार शब्द में भी अल्पत्वादि गुण सिद्ध है।२१ आज विज्ञान ने वायु और शब्द के परिमाण अवधारण को शक्य बना दिया है। शब्द में होने वाली अल्पत्व-महत्त्व की प्रतीति शब्द की तीव्रता-मन्दता द्वारा नहीं होती है, अपितु शब्द में होने वाली क्रिया की मन्दतादि से प्रतीत होती है।१२ जैसे'शब्द: मन्दमायाति - शब्द मन्दता से आ रहा है' इस प्रतीति से शब्द अल्प है एवं 'शब्दः तीव्रमायाति - शब्द तीव्रता से आ रहा है। इस प्रतीति से शब्द महान् है, इसकी
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स्यावादकल्पलता में शब्द की द्रव्यत्व सिद्धि : 15 उत्पत्ति होती है। यदि ऐसा न मानें तो मन्दवाही अगाध गंगाजल में अल्पत्व की और तीव्रवाही पहाड़ी झरनों में महत्त्व की प्रतीति की आपत्ति होगी। लोक में क्रियाधर्म का क्रियावान में गौण व्यवहार देखा जाता है, इसीलिए मन्द बहते हुए नीर को 'मन्द' शब्द से और तीव्र बहते हुए नीर को 'तीव्र' शब्द से कह दिया जाता है। ४. वायु प्रतिनिवर्तन से सिद्ध संयोग द्वारा शब्द की द्रव्यत्व सिद्धि : वक्ता के कहने की इच्छा होने पर शरीर की प्राणवायु ऊपर उठकर शिर में टकराती है और वहाँ से प्रतिनिवर्तित होकर शब्द को उत्पन्न करती है। अत: वायु का शब्द से संयोग सिद्ध है। परिणामस्वरूप संयोग गुण द्वारा भी शब्द में द्रव्यत्व का अनुमान होता है।१३ ५. संख्या के योग से शब्द की द्रव्यत्व सिद्धि : “एक शब्द, दो शब्द, बहुत शब्द' इस प्रकार प्रतीतियों से शब्द में एकत्वादि संख्या सिद्ध है। संख्या गुणस्वरूप है और गुण द्रव्य में आश्रित होता है, इसलिए संख्या के आश्रय से शब्द को द्रव्यात्मक मानना आवश्यक है।१४ इस तरह शास्त्रवार्तासमुच्चय टीकाकार उपाध्याय यशोविजय ने न्याय-वैशेषिक सिद्धान्त के मतों से शब्द की द्रव्यता को निर्बाध प्रतिपादित किया है। जैनों ने सर्वप्रथम शब्द को पौद्गलिक (Material) और तरंग स्वरूप वेगवान प्रस्थापित कर उसे एक वैज्ञानिक आधार दिया है। आज वैज्ञानिक भी शब्द को द्रव्य रूप में स्वीकार करते हैं। सन्दर्भ : १. प्रज्ञापनासूत्र, भाषा पद २. शास्त्रवार्तासमुच्चय (स्याद्वादकल्पलता टीका सहित), १०.३६, दिव्यदर्शन ट्रस्ट, ६८, गुलालवाड़ी, मुम्बई, वि०सं० २०४४, पृ० १४९ ३. वही, १०.३६, पृ० १४९ ४. 'यत् तावद् बहिरिन्द्रियव्यवस्थापकत्वात् शब्दस्य गुणत्वमुक्तम् तदसत् रूपादीनामपि द्रव्यविविक्तानामसत्त्वेनाऽतथात्वाद् दृष्टान्ताऽसिद्धेः' - शास्त्रवार्तासमुच्चय, १०.३६, पृ० १५८ ५. वही, १०.३६, पृ० १५८ ६. जिनकी बारम्बारता २० हर्ट्ज से कम है वे इन्फ्रासोनिक तथा २०,००० हर्ट्ज से अधिक वाली ध्वनियाँ अल्ट्रासोनिक कहलाती हैं।- शब्द ब्रह्म नाद ब्रह्म, प० श्रीराम शर्मा, आचार्य वाङ्मय, अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा, १.९१
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16 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 ७. कंसपात्र्यादिध्वानाभिसंबन्धेन कर्णशष्कुल्याख्यस्य शरीरावयवस्याभिघातदर्शनेन स्पर्शवत्तया तस्य तत्सिद्धेः, स्पर्श-वेगसापेक्षक्रियाया अभिघातहेतुत्वात्। - शास्त्रवार्तासमुच्चय, पूर्वोक्त, १०.३६, पृ० १६३ ८. Masaru Emoto- Hidden Messages in Water, Published by Simon & Schuster 2011, ISBN-1451656858, www.books.google.co.in/.The_Hidden_Mess.... ९. 'शब्द तीव्रतानुविधायित्वेनाभिघातविशेषस्य तद्धेतुकत्वात्'- शास्त्रवार्तासमुच्चय, पूर्वोक्त, १०.३६, पृ० १६३ १०. वेगबन्निबिडावयवक्रिययैवाभिघातः, तत्र स्पर्शो न तंत्रमिति- वही, १०.३६, पृ० १६४ ११. न चेयत्तानवधारणं बाधकम्, वाय्वादौ तदनवधारणेऽप्यल्प-महत्त्वावधारणात्। वही, १०.३६, पृ० १६४ १२. न चात्र क्रियानिष्ठयोरेव मन्दत्वव-तीव्रत्वयोः प्रत्ययः, शब्दे तु स्वगतयोरेवेति विशेष इति वाच्यम्... वही, १०.३६, पृ० १६५ १३. वही, १०.३६, पृ० १६६ १४. वही, पृ० १६७
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मुद्राराक्षस में प्रयुक्त प्राकृतों का सार्थक्य
डॉ० रजनीश शुक्ल सांसारिक नानाविध क्रियाकलापों में संलग्न, व्यग्र, शोक-संतप्त तथा दिनभर के शारीरिक श्रम से थके-हारे, चिन्तित मानव के लिए मनोरञ्जन का एकमात्र साधन है- नाट्य या नाटकं ।
दुःखार्तानां श्रमार्तानां शोकार्तानां तपस्विनाम् ।
विश्रान्तिजननं काले नाट्यमेतद् भविष्यति ।। इस दृश्य काव्य को रूपक भी कहा जाता है- रूपकं तत्समारोपात् जिसमें दृश्यकलाओं, विद्याओं, शिल्पों एवं ज्ञान-विज्ञानों का एकत्र समावेश पाया जाता है। नाट्य का नाटक काव्य ही है कारण। इसमें विभावानुभावादि के चित्रण से अलौकिक आनन्द (रस) की उपलब्धि होती है और जब गीतसंगीतादि से अनुरञ्जित पात्रों द्वारा उसका प्रयोग दिखलाया जाता है तब वह नाटक का रूप धारण कर लेता है। नाट्य में जीवन के ऐसे व्यापारों एवं घटनाओं का निबन्धन होता है जो सूक्ष्म, कोमल, भावनात्मक तथा मर्मस्पर्शी होते हैं। संवेदनशील आन्तरिक भावों के साथ ही जिसमें बाह्य रसाकर्षक चेष्टाएँ भी समन्वित होती हैं। अत: कहा जा सकता है कि नाट्य में सभी भावों सभी प्रकार के रसों एवं क्रियाकलापों की त्रिवेणी प्रवाहित होती है'सर्वभावैः सर्वरसैः सर्वकर्मप्रवत्तिभिः। नानावस्थान्तरोपेतं नाटकं संविधीयते' ।।'३ नाट्य या रूपक के प्रधान चार तत्त्व हैं -संवाद, गीत, अभिनय तथा रस। रूपक में इन तत्त्वों को अनिवार्य बतलाया गया है। नाट्यकार अपनी रचना में जिस किसी भी भाषा का प्रयोग करता है उसका माधुर्यओज एवं प्रसाद गुण सम्पन्न तथा संवेद्य एवं सम्बोध्य होना आवश्यक है। आचार्य भरत के अभिमतानुसार नाटक वा नाट्य की भाषा मृदु, ललितपद सम्पन्न गूढ़शब्दार्थहीन और जनसुख सम्बोध्य होना चाहिए- मृदुललितपदार्थ-गूढ़शब्दार्थहीनं जनपदसुखसम्बोध्यं युक्तिमन्नश्त्ययोज्यं बहुकृतरसमार्गमं भवति जगति योग्यं नाटकं प्रेक्षकाणाम्। संस्कृत नाटकों में विशेषरूप से संस्कृत एवं जनभाषा प्राकृत का प्रयोग किया जाता है। उच्चकोटि के पुरुष पात्र तथा नायक आदि को संस्कृत का तथा नायिका एवं अन्य स्त्री पात्र और निम्नश्रेणी के समग्र पात्रों को देशज भाषा प्राकृत का प्रयोग युक्तियुक्त
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18 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 बतलाया गया है। आचार्य विशाखदत्त कृत मुद्राराक्षस इसी परम्परा की सम्पोषक नाट्यकृति है जिसका प्राकृत प्रयोगों की दृष्टि से सार्थकता बताने का प्रयास किया गया है। मुद्राराक्षस संस्कृत नाटकों में सर्वथा अनुपम एवं अपूर्व नाटक है। विशाखदत्त नाट्यशास्त्र के ज्ञाता होने के बावजूद भी एक नवीन परम्परा के जन्मदाता सिद्ध हुए हैं। विशाखदत्त की संस्कृत भाषा में विशिष्ट पद रचना की शक्तिमत्ता एवं सुस्पष्टता सर्वथा प्रशंसनीय है। विशाखदत्त की भाषा सिद्ध करती है कि विशाखदत्त एक उच्च कोटि के कलाकार थे। इनके नाटक की संस्कृत भाषा सरस तथा परिमित उपमाओं से युक्त है। परवर्ती नाटकारों में एकमात्र यही नाटककार हैं जिन्होंने अपनी रचना को नाटक समझकर लिखा है अर्थात् इनकी रचना रंगमंचीय है। दृश्यकाव्य का अधिकांश लक्षण इनके नाटक में विद्यमान है। मुद्राराक्षस में कवि ने अपनी बहुलता का परिचय देते हुए राजशास्त्र, ज्योतिष, दर्शनशास्त्र, न्यायशास्त्र आदि की पारिभाषिक पदावली का प्रयोग किया है। उनकी भाषा समासबहुला है। रौद्र एवं वीररसपूर्ण वर्णनों में समासप्रधान भाषा और संयुक्त वर्गों के संयोजन में कवि ने अपने कथन में ओजस्विता उत्पन्न की है। पदावली रसानुरूपिणी है। उन्होंने उपमा, रूपक, श्लेष, अर्थान्तरन्यास, अप्रस्तुतप्रशंसा तथा समासोक्ति आदि अलंकारों का सुन्दर प्रयोग किया है। विशाखदत्त ने अलंकारों का प्रयोग भावोत्कर्ष के लिए किया है। छन्दों में शार्दूलविक्रीडित और स्रग्धरा छन्दों की प्रधानता है। वसन्ततिलका, शिखरिणी, प्रहर्षणी, अनुष्टुप, माल्यभारिणी, पुष्पिताया, सुवदना और आर्या आदि छन्दों का भी प्रयोग किया है। मुद्राराक्षस की संस्कृत परम्परा-प्रतिष्ठित है। गद्य और पद्य दोनों में ही विशाखदत्त ने समास एवं आडम्बरयुक्त कोमल सरस एवं औचित्यपूर्ण पदावली का प्रयोग किया है। नाटककार का शब्दविन्यास ओजमय एवं कौतूहलपूर्ण है। कवि की भाषा में भावुकता के स्थान पर प्रभविष्णुता अपेक्षाकृत अधिक है। विशाखदत्त की संस्कृत भाषा में ओजोमय गद्य का विशेषतः समावेश हुआ है। किन्तु विभिन्न स्थानों पर उनकी भाषा में काव्य का लालित्यमय प्रवाह दृष्टिगोचर होता है। यथा -
आस्वादितद्विरदशोणितशोणशोभां संध्यारुणामिव कलां शशलांछनस्य। जृम्भाविदारितमुखस्य मुखात्स्फुरन्ती को हर्तुमिच्छति हरेः परिभूय दंष्ट्राम् ।।
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मुद्राराक्षस में प्रयुक्त प्राकृतों का सार्थक्य : 19 अर्थात् ऐसा कौन वीर है जो सिंह के अनुशासन का तिरस्कार कर जम्हाई लेते समय उसके खुले हुए मुख से उसकी दाढ़ी उखाड़ लेने का साहस करेगा जो तत्काल ही हाथी के वध करने के कारण उसके रक्त से रक्तिम शोभावाली और सायंकाल में
अरुण वर्ण के चन्द्रमा की कला के समान देदीप्यमान हो रहा है। मुद्राराक्षस में नाटकीय औचित्य की दृष्टि से प्राय: काव्यकल्पनाओं का अभाव है। विशाखदत्त की नाट्य-कला की तुलना भवभूति एवं कालिदास की नाट्यकला से करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें चमत्कारपूर्ण उक्ति और काव्यमय भावाभिव्यंजना का अभाव है। विशाखदत्त ने लोकोक्तियों का युक्तिसंगत प्रयोग किया है। उदाहारणार्थ - अनर्थों की बहुलता के लिए समानार्थी संस्कृत कहावत- 'अयमपरो गण्डस्योपरि स्फोटः'। पांचवें अंक का यह प्रसंग जीवसिद्धि के प्रति विश्वासघात स्पष्ट होने पर राक्षस का उद्गार है।' काव्य कला की दृष्टि से यह नाटक महत्त्वपूर्ण नहीं, चरित्र की दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस नाटक में पुरुष पात्रों की प्रधानता तथा स्त्री पात्रों का अभाव है। इस नाटक में सात अंक हैं और २३ पुरुष पात्र तथा चार स्त्री पात्र हैं। विशाखदत्त कौटिल्य के अर्थशास्त्र, शुक्रनीति एवं अन्य नीतिशास्त्रों में वर्णित विज्ञान से पूर्ण परिचित थे। अर्थशास्त्र के पारिभाषिक शब्दों का नाटककार ने अपनी रचना में प्रयोग किया है। समकालीन धर्मों का भी विशाखदत्त को ज्ञान था। बौद्धधर्म के सिद्धान्तों का प्रतिपादन भी विशाखदत्त ने क्षपणक से करवाया है। यथा -
अलिहन्ताणं पणमामो जे दे गम्भीलदाए बुद्धिए। लोउत्तलेहिं लोए सिद्धिं मग्गेहिं मग्गन्ति ।। सासणमलिहन्ताणंप्पडिवज्जह मोहबावेहिज्जाणं।
जे पढममेत्तकडुअं पच्छा पत्थं उबदिसन्ति।।' भारत की प्राचीन भाषाओं में प्राकृत भाषाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। लोक भाषाओं के रूप में प्रारम्भ में इनकी प्रतिष्ठा रही और क्रमशः ये साहित्य एवं चिन्तन की भाषाएँ बनीं। प्राकृत प्राचीन भारत के जीवन और साहित्यिक जगत् की आधारभूत भाषा है। जनभाषा से विकसित होने के कारण और जन-सामान्य की स्वाभाविक (प्राकृतिक) भाषा होने के कारण इसे प्राकृत भाषा कहा गया है। प्राचीन विद्वान् नमिसाधु के अनुसार 'प्राकृत' शब्द का अर्थ है- व्याकरण आदि संस्कारों से रहित लोगों का स्वाभाविक वचन-व्यापार। उससे उत्पन्न अथवा वही वचन व्यापार प्राकृत है। प्राक् कृत पद से प्राकृत शब्द बना है, जिसका अर्थ है पहले
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20 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 किया गया। प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति करते समय 'प्रकृत्या स्वभावेन सिद्धं प्राकृतम' अथवा 'प्रकृतीनां साधारणजनानामिदं प्राकृतम्' अर्थ को स्वीकार करना चाहिए। भिन्न-भिन्न प्रदेशों में बोले जाने के कारण स्वभावतः उनके रूपों में भिन्नता आई। उन बोलचाल की भाषाओं या बोलियों के आधार पर साहित्यिक प्राकृतें विकसित हुईं। आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र में प्राकृतों का वर्णन करते हुए मागधी, अवन्तिजा, प्राच्या, शूरसेनी, अर्धमागधी, वाह्लीका और दाक्षिणात्या नाम से प्राकृत के सात भेदों की चर्चा की है। भरत के नाट्यशास्त्र११ में धीरोदात्त और धीरप्रशान्त नायक, राजमहिषी, गणिका एवं श्रोत्रिय ब्राह्मण आदि के लिए संस्कृत तथा श्रमण, तपस्वी, भिक्षु, तापस, स्त्री,नीच जाति और नपुंसकों के लिए प्राकृत बोलने का विधान है। नाट्यशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में संस्कृत-नाटकों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि इनमें उच्च वर्ग के पुरुष अग्रमहिषियाँ, राजमन्त्रियों की पुत्रियाँ, वेश्याएँ आदि संस्कृत तथा साधारणतया स्त्रियाँ, विदूषक, श्रेष्ठी, नौकर-चाकर आदि निम्नवर्गीय पात्र प्राकृत में बातचीत करते हैं। इससे संस्कृत और प्राकृत-नाटकों की भाषिकी मिश्रणगत उभयनिष्ठता पर आधृत उस सांस्कृतिक चेतना की सूचना मिलती है जिसका पारस्परिक आदान-प्रदान उक्त दोनों भाषाओं के नाटकों में होता रहा है। इसलिए संस्कृत-नाटकों के तत्त्व की सही जानकारी की प्राप्ति प्राकृत-नाटकों के अनुशीलन से ही सम्भव है। नाट्यशास्त्र के सत्रहवें अध्याय में आचार्य भरत ने कहा है- नाटकों में चार प्रकार की भाषाएँ प्रयुक्त होती है जो संस्कृत और प्राकृतमय होती हैं।
भाषाचतुर्विथा ज्ञेया दशरूपे प्रयोगतः।
संस्कृतं प्राकृतं चैव यत्र पाठ्यं प्रयुज्यते।।१२ अतिभाषा, आर्यभाषा, जातिभाषा और न्योन्यन्तरी भाषा ये चार प्रकार की भाषाएँ हैं
और नाटकों में इनका प्रयोग विभिन्न स्थलों में होता है। प्राकृत के उपलब्ध व्याकरणों में सबसे प्राचीन प्राकृत प्रकाश के प्रणेता वररुचि ने महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी और पैशाची आदि भेदों का वर्णन किया है। महाराष्ट्री सबसे उत्तम प्राकृत के रूप में गिनी जाती थी। महाकवि दण्डी अपने काव्यादर्श में लिखते हैं कि 'महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः१३ अर्थात् कवि लोग महाराष्ट्र देश में प्रचलित महाराष्ट्री प्राकृत को सबसे उत्तम मानते थे। प्राकृत
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मुद्राराक्षस में प्रयुक्त प्राकृतों का सार्थक्य : 21 व्याकरणों में सबसे पहले इसी का वर्णन रहता है। दूसरी प्राकृतों के विषय में उनके विशेष नियम देकर कह दिया जाता है ‘शेषं महाराष्ट्रीवत्' अर्थात् शेष महाराष्ट्री की भाँति। भरत ने नाट्यशास्त्र में आवन्ती और वाह्लीकी भाषा का उल्लेख महाराष्ट्री के सन्दर्भ में किया है। उन्होंने नाटकों में धूर्त पात्रों के लिए आवन्ती का और द्यूतकारों के लिए वाह्लीकी का प्रयोग कहा है। कालिदास से लेकर उसके बाद के सभी नाटकों में पद्य में प्राय: महाराष्ट्री भाषा का ही व्यवहार देखा जाता है। नाटकों के स्त्री पात्र अपने गीत महाराष्ट्री में गाते हैं। शौरसेनी प्राकृत मध्यदेश की भाषा थी। संस्कृत-नाटकों में प्राकृत गद्यांश सामान्य रूप से शौरसेनी भाषा में लिखा गया है। भरत के नाट्यशास्त्र में शौरसेनी भाषा का उल्लेख है, उन्होंने नाटक में नायिका और सखियों के लिए इस भाषा का प्रयोग बताया है। मागधी पूर्व प्रान्त की प्राकृत है। इसका केन्द्र प्राचीन मगध देश था। नाटकों में नीच पात्र मागधी बोलते हैं। भरत के नाट्यशास्त्र में मागधी भाषा का उल्लेख है और उन्होंने नाटकों में राजा के अन्तःपुर में रहनेवाले, सुरंग खोदनेवाले, कलवार, अश्वपालक वगैरह पात्रों के लिए और विपत्ति में नायक के लिए भी इस भाषा का प्रयोग करने को कहा है।१४ परन्तु मार्कण्डेय द्वारा अपने प्राकृतसर्वस्व में उद्धृत किये हुए कोहल के ‘राक्षसभिक्षक्षपणकचेटाद्या मागधी प्राहुः' इस वचन से मालूम होता है कि भरत के कहे हुए उक्त पात्रों के अतिरिक्त भिक्षु, क्षपणक आदि अन्य लोग भी इस भाषा का व्यवहार करते थे। नाटकीय प्राकृतों में मागधी भाषा के उदाहरण देखे जाते हैं। नाटकीय मागधी के सर्व-प्राचीन नमूने अश्वघोष के नाटकों के खण्डित अंशों में मिलते हैं। भास के नाटकों में, कालिदास के नाटकों में और मृच्छकटिक आदि नाटकों में मागधी भाषा के उदाहरण विद्यमान हैं। वर्ण विकार में यह प्राकृत अन्य प्राकृतों से बहुत भेद रखती है। इसमें संस्कृत स को श और र को ल हो जाता है। य यथास्थित रहता है बल्कि ज का भी य हो जाता है। नाट्याचार्यों द्वारा परिगणित दस प्रकार के रूपकों और अट्ठारह प्रकार के उपरूपकों में भाण, डिम, बीथी, त्रोटक, सट्टक, गोष्ठी प्रेखण रसक, हल्लीसक और भाणिक
चूँकि लोकन्सट्य के प्रकार हैं, इसलिए अनुमान है कि ये मूलतः प्राकृत में ही रहे होंगे। रूपक-उपरूपक के उक्त भेदों में प्रायः वे ही पात्र हैं जो प्राकृत में कथोपकथन करते हैं। प्राकृत-भाषाओं का प्रथम नाटकीय प्रयोग संस्कृत के रूपकों में उपलब्ध होता है। संस्कृत नाटकों में मुख्यत: अश्वघोष से लेकर राजशेखर पर्यन्त के नाटकों में
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22 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 नाटकीय प्राकृत-भाषाओं का प्रचुर प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। संस्कृत भाषा जन सामान्य की भाषा नहीं पण्डितों एवं राजा तथा तत-तत् समकक्ष लोगों की भाषा थी। सामान्य लोगों के बोल-चाल की भाषा संस्कृत नहीं, प्राकृत भाषा थी। नाटकों को अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए विभिन्न भागों में प्रचलित विभिन्न प्राकृत भाषाओं का प्रयोग किया जाता था। नाटकों में अनेक प्रकार के पात्र होते हैं और वे अपनी योग्यतानुसार एवं अवस्थानुसार विभिन्न प्राकृत भाषाओं का प्रयोग करते हैं। संस्कृत नाटकों में मूलतः शौरसेनी, महाराष्ट्री और मागधी प्राकृत का प्रयोग हुआ है। कहीं-कहीं अर्द्धमागधी, अपभ्रंश एवं अन्य प्राकृतों का भी प्रयोग एकाध स्थल पर हुआ है। मृच्छकटिक और मुद्राराक्षस में नाटककारों ने नाट्यशास्त्र के नियमों को ध्यान में रखकर विभिन्न प्राकृतों का प्रयोग विभिन्न पात्रों द्वारा कराया है। प्राकृत के ऐतिहासिक स्वरूपों का विवेचन करते समय विभिन्न नाटककारों एवं काल पर ध्यान देना आवश्यक है। क्योंकि विभिन्न नाटककारों द्वारा प्रयुक्त प्राकृत के विभिन्न स्वरूप मिलते हैं और यही स्थित काल की दृष्टि से भी है। प्राचीनकाल के नाटकों में प्रयुक्त प्राकृत आधुनिक काल के नाटकों में प्रयुक्त प्राकृत से कुछ अंशों में भिन्न है। शौरसेनी प्राकृत संस्कृत नाटकों की गद्यभाषा मुख्यतः शौरसेनी प्राकृत है। शौरसेनी संस्कृत नाटकों में महिलाओं, बच्चों, नपुंसकों, ज्योतिषियों, विक्षिप्त तथा अस्वस्थ लोगों द्वारा प्रयुक्त होती है। विशाखदत्त कृत मुद्राराक्षस में शौरसेनी का प्रयोग उल्लेखनीय है। यथा - प्रथम अंक में ही प्रतिहारी की उक्ति शौरसेनी में इस प्रकार है - प्रतिहारी - “अज्ज देवो चन्दसिरी सीसे कमलमुउलाआरमंजलिं णिवेसिअ अज्जं विण्णवेदि। इच्छामि अज्जेण अब्भणण्णादो देवस्स पव्वदीसरस्स पारलोइअं का, तेण अ धारिदपुव्वाइं आहरणाई बम्हणाणं पडिवादेमित्ति।" १५ प्रतिहारी - महाराज चन्द्रमा की सी छवि धारण करने वाले महाराज कमल कलिका की भाँति अंजलि को सिर से लगाकर आपसे निवेदन करते हैं कि आपकी अनुमति से मैं राजा पर्वतेश्वर का श्राद्ध करना चाहता हूँ और उनके द्वारा पहले धारण किये गये आभूषणों को ब्राह्मणों को देना चाहता हूँ। चन्दनदास प्रथम अंक में शौरसेनी में इस प्रकार कहता है -
चाणक्कम्मि अकरुणे सहसा सहाविंदस्स वि जणस्स। णिहोस्स वि संका किं उण महं जाददोसस्स।।१६
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मुद्राराक्षस में प्रयुक्त प्राकृतों का सार्थक्य : 23 अर्थात् निर्दय चाणक्य के द्वारा किसी निर्दोष पुरुष को बुलाये जाने पर भी उसके मन में शंका उत्पन्न हो जाती है, फिर अपराधी पुरुष की तो बात ही क्या? पंचम अंक में क्षपणक द्वारा शौरसेनी में एक कथन इस प्रकार है - क्षपणक - "तदो हगे रक्खसस्स मित्तं त्ति कदुअ चाणक्कहदएण सणिकालं णअरादो णिव्यासिदे। दाणीं वि रक्खसेण अणेअअकज्जकुसलेण किंाव तालिसं आलहीअदि जेण हगे जीअलोआदो णिक्कासिज्जेमि।"१७ अर्थात् तदनन्तर क्योंकि मैं राक्षस का मित्र था, अत: चाणक्य ने अपमानित कर मुझे नगर से बाहर कर दिया। इस समय भी अनेक राजकार्यों में कुशल राक्षस के द्वारा कुछ उसी प्रकार के कार्य किये जा रहे हैं जिससे मैं अब इस संसार से ही विदा कर दिया जाऊँगा। षष्ठ अंक में हाथ से रस्सी लिए पुरुष प्रवेश करता है और शौरसेनी में कहता है"ऐसो सो पदेसो अज्जचाणक्कस्स उदुम्बरेण कहिदो जहिं मए अज्ज चाणक्काणत्तीए अमच्चरक्खसो पेक्खिदव्वो। कहं एसो क्खु अमच्चरक्खसो किदसीसावगुण्ठणो इदो एव्व आअच्छदि। ता जाव इमेहि जिण्णुज्जाणपादवेहि अन्तरिदसरीरो पेक्खामि कहिं आसणपरिग्गहं करेदि त्ति"।१८ अर्थात् यह वही स्थान है, जहाँ उदुम्बर के द्वारा मान्य चाणक्य को दी गई सूचना के अनुसार मुझे अमात्य राक्षस के दर्शन करने हैं। देखकर (क्या यही अमात्य राक्षस हैं?) सिर पर पर्दा डाले ये तो इधर ही आ रहे हैं। तो जब तक ये आसन नहीं ग्रहण कर लेते-इस उद्यान के पेड़ की आड़ से मैं छिपकर देखता हूँ। सातवें अंक में चन्दनदास द्वारा प्रयुक्त प्राकृत शौरसेनी का उदाहरण इस प्रकार है - "हद्धी हद्धी अम्हारिसाणं वि णिच्चं चारित्तभंगभीरुणं चोरजणोचिदं मरणं होदि ति णमो किदन्तस्स। अह वा ण णिसंसाणं उदासीणेसु इदरेसु वा विसेसोत्थि। तह हि"१९ अर्थात् हा धिक्कार है, धिक्कार है। चरित्रभंग होने के भय से संतप्त हमारे जैसे व्यक्ति की मृत्यु भी चोरजनों के लिए उपयुक्त मृत्यु की तरह होती है। अत: नमस्कार है-महाराज यमराज को। अथवा निर्दय व्यक्तियों के सामने पदासीनों या दूसरों में भेद नहीं हो पाता। महाराष्ट्री प्राकृत संस्कृत नाटकों में जिन प्राकृतों का प्रयोग हुआ है उनमें महाराष्ट्री सर्वश्रेष्ठ है। महाकवि दण्डी ने वाक्यादर्श में महाराष्ट्री प्राकृत को सर्वश्रेष्ठ बताया है। यथा
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24 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 'महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्राकृतं विदुः'। महाराष्ट्री में गेयता का वैशिष्ट्य है, इसमें पद बड़े ही सुकुमार होते हैं। उच्चारण की क्लिष्टता का अभाव इसकी प्रमुख विशेषता है। मुद्राराक्षस में महाराष्ट्री प्राकृत के कतिपय उदाहरण इस प्रकार हैचर का कथन महाराष्ट्री में इस प्रकार है
पणमह जमस्स चलणे किं कज्जं देवएहि अण्णेहि।
ऐसो खु अण्णभत्ताणं हरइ जी चडफडतं।। अर्थात् यमराज के चरणों में प्रणाम करो! इधर देवताओं को पूजने से क्या लाभ? क्योंकि अन्य देवताओं के उपासकों के प्राण भी यमराज हर ले जाते हैं। पुनश्च -
पुरिसस्स जीविदव्वं विसमादो होइ भत्तिगहिआदो।
मारेइ सव्वलोअं जो तेण जमेण जीआमो।।२१ अर्थात् हम सबों की जिन्दगी सदैव इस भयंकर यमराज की भक्ति पर निर्भर करती है। वही यम जो प्राणिमात्र के लिए मृत्यु है- हमारे जीवन का आधार है। नटी का एक कथन महाराष्ट्री प्राकृत का उदाहरण इस प्रकार है
अज्ज इयह्नि। अण्णाणिओएण मं अज्जो अणुगेणदु।। २२ अर्थात् आर्य! मैं आ गयी आदेश देकर मुझे अनुगृहीत करें। चतुर्थ अंक में पुरुष का कथन महाराष्ट्री प्राकृत में इस प्रकार है
दूले पच्चासत्ती दंसणमवि दुल्लहं अधण्णेहि।
कल्लाणकुलहलाणं देआणं विअ मणुस्सदेआणं। १ अर्थात् स्वर्णमय मेरु पर्वत पर रहने वाले देवताओं के समान महान एवं उन्नतवंश में उत्पन्न राजाओं को दुर्भाग्यशाली व्यक्तियों से दर्शन भी दुर्लभ है, समीप रहना तो सर्वथा कठिन है। मागधी प्राकृत भगवान बुद्ध ने जिस भाषा में उपदेश दिया था, वह निःसन्देह मागधी थी, पालि नहीं। मागधी का मूल आधार मगध के आसपास की भाषा है। वररुचि इसे शौरसेनी से निकली हुई मानते हैं- 'प्राकृत शौरसेनी' लंका में पालि को ही मागधी कहते हैं।
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मुद्राराक्षस में प्रयुक्त प्राकृतों का सार्थक्य : 25 संस्कृत नाटकों में नीच कोटि के पात्र मागधी का प्रयोग करते हैं। क्षपणक, चाण्डाल, सिद्धार्थक, समिद्धार्थक, चेट, चेटी, वज्रलोमा आदि पात्र मागधी का प्रयोग करते हैं। मुद्राराक्षस के सप्तम् अंक के तृतीय श्लोक में मागधी का प्रयोग इस प्रकार है -
मोतूण आमिसाइं मरणभएण तिणेहिं जीअंतं।
वाहाण मुद्धहरिणं हन्तुं को णाम णिब्बंधो।। २४ अर्थात् मृत्यु भय से मांस छोड़कर तृणों से जीवन-यापन करने वाले भोले हिरणों को मारने में शिकारियों का कौन सा आग्रह है। मुद्राराक्षस के सप्तम् अंक में चाण्डाल वालोमा के कथन में भी मागधी का प्रयोग देखा जा सकता है -
एसो अज्जणीदिसंजमिदबुद्धिपुलिसआले गिहीदे अमच्चरक्खसे त्ति। २५ अर्थात् आर्य की नीति से कुण्ठित बुद्धि और पुरुषार्थवाले अमात्य राक्षस पकड़ लिये गये हैं। राक्षस द्वारा द्वितीय अंक में मागधी का प्रयोग द्रष्टव्य है -
पाऊण निरवसेसं कुसुमरसं कुसलदाए अत्तणो।
जं उग्गिरेइ भमरो अण्णाणं कुणइ तं कज्ज।। २६ अर्थात् भ्रमर (मधुमक्खी ) अपनी चतुरता से समस्त पुष्परस को पीकर जो वस्तु बाहर निकालता है, वह दूसरे (देव पित) के कार्य को करता है। इसका पक्षान्तर यह है कि भ्रमर के समान मैं आपका दूत अपनी चतुरता से समस्त कुसुमपुर के वृत्तान्त को जानकर आपसे जो कुछ कहता हूं, वह कहा हुआ मेरा वचन आपके सन्धि, विग्रह आदि कार्य का साधन बनेगा। षष्ठ अंक के प्रारम्भ में ही सिद्धार्थक का कथन इस प्रकार है -
जअदि जलदणीलो केसवो केसिघादी जअदि अ जणदिट्टि चन्दमा चन्दउत्तो। जअदि जअणकज्जं जाव काऊण सव्वं।
पडिहदपरपक्खा अज्जचाणक्कणीदी।। २७ अर्थात् मेघ के समान श्यामवर्ण वाले तथा केशी नामक राक्षस को मारने वाले विष्णु की जय हो। मनुष्यों की दृष्टि के लिए चन्द्रतुल्य चन्द्रगुप्त की जय हो। युद्धार्थ उद्यत
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सेना के बिना शत्रुपक्ष को नष्ट कर देने वाली आर्य चाणक्य की नीति की जय हो। इसी अंक में समिद्धार्थक भी मागधी में ही कहता है
संदावे बतारेसाणं गेहूसवे सुहाअत्ताणं।
हिअअट्ठिदाणं विहवा विरहे मित्ताणं दूणन्दि।। २८ अर्थात् दुःख में शीतल शशि की भाँति संताप-हारक, घर के उत्सवों में सुखदायक, हृदय में सदैव विद्यमान मित्रों के विरह में ऐश्वर्य भी पीड़ित करते हैं। सप्तम् अंक में वज्रलोमा का कथन मागधी में इतना सुन्दर है। यथा -
जइ महह लक्खिदुं शेप्याणे विहवे कुलं कलत्तं ।
ता पलिहलेह विसमं लाआपत्थं सुदूलेण।।२९ यदि अपने प्राण, विभव, कुल और कलत्र की रक्षा करना चाहते हो तो विष की भांति राजा के लिए अपथ्य अर्थात् अवांछनीय पदार्थ का प्रयत्न पूर्वक परित्याग करो। इस प्रकार इस नाटक के विभिन्न पात्रों ने शौरसेनी, मागधी और महाराष्ट्री का प्रयोग किया है। प्रियंवदक, पुरुष, दौवारिक जैसे पात्र शौरसेनी का ही प्रयोग करते हैं। उपसंहार संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में मुद्राराक्षस अश्वघोष, कालिदास, भास आदि द्वारा रचित नाटकों की अपेक्षा नवीन शैली में प्रणीत नाटक है। यह विशाखदत्त का एक अद्भुत नाटक है, जिसमें सात अंक हैं। इस नाटक में पुरुष तथा नारी पात्रों में जो पात्र प्राकृतभाषी हैं उनमें नटी, चर, प्रतिहारी, सिद्धार्थक, चन्दनदास, आहितुण्डिक, प्रियंवदक, पुरुष दौवारिक, करभक, क्षपणक, समिद्धार्थक, चाण्डाल, कुटुम्बिनी और पुत्र जैसे पात्र मुख्य हैं। इस नाटक में मुख्यत: तीन प्राकृत- शौरसेनी, महाराष्ट्री और मागधी का प्रयोग मिलता है। गद्य की भाषा सामान्यतः शौरसेनी है और पद्य की भाषा महाराष्ट्री। किन्तु यह विधान स्त्रियों के साथ लागू नहीं होता है। कुछ पुरुष पात्र पद्य भाग को भी शौरसेनी में ही प्रस्तुत करते हैं। विशाखदत्त ने प्राकृतों का प्रयोग व्याकरण के नियमानुसार किया है। मुद्राराक्षस रूपक में शौरसेनी, महाराष्ट्री (पद्य में) और मागधी (क्षपणक, सिद्धार्थक और चाण्डाल बोलते हैं) प्राकृतों का प्रयोग हुआ है। विशाखदत्त द्वारा प्रयुक्त प्राकृत के स्वरूप को देखने से प्रतीत होता है कि इनकी प्राकृत भाषा सर्वथा कृत्रिम अर्थात् व्याकरणमूलक
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मुद्राराक्षस में प्रयुक्त प्राकृतों का सार्थक्य : 27 है। क्योंकि कतिपय हस्तलिखित प्रतियों में मागधी के विशिष्ट लक्षणों का निर्वाह किया गया है। जैसे-संस्कृतं 'न्य' के स्थान पर ‘ण्ण,' 'क्ष' के लिए 'हक', 'च्छ' के लिए 'श्च', 'स्थ' के लिए 'स्त', 'ष्ठ' के लिए 'ष्ट का प्रयोग मिलता है। साथसाथ श, ल, और ए का प्रयोग मिलता है। मुद्राराक्षस में शौरसेनी पद्यों के चिह्न भी दृष्टिगोचर होते हैं। यह शास्त्र नियमानुकूल है, क्योंकि गद्य में शौरसेनी का प्रयोग करनेवालों के लिए महाराष्ट्री में गाना आवश्यक नहीं है। ऐसी बात केवल स्त्रियों के साथ देखी जाती है। इस नाटक में शौरसेनी पद्यों का प्रयोग करने वाले पुरुष ही है। अतः पद्य में शौरसेनी का भी प्रयोग अनुचित नहीं है। मद्राराक्षस की रचना पर विचार करने से पता चलता है कि यह रचना कालिदास, भवभूति, भास एवं शूद्रक की रचना की भाँति प्राकृत की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं है फिर भी इस नाटक में प्राकृत प्रयोगों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सन्दर्भ :
१. नाट्यशास्त्र, भरत, १/११४ २. दशरूपक १/७,उद्धृत हिन्दी दशरूपक, सम्पा. डॉ. सुधाकर मालवीय, कृष्णदास
अकादमी, वाराणसी, १९९५, पृ.६ पृ०.७ ३. नाट्यशास्त्र, १९/१४७ ४. वस्तु नेता रसस्तेषां भेदकः। दशरूपक १/११, पूर्वोक्त पृ० १३ ५. नाट्यशास्त्र १९/१५२ (मूल) ६. मुद्राराक्षस, विशाखदत्त, अनु. आर.डी.कर्मर्कर, चौखम्भा संस्कृत प्रतिष्ठान, दिल्ली
२००२,अंक १/८ ७. वही, पृ० १६५ ८. वही, ५/२ ९. वही, १४/१८ १०. नाट्यशास्त्र १७/४९ ११. वही, १७/३१,४३ १२. वही, १७/२६ १३. काव्यादर्श, १/३४ १४. मागधी तु नरेन्द्रणामन्तःपुरनिवासिनाम्। नाट्यशास्त्र, १७/५१
सन्धिकारश्व रक्षताम् । व्यसने नायकानां चाप्यात्मरक्षासु मागधी, वही १७/५७ १५. मुद्राराक्षस, पूर्वोक्त, पृ.२३ १६. वही, १/२१ १७. वही, पृ. १४२
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28 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 १८. वही, पृ. १७६ १९. वही, पृ. १९५ २०. वही, १/२१ २१. वही, १/१८ २२. वही, पृ. ४ २३. वही, ४/४ २४. वही, ७/३ २५. वही, पृ.२०२ २६. वही २/११ २७. वही, ६/१ २८. वही, ६/२ २९. वही, ७/१
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आगमों में वादविज्ञान
डॉ. श्वेता जैन तत्वबोध के लिए गुरु-शिष्य के मध्य हुआ संवाद या दो विद्वानों या व्यक्तियों के मध्य हुआ विमर्श वाद कहलाता है। वाद सद्धर्म की प्रस्तुति, सुलक्षण की स्थापना और दुर्लक्षण की निवृत्ति तथा मिथ्या धारणाओं के खण्डन के लिए किया जाता रहा है। उपायहृदयकार तो यहाँ तक कह देते हैं- 'यदीह लोके वादो न भवेत्, मुग्धानां बाहुल्यं स्यात्” यदि लोक में वाद नहीं होगा, तो मूढ़ लोगों की बहुलता हो जाएगी। अर्थात् वाद मूढ़ता के नाश के लिए किया जाता रहा है। कहा भी गया है - 'मोहो विण्णाण विवच्चासो र विवेक ज्ञान का विपर्यास ही मोह या मूढ़ता है। अतः मूढ़ता के नाश हेतु किया गया वाद ज्ञान का सेतु या साधन है।
ज्ञान के सेतु या साधन के रूप में कृत वादों के अनेक उदाहरण आगमों में प्राप्त होते हैं। उपासकदशांगसूत्र के सातवें अध्ययन में भगवान् महावीर का सकडालपुत्र से नियति की कारणता को लेकर वाद होता है। इस वाद में भगवान् द्वारा ऐसे हेतु उपस्थापित किये जाते हैं, जिनका वह प्रत्युत्तर नहीं दे पाता है और अन्त में उसे पुरुषार्थ की महत्ता का बोध होता है। मिट्टी के बर्तन आदि नियति से बनते हैं, पुरुषार्थ से नहीं - सकडालपुत्र द्वारा यह कहने पर भगवान् महावीर उससे पूछते हैं कि कोई अग्निमित्रा के साथ विपुल भोग भोगे तो तुम क्या करोगे ? उत्तर में वह कहता है कि मैं उसे पीयूँगा, बाँध दूंगा, धमकाऊँगा, उसकी भर्त्सना करूँगा। तब भगवान् कहते हैं- 'तो जं वदसि - नत्थि उट्ठाणे इ वा जाव नियया सव्वभावा, तं ते मिच्छा'। तुम प्रयत्न, पुरुषार्थ आदि के न होने की तथा होनेवाले सब कार्यों के नियत होने की जो बात कहते हो, वह असत्य
प्रस्तुत वाद में यह बात उभर कर आ रही है कि जिस नियति के सिद्धान्त को सकडाल स्वीकार करता है, उसका आचरण या व्यवहार में अनुपालना करने में वह असमर्थ है। अतः जो सिद्धान्त सैद्धान्तिक रूप में तो सिद्ध होता है, किन्तु व्यवहार में असिद्ध है, उसका स्वीकरण नहीं हो पाता - ऐसा तत्त्वबोध इस वाद से होता है। उपासकदशांग के छठें अध्ययन में कुण्डकौलिक और देव के मध्य इसी तरह का वाद प्राप्त होता है, जिससे पुरुषार्थ की कारणता की सिद्धि होती है।
राजप्रश्नीयसूत्र में केशीश्रमण और राजा प्रदेशी का 'शरीर भिन्न है और जीव भिन्न है' विषय को लेकर वाद हुआ। राजा प्रदेशी के कुल में यह मान्यता चली आ रही थी कि जो जीव है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है। वह इस सिद्धान्त के औचित्य को तर्कों और प्रयोगों के आधार पर सिद्ध करते हुए कहता है
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30 : श्रमण, वर्ष 66., अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 १. मेरे पितामह अधार्मिक होने से यदि नरक में गए, तो वे अपने प्रिय पौत्र (मुझे) को यह कहने नहीं आए कि अधर्म मत करना। कहने का तात्पर्य यह है कि जीव ।
और शरीर एक हैं तभी तो मृत्यु के बाद कोई अस्तित्व नहीं रहा, अत: वे मुझे कहने नहीं आए। यदि शरीर और जीव भिन्न-भिन्न होते तो उनका जीव नया शरीर धारण करके भी प्रेमवश मुझे सजग करने जरूर आता। अत: जीव ही शरीर है। २. मेरी दादी धार्मिक प्रवृत्ति की थीं, वह भी स्वर्ग में जाकर मुझे चेताने या बताने नहीं आयीं। ३. अपने कृत प्रयोगों के आधार पर राजा कहता है कि लोहे की कुम्भी को लेप आदि से बन्द करने के बावजूद भी उसमें डाले गए जीवित पुरुष के मृत होने पर उस जीव के उसमें से निकलने के दरार आदि कोई निशान नहीं हैं। ४. लोहे की कुम्भी को लेप आदि से बन्द करने के बाद भी उसमें रखे हुए मृत शरीर में कृमि उत्पन्न हो गए। बिना छेद की बन्द कुम्भी में जीव कैसे प्रविष्ट हो गए? ५. तरुण और ताकतवर पुरुष एक साथ पाँच बाण निकालने में समर्थ होता है, किन्तु शक्तिहीन पुरुष पाँच बाण निकालने में समर्थ नहीं होता है। अत: जीव और शरीर एक हैं क्योंकि शरीर के बलशाली और अबलशाली होने से ही कार्य शक्ति में अन्तर आता है। ६. तरुण पुरुष वजनदार लोहे के भार को उठाने में समर्थ होता है जबकि एक वृद्ध पुरुष समर्थ नहीं होता है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि जीव और शरीर एक है। ७. जीवित मनुष्य और मृत मनुष्य के तौल में अन्तर नहीं होने से जीव और शरीर की भिन्नता सिद्ध नहीं होती। ८. जीवित व्यक्ति के टुकड़े-टुकड़े करके देखने पर भी उसमें कहीं जीव दिखाई नहीं दिया। अत: जीव की कोई पृथक् सत्ता नहीं है। उपर्युक्त सभी तर्कों के युक्तियुक्त उत्तर देकर राजा प्रदेशी को केशीश्रमण ने सन्तुष्ट किया। इसप्रकार वाद के प्रयोग से राजा के विचारों में परिवर्तन हो सका। सूत्रकृतांग में भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्य निर्ग्रन्थ उदक पेढालपुत्र का प्रत्याख्यान विषयक प्रश्न और गौतम गणधर के समाधान का एक सुन्दर वाद प्रस्तुत है। इसमें 'वाद' शब्द का प्रयोग करते हुए प्रश्न पूछा गया है-'सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वदासी'। उदक निम्रन्थ कहते हैं कि कुमारपुत्र नामक श्रमण निर्ग्रन्थ
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आगमों में वादविज्ञान : 31 गृहस्थ श्रमणोपासकों को इस प्रकार करवाते हैं- 'नन्नत्थ अभिजोएणं गाहावतीचरग्गहणविमोक्खणयाए तसेहिं पाणेहिं णिहाय दण्डं' । किन्तु यह दुष्प्रत्याख्यान है, उन्हें -'तसेहिं पाणेहिं' के स्थान पर 'तसभूतेहिं पाणेहिं' से प्रत्याख्यान करवाना चाहिए। उदक निम्रन्थ दुष्प्रत्याख्यान की सिद्धि में हेतु देते हैं कि अभियोगों का आगार रखकर जो श्रावक त्रस प्राणियों की हिंसा का प्रत्याख्यान करते हैं, वे कर्मवशात् उन त्रसजीवों के स्थावर जीव के रूप में उत्पन्न होने पर उनका वध करते हैं, ऐसी स्थिति में वे प्रतिज्ञाभंग करते हैं, उनका प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान हो जाता है। मेरा (उदक निर्ग्रन्थ का) मन्तव्य है कि 'त्रस' पद के आगे 'भूत' पद को जोड़कर त्याग कराने से प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है। समाधान में गणधर गौतम कहते हैं कि श्रमणोपासक को उसी प्राणी को मारने का त्याग है, जो वर्तमान में 'त्रस' पर्याय में है, वह जीव भूतकाल में स्थावर रहा हो या वर्तमान में त्रस से स्थावर बन गया हो, उससे उसका कोई प्रयोजन नहीं, न उससे उसका व्रतभंग होता है, क्योंकि कर्मवश पर्याय-परिवर्तन होता रहता है। जैन विद्वान श्री चन्द सुराणा 'सरस' ने इसके विवेचन में 'भूत' पद की अनुपयुक्तता के तीन कारण बतलाए हैं(१) 'भूत' शब्द का प्रयोग निरर्थक है, पुनरुक्तिदोषयुक्त है। (२) 'भूत' शब्द 'त्रससदृश' होने से अभीष्ट नहीं है। (३) 'भूत' शब्द उपमार्थक होने से उसी अर्थ का बोधक होगा, जो निरर्थक है। इस प्रकार वाद विषय-निर्णय के लिए भी किए गए। उत्तराध्ययन सूत्र के २३वें अध्ययन में पार्श्व परम्परा के केशीकुमार श्रमण और गणधर गौतम के मध्य दोनों परम्पराओं के आचार भेद और विचारभेद को लेकर वाद हुआ है। जब पार्श्व और महावीर- इन दोनों परम्पराओं के शिष्य एक दूसरे के परिचय में आए तो उनके मन में वेश एवं व्रत-नियम के अन्तर को देखकर तर्क-वितर्क खड़ा हुआ। ऐसी स्थिति में केशीश्रमण और गौतम श्रमण ने शिष्यों की उपस्थिति में परस्पर एक-दूसरे से मिलकर धर्मवाद कर समाधान करना आवश्यक समझा। वाद करने से यह समझ में आया कि हमारा मूल लक्ष्य एक ही है, उसमें कोई अन्तर नहीं है, किन्तु मानव मन की बदलती हुई गति एवं साधकों की योग्यता को देखकर विभिन्नता की गई है। पंच महाव्रत स्थापित करने तथा श्वेत वस्त्र या निर्वस्त्र की परम्परा प्रचलित करने की कारणता शिष्यों को स्पष्ट की गई। बाह्याचार वेश का प्रयोजन केवल लोक प्रतीति है। मोक्ष रूप लक्ष्य एक है, उसके वास्तविक साधन ज्ञान-दर्शन-चारित्र सबके समान हैं।
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32 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में अप्रत्याख्यानक्रिया के सम्बन्ध में गणधर गौतम ने भगवान महावीर से जिज्ञासा की कि क्या श्रेष्ठी और दरिद्र को, रंक और क्षत्रिय (राजा) को अप्रत्याख्यान क्रिया अर्थात् कर्मबन्ध समान होता है ? भगवान् हेतु सहित उत्तर देते हुए कहते हैं-'गोयमा! अविरतिं पडुच्च; से तेणट्टेणं गोयमा! एवं वुच्चइ सेटिट्ठस्स य तणुयस्स य किविणस्स य खत्तियस्स य समा चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ।' अर्थात् हे गौतम! अविरति के कारण श्रेष्ठी, दरिद्र, कृपण (रंक) और राजा को अप्रत्याख्यान क्रिया -कर्मबन्ध समान होता है। यह वाद स्पष्ट कर रहा है कि कर्म-बन्धन का नियम राजा और रंक में कोई भेद नहीं करता है, वह सबके लिए समान है। अत: धर्म-साधना कोई गरीब भी उतने ही सामर्थ्य से कर सकता है, जितना कि कोई अमीर व्यक्ति। व्याख्याप्रज्ञप्ति के द्वितीय शतक में स्थविरों और श्रमणोपासकों के मध्य संयम और तप-फल के सम्बन्ध में वाद हुआ। श्रमणोपासकों के पूछने पर स्थविर कहते हैं कि संयम का फल अनास्रवता और तप का फल व्यवदान अर्थात् कर्मों का विशेष रूप से काटना या मलिन आत्मा को शुद्ध करना है। प्रत्युत्तर में श्रमणोपासक पुनः प्रश्न करते हैं कि यदि संयम का फल अनास्रवता है और तप का फल व्यवदान है तो देव देवलोक में किस कारण से उत्पन्न होते हैं? यह प्रतिप्रश्न संकेत करता है कि उनके मन में यह धारणा बनी हुई है कि संयम और तप से देवलोक प्राप्त होता है। स्थविर इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि रागयुक्त तप से, सराग-संयम से, कर्मिता (कर्मक्षय न होने से), संगिता (द्रव्यासक्ति) से देव देवलोक में उत्पन्न होते हैं। इस वाद के द्वारा श्रमणोपासकों की संयम और तप से देवलोक-प्राप्ति की मिथ्याधारणा समाप्त हो गई तथा वे संयम और तप के सम्यक् प्रयोजन को समझ पाए। इसप्रकार जैनागमों में श्रमणों, श्रमणोपासकों और स्वयं भगवान महावीर के वादों का वर्णन प्रस्तुत हुआ है। तत्त्वबोध के प्रयोजन से किये जाने वाले ये वाद वीतरागकथा कहे जाते हैं क्योंकि इनमें जय-पराजय को कोई स्थान नहीं होता है। धर्मप्रचार के साधन के रूप में वाद का महत्त्व रहा है। यही कारण है कि भगवान् महावीर के ऋद्धिप्राप्त शिष्यों की गणना में वाद-प्रवीण शिष्यों की पृथक् गणना की गई है। स्थानांगसूत्र में कहा है'समणस्स णं भगवओ महावीरस्स चत्तारि सया वादीणं सदेवमणुयासुराए . परिसाए अपराजियाणं उक्कोसिता वादिसंपया हुत्था'।
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आगमों में वादविज्ञान : 33 श्रमण भगवान् महावीर के वादी मुनियों की संख्या चार सौ थी। वे देव-परिषद्, मनुज-परिषद् और असुर-परिषद् में अपराजित थे। यह उनके वादी शिष्यों की उत्कृष्ट सम्पदा थी। स्थानांगसूत्र में कथा के भेदों का वर्णन करते हुए कहा गया है-'चउव्विहा कहा पण्णत्ता, तंजहा- अक्खेवणी, विक्खेवणी, संवेयणी, णिवेदणी'।१० कथा के चार प्रकार हैं- १ आक्षेपणी २ विक्षेपणी ३ संवेदनी ४ निवेदनी। संवेदनी और निर्वेदनी कथाएँ वे हैं, जिनमें गुरु अपने शिष्य को संवेग और निर्वेद की वृद्धि के लिए उपदेश देता है। आक्षेपणी कथा गुरु और शिष्य के बीच होने वाली धर्मकथा है, जिसे जैनमतानुसार वीतराग कथा और न्यायशास्त्र के अनुसार तत्त्वबुभुत्सु कथा कहा जा सकता है। इसमें आचारादि के विषय में शिष्य की शंकाओं का समाधान आचार्य करते हैं। विक्षेपणी कथा में स्वसमय और परसमय दोनों की चर्चा है। यह कथा गुरु और शिष्य में हो तब तो वीतराग कथा ही है, यदि जयार्थी प्रतिवादी के साथ कथा हो तो वह वाद-विवाद कथा में समाविष्ट होता है। इसप्रकार ये कथाएँ ही वाद के रूप में नियोजित हैं। वाद या कथा के द्वारा व्यक्ति के मन में रही हुई गलत धारणाओं को निर्मूल किया जाता है और जिज्ञासाओं को शान्त किया जाता है। अत: वाद का मन के विज्ञान से सीधा-सीधा सम्बन्ध है। मनोविज्ञान की प्रसिद्ध अन्तर्निरीक्षण और प्रेक्षण विधियाँ वाद की अन्त:क्रिया को स्पष्ट करती हैं। विलियम वुण्ट की अन्तर्निरीक्षण विधि अन्त:वाद से तथा वाट्सन की प्रेक्षण विधि सद्वाद से सम्बद्ध है। स्वयंबुद्ध स्तर के व्यक्ति दूसरों से वाद न करके अन्त:वाद (स्वयं से वाद करना) कर स्वप्रज्ञा से प्रबुद्ध हो जाते हैं। उनके अन्तर में चलने वाली इस वाद-विधि को अन्तर्निरीक्षण विधि के अन्तर्गत समाविष्ट किया जा सकता है। सामान्य जन गुरु से वाद करके, विद्वानों से वाद करके प्रबुद्ध होते हैं तो उनकी यह विधि प्रेक्षण-विधि में शामिल की जा सकती है। इस विधि में अन्य व्यक्ति अर्थात् गुरु आदि शिष्य की मनोवृत्तियों का निरीक्षण कर उसे वाद शैली से प्रबुद्ध बनाते हैं। प्रस्तुत आगमिक वादों में मनोवैज्ञानिकता स्पष्ट दृग्गोचर होती है। जैसे- भगवान् महावीर द्वारा सकडालपुत्र को सीधे अपने सिद्धान्तों को नहीं समझाया गया, अपितु उसकी पूर्वमान्यता को प्रायोगिक रूप से अव्यावहारिक सिद्ध कर पुरुषार्थ की महत्ता को बताया गया। केशीश्रमण ने राजा प्रदेशी को समझाने में उन्हीं तों को खण्डित करने वाले तर्क दिए, न कि अन्य तर्क। यह प्रतीतिगम्य है कि जब तक व्यक्ति को स्वयं के तर्क दोषपूर्ण नहीं लगते तब तक अन्य हेतु अथवा दूसरे के सिद्धान्त उसको .
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34 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 बुद्धिगम्य नहीं होते। इन सब बातों से केशीश्रमण की मनोज्ञता प्रकट होती है। केशीगौतम वाद तो पूर्ण रूप से मनोवैज्ञानिक है। वहाँ मानव-मन की बदलती हुई गति को देखते हुए बाहरी आचार-नियमों में परिवर्तन को आवश्यक बताया है। कर्मबन्ध में श्रेष्ठित्व या दरिद्रता कारण नहीं है, अपितु मन के भावों की उच्चावचता, रागद्वेषात्मकता कारण होती है। स्थविरों द्वारा श्रमणोपासकों के मन में बनी हुई वैचारिक प्रन्थियों को समझकर प्रत्युत्तर देना मनोवैज्ञानिकता को ही पुष्ट करता है। निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि वाद-विद्या में न केवल समुचित तकों से उत्तर दिया जाता है, अपितु श्रोता की मानसिकता को समझकर मनोवैज्ञानिक ढंग से उत्तर देकर श्रोता के मस्तिष्क और हृदय दोनों को सन्तुष्ट किया जाता है। संदर्भः १. उपायहृदय, प्रथम प्रकरण, पृष्ठ १ २. निशीथचूर्णि, २६-द्रष्टव्य: जैनधर्म की हजार शिक्षाएँ, मधुकर मुनि, मुनिश्री हजारीमल
स्मृति प्रकाशन, व्यावर, १९७३, पृष्ठ २०३ ३. उवासकदसाओ, मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८०, अध्य. ७, सूत्र २००, पृ. २५१ ४. राजप्रश्नीयसूत्र, सूत्र २३५-२७०, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर ५. सूत्रकृतांगसूत्र, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, सप्तम् अध्ययन, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर,
सूत्र ८४७, पृ. १८९ ६. वही, सूत्र ८८६, पृ. १८८ ७. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, प्रथम शतक, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, उद्देशक ९, सूत्र २५, पृ. १५२ ८. वही, द्वितीय शतक, उद्देशक ५, सूत्र १६-१९, पृ. २१९-२० ९. स्थानांगसूत्र, स्थान ४, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, सूत्र ६४८, पृ. ४४३ १०. वही, स्थान ४
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जैन एवं बौद्ध दर्शन में प्रमा का स्वरूप एवं उसके निर्धारक तत्त्व
डॉ० ज्योति सिंह श्रमण परम्परा की धारा में बौद्ध और जैन दर्शन प्रमुख प्रवाह हैं। अन्य दर्शनों की भाँति इन दर्शनों में भी सत्य और असत्य ज्ञान के निर्धारण के विषय में सत्य ज्ञान को 'प्रमा' और असत्य ज्ञान को 'अप्रमा' कहा गया है। ज्ञान यावत् व्यवहार का असाधारण कारण है। प्रत्येक वस्तु ज्ञान के द्वारा ही ज्ञात हो सकती है। वस्तु के ज्ञान के पश्चात् उससे स्वार्थ की सिद्धि की आशा होने पर उसे पाने की, स्वार्थ-विधात की आशंका होने पर उसे हटाने की तथा स्वार्थ एवं स्वार्थ-विघात दोनों की असंभावना में औदासीन्य की प्रवृत्ति देखी जाती है। यदा-कदा ऐसा भी होता है कि किसी वस्तु को इष्ट का साधन समझकर, उसे प्राप्त करने की चेष्टा के अनन्तर, वह वस्तु किसी अन्य प्रकार की दृष्ट होती है, जैसे शुक्ति में रजत की बुद्धि। अतः प्रवृत्ति संवाद अर्थात् जो वस्तु जिस रूप में ज्ञात होती है, उसकी उसी रूप में व्यवस्थित होने एवं न होने के आधार पर भी ज्ञान का भेद होना आवश्यक है। चिंतकों ने सम्पूर्ण व्यवहार के ज्ञान के द्वारा उत्पन्न होने पर भी संवादी एवं विसंवादी रूप में उसके द्विधा विभक्त-स्वरूप के आधार पर उसके प्रमा एवं अप्रमा दो भेद किये हैं। जिस ज्ञान के विषय का प्रवृत्ति के साथ संवाद देखा उसे प्रमात्मक तथा जिस ज्ञान के साथ प्रवृत्ति का विसंवाद देखा उसे अप्रमात्मक या भ्रम कहा। प्रमा के स्वरूप और उसके निर्धारक तत्त्वों की समस्या यह है कि सामान्यत: सत्य ज्ञान को प्रमा तथा असत्य ज्ञान को अप्रमा कहा जाता है। भारतीय दर्शनों में भी अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुसार प्रमा का स्वरूप निर्धारण किया गया हैं। जैसे कोई दार्शनिक संप्रदाय अनधिगतता (नवीनता) को प्रमा का निर्धारक तत्त्व मानते हैं तो अन्य दार्शनिक संप्रदाय अबाधिता को प्रमा का निर्धारक तत्त्व मानते हैं, तो कुछ दार्शनिक ऐसे भी हैं जो उपयोगिता को प्रमा की प्रमुख कसौटी या निर्धारक तत्त्व मानने पर बल देते हैं। अतएव अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुरूप, निश्चित व्यवहार की उपपत्ति के लिए दार्शनिकों ने प्रमात्मक ज्ञान की विभिन्न परिभाषायें प्रस्तुत की हैं। प्रमात्मक ज्ञान की परिभाषाओं में इस विभिन्नता का हेतु, विभिन्न संप्रदायों के तत्त्व विनिश्चय में उपजीव्य सूक्ष्म एवं स्थूल-प्रपंच के प्रति उनका विशेष दृष्टिकोण है। मैंने अपने शोधपत्र में जैन और बौद्ध दर्शन के प्रमा के स्वरूप व निर्धारक तत्त्व पर क्रमशः विचार किया हैं क्योंकि इन दोनों दर्शनों में आचार मीमांसा व संस्कृति की दृष्टि में समानता है परन्तु प्रमा के विषय में पर्याप्त भेद है।
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36 : श्रमण, वर्ष 65, अंक 2 अप्रैल-जून, 2015
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सर्वप्रथम बौद्ध दार्शनिक ज्ञान को प्रमाण और अप्रमाण भेद से द्विधा विभक्त स्वीकार करते हैं। यहाँ 'प्रमाणं' शब्द 'प्रमा' का ही अपर पर्याय है। बौद्ध दार्शनिक धर्मोत्तर ने वैध ज्ञान अर्थात्, प्रेमा को अनधिगत, अविसंवादी और अर्थक्रिया समर्थ कहा है। धर्मोत्तर के अनुसार प्रमा का महत्त्व उस वस्तु को प्राप्त करने वाली क्रिया में सहयोग देने में है। जिसका ज्ञान प्राप्त किया जा रहा है। अर्थात् किसी वस्तु 'क' के ज्ञान से यदि हम 'क' को पा ले रहे हैं तो 'क' का ज्ञान वैध है। धर्मोत्तर का मानना है कि अधिगत ज्ञान से इस प्रकार के लक्ष्य की पूर्ति नहीं होती अर्थात् जब प्रथमतया हमें उस विषय का ज्ञान होता है तभी हम वस्तु की ओर आगे बढ़ते हैं। दुबारा प्राप्त ज्ञान आगे बढ़ने में हमारी सहायता प्रेरक रूप में करता है । अतः इस प्रकार का ज्ञान अनधिगत नहीं है, प्रमा नहीं है । बौद्ध दर्शन की इस दृष्टि से स्मृति प्रमा नहीं है। संशय और भ्रम भी प्रमा नहीं है क्योंकि इससे भी किसी लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती । भ्रामक ज्ञान लक्ष्य प्राप्ति में साधक न होने के कारण प्रमा के अन्तर्गत नहीं आता । संशय में एक ही वस्तु विषयक ज्ञान एक ही समय में विभिन्न कोटिक ज्ञान उद्भासित करता है। ऐसा किसी भी वस्तु स्वरूप के लिए संभव नहीं है और संशय भी लक्ष्य की प्राप्ति में साधक नहीं होता है। इसी कारण बौद्ध मत तो स्पष्ट रूप से इस विषय पर आग्रह करता है कि अनधिगतता प्रमा का आवश्यक लक्षण है। इसके अनुसार अधिगत (ज्ञात) ज्ञान प्रमा की श्रेणी में नहीं आता। अतः बौद्ध दर्शन का मत है कि किसी भी ज्ञान में जब तक निश्चितता या संशयरहितता तथा अनधिगतता की अनुभूति न हो, वह प्रमा नहीं होता ।
बौद्ध अविसंवादकता को भी प्रमा का अनिवार्य लक्षण या निर्धारक तत्त्व मानते हैं। बौद्धों द्वारा दिया गया 'अविसंवादी' का अर्थ भाट्ट मीमांसकों के 'अविसंवादी' के अर्थ से भिन्न है। बौद्धों के अनुसार ज्ञान की वस्तु अगर उस ज्ञान के माध्यम से प्राप्त की जा सके तो ज्ञान अविसंवादी है और वह प्रमा की कोटि में आ सकती है। जैसे पर्वत पर धूम को देखकर हमें अग्नि का ज्ञान हो रहा है। अग्नि के इस ज्ञान से उस स्थान पर जाकर यथार्थतः अग्नि प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार बौद्ध प्रमा की व्यवहारवादी परिभाषा देते हैं। उनके अनुसार प्रमा का चरम उद्देश्य अर्थ सिद्धि है इसलिए वे अविसंवादिता को प्रमा का प्रमुख निर्धारक तत्त्व मानते हैं। बौद्धों के द्वारा बतलाये गये प्रमा के इस अविसंवादिता के लक्षण का और अधिक स्पष्ट रूप डॉ० अम्बिका दत्त शर्मा अपनी पुस्तक में वर्णित करते हैं कि अविसंवाद भी दो प्रकार से देखा गया है- व्यवहार अविसंवाद तथा ज्ञान अविसंवाद, जिसे दूसरे शब्दों में अबाधिता भी कह सकते हैं। वास्तव में यह दोनों प्रकार के अविसंवाद परस्पर अत्यधिक घनिष्ठ रूप से संबंधित हैं। ज्ञान की अबाधिता भी प्रायः व्यवहार के
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जैन एवं बौद्ध दर्शन में प्रमा का स्वरूप एवं उसके निर्धारक तत्त्व : 37 अविसंवाद के रूप में ही परिलक्षित होती है। किसी वस्तु का ज्ञान शून्य में प्राप्त नहीं होता बल्कि व्यवहार में ही होता है। पहले हमें किसी वस्तु के स्वरूप का ज्ञान होता है, उससे हमें कुछ आकांक्षा होती है तथा हम क्रिया में विशेष रूप से प्रवृत्त होते हैं और व्यवहार अथवा क्रिया एवं उसके ज्ञान का यह क्रम निरंतर चलता रहता है। इस समस्त व्यवहार तथा उसके साथ ही उसके ज्ञान में यदि संवाद होता है तो वह प्रमा रूप माना जाता है तथा यदि इसमें किसी भी स्तर पर विसंवाद होता है तो वह ज्ञान अप्रमा रूप माना जाता है। धर्मकीर्ति ने भी धर्मोत्तर के समान प्रमा का लक्षण "अविसंवादिज्ञानम प्रमाणम्" किया है। "विसंवादः अस्यास्ति-इति विसंवादी, न विसंवादीति-अविसंवादी"। इस प्रकार बौद्ध दर्शन में अविसंवादि शब्द का अर्थ है, “अपने प्रतीयमान विषय का कालांतर में त्याग न करने वाला।" इसी अर्थ को ध्यान में रखते हए अर्थ क्रिया स्थिति को अविसंवादी शब्द से द्योतित किया गया है। “अर्थस्यक्रियायाः अर्थ क्रिया स्थिति'' इस समास के अनुसार निष्पन्न अर्थ क्रिया स्थिति शब्द के अवयवार्थ के अनुसार दाह-पाक आदि का अव्यभिचार ही अर्थ क्रिया स्थिति शब्द से लिया जायेगा, अर्थात् जिनकी इच्छा से व्यक्ति अग्नि आदि अर्थो को लेता हैं, उन दाह-पाक आदि प्रयोजनों (फलों) का उस अर्थ (अग्नि आदि) से व्यभिचारित न होना। क्योंकि यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि बिना किसी उद्देश्य के मनुष्य की प्रवृत्ति नहीं होती जैसे आग का ग्रहण दाहकादि के उद्देश्य से किया जाता है। अत: यह व्याप्ति गृहीत होती है कि जो भी दाहक होगा वह अग्नि है। इस प्रकार दाहकत्व के अग्नित्व समनियत होने के कारण दाहकत्व के प्रमायिक ज्ञान से स्वरूप का निश्चय करना संभव है। अत: निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि अर्थक्रियास्थिति का अभिपाय हैअग्नि आदि से उत्पन्न होने वाली दाहपाक आदि अर्थ की निष्पति का अविघ्न या प्रमाणान्तर से व्यभिचरित न होना। चक्षु संयोगादि के अनन्तर ज्ञात अग्नि स्वरूप कोई वस्तु प्राथमिक ज्ञान के काल में दाह-पाकादि का आग से संबंध स्वरूप-संवेदन के काल में न होने से प्राथमिक ज्ञान को स्वतः प्रमाण नहीं कहा जा सकता है। अतएव आचार्य धर्मोत्तर ने प्रमाण विषय को 'ग्राह्य' तथा 'अध्यवसेय' रूप से दो भागों में विभक्त किया हैनिर्विकल्प ज्ञान के द्वारा स्वलक्षण गृहीत होता है तथा विकल्प ज्ञानो से अध्यवसेय विषय गृहीत होता है। इस प्रकार प्रथम क्षण में वस्तु के आकार मात्र का तथा तदुत्तर क्षण में जाति गुण आदि स्वलक्षण से युक्त ज्ञान का भान होता है। इस प्रकार प्रायः ज्ञानगत प्रामाण्य, ज्ञानानन्तर से ही अध्यवसेय है। यद्यपि अभ्यासदशापन्न ज्ञान में
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38 : श्रमण; वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 अर्थक्रिया स्थिति, ज्ञानान्तर से अध्यवसेय नहीं होती, तथापि वह प्रमाण ही है। अभ्यास दशापन्न-ज्ञानशब्द से ऐसे विषय का ज्ञान विवक्षित है, जिस विषय को बारबार देखने के कारण संदेह कभी नहीं होता। जो वस्तु जिस रूप में है, उसको उसी ज्ञान में अवगाहन करने वाला ज्ञान प्रमाण होता है। अनभ्यासदशापन्न ज्ञान में वस्तु की तद्रूपता का निश्चय ज्ञानान्तर संवाद से ही होता है; किन्तु अभ्यासदशापन्न ज्ञान में ज्ञानान्तर संवाद भी आवश्यक नहीं होता। अत: जहाँ अर्थक्रिया-स्थिति ज्ञानान्तर से ज्ञात होती है उसे यदि प्रमाण माना जाता है तो स्थल विशेष में स्वतः अर्थक्रिया के अनुभव होने पर उसे प्रमाण न मानने का कारण नहीं है। यही कारण है कि विसंवादाभाव चाहे अन्य साधन से गृहीत हो अथवा स्वत: गृहीत हो, उसके साधन
को विवक्षित किया गया है। अतएव “संवादानुभवः प्रमा' न कहकर संवादविरुद्ध विसंवाद के अभाव की ही लक्षण में विवक्षा करके विरुद्धार्थक विनम्र के प्रवेश रूप गौरव को फलमुख होने से स्वीकार किया गया है। "संवादानुभवः प्रमाणम्' प्रमा का यह लक्षण स्वीकार करने पर ज्ञानान्तर संवाद की नियमत: अपेक्षा होगी। फलत: अभ्यासदशापन्न ज्ञान जहाँ संवाद की अपेक्षा नहीं होती, प्रमाण नहीं होगा। यही कारण है कि विसंवाद भाव की विवक्षा के गुरू प्रयास को भी मान्यता प्रदान की गई। यहाँ यह अवश्य ध्यातव्य है कि विसंवादाभाव का प्रतियोगी विसंवाद जहाँ उपस्थिति होगा वहीं उसके अभाव ज्ञान के लिए ज्ञानान्तर संवाद की अपेक्षा होगी। अभ्यासदशापन्न ज्ञान में विसंवाद की उपस्थिति न होने से, उसके अभाव के सत्यापन के लिए ज्ञानान्तर की अपेक्षा नहीं होती। फलतः सम्पूर्ण व्यवस्था उत्पन्न हो जाती है। दाहपाकादि की स्थिति केवल अग्नि आदि द्रव्यात्मक पदार्थों में ही संभव है, शब्दादि में तो ऐसा कोई धर्म नहीं होता। इसके विपरीत आकांक्षा, योग्यता आदि के बल पर शब्द जिस ज्ञान को उत्पन्न करता है, वह उसका विषय नहीं होता, अत: अर्थक्रिया स्थिति शब्द से उस स्थल में क्या गृहीत होगा? इस समस्या के समाधान में धर्मकीर्ति कहते हैं, 'अविसंवाद शब्दऽप्येभिप्राय निवेदनम्' अर्थात् अविसंवादन का तात्पर्य, वक्ता जिस अर्थ के बोधन के अभिप्राय से शब्द का प्रयोग करता है, उस अभिप्राय को बुद्धिस्थ कर देना है। लेकिन यहाँ धर्मकीर्ति के ऊपर यह आक्षेप किया जाता है कि उन्हें "अविसंवादिज्ञान प्रमाणम्" यह प्रमा सामान्य का लक्षण न करके "अबाधितो बोधः प्रमाणम्' यह सर्वप्रमानुग्राहक प्रमा लक्षण करना चाहिए। किन्तु यह आक्षेप धर्मकीर्ति के आशय को न समझने के कारण उत्पन्न हुआ है; क्योंकि शब्दज्ञान में (जिसमें अव्याप्ति की संभावना से प्र.त आक्षेप किया गया है) "अविसंवादन" का तात्पर्य अभिपाय निवेदन से है। अतः शब्द विषय ज्ञान अभिप्राय निवेदन से ही प्रमाण माना जाता है।
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जैन एवं बौद्ध दर्शन में प्रमा का स्वरूप एवं उसके निर्धारक तत्त्व : 39 धर्मकीर्ति की प्रकृत कारिका तथा प्रमा के लक्षण पर विचार के प्रसंग में यह शंका अवश्य होती है कि अनुमितिरूप ज्ञान में अविसंवाद शब्द से क्या प्राप्त करते हैं तथा इसके ऊपर धर्मकीर्ति ने मौन क्यों धारण कर लिया? क्या वहाँ प्रमा का अन्य लक्षण अभिप्रेत है अथवा कोई अन्य उपपत्ति है, जिसे अत्यंत सरल समझकर आचार्य ने उसकी उपेक्षा की है? इस समस्या को समाहित करने के लिए यह तथ्य प्रस्तुत किये जा सकते हैं- १. अनुमिति स्थल में प्रमा का अन्य लक्षण विवक्षित होने पर "अविसंवाद्यनुभव: प्रमा' यह प्रमा सामान्य का लक्षण नहीं रह जायेगा। २. आचार्य का अन्य लक्षण अभिप्रेत होता तो वे उसका भी उल्लेख करते जैसे शब्द प्रमा के लिए अविसंवादन के भिन्न अर्थ अभिप्राय निवेदन का उल्लेख करते हैं। अत: यही लक्षण अविकल्प रूप में सभी प्रमाओं में ग्राह्य है। अनुमिति स्थल में 'अविसंवादन' का अभिप्राय क्या है? इसके उत्तर में यह कह सकते हैं कि व्याप्ति स्मरण के अनन्तर पक्ष धर्मता ज्ञान से होने वाली अनुमिति में अभ्यासदशापन्न ज्ञान की तरह विसंवादाभाव सुतरां रहता है, क्योंकि धूम में अग्नि के साहचर्य का निश्चय हो जाने के पश्चात् यह शंका ही नहीं रह जाती कि धूम अग्नि को छोड़कर कही अन्यत्र रह सकता है अतः धूम में पक्ष वृत्तिता का ज्ञान होने के पश्चात् अग्नि की असंदिग्ध उपस्थिति होती है। अत: व्याप्ति के निश्चय में ज्ञानान्तर संवाद की भले ही आवश्यकता हो अनुमिति में उसकी आवश्यकता नहीं रह जाती है। न्यायादि-दर्शनों में 'अयंघट' यह साविकल्प प्रत्यक्षात्मक प्रमा ज्ञान तथा 'रज्जु' में 'सर्प' यह भ्रमात्मक ज्ञान के रूप में स्वीकृत है। किन्तु बौद्ध दार्शनिक इन दोनों ही ज्ञानों को कल्पनाजनित ही मानते हैं। इनके अनुसार घट के साथ चक्षुरिन्द्रिय का सन्निकर्ष होने पर रूप मात्र की प्रतीति होती है, जो यथार्थतः प्रत्यक्ष है। तदनन्तर पूर्व संस्कारवासना से रसादि का स्मरण होता है। रस, रूपादि की प्रतीति कल्पना प्रयुक्त है। फलतः कल्पनापोढ़ न होने से यह ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है। रज्जु में सर्प की प्रतीति भी कल्पना प्रयुक्त ही है। इन्द्रिय सन्निकर्ष के अनन्तर रज्जु के आकार का अवगाही निर्विकल्प ज्ञान प्रथमतः होता है। मन्द प्रकाश आदि कारणों से रज्जु स्वरूप, प्रत्यक्ष के अनन्तर स्फुटतया अवभासित नहीं होता, किन्तु पूर्वानुभूत वासनावशात सर्प की प्रतीति होती है। दोनों में कल्पना प्रयुक्त होने पर भी घटज्ञान में अर्थ का अविसंवाद तथा सर्प ज्ञान में विसंवाद होने से, घटज्ञान प्रमात्मक तथा सर्पज्ञान भ्रमात्मक होता है। केवल इन्द्रियजन्य न होने से प्रत्यक्षाभास तो दोनों ही हैं। प्रमा स्वरस्पन्दमान मरीचिनिश्चय का प्रतिभास तो प्रत्यक्षात्मक होता है; किन्तु उसमें जल की कल्पना प्रत्यक्षाभास है। अनुमानजन्य ज्ञान किसी स्थल में प्रत्यक्ष तथा किसी स्थल में अप्रत्यक्ष दोनों ही माना जाता है। पीत शंख ज्ञान, ज्ञान-विषयभूत अर्थ के
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40 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015
विसंवाद के कारण प्रमाण नहीं होता । अनुमित्यात्मक ज्ञान में संस्थान मात्र की उपस्थिति ही अर्थक्रिया है, फलतः वह प्रमा है। मरुमरीचिका में जल की प्रतीति अभिमत अर्थक्रिया न होने से अप्रमा है। इस प्रकार संपूर्ण लोक प्रसिद्ध भ्रमज्ञान अविसंवादि पद के व्यावर्त्य हैं, अन्यथा उनके प्रमात्मकत्व की आपत्ति होती है। अतः अभिप्राय के अविसंवाद से ही ज्ञानों को प्रमाण माना जाता है। विसंवाद की स्थिति में कोई ज्ञान प्रमाण नहीं हो सकता । धर्मकीर्ति ने शब्द को, वक्ता के विवक्षित अर्थ को श्रोता की बुद्धि में प्रकाशित करने के कारण प्रमाण कहा है; किन्तु शब्द का यह प्रमाण्य वस्तु के यर्थाथता के आधार पर नहीं है, अन्यथा विभिन्न शास्त्रों के प्रवर्तक आचार्य तत्त्व के विषय में विभिन्न मान्यतायें न उपस्थित करते । अतः अर्थ तत्त्व निबन्धन न होने से शब्द का प्रामाण्य उपेक्ष्य ही है। यही कारण है कि बौद्ध दार्शनिक शब्दादि को सार्वभौम प्रमाण नहीं मानते, क्योंकि अपने-अपने सम्प्रदायों के सीमित क्षेत्र में ही शब्द, प्रमात्मक ज्ञान करा पाता है; किन्तु अपने सम्प्रदायों में शब्द की प्रमाणिकता बौद्धों को इष्ट है।
वास्तव में धर्मकीर्ति आदि का मत बौद्धों के उपयोगितावाद का ही परिष्कृत रूप है इसलिए वे उन कठिनाइयों से जो उस मत के मूल रूप से संबन्धित हैं, मुक्त नहीं हो सकते। धर्मकीर्ति के इस मत पर भी प्रश्न उठता है कि किसी ज्ञान के उत्पन्न होने पर कौन सा फल उसके अनुकूल है तथा कौन सा इसके प्रतिकूल यह निर्णय कैसे हो ? उदाहरणार्थ हमें ज्ञान उत्पन्न होता है कि सामने घड़े में पानी है। हम उसे पीते हैं तथा पीने पर वह खट्टा सा पेय लगता है। हमें इससे ज्ञान होता है कि घट में पानी नहीं, अन्य कोई द्रव्य है। किन्तु इस निर्णय के पूर्व हमें यह ज्ञान होना आवश्यक है कि पानी का स्वाद किस प्रकार का होता है पुनः प्रश्न उठता है कि इस पूर्व ज्ञान का आधार क्या है और फिर पूर्णरूपेण विज्ञानवादी मीमांसा में जिसमें किसी भी स्थायी तत्त्व को हम स्थान नहीं देना चाहते हैं, यह कठिनाई और भी जटिल रूप में सामने आती है। जल का पूर्ण ज्ञान पूर्णरूपेण वैयक्तिक है अथवा उसमें अवश्य ही व्यक्ति निरपेक्षता तथा साधारणता है? यदि हम किसी स्थायी जल तत्त्व की निरपेक्ष सत्ता न मानें तब प्रत्येक व्यक्ति का जल का अनुभव न केवल भिन्न-भिन्न होगा बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि अलगअलग समय उसका जल ग्रहण अपनी सुविधा के अनुसार भिन्न-भिन्न भी हो सकता है। ऐसी स्थिति में कोई वस्तु है ही नहीं मात्र विज्ञान का एक प्रवाह है, एक के बाद दूसरी कड़ी पूर्णतः असंबंधित होते हुए भी प्रवाहमय है तथा उसकी निरंतरता ही उसकी अनिवार्यता है। ऐसी स्थिति में ज्ञान के प्रमात्व अथवा अप्रमात्व की कल्पना नहीं की जा सकती है। बौद्ध स्वयं इस बात को भली प्रकार जानते हैं इसीलिए उन्होंने ज्ञान तथा उसके विषय में साधारणता तथा निरपेक्षता लाने के लिए मूल भांति की चर्चा की है। यह मूल
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जैन एवं बौद्ध दर्शन में प्रमा का स्वरूप एवं उसके निर्धारक तत्त्व : 41 भांति ही हमारे ज्ञान को साधारणता तथा निरपेक्षता प्रदान करती है, क्योंकि यह सभी मनुष्यों में समान है, किन्तु ऐसी अवस्था में यह मत अद्वैत वेदान्त के बिल्कुल समीप प्रतीत होने लगता है। बौद्धों द्वारा दी गई प्रमा की परिभाषा तथा प्रमा के अनिवार्य लक्षण 'अविसंवादी' के अर्थ की अलग ढ़ंग से आलोचना करते हुए भाट्ट दार्शनिकों ने भी लिखा है कि 'अगर ज्ञान का उद्देश्य वस्तु को प्राप्त कर लेना ही है और वस्तु की प्राप्ति के पश्चात् ही वह सिद्ध होता है तो बिजली चमकने से जिस ज्ञान की प्राप्ति होती है वह सदैव असिद्ध रहेगा क्योंकि बिजली की चमक को हम प्राप्त नहीं कर सकते । ९ परन्तु इस प्रकार के आक्षेप लगाना वास्तव में बौद्ध प्रमाण मीमांसा को पूर्णतया समझ न पाने के कारण है। इस प्रकार के आक्षेप एक प्रकार के भ्रम पर आधारित हैं। यह भ्रम अर्थक्रिया समर्थ वस्तु प्रदर्शकम् का अर्थ नहीं समझने के कारण हुआ है। 'अर्थक्रिया समर्थ' का अर्थ वैसा ज्ञान नहीं है जो अर्थ प्राप्ति में तत्काल साधक हो या यर्थाथतः साधक हो ही। अर्थक्रिया समर्थ का अर्थ यह है कि अगर उस ज्ञान पर विश्वास करके हम उस वस्तु की प्राप्ति की चेष्टा करें तो वह वस्तु प्राप्त की जा सकेगी। जैसे जल का ज्ञान मुझे हो रहा है और यह प्रमा रूप तभी होगा जबकि प्यास लगने पर यह जल मेरी तृष्णा को शांत कर सके। इसी प्रकार बिजली की चमक की प्राप्ति के संदर्भ में प्राप्ति का अर्थ मात्र मुट्ठी में बंद कर लेना नहीं होता। बिजली की चमक की अनुभूति ही उसकी प्राप्ति है। बौद्ध दर्शन में प्रमा का स्वरूप व निर्धारक तत्त्व पर विचार करने के पश्चात् सूक्ष्म अध्ययन हेतु जैन दर्शन में प्रमा का स्वरूप और उसके निर्धारक तत्त्व पर विचार करेंगे। जैन आगमों में प्रकारान्तर से प्रमाण की चर्चा बहुविध हुई है तथापि प्रमाण का प्रामाणिक विश्लेषण तर्कयुग की देन है । प्रामाण्य- अप्रमाण्य का अलग-अलग विचार करने के बजाय ज्ञान के स्वरूप के साथ ही प्रमाण का स्वरूप समझ लेने का संकेत उमास्वाति ने किया था जो आगे चलकर अन्य दार्शनिक परम्पराओं की भाँति प्रमाण के संबंध में यथोचित विवेचन, विश्लेषण का कारण बना। जैन दर्शन में प्रमाण- लक्षण के संदर्भ में बहुत सारी परिभाषायें दी गई हैं। किसी ने 'स्वपरावभासी ज्ञान' को प्रमाण बतलाया है। १० तो किसी ने स्वपरावभासी बाध रहित ज्ञान ११ को प्रमाण कहा है। किसी की दृष्टि में 'स्वपरावभासी व्यवसायात्मक ज्ञान प्रमाण १२ है तो कोई अनधिगतार्थक अविसंवादी ज्ञान को प्रमाण कहता है । ३ कहीं सम्यक्ं ज्ञान को प्रमाण बतलाकर स्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञान को सम्यक् ज्ञान कहा है। १४ एक स्थल पर स्व और अपूर्व अर्थ के व्यवसायात्मक ज्ञान को भी प्रमाण कहा गया है यद्यपि यह ध्यातव्य है कि इन लक्षणों में कोई विशेष अंतर नहीं है। जो मतभेद प्रत्यक्ष भी हो रहे हैं तो वे शब्दों के कारण हुए हैं।
उपरोक्त वर्णन से यह तो स्पष्ट है कि जैन दर्शन में ज्ञान को ही प्रमाण का कारण माना गया है। यह प्रमाण ज्ञान सम्पूर्ण वस्तु को ग्रहण करता है और उसमें सामान्य
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42 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 ज्ञान का स्वसंवेदित्व धर्म भी रहता है। प्रमाण होने से उसे अविसंवादी भी होना अपेक्षित है। विसंवाद, संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय से रहित अविसंवादी सम्यक् ज्ञान प्रमाण होता है। इस संदर्भ में अकलंक का अनधिगतार्थग्राही एवं माणिक्यनन्दि का अपूर्व शब्द समानार्थक है, जो अज्ञात अर्थ का निश्चय करने वाले ज्ञान के लिए अर्थात् प्रमा के लिए प्रयुक्त हुए हैं। इस प्रकार जैन दर्शन में प्रमिति या प्रमाण अज्ञान-निवृत्ति रूप होता है, इसलिए ज्ञान ही प्रमाण माना गया है क्योंकि इष्ट वस्तु का ग्रहण और अनिष्ट वस्तु का त्याग ज्ञान के कारण ही होता है। जैसे अंधकार की निवृत्ति में दीपक साधकतम होता है, उसी प्रकार जानने की क्रिया में साधकतमता ज्ञान की ही रहती है, इन्द्रियों आदि की नहीं। इन्द्रिय सन्निकर्षादि ज्ञान की उत्पादक सामग्रियाँ हो सकती हैं लेकिन वे अचेतन एवं अज्ञान रूप होने के कारण प्रमिति में साक्षात् कारण नहीं हो सकती है। ज्ञान जहाँ स्वयं को जानता है, वहाँ वाह्य अर्थ को भी जानता है, इसलिए स्व और पर का निश्चयात्मक ज्ञान प्रमाण माना गया है।" प्रमाण में अर्थ का सम्यक् निर्णय भी होता है।८ अर्थ के निर्णय में स्व निर्णय भी समाविष्ट होता है। प्रमाण के अन्य लक्षणों मे पाये जाने वाले निश्चित बाधरहित, अदुष्टकारणजन्यतत्त्व, लोकसम्मतत्त्व, अव्यभिचारी व्यवसायात्मक आदि विशेषण प्रकारान्तर से सम्यक् अर्थ को ही व्यंजित करते हैं। जैन दर्शन में प्रमा के स्वरूप
और उसके निर्धारक मानदण्डों की चर्चा करते हुए स्वामी श्री गुरुशरणानन्द ने खण्डनखण्डखाद्य-प्रमा पक्ष में लिखा है कि 'जैन-दार्शनिकों के अनुसार वस्तु की सत्ता में ज्ञानमात्र प्रमाण है'। यद्यपि अन्य दर्शनों में इन्द्रियादि को भी प्रमाण शब्द से व्यवहृत किया गया है, तथापि जैन दार्शनिकों की यह दृष्टि है कि जो अपनी सत्ता के लिए अन्य साधन की अपेक्षा न करे तथा स्वयं दूसरे सत्ता प्रमाणित करे, वही प्रमाण शब्द से व्यवहत हो सकता है। इस परिभाषा की संगति संपूर्ण ज्ञानों मे होने से संपूर्ण ज्ञान प्रमाण है। बाध की स्थिति में ज्ञान को प्रमाण नहीं माना जा सकता। अतएव न्यायावतार में प्रमाण का लक्षण, “प्रमाणं स्वपराभासिज्ञानं बाधविवर्जितम्" इस प्रकार किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि जो ज्ञान अपना तथा अन्य का प्रकाशन करें तथा जिसका विषय बाधित न हो वह प्रमाण है। 'घटमहं जानामि' इत्यादि ज्ञानों में ज्ञान की विषयता प्रकाशित होती है अत: घटादि अर्थों की तरह ज्ञान भी, ज्ञान विषयता प्रकाशित होता है। अतएव 'अयं घट' के समान 'घटमहं जानामि' यह ज्ञान भी प्रमाण है। इस प्रकार सम्यगर्थ के निर्णायक ज्ञान को प्रमाण कहेंगें; क्योंकि यही ज्ञान बाधित नहीं होता। फलत: “सम्यगर्थनिणर्यः प्रमाणम्" यह प्रमाण मीमांसा प्रोक्त लक्षण भी उपर्युक्त अर्थों की ही विवेचना करता है जो सर्वथा जैन सिद्धांत सम्मत है।९
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जैन एवं बौद्ध दर्शन में प्रमा का स्वरूप एवं उसके निर्धारक तत्त्व : 43 न्यायदर्शन, मीमांसा दर्शन और बौद्ध नैयायिक स्मृति को अप्रमा मानते हैं किन्तु जैन दर्शन स्मृति को प्रमा रूप मानते हैं। जैन दर्शन के अनुसार स्मृति केवल पिछले अनुभवों के संस्कारों की केवल पुनः अभिव्यक्ति नहीं है। जैन दर्शन ज्ञान के पाँच प्रकार मानते हैं- मति, श्रुति, अवधि, मन:पर्याय, केवल ज्ञान। मति ज्ञान साधारण ज्ञान है, जो इन्द्रिय से अप्रत्यक्ष संबंध द्वारा प्राप्त होता है, इसी के अन्तर्गत 'स्मृति' संज्ञा अथवा प्रत्यभिज्ञा अथवा पहचान और तर्क अथवा प्रत्यक्ष के आधार पर किया गया आगमन अनुमान, अभिनिबोध या अनुमान अथवा निगमन विधि का अनुमान। मति ज्ञान के तीन भेद किए गये हैं- उपलब्धि अथवा प्रत्यक्ष ज्ञान भावना अथवा स्मृति और उपभोग अथवा अर्धग्रहण। यथाअहिष्यमाणग्राहिण इव गृहीत ग्राहिणोऽपि ना प्रामाण्यम्।
न स्मतेर प्रमाणत्वं गृहीत ग्राहिताकृतम्।
अपि त्यनर्थ जन्यत्वं तदाप्रामाण्य कारणम्।" २९ अर्थात् स्मृति भी परिमाणात्मक होती है, जो विचारक उसे अप्रमाणिक कहते हैं वे भी संस्कार मात्र जन्यता के कारण ही ऐसा कहते हैं। स्पष्ट है कि अर्थ से उत्पत्ति न होना ही स्मृति के अप्रामाण्य का मूल है। फलत: ग्रहीतग्राहित्व को अप्रमाण्य का प्रयोजक नहीं कहा जा सकता। वेदान्त परिभाषाकार ने भी इसी हेतु से स्मृति को प्रमाण माना है।२२ स्मृति को इसलिए अप्रमा नहीं कह सकते कि वह भूतकाल का विषय प्रस्तुत करती है। यह उतनी ही वस्तुनिष्ठ है जितनी कि वे वस्तुयें हैं जो वर्तमान में पायी जाती हैं। जब अनुमान ज्ञान होता है तो स्मृति उसमें सहायक होती है। अनुमान के लिए स्मृति आवश्यक है। स्मृति जन्य ज्ञान इतना उपयोगी है कि अल्प ज्ञान के साधनों में इसका उपयोग जरूरी माना गया है। स्मृति के प्रमात्व की अवहेलना नहीं कर सकते। भूतकाल के ज्ञान तथा अनुमान द्वारा ज्ञान तथा उपमान प्रमाण में भी स्मृति जन्य ज्ञान की उपयोगिता है। स्मृति प्रमात्व की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। स्मृति का विषय वास्तव में वस्तु स्थिति न होकर हमारा पूर्व ज्ञान ही है, वही उसका प्रदत्त है तथा उसी की अनुरूपता पर स्मृति ही प्रमाण ज्ञान पूर्णरूपेण वैयक्तिक घटना है तथा स्मृति के अतिरिक्त किसी भी अन्य माध्यम से उसका ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिए पूर्वज्ञान के विषय में स्मृति को प्रमाण मानने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। स्मृति भी यथार्थ अथवा अयथार्थ हो सकती है। अतः प्रमा तथा अप्रमा के भेद को स्मृति के संदर्भ में करके स्मृति को प्रमा के अंतर्गत ही माना जाना चाहिए। जैन दार्शनिकों ने सम्यक् ज्ञान की परिभाषा देते हुए कहा है
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44 : श्रमण,
अंक 2,
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यथावस्थिततत्त्वानां संक्षेपाद्विस्तारेण वा । यो व बोधस्तामत्राहुः सम्यग्ज्ञानं मनीषिणः ।।
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अर्थात् तत्त्वों का उनका अवस्था के अनुरूप संक्षेप या विस्तार से जो बोध होता है उसे ही विद्वान् लोग सम्यक् ज्ञान कहते हैं। मध्वाचार्य ने सर्वदर्शनसंग्रह में भी इसकी टीका की है
येन स्वभावेन जीवादयः पदार्था व्यवस्थितास्तेन स्वाभावेन मोहसंशयरहित्वेनावगमः सम्यग्ज्ञानम्। २३
अर्थात् जिस स्वभाव अथवा रूप में जीवादि पदार्थ अवस्थित हैं उसी रूप में मोह तथा संशय से रहित होकर उन्हें जानना सम्यक् ज्ञान है। ज्ञान की इस परिभाषा से तीन बातें स्पष्ट हैं - १. जिस रूप में पदार्थ व्यवस्थित है उन्हें उसी रूप में जानना प्रमा है (इस तथ्य से जैन दर्शन न्याय के समीप दिखलाई देता है)। २. वस्तु को मोह से परे अर्थात् पूर्वाग्रह से परे होकर जानना प्रमा है तथा ३. प्रमा संशय रहित ज्ञान है। इस प्रकार जैन ज्ञानमीमांसा में प्रमा के व्यवहारवादी पक्ष के अनुसार प्रमा की ये तीन उपाधियाँ बताई गई हैं जिसके द्वारा प्रमा के स्वरूप का निर्धारण होता है।
उपरोक्त विवेचन में जैन और बौद्ध दर्शन के प्रमा के स्वरूप तथा उसके निर्धारक तत्त्व की व्याख्या स्पष्ट रूप से की गयी है। सर्वप्रथम बौद्ध दर्शन में प्रमा के निर्धारण में तीन लक्षण अपेक्षित हैं- प्रथम अज्ञात अर्थ के प्रकाशक के रूप में, द्वितीय अविसंवादी ज्ञान रूप में तथा तृतीय अर्थसारूप्य के रूप में। वहीं जैन दर्शन में प्रमा से आशय है स्व एवं पर अर्थ का निश्चयात्मक ज्ञान प्रदान कराने वाला। जैन दार्शनिक बौद्धाभिमत निर्विकल्पक ज्ञान को अव्यवसायात्मक होने के कारण प्रमाण नहीं मानते हैं। जैन दार्शनिक प्रमाण को ज्ञानात्मक मानने के साथ निश्चयात्मक भी मानते है। निश्चयात्मकता तथा व्यवसायात्मकता ही जैन दर्शन का प्रमुख लक्षण है, जो उसे बौद्ध दर्शन में प्रतिपादित प्रमाण लक्षण से पृथक् करती है । यद्यपि बौद्ध दर्शन के प्रमाण से जैन प्रमाप्म लक्षण में अनधिगतार्थग्रहिता एवं अविसंवादिता का भी समावेश हुआ है। किन्तु जैन असंवादित को निश्चयात्मकता में फलित करते हैं। जबकि बौद्ध दर्शन के क्षणिकवादी होने से जैन दार्शनिक कहते हैं कि बौद्ध तत्त्वमीमांसा में दृष्ट अर्थ प्राप्त नहीं होता अपितु अन्य अर्थ प्राप्त होता है। क्योंकि बौद्ध क्षणिकवादी हैं, वे स्मृति को भी प्रमाण नहीं मानते। जैन दार्शनिकों द्वारा प्रमाण की सविकल्पक, व्यवसायात्मक एवं संव्यवहार के लिए उपयोगी मानने के कारण संवादकतागत वे दोष नहीं आते जो बौद्ध दार्शनिकों द्वारा साथ निर्विकल्पक प्रत्यक्ष एवं भ्रान्तज्ञान रूप अनुमान प्रमाण के आते हैं।
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जैन एवं बौद्ध दर्शन में प्रमा का स्वरूप एवं उसके निर्धारक तत्व : 45 इस प्रकार इन दार्शनिकों ने अपनी मान्यताओं के आधार पर ऐसी व्याख्या प्रस्तुत की जिसके आधार पर व्यवहार को समन्वित करने पर भी तत्त्व एवं तत्त्व साधन के प्रति उनका दृष्टिकोण सार्थक रहे।
सन्दर्भ:
१. खण्डनखण्डखाद्य-प्रमापक्ष, (कुलपति डॉ० मण्डन मिश्र की प्रस्तावना से अलंकृत) स्वामी श्री गुरुशरणानन्द, डॉ० हरिश्चन्द्रमणि त्रिपाठी, सम्पूर्णानन्द, संस्कृत वि०वि०, वाराणसी २. भारतीय दर्शन (ज्ञानमीमांसा एवं तत्त्वमीमांसा), डॉ० एच० एन० मिश्रा, पृ० २५ ३. भारतीय दार्शनिक समस्याएँ, डॉ० नन्द किशोर शर्मा, पृ० ६० ४. वही, पृ० ६१ ५. खण्डनखण्डखाद्य-प्रमापक्ष, पूर्वोक्त, पृ० ४६ ६. द्विविधो हि प्रमाणस्य विषयो ग्रहयोऽध्यवसेयश्च - न्यायबिन्दु टीका, पृ० १६ ७. खण्डनखण्डखाध:प्रमापक्ष, पृ० ४६-४७ ८. एतच्चानुमान ज्ञानं क्वचिद् प्रत्यक्षं क्वचिद् प्रत्यक्षमेव, प्रमाणवार्तिक भाष्य, पृ० ३३२ ९. भारतीय ज्ञानमीमांसा, डॉ. नीलिमा सिन्हा, पृ० ३५ १०. स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम् - स्वयंभूस्तोत्र, ६३ ११. प्रमाणं स्वपराभासिज्ञानं बाधविर्वजितम्, न्यायावतार, १ १२. व्यवसायात्मकं ज्ञानमात्माग्राहकं मतम्। ग्रहणं निर्णयस्तेन मुख्यं प्रामाण्यमश्नुते। लघीयस्त्रय, ६० १३. प्रमाणविसंवादिज्ञानमनधिगतार्थधिगमलक्षणत्वात्। अष्टशती, अष्टसहस्री, पृ १७५ १४. स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्, परीक्षामुख १-१ १५. सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्। स्वार्थव्यवसायात्मकंज्ञानं सम्यग्ज्ञानम्। प्रमाणपरीक्षा, विद्यानन्द, सम्पा. दरंबारीलाल कोठिया, वीरसेवा मन्दिर ट्रस्ट, वाराणसी, १९७७, पृ:१ १६. परीक्षामुख - १/२ १७. प्रमाणनयतत्त्वालोक, १/२ १८. प्रमाणमीमांसा, १/१/२ १९. वही २०. प्रमाणमीमांसा, १/१/४ २१. न्यायमंजरी, पृ० २३ २२. वेदांतपरिभाषा, पृ० १६ २३. सर्वदर्शनसंग्रह, पृ० १३७
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CONCEPT OF NIKŞEPA (POSITING) IN JAINA PHILOSOPHY
Dr. Shriprakash Pandey In Jaina philosophy, to determine the actual meaning of word (vācyārtha), there are two principal theories i.e. (1) Theory of Naya (Standpoints/viewpoints) and (2) Nikṣepa (positing/syrabols/imports of words). Here, I would deal with Nikṣepa.
Language is means of communication. All practical intercourse or exchange of knowledge has language for its chief instrument. Language is a constituent of words. When it is couched or embodied in language, intangible knowledge becomes tangible and hence conveyable. We know that the language is made of words. There are numerous languages which constituent millions of words. Each . language use different words for communication and to explain the objects. A word expresses numerous modes and shades of its import. For the expression of such modes and shades the selfsame word is qualified by a number of adjuncts. In other words one and the same word used, is employed to yield several meanings depending on the purpose of context. For example, in our communication, we use the word 'Rājā' in many senses. 'Rājā may be the name of an individual, ‘Rājā' may be an actor playing the role of a king in a drama, it may be used for someone who happened to be a king in the past, the present king or the would be king. But unless we know the context in which word Rājā is used, it is difficult to understand the exact content of the word. It is therefore, necessary to have knowledge of the use of language and the definite content of the meaning of the words that we use. Here comes the function of Nikṣepa. According to Ācārya Yaśovijaya 'Nikṣepa is that specific (verbal) construct which eliminates the irrelevant and applies appropriately the relevant meaning of the word as per context." In fact, the function of Niksepa is to determine the meaning of the word in the same context in which the word is spoken. The essence of the Niksepavāda is to
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48 Śramana, Vol 66, No. 2, April-June 2015
study the implications of the meanings in the words and in their definiteness and to try to find out the implication of the words in meaning.
Nikṣepa is also used in the sense of Nyasa where it means implication and clarification.
Background:
The method of Nikṣepa was developed in the Agamic period itself. In the speculative period and also in the period of logical development, the method continued to flourish. While rhetorics gives the method of determining the particular meaning of a multi-sensed word, it is only the commentaries on the Jaina Agamas, which give the method of determining the intended meaning of a uni-sensed word. This method is useful not only for the treatises on logic but the analytic approach of this method has a universal utility in that it is a valuable instrument for defining the intended meaning and purpose of any systematic treatise on any subject.2
If we go through the development of the knowledge and practical behaviour including verbal expression, we find that primarily - the object in its wholeness is known through valid cognition (Pramāṇā), and subsequently the same object is cognised in parts through the Nayas (viewpoints/standpoints). All our knowledge is synthetic in the beginning, and becomes analytic at the next stage. When we know anything obviously we name it. For example, a thing of particular shape and capable of holding water is named as 'jar'. This nomenclature is responsible for the relationship of denotativé and denotatum between the word 'jar' and its referent (the objective jar). This is the initial stage of word-meaning relationship which undergoes semantic expansion in due course. Thus a drawing or a picture of a jar, though incapable of carrying water, is also called jar; likewise a mass of clay and a potsherd is also called jar. At this stage of semantic expansion it becomes imperative to ascertain the
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Concept of Nikşepa in Jaina Philosophy : 49 intended meaning of a word precisely in a particular context of its use. This method of knowing the intended meaning is called Niksepa.3 The Basis of Nikṣepa
The basis of niksepa can be analyzed into four aspects as (1) primary (pradhāna), (2) secondary (apradhāna), (3) imagined (kalpita) and un-imagined (akalpita). Out of nāma, sthāpanā, dravya and bhāva, bhāva, is un-imagined dụști, hence it is primary. Other three are being concerned with the mental constructions fall into primary. These three are expressions, which are primarily concerned with grammatical and linguistic analysis of the statements and not so much with the expositions of the nature of the object.
Utility of Nikṣepa
Niksepa is dialectical technique. According to Anuyogadvāra-sūtra the main function of niksepa is to clear the meaning and to find a definite meaning of the words. The function of niksepa as Laghiyastraya describes is to remove the inadequate meaning of a word and to present the exact meaning. It removes the ignorance; doubt or perversity of meaning and determines the exact meaning of the word used. Pt. Sukhalalji Sanghvi in his commentary on Tattvārthasūtra writes,' the chief medium of all the human conduct and transaction of knowledge is language. According to the intention of the speaker and the given context, the same word may be used in different meanings. In any case, four meanings at least are had by each and every word. It is these four meanings that are the four classification of its general meaning. This classification is known as nikṣepa by knowing which the intention of the speaker is easily and clearly known. On account of the definition of the niksepa, a natural question arises as to what is the necessity of the theory of niksepa in the logical analysis of the meaning of the term, when the theories like Pramāņa (valid knowledge) and Naya (theory of standpoint) are already
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50 : Śramana, Vol 66, No. 2, April-June 2015 introduced by Jaina Ācāryas for the valid knowledge of the nature of the object? The answer is that pramāna and naya are concerned with the knowledge of the object fully or partially respectively, but niksepa is more concerned with linguistic use of the words and their meanings. It is a dialectical technique. The utterance of a word expresses the meaning that the speaker intends to in addition to the meaning that accrues to the word. The unintended meanings of the words create confusion and ambiguity in the use of the words. For the knowledge of an object we depend on language, which has its limitations. The language sometimes presents difficulties in understanding the connotation of the word because the real meaning and the meaning, which the speaker intends, may differ. Therefore, the meaning of the words can be considered as of two types: (1) Primary meaning, and (2) Secondary meaning. To make a distinction between the two, it is important to analyze the linguistic function of nikṣepa. This function is performed by four types of niksepa i.e. nāma, sthāpanā, dravya and bhāva. The object of these different forms of niksepa is primarily to dispel errors and misunderstandings about the meaning of the words used to explain the things. The types of Nikṣepa Tattvārtha-sūtra lists four categories of positing i.e. ‘nāma-sthāpanādravya-bhāvatas tannyāsaḥ'?
Niksepa is of four types:
(1) Nāma-niksepa (Namal Positing) (2) Sthāpanā-nikṣepa (Representational Positing) (3) Dravya-nikṣepa (Substantive Positing) (4) Bhāva-nikșepa (Modal Positing) We have one more classification of nikṣepa based on Vargaņās. Accordingly there are six types of Vargaņā-nikṣepa:
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Concept of Nikşepa in Jaina Pnilosophy : 51 1. Nāma-vargaņā 2. Sthāpanā-vargaņā 3. Dravya-vargaņā 4. Kșetra-vargaņā 5. Kāla-vargaņā, and 6. Bhāva-vargaņā In Şatkhaņdāgama and Dhavalā all the prakaraņas are defined having used these six types of nikṣepas. In Ślokavārtika', Vidyānanda maintains that there may be infinite number of Nikṣepas but all can be included in above mentioned four types of Nikṣepas maintained by Tattvārtha-sūtra. (1) Nāma-nikṣepa (Namal Positing) The namal positing refers to the name especially the proper name arbitrarily given to an object or person without considering its etymological meaning and irrespective of the qualities suggested by the name. Mostly it is gathered on the basis of convention set up by the father, mother or some other people." For example the name of an ugly person may be 'Sudarsana' (good-looking) or the name of a very poor person may be Lakşmī Nārāyana. However, if the names given to the individuals do acquire the connotation suggested by the name, it would be bhāva-niksepa, The namal positing refers to proper names, but some proper names have their various modes of expressions or synonyms suggesting different meanings. For example Indra is also called Devendra, Surendra, Purandara, Śakra etc. But a proper name given to an individual or a cowman (Gopālaputra) cannot be exchanged to any one of these synonyms. Indra is always called Indra. The words which are meaningless or who evolved accidentally like Dittha and Davittha, when used as symbols (samketa), are called nāma. Thus the identity of name with its object is conventional (upacāratah). With points of view of time (kāla) Nāma-niksepa has two aspects: one is permanent and the other is temporary. The names, which are
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52 : Śramaņa, Vol 66, No. 2, April-June 2015 permanent given to the eternal objects, refer to sāsvata-nama-nikṣepa (eternal namal positing) as Siddhaśilā (abode of liberated souls), Sūrya (Sun), Loka (the universe) etc. In the case where there are modifications and developments, it is temporary or Aśāsvata-nāmaniksepa (non-eternal namal positing). From the point of view of Meru etc, it lasts as long as the objects, whereas in case of the names like 'Devadatta'etc. they do not last as long as object because these names are changed even if the object is existent.. Types of Nāma-nikṣepa12
(1) Jātināma (Name Indicating Generality) The Sāmānya (generality) which is characterized by existence (tadbhāva) and similarity (sādņśya) is called Jāti e.g. cow, man, ghața (pitcher), pata (cloth) etc. (2) Dravya-nāma (Name Indicating Substance) It is of tow types: (i) Samavāya-dravya (Name indicating inherent Substance) Which is inherent and relatively identical with substance is called samavāya-dravya. For instance: to call one-eyed person, as Kānā (blind with one eye) is samavāya-dravya-nāma nikṣepa. In this instance, a blind man's eye is inherent in the substance (the man as a whole). (ii) Saṁyoga-dravya-nāma (Name indicating union with Substance) When we name a thing due to its union with any independent substance it is called saṁyoga-dravya-nāma. For instance darda (stick), chatra (umbrella) etc. are independent existing substance but the person who possesses danda and chatra is called dandi and chatrī respectively. It is of eight types: With regard to one and many Jivas (souls) and Ajivas (non-souls) with union and predication made about them, there can be only eight types of predication:
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(i) Eka-jiva (one soul), (ii) Nānā-jiva (many souls), (iii) Eka-ajiva (one non-soul), (iv) Nānā-ajīva (many-non-souls), (v) Eka-jiva-ekaajiva (one soul one non-soul), (vi) Eka-jīva-nānā-ajīva (one soul many non-souls), (vii) Nānā-jīva-eka-ajīva (many souls and one non-souls), (viii) Nānā-jīva-nānā-ajīva (many-souls many nonsouls).
(3) Guņa-vācaka-nāma (Name indicating qualities) That which is opposite and non-opposite to modes is called quality (guņa) e.g. a black blooded person is called Krsna-rudhira (one whose blood is black). These names are given due to qualities like black, red, etc., the substance has. (4) Kriyā-nāma (Name indicating action) When a person is named on the basis of his activity or occupation it is called kriya-nāma. For example: one who sings, is called singer, one who dance is called dancer etc.
(2) Sthāpanā-niksepa 13 (Representational Positing) Sthāpanā Niksepa refers to the identification of the meaning with the word. When in a copy, statue, photograph or picture of an object, we superimpose or establish the real meaning of the object and designate them by that very name, then there is Representational Positing (Sthāpanā-nikṣepa) viz. to call Jina image as Jina, Buddha image as Buddha etc. Here we employ the term “Jina' or 'Buddha' in the sense of the representation of the real Jina or Buddha (as God). It lasts for a short in a picture etc. but lasts as long as the object in the image etc. According to Representational positing the first category of truth, the soul, can be analyzed as follows: An object, for instance a statue or printing, may be treated as if it were a soul thought it is a soul only symbolically.
Sthāpanā-niksepa is of two types: 1. Tadākāra-sthāpanā-niksepa and 2. Atadākāra-sthāpanā-nikṣepa.14 Dhavalā enumerates Sadbhāvasthāpanā and Asadbhāva-sthāpanā as its two types. 15
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54 : Śramaņa, Vol 66, No. 2, April-June 2015 (1) Tadākāra Sthāpanā Nikṣepa (Similar Representational Positing) If the meaning of an object is similar to the object it is called tadākārasthāpanā-nikṣepa (Similar Representational Positing). For example to identify the picture of Devadatta as Devadatta or picture of Mahāvīra as Mahāvīra is called tadākāra-sthāpanā-nikṣepa. It is also called sadbhāvanā nikṣepa. Dhavalāto describes eleven types of Tadākāra-sthāpanā-nikṣepa on the basis of means and medium of which an imagel object is established.
(i) Kāștha-karma: when the image of one, two, three and four legged creatures are carved at wooden panels, it is called Kāşthakārma.
(ii) Citra-karma: When these four types of images are sketched on the wall, cloth and a pillar by ochre etc. is called Citra-karma.
(iii) Pota-karma: When the image of elephant, horse, man, womer, bullock, lion etc. is carved on the special piece of cloth, it is called Pota-karma.
(iv) Lepya-karma: to sketch the figures by the paste of clay, chalk, sand etc. is called Lepya-karma. (v) Layana-karma: to engrave an image on the portion of a mountain is Layanakarma. (vi) Śaila-karma: to engrave an image on the rock is called Sailakarma.
(vii) Gșha-karma: to prepare an image with the help of brick and piece of stone is called Gșha-karma.
(viii) Bhitti-karma: similar to wall, the image made of straw, is called Bhitti-karma.
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(ix) Danta-karma: the image engraved on the teeth of elephant is called Danta-karma.
(x) Bhenḍa-karma: the image made of cotton and clay is called Bhenda-karma.
(xi) Anya-karma: Casting images through the other mediums by molding process, like copper, silver, gold, aluminum etc. is called anya-karma.
(2) Atadākāra-sthāpanā-nikṣepa (Dissimilar Representational Positing)
If the meaning of an object is dissimilar to the object, it is called atadākāra-sthāpanā-nikṣepa (dissimilar representational positing). For example the signs if chess i.e. rājā (king), vajīra, (minister), hathi (elephant) etc. Here we superimpose the meaning of the king, minister, elephant etc. in the dissimilar objects of the chess. It is also called asadbhāvanā nikṣepa.
(3) Dravya-Nikşepa17 (Substantive Positing)
Dravya-nikṣepa does not refer to the mental, the physical element, like the intention as to the nature of the object. That which is the cause of the past or the future; or that which expresses the state of the object in one of the transferable forms, like, past as used in the present is called dravya-nikṣepa (substantive positing). For example to call Indra to one who has once experienced the state of Indra, or will experience the state of Indra in future, or the person who has been teacher once in past and presently is retired from the post of teacher, to call him at present as teacher is dravya-nikṣepa. According to dravya-nikṣepa the first category of truth, the soul, can be analyzed as follows:
A human soul may be called a celestial soul if it occupied a celestial body in a past life or is likely to occupy such a body in a future life.
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56 : Śramaņa, Vol 66, No. 2, April-June 2015 Some times dravya-niksepais used to indicate the sense of secondary, just as one who crushes the burning charcoal is called Dravyācārya. Here dravyācārya means secondary (apradhāna) ācārya because he does not possesses the quality of the (pradhāna) ācārya.18 Dravya is also used to indicate the negation of conscious activity (upayogaŚūnyatā or dravya-kriyā) e.g. the worship of Jina even though done with devotion yet performed in unmethodical way characterized by the desire for this world (loka) and the other world (paraloka) and not free from the desire is called dravya-kriyā, which does not cause liberation.
The scope of dravya-nikṣepa is much wider. It covers the expressions relating to the past or the future as projected into the present tense. The would be king is also called king and when the king is dead his body is also referred to the king. Dravya-nikṣepa is of two types: (1) Agama-dravya-nikṣepa (2) No-āgama-dravya-nikṣepa Āgama-dravya-nikșepa refers to the implication of the meanings and the cognitive content of the meaning rather than the exact expressed form of the knowledge. The subject matter of āgamadravya-niksepa is that jīva (soul) who knows about any particular scripture but he is not utilizing the knowledge of the same presently. Of course, he had been utilizing it in the past and will utilize in future, yet he is called as śāstrajña (one who possesses the knowledge of the scripture20. Agama-dravya-niksepa is of nine21 types: 1. Sthita, 2. jita, 3.Paricita, 4. Vacanopagata, 5. Sūtrasama, 6. Arthasama, 7. Granthasama, 8. Nāmasama and 9. Ghoșasama. 2. No-āgama-dravya-nikşepa: That, which is different from Agama, is called No-āgama-dravyanikṣepa. It is divided into three categories:
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Concept of Nikṣepa in Jaina Philosophy : 57 (i) Jña-śarira, (ii) Bhavya-sarira and (iii) Tadvyatirikta2 Jña-śarīra or Jñāyaka-śarīra is that body through which the soul (Ātman) knows. When we see the dead body of a learned man, we say 'he was a learned man'. Here it is jña-śarīra no-āgama-dravyaniksepa. When the present embodied soul is to be a learned man in future, it is called bhavya-śarīra. For instance, by observing the lustrous qualities of the body and characteristics of the child Devadatta, we proclaim that he would be a learned Devadatta. This is bhavya-śarīra no-āgama dravya-nikṣepa. These two types of niksepa lay emphasis on body of the soul, which is only the medium. In the third, the emphasis is not so much on the body, but on the bodily activities, like movement of the hands etc. For instance when an ascetic is preaching, he may make gesture with hands. These gestures are tad-vyatirikta no-āgama-dravyanikṣepa.
The Jñāyaka-śarīra-no-karma is further divided into three subcategories i.e. Bhūta, Vartamāna and Bhāvi.
(i) Bhūta: On the basis of past body (last birth) to call a present embodied soul as jñātā (knower), e.g. to call the body of Mārīca as Bhagavāna Mahāvīra on the basis of his last birth, is bhūta-noāgama-dravya-nikṣepa. (ii) Vartamāna: to call the present body of that same jñātā as jñātā, is vartamāna-no-āgama-dravya-nikṣepa. (iii) Bhāvi: If the same embodied soul is called jñātā keeping in view the existence of his body in future, is bhāvi-no-āgama-dravyanikṣepa. Out of past, present and future body of the soul, the past body is of three23 types:
a) Cyuta (Released body after complete fruition of Age-determiningkarma (Āyușya-karma).
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58 : Sramaņa, Vol 66, No. 2, April-June 2015 b) Cyāvita (Body compelled to release by suicide) c) Tyakta (Released body after religious death (samādhimaraņa), through meditation).
All these three bodies concerned after death are called bhūta. The last tyakta-śarīra is of three 24 types: (i) Bhakta-pratyākhyāna: During the meditation, before the death comes, the sādhaka serves his body himself and get his body served by others. It is called bhakta-pratyākhyāna.
(ü) Ingini: During the meditation when the sādhaka serve, 111s body and do not allow others to serve, then it is called Ingini. (iii) Prāyopagamana: when the sādhaka neither himself serves his body nor let others to serve him and lies on one side static like a wooden piece, it is called prāyopagamana.
Out of these three kinds of meditation, the first one, Bhaktapratyākhyāna is further divided on the basis of duration in three types:
A) Uttama: When the sādhaka gradually reduces his food day by day for twelve years and then releases his body finally , it is called Uttama. B) Jaghanya: At the last hours, when the sādhaka leaves food only for one muhūrta (48 minutes) just before the death, it is called jaghanya. C) Madhyama: To release the body after gradually decreasing the food for (4) Bhāva-nikṣepa25 (Modal Positing) The meaning, which satisfies the etymology of the concerned word, is a called Bhāva-nikṣepa (Modal Positing). In other words the meaning of the word accomplished by its actual state is bhāvanikṣepa. “Vartamāna paryāyayopalaksitam dravyam bhāvah'. The
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substance with present modes is bhāva. According to this niksepa, to call a rich man as Lakşmīpati (lord of Lakşmī, the goddess of wealth) or to call a person as Sevaka who is actually serving one or a teacher who is actually engaged in teaching in classroom.26 According to bhāva-niksepa the first category of truth, the soul, can be analyzed as follows: The living thing may be called a soul, pointing to its actual state
now.
It is also divided into two types:
(i) Agama-bhāva-niksepa and (ii) No-āgama-bhāva-nikṣepa. The learned man who is teacher and useful as teacher may be called teacher, is instance of āgama-bhāva-niksepa and the teacher while engaged in teaching may be considered a teacher by the point of view of no-āgama-bhāva-niksepa. It has also three forms:27 (1) Laukika, (2) Kupravacanika and (3) Lokottara. (1) Laukika: for instance, according to common parlance of language 'Sriphala'is auspicious. (2) Kuprāvacanika: for instance, according to it ‘Vināyaka' (Gaņeśa) is called auspicious.
(3) Lokottara: from the ultimate point of view religion with jñāna (knowledge), darśana (faith) and cāritra (conduct). The function of bhāva-niksepa is primarily concerned with the expression of the present state and the mode of the object. These are the four types of nikṣepa through which everything is expressed. Though, there is infinite number of linguistic expressions, but every expression has to be in the form of four nikṣepas. Inter-relation between Nāma, Sthāpanā, Dravya and Bhāva Defining the inter-relation of this niksepa, Upādhyāya Yaśovijaya maintains that except bhāva-nikṣepa, all exist in all the three. The
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nāma, for example, is common in every object, which is named (nāmavāna), representations (sthāpanā) and in the substance. To be devoid of bhava is the characteristics of sthapana and it is equally in all the three, because all the three are devoid of bhāva. The dravya (substance) also exists in the nama, sthāpanā and dravya, because it is the substance, which is named, and of which representation is made, and, of course the substance in the substance itself is present by its very nature. Therefore, it is improper to distinguish them as they are devoid of any contradictory quality.
Nevertheless, they possessed of contradictory qualities, e.g. the representational (sthāpanā) is different from namal (nāma) and substantive (dravya) positing. Because in sthāpanā, we have the form (ākāra), intention (abhiprāya), conception (buddhi), action (kriyā) and the resultant (phala-darśana) e.g. in the sthāpanā of Indra, the form as being possessed of thousand eyes. The intention of that person who gave form to the sthapana of Indra was to make the real Indra. The person who sees the form understands it as Indra undoubtedly. It is also seen that the devotees bow to that form of Indra and get the desired objects i.e. birth of son etc. This is observed neither in nama-Indra nor the dravya-Indra. On account of these characteristics, representational positing (sthāpanā) is different from that of namal (nama) and substantive (dravya) positing.
Similarly, the dravya-nikṣepa being potential cause of the bhavanikṣepa is also different from nama and sthāpanā. Therefore, as the milk and the buttermilk are identical from the point of view of whiteness yet, there are different from the point of view of sweetness etc.; similarly, the nama etc., though identical from one point of view, are different from another point of view. 28
Now a question arises that if the bhāva is the object then what is the use of accepting nama, etc., which are devoid of dravya?
The answer is that even nama etc. are the modes (paryāya) of object and therefore, in general, they also are not excluded from
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the bhāva. When one says Indra without adding any qualification then at first, generally we mean all four-nāma, sthāpanā etc. After that being qualified with the context, it is known specially. The nāma, sthāpanā etc. are used as the cause of the bhāva-niksepa, because the emotions are aroused with the sthāpanā of Jina in the name of Jina or looking the sight of the body (dravya) of a dead Jaina monk. Of course the three -the nāma etc. alone are not the immediate and unfailing cause of exciting the emotions and therefore, the old ācāryas accept the superiority of the bhāvanikṣepa, which is the immediate and unfailing cause. Ācārya Yasovijaya emphasizes that all four types of niksepa are equally important. If the name of the pitcher were not the characteristic of the pitcher, then it would not be indicator of it; because it is the cause of relation of identity with one, which is not different from it. Therefore, every thing is in the form of name. Everything has a form of its own whether it is intelligence, words or the pitcher. The form of blue and the particular posture is proved by the experience.29 Everything is substantial (dravya) because every where the substance is experienced as the cause of the manifestation and the concealment and free from all modifications like a snake which sometimes being coiled raises his hood and sometimes contracts his body. But in every stage the substance snake is the same. Therefore, all things are substantive.
Similarly, all things are of the nature of bhāva because there is continuous chain of changing modes one after another and all are related with cause and effect. Thus all the objects are of the nature of nāmādi-catustaya (nāma-shāpanā, dravya and bhāva). So for as substance and modes are concerned nāma, sthāpanā and dravya niksepa are all concerned with the substance and its attributes, while bhāva-niksepa has reference to its modes.
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The Relation and arrangement of Nikṣepa with Naya
The relation between nikṣepa and naya is that of the relation of object and expression of its qualities. Naya is epistemological (jñānātmaka) while nikṣepa is concerned with the expression of the contents of knowledge through language.
There are two broad categories of Naya (standpoints) i.e. (I) Dravyarthika Naya (substantial standpoint)- those concerned with understanding of substance and (2) Paryāyārthika Naya (modal standpoint)-those concerned with the understanding of modes. There are two traditions in understanding these nayas. The first āgamic tradition represented by Jinabhadragaṇi Kṣamāśramaņa, enumerates naigama, samgraha, vyavahāra within dravyarthika-naya while rjusūtra and sabda, samabhirūḍha and evaṁbhūta nayas, according to him, refers to paryāyārthika naya. The second logical tradition represented by Siddhasena Divākara, enumerates Samgraha and Vyavahāra within dravyarthika and rest in paryāyārthika naya. As for nikṣepas are concerned, nāma, sthāpanā and dravya are incorporated in dravyarthika-naya30 while bhava-nikṣepa refers to the paryayarthika-naya. This is the Siddhasena Divakara's contention, which is referred by revered Jinabhadragani Kṣamāśramaņa in his Viseṣāvasyaka-Bhāṣya. Jinabhadragani justifying his view of niksepa (positing) on namaskāra says that 'sabda, samabhiruḍha, and evambhūta accept bhāva-nikṣepa (modal positing) and remaining nayas entertain all the four types of nikṣepa. Some others hold that rjusūtra-naya subjects to only nama and bhava-nikṣepa31. But this is not so; because Anuyogadvāra-sūtra clearly mentions that rjusūtranaya subjects to dravya-nikṣepa.32
When rjusūtra-naya considers the lump of the gold as the cause of the different shapes (necklace etc.) of the gold, there is no reason why it would discord the sthāpanā of the Indra which has the shape of Indra and by looking at which the word Indra is uttered. In this way jusūtra-naya accepts nāma and sthāpanā also. Some others
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Concept of Nikşepa in Jaina Philosophy: 63 maintain that samgraha and vyavahāra-naya except sthāpanā, subject to remaining three (nāma, dravya and bhāva). But this view is not free from defects. It must be accepted that either generic (Samgrahika) or the non-generic-naigama (asamgrahīka-naigama) does accept the sthāpanā-nikṣepa, because the acceptance of the sthāpanā is not prohibited in substantial viewpoint (dravyārthika-naya) except in the generic (samgraha) and empirical-viewpoint (vyavahāra-naya).
Generally, nama-nikṣepa subjects to naigama, samgraha and vyavahāra, enumerated in dravyārthika-naya. As nama-nikṣepa is meant for naming the objects, it is related with substance only. Modes cannot be subject matter of nama-nikṣepa because they are always changing. Here a question may arise that if all the three types of sabda-nayas are paryāyārthika, then how the nama-nikṣepa works there? Answer is that meaning is not important but words are important there. The word is in itself a mode. Therefore that which subjects to modes is paryāyārthika.
The subject matter of sthāpanā nikṣepais dravyārthika-naya (naigama, samgraha, vyavahāra) only, because, from tadākāra (similar) and atadākāra (dissimilar) nikṣepa the substance is referred. Substance cannot be established in modes. Without the existence of the object in which the representation (sthāpanā) is made, sthāpanā-nikṣepa cannot be proved.
Dravya-nikṣepa is undoubtedly dravyarthika (samgraha, vyavahāra) because unless the existence of substance, which is traikālika (existing in past, present and future), is not justified, the unity between the three states cannot be proved.
Bhāva-nikṣepa subjects to modes (paryāya) particularly to evambhūta-naya.
Nikṣepa with reference to Soul:
Soul named as soul is called nama-nikṣepa of soul: the sthāpanānikṣepa of the soul is the sthapana of gods etc., the bhāva-nikṣepa
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64 : Śramaņa, Vol 66, No. 2, April-June 2015 of the soul is possessed of the subsidence of the knowledge - obscuring karmas. Thus these three nikeșpas are possible with reference to soul but not the dravya-niksepa. This would be possible, if only who is not soul at present would become a soul in future, just as one who is not god in the present is to become god in future and that is called dravya-niksepa of god. But this cannot be accepted because the existence of knowledge in a soul is considered to be without beginning and without end. But if we imagine a soul, to be devoid of qualities and modes but possessed of a beginningless knowledge, then this would be a nonexistent thing. In this way only a liberated soul would be a real soul and no other soul- therefore, this point of view is also not free from defects, as elaborated by the commentator of Tattvārtha.33 One should keep in his mind that all mundane souls would be substantial but they would not be contradictory to real because it is held that the name etc. of an object are invariably concomitant with the real. 34
Thus, nikṣepas are very useful to understand the actual meaning of the word used in the given context. For example, when watching a student entering in a classroom, we say “Rājā came', the meaning of this statement is different from that when we say “Rājā came' watching any boy playing the role of a king at the stage of a drama. In first instance the Rajā is the name of the student while in second instance he is an artist playing the role of the king. Even today, we use the phrase like ‘Mahārājā Gwalior' (the king of Gwalior) and ‘Mahārājā Benaras'(the king of Benaras), but at present the meaning of the phrase is not the same as it was before 1947. Presently it is considered on the basis of dravya-nikṣepa while before 1947 it was considered from the point of view of bhāva-nikṣepa.35 We have described the above-mentioned account of Niksepa on the basis of Tattvārthasūtra, Jaina-tarka-bhāṣā and other Jaina philosophical works. Mr. Banshidhar Bhatta in his 'Canonical Niksepa, Studies in Jaina Dialectics 36 has mentioned two major categories of Nikṣepa i.e. (i) Canonical Nikṣepa and (ii) Post
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Concept of Nikṣepa in Jaina Philosophy : 65 Canonical Nikșepa. In 'Introduction of the book he writes, 'The Nikṣepa plays an important part in the post canonical literature of Svetāmbara Jains and in later Digambara works. The post canonical niksepa is a dialectical technique - and as such it is not only employed but also explained. By contrast, the canonical nikṣepa (niksepa as found in Svetāmbara canons) is a pattern or a cluster of related patterns, and the very word niksepa does not occur. Niksepas are found in many dogmatical works of the Jaina canon, but the nikṣepa material (canonical niksepa) is mainly found in three works: Vyākhyāprajñapti, Jivābhigama and Prajñāpanā. They cover almost half of the entire Svetāmbara canons. These three treatises contain less exegetical matter than several other canonical works. In modern times, the Bhagavati, one of the most important works amongst the three, has been studies rather intensively. The Definition of canonical nik sepa is based on the occurrence of certain terms called as determinants. Two to five determinants are used by canonical niksepa, while post canonical may have more than five. The standard determinants of the canonical niksepa are
davva (dravya)', khetta (kşetra), kāla, and bhāva. These are the very basis on which the canonical structure is determined. The canonical niksepa has at least two determinants. Dr. Bhatta quotes two examples for the rough idea of nikṣepa:
(i) 'According to substance, the world has an end; according to space, the world has an end; according to time, the world has no end; according to non-physical nature, the world has no end.' (ii) 'The world exists according to substance, space, time, and nonphysical nature. According to space, it is subdivided into hell, world of human beings and heaven'
Here, substance, space, time, non-physical nature are the determinants.
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66 : Śramaņa, Vol 66, No. 2, April-June 2015 The treatment of different forms of the canonical niksepa is mainly morphological. But there are historical implications as well. Different dialectical efforts probably stand for different schools in early Jainism, which does not differ much in their views.
The subdivisions of niksepa are based on few new terms coined. There are six terms of this type37: Ś. Ā. 'Sarira' and 'Agama' Sāmukha nikṣepa with āmukha i.e. with programme Nirāmukha nikșepa without āmukha, i.e. without programme Davvao nikṣepas introducing the determinants in the ablative case i.e. davvao (according to substance) Davva-loga nikṣepa supplying determinant and catchword in the form of a compound i.e. davva-loga. Amukha style recurring dialectical pattern, employing ‘programmes' but not to be classified as niksepa. Dr. Bhatta has classified the forms of the Nikșepas as under:
Niksepa
Canonical
Parallels
Samūkha Pattern
Samukha Irregular
Nirāmukha Pattern
Davvao
Davva-loga
Close
Remote
Post-canonical
Ś. A.
Miscellaneous
Classical Nikṣepa
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Concept of Nikşepa in Jaina Philosophy : 67
References:
1. (i) Prakaraņādivasenāpratipatyā (tyā) divyavacchedayathāsthāna viniyogāya sabdārtharacanăviseșā niksepāḥ. Jaina-tarka-bhāṣā, Upādhyāya Y sovijaya, Trans. Shobhachandra Bharilla, Sri Trilok Ratna Stha. Jain dharmik Pariksha Board, Pathardi, 1964, Nikṣepa Parichcheda, p. 68. (ii) Śabdesu višeşanabalena pratiniyatārthapratipādanaśakterniksepaņaṁ niksepaḥ| Jaina-siddhānta-dipikā-10.42, English rendering by Satkari Mukerjee, JVB, Ladnun, 1985, p.192 (iii) nicchaye niņnaye khivadi tti ņikkhevol Dhavala Țikā samanvita Şațkhandāgama, Eds. Hirala Jain, Sheth Shitabray Lakshmichand, Jain Sahityoddharak Fund, Karyalaya, Amaraoti, 1954, Book 1, p.10. 2. New Dimensions in Jain Logic, English rendering of 'Jaina Nyāya kā Vikāsa' by Nathmal Tatia, JVB, 1984, p.63 3. Ibid p. 64 4. Jaina Darsana: Svarūpa aura Viślesaņa, Devendra Muni Shastri, Tarak guru Jain Granthalaya, Udaipur, 1975, p. 282 5. aprastutārthapakaraņāt prastutarthavyākaraṇācca niksepa phalavān Laghiyastraya, 7.2 6. Tattvārtha-sūtra, Commentary by Pt. Sukhlal Sanghvi, Parshwanath Vidyapeeth, 2009, p. 6 7. (i) Tattvārtha-sūtra, 1/5 (ii) Sanmatitarka-prakaraṇa, Ed. Pt. Sukhlal Sanghvi, 1/6 8. Dhavalā, 1/1,1,1/10/4, referred in Jainendra-siddhānta-kośa, Part II, Bharatiya Jnanapith Prakashan, 1992, p. 591 9. Ślokavārtika, Pūjyapāda, 2/1/5 10. tatra prkstārthanirapekṣā nāmārthānyatarapariņatirnāma nikșepa, Jaina-tarka-bhāṣā, p. 68. 11. Tattvārthasūtra, English Trans. by K. K. Dixit, L. D. Institute of Indology, 1974, p.10 12. Jainendra-siddhānta-kośa, Part II, p.591 13. yattu vastu tadarthaviyuktaṁ tadabhiprāyeņa sthāpyate citradau tadȚśākāram, akṣādau ca nirākāram, citrādyapekșayattvaraṁ.....nāmasthāpanāniksepaḥ. Jaina Tarka-Bhāṣā, Nikşepa Parichcheda, p.69 14. sāyāra iyara ţhavaņāl Nayacakravstti, 273
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68 : Sramaņa, Vol 66, No. 2, April-June 2015 15. Dhavalā 1/1,1,/20/1 16. (i) Dhavalā , (pu. 13 verse-10) (ii) Șaskhaņdāgama, 13/5,3/10/9 17. (i) bhūtasya bhāvino vā bhāvasya kāraṇam yanniksipyate sa dravyanikṣepaḥ. Jaina-tarka-bhāṣā, p. 69 (ii) anāgatapariņāmviseșaṁ pratigļhitābhimukhyam dravyaṁl/ Tattvārthavārtika, 1/5, p.28 18. kvacid prādhānye,pi dravyanikṣepaḥ pravartate, yathā, ngāramardako dravyācāryaḥ, ācāryaguņarahitvāt apradhānācāryā ityarthaḥ/ Jaina-tarka-bhāṣā, p.69 19. (i) taddvidham-āgama-no-āgama/ Tattvārthavārtika, 1/5, p. 29 (ii) Anuyogadārasūtra, Madhukarmuni, APS, Vyavar, 1987, 538 Pra., p.438 20. Ślokavārtika 1/5, verse 62 21. Jainendra-siddhānta-kośa, Part II, p. 591 22. Anuyogadārasūtra, Madhukarmuni, 540 Pra. p. 438, Șatkhandāgama,9/4,1 verse 61/267 23. Anuyogadārasūtra, Madhukarmuni, 541Pra., p.439 24. Dhavalā 1/11, 1/23/3 25. (i) vivaksitakriyāvisistaṁ svatattvaṁ yanniksipyate sa bhāvaniksepah Jaina-tarka-bhāyā, p.70 (ii) vartamānatatparyāyopalakṣitaṁ dravyaṁ bhāvaḥ, Sarvārthasiddhi, Pūjyapāda, 1/5/1716 26. Jaina Philosophy of Language, Dr. Sagarmal Jain, Parshwanath Vidyapeeth, Varnasi, 2006, p. 102. 27. Anuyogadārasūtra, Madhukarmuni, 565 Pra., p.446 28. nāmāpi sthāpanādravyābhyāmuktavaidharmyādeva bhidyata iti. dugdhatakrādināṁ svetattvādinā...... iti sthitam., Jaina-tarka-bhāṣā, p.71 29. Ibid, p. 72 30. (i) nāmaṁ țhavaņā davie tti esa davvatthiyassa nikkhevol Sanmatitarka, Ibid, 1/6 (ii) The Philosophy of Welfare Economics of Dr. Amartya Sen and Jain Philosophy, Trafford Publication, USA and Canada, 2011, p.267 31. nāmāitiyaṁ davvatthiyasya bhāvo a pajjavaṇassa/ sangah vavahārā padhamagassa sesā u iyarassall
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Concept of Nikşepa in Jaina Philosophy: 69 svamate tu namaskaranikṣepavicārasthale, "bhāvam ciya sadvaṁayāsesā icchanti savva nikkheve/ Viseṣāvaśaykabhāṣya, JinAhadragani Kṣamāśramaņa, verse 2847
32. ujjusuassa age aņu vautte agamo egaṁ da Vāvassayaṁ, puhattaṁ necchai, Anuyogadvārasūtra, 14
33. Cf. Tattvarthabhāṣyavṛtti, p. 48
34. Jaina-tarka-bbhāṣā, Engl. Trans. by Dr. D. N. Bhargava, MLBD, Delhi 1972, p. 83
35. Jaina Philosophy of Language, Dr. Sagarmal Jain, Parshwanath Vidyapeeth, Varnasi, 2006, p. 103.
36. Canonical Nikṣepa, Studies in Jaina Dialectics' (with foreword of K. Bruhn & H. Haertel, by Banshidhar Bhatta, Bharatiya Vidya Prakashan, Delhi, Reprint Delhi, 1991, 'Introduction' p.XV, XVI. 37. Ibid, p.40
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THE COSMOPOLITAN VISION OF
YAŚOVIJAYA GANI
Jonardon Ganeri
Two ways of World making
Speaking of a multitude of irreducible "worlds,” Nelson Goodman draws our attention to the idea that there is no one unique way of describing, depicting, representing or otherwise capturing in thought the shared space we inhabit. Made worlds-versions, views, renderings - differ from one another as a novel might differ from a painting, or a poem from a news report. If that is right, and if we nevertheless want to be able to speak of conflict and consistency between worlds, then our standards of comparison and measures of rightness must appeal to considerations other than merely correspondence with the truth. Goodman therefore says that “So long as contrasting right versions not all reducible to one are countenanced; unity is to be sought not in an ambivalent or neutral something beneath these versions but in an overall organization embracing them."!
Goodman's notion of a made world performs some of the same conceptual work as is done by its counterpart in Jainism, the concept of a naya, a perspective, standpoint or attitude within which experience is ordered and statements are evaluated. The Jains argue that diferent philosophy, when they construct different philosophical systems, emphasize different stand-points.? (cf. Matilal 1998: 133). With the Jainas too, a prominent thought is that conflicting right views are to be brought together not by trying to show that there is, after all, some single truth underneath, of which the views are but different modes of presentation, but rather than there is a coordinating unity above, to which each view makes a proper but partial contribution.
This familiar distinction between top-down and bottom-up models of unity is one much in evidence in recent discourses about cosmopolitanism. In favour of a top-down approach, for example, it
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The Cosmopolitan Vision of Yasovijaya Gaņi : 71. has been said that “trans-disciplinary knowledge, in the cosmopolitan cause, is more readily a translational process of culture's in-betweenness than a transcendent knowledge of what lies beyond difference, in some common pursuit of the universality of the human experience. The idea that different view-points are co-inhabitants in a single matrix, and to that extent susceptible to syncretism, is what distinguishes the cosmopolitan vision from pluralism, whose cardinal tenet is that the irreconcilable absence of consensus is itself something of political, social or philosophical value. In early modern India, these thoughts had a political as well as philosophical importance. For much of the sixteenth and seventeenth centuries, the Sufi doctrine of wahdat al-wujkd ('Unity of Being') guided a quest for a single spiritual vision underpinning all religions. Hindu texts were translated into Persian in the belief that, suitably decoded, they could be read as speaking about that divine unity which was the proper concern of the Islamic mystic. The thought that the texts of other religions are, in Carl Ernst's phrase, "hermeneutically continuous" with the Quran, served as the guiding force in an extensive translational exercise patronised by the Persianate court from Akbar through to Dara Shukoh (1615-1659). This project was certainly neither pluralist nor syncretic, but nevertheless recognised the existence of a common religious space available for joint occupation by a plurality of religions. It was a bottom-up approach to religious cosmopolitanism. The same period was also, and presumably not coincidentally, a period of extraordinary innovation and dynamism in the philosophical activity of indigenous Sanskrit intellectuals. In particular, there arose a new school of logic, the Navyanyāya, whose methods and techniques were highly effective and much emulated throughout the world of Sanskrit scholarship. Training centers for Navyanyāya flourished in Varanasi. Navadvīpa and Mithila, attracting students from all over the Indian continent and perhaps even further a field.
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72 : Śramaņa, Vol 66, No. 2, April-June 2015 Upādhyaya Yasovijaya Gaņi (1608-1688 AD)
It is in the context of these political and philosophical movements that I would like to examine the work of one of Jainism's great intellectuals, Yaśovijaya Gaņi . Born in Gujarat in 1624, he died there in 1688 after a long and varied career. The Gujarat of his day was home to a diverse trading population, including Arab, Farsi, Tartar, Armenian, Dutch, French and English mercantile communities. Roughly speaking, Yaśovijaya Gaņi's intellectual biography can be seen as falling under three heads: 1. An apprenticeship in Varanasi studying Navyanyāya, a period writing, 2. Jaina philosophical treatises using the techniques and methods of Navyanyāya, and 3. A time spent writing works with a markedly spiritual and religious orientation. Yaśovijaya's extended stay at a Nyāya teaching centre or matha in Varanasi lasted perhaps twelve years (from around 1642 to about 1654); certainly, it was enough to provide him, according to his own testament, with a broad knowledge of Navyanyāya and to earn him the respectable title Nyāyaviśārada, “One who is skilled in logic”4. According to some accounts, he came to Varanasi in the company of his teacher Muni Nayavijaya, both having disguised themselves as Brahmins in order to gain admission to the matha. Since, however, there are reports of Buddhists from Tibet traveling to India to study Nyāya, and since, after all, teaching was the chief livelihood of the Nyāya Pandit, the veracity of this story is open to doubt. As for the identity of Yaśovijaya Gani's matha, is concerned, it has been conjectured that it was the one headed by Raghudeva Nyāyālaňkāra, primarily on the basis of the fact that Yaśovijaya mentions him by name in one of his works, the Aștasahaśrīvivarana'. Raghudeva did live in Varanasi and was a prominent public intellectual of the period. He was also, though, a Bengali and a pupil of the famous Bengali Harirama Tarkavagisha. Yaśovijaya, on the other hand, frequently evinces a critical attitude towards the founding figure of Bengali Navyanyāya, Raghunatha Shiromani, even repeating a
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The Cosmopolitan Vision of Yasovijaya Gani: 73 piece of derisive slang about him: "Cursed is the province of Bengal, where there is the one-eyed Śiromani". I think that his teacher is as likely to have been another prominent Varanasi Naiyayika of the same period, Rudra Nyāyavācaspati. Rudra belonged to the family of a renowned Varanasi scholar whose views Raghunatha had criticised, Vidyānivāsa (as Rudra's brother, Viśvanatha Pañcānana, tells us). The antagonism between this influential family of Naiyayikas with strong ties to Varanasi and the followers of Raghunatha's new school is perhaps evident in Yasovijaya's attitudes.
At a later stage in his career, Yasovijaya began to write increasingly spiritualistic religious treatises, and I will shortly say more about these. According to the fullest biography of Yasovijaya we have to date, one of the decisive events in the process leading to this transformation was Yasovijaya's meeting with the poet Anandaghanaji. Before this turn towards the philosophy of the self, however, Yasovijaya had produced several of the finest works in Jaina epistemology, including the Jaina-Tarkabhāṣā and the Jaina Nyāyakhaṇḍakhadya, utilising the methods of Navyanyāya in a reformulation of Jaina epistemology. It is of particular interest to see how Yaśovijaya takes the Nyaya idea that a single object can have a variegated colour (citrarūpa) - for example, that of a single pot whose parts are both blue and red - and in particular Raghunatha's defense of this idea with the help of the new concept of non-pervasive location (avyāpya-vṛttitva), and how he carefully distinguishes this explanation of the way a single reality can have apparently mutually excluding properties from the Jaina explanation in terms of nonAbsolutism (anekantavāda). The importance of these ideas was not to be lost in the later works which will be my concern shortly, works in which a variety of ethical themes are explored within an anekāntavāda framework, including the moral and intellectual virtues worthy of cultivation, the nature of spiritual exercises, the idea of a spiritual path and its analogy with a medicine for the soul, and the concept of that self for the benefit of which all these ideas are developed.
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74 : Śramaņa, Vol 66, No. 2, April-June 2015 Secular Intellectual Values
In one of the ethical works, the Jñānasāra, Yaśovijaya systematically describes thirty-two moral and intellectual virtues jointly constitutive of a virtuous character?. Many would be equally familiar to a Buddhist or Hindu, but two are distinctive: neutrality (madhyasthatā) and groundedness in all view-points (sarvanayāśraya). Neutrality is explained in terms of the dispassionate use of reason: a person who embodies this virtue follows wherever reason leads, rather than using reason only to defend prior opinions to which they have already been attracted. Yaśovijaya stresses that neutrality is not an end in itself, but rather than it is a means to another end. We adopt a neutral attitude, he says, in the hope that this will lead to well-being (hita), just as someone who knows that one among a group of herbs is restorative but does not know which one it is, acts reasonably if they swallow the entire lot. As we can see from this example, philosophy is thought of as a medicine for the soul, the value of a doctrine to be judged by its effectiveness in curing the soul of its ailments. That is why it can be reasonable to endorse several philosophical views simultaneously, just as one can take a variety of complementary medicines. Being grounded in all view-points means giving to each view-point its proper weight within the total picture; it is akin to the "overarching organisation" in Goodman's Ways of World-making. The benefit that accrues from this is again linked to the use of reason, this time the ability to engage in reasoned discourse. Someone who is so grounded can enter into a beneficial discussion about religion and ethics (dharma); otherwise the talk is just empty quarrelling (suskavāda-vivāda)." For Yaśovijaya in the Jñānasāra, the final goal to which the cultivation of these and the other virtues leads is the soul's fulfillment (pūrņatā), a fulfillment consisting in 'consciousness, bliss and truth' (saccidānanda)." The idea that assuming a neutral attitude towards all views is the way to fulfill partially the reminiscent of Greek Pyhrronism, where it is argued that developing an attitude of indiscriminate refusal to assent to any
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The Cosmopolitan Vision of Yaśovijaya Gaņi : 75 view (epoche) is the means to achieve that tranquility of mind (ataraxia) necessary for happiness (eudaimonia). Tolerance and the Critical Evaluation of Others
Paul Dundas (2004) has shown how, in the Dharmaparikṣā, Yaśovijaya uses the concept of neutrality as the basis for an irenic strategy towards other religions. Followers of other religious traditions can be considered as conforming to the true (i.e. Jaina) path if their attitude towards the doctrines of their own tradition which is sufficiently non-dogmatic. Dundas worries, reasonably enough, that in spite of being inclusivist, such a position nevertheless does still assert the superiority of the Jaina path. Perhaps that is why, in the Adhyātmopanişat-prakarana, Yaśovijaya advances another strategy. He now argues that the virtues to which Jainism gives particular prominence, namely impartiality, neutrality, and nononesidedness, are in fact already present in the various non-Jaina systems, albeit in an only implicit form. For all the systems seek an "overarching organisation" when it comes to sorting out and arranging their internal doctrinal claims. All therefore do embody the quintessential Jaina principles and virtues in their own theoretical practice, whether or not those principles and virtues receive any explicit mention in the official meta-theory. Let me examine this idea in more detail. Yaśovijaya argues that no body of 'theory' (śāstra), whether Jaina or non-Jaina, is to be accepted merely on the basis of sectarian interest. Instead, the theory should be subject to testing, just as the purity of a sample of gold is determined by tests involving rubbing, cutting and heating. I2 In a body of theory, the relevant test is to see whether the various prescriptive and prohibitive statements pertaining to some one issue ‘rub together', that is to say, whether they cohere with one another and pull in the same direction. For example, in Jainism the prescriptions concerning religious meditation and the prohibitions on the use of violence are coordinate and together pull in the direction of mokṣa." In practice, of course, no reasonably large and complex
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76 : Sramaņa, Vol 66, No. 2, April-June 2015 body of theory will meet this test; nor can coherence be manufactured simply by "cutting out some statements and keeping others. The only method for dealing with such apparent incoherences as inevitably do arise is the method of/conditionalised assertion (syādvāda) and non-onesidedness (anaikāntya). To say that the soul is eternal is to depict human subjectivity in one way; to say that the soul is noneternal is to depict it in another: both depictions, in their own way, gesture at something right about what it is to be a human subject. Yaśovijaya then shows how each of the non-Jaina systems does incorporate the spirit, if not the latter, of the principle of nononesidedness.'s Referring by name to Sāṁkhya, Vijñānavāda Buddhism, Vaišeşika, the three Mīmāṁsaka schools of Kumārila, Prabhākara and Murārī, and Advaita Vedānta, he concludes that syādvāda is a doctrine of all the systems (syādvādam sārvatāntrikam).16 The Vedāntins, for example, say that the soul is both bound and unbound, relativising those statements to the conventional and the absolute in order to avoid contradiction. Likewise, Kumārila says that entities are both particular and universal, conditioning these claims upon aspects of experience. Yašovijaya concludes by bringing the discussion back to the cultivation of an attitude of neutrality. All the different systems of belief are equal in requiring of their practitioners that they adopt an attitude of balance and coordination; indeed this balance and neutrality is the very point of śāstra. True religious and moral discourse (dharmavāda) is based on this; the rest is just a sort of foolish hopping about (bālisavalgana)." It is worth emphasising that Yaśovijaya by no means considers the doctrines of conditionalised assertion and nononesidedness to lead to a laissez-faire relativism, for he explicitly here dismisses the Cārvāka as being too confused in their understanding of the topic of liberation even to be said to have a 'view'.18 Neutrality does not mean acceptance of every position whatever, but acceptance only of those which satisfy at least the minimal criteria of clarity and coherence needed in order legitimately to constitute a point of view.
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The Cosmopolitan Vision of Yaśovijaya Gaņi : 77
The Self
We have seen that Yaśovijaya first identifies certain moral and intellectual virtues as being quintessentially Jaina, and how he then argues that if non-Jaina systems understood the nature of their own practice more clearly, they would see that they too embed those virtues in their conception of the philosophical path. I have also noted that the embodiment of those virtues is thought of as a means to some further end. In a final step, Yaśovijaya argues that the equanimity which is the end of the Jaina path is consistent with the realization of that universal self, consisting of truth, bliss and consciousness, also spoken of in the Upanişads and the Gitā. In the first chapter of the Adhyātmopanişat-prakaraņa, Yaśovijaya tells us that there are two different perspectives on the self. From a strictly etymological perspective, it is the one who performs a variety of actions and activities. From the perspective of ordinary linguistic practice, however, it is the mind as endowed with virtuous qualities like friendliness." In the second chapter, however, Yaśovijaya describes the state of true self-awareness in decidedly Upanișadic terms, a state which is beyond deep sleep, beyond conceptualisation, and beyond linguistic representation, and he says that it is the duty of any good śāstra to point out the existence and possibility of such states of true self-awareness, for they cannot be discovered by reason or experience alone. How. then, should these two visions of the self be organised, the one consisting in pure bliss and undivided consciousness, the other of a multitude of spatially bounded and active selves? One might have expected Yaśovijaya to say that both have their proper place in a non-onesided attitude towards selfhood, but in fact he gives clear preferential weighting to the unitary conception of self (a conception which he also identifies, in the final chapter, with samatā, a state of pure equanimity). That comes out most clearly in the Adhyātmasāra, where he states unequivocally that the apparent multiplicity of selves is an illusion, likening it to the illusion of a multitude of moons caused by the eye disease timira, double-vision.20 Having repeated once again that the self consists in
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78 : Śramaņa, Vol 66, No. 2, April-June 2015 truth, consciousness and bliss, he quotes with approval Bhagavadgita?!.."The senses are high, so they say. Higher than the senses is the mind; higher than the mind is thought; while higher than thought is He (the soul)."22 This is the spiritual fullness which Yaśovijaya has told us. It is the outcome of the exercise of neutrality and groundedness in all view-points. Both the Adhyātmasāra and the Adhyātmopanişat-prakaraņa, we can note, are sprinkled with references to the Bhagavadgitā and the Upanişads. Yaśovijaya and Dara Shukoh: A Cosmopolitan Ideal in 17th Century India
With this synopsis of the development of Yaśovijaya's thought, let me return to the political context in which he lived and in particular to the religious cosmopolitanism of Dara Shukoh (1615-1659). It was in 1655 or 1656, at just the time when Yaśovijaya would have been finishing up his studies in Varanasi, that Dara Shukoh himself assembled in Varanasi with a team of the most renowned Sanskrit pandits to help him execute his plan of translating the Hindu scriptures, or at least those of them that were “hermeneutically continuous” with the Quran. He was to supervise the translation into Persian of fifty-two Upanişads, of the Yogavāsistha and of the Bhagavadgitā, all of which, he believed could be read as speaking of the divine unity, if one mapped their terminology into that of Sufism in accordance with the notational isomorphisms he had already established, in a book entitled The Meeting-Place of the Two Oceans (Majma-ul-Barhain), the title indicative of a conception of Hinduism and Islam as coming together at a point of confluence. A translation into Sanskrit, possibly made by Dara Shukoh himself, is entitled Samudra-sangama. In the ‘Preface' to his translation of the Upanişads, Dara Shukoh tells us that “As at this period the city of Benares, which is the centre of the sciences of this community, was in certain relations with this seeker of the Truth (sc. Dara Sukoh], he assembled together the Pandits and Sarnyāsīs who were the most learned of their time and proficient in the Upanekhat, he himself being free from all materialistic motives, translated the essential
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The Cosmopolitan Vision of Yasovijaya Gaņi : 79 parts of monotheism, which are the Upanekhat, i.e. the secrets to be concealed, and the end of purport of all the saints of God, in the year 11067 A.H. (1657 C.E.)” (Hasrat 1982: 266). That Yaśovijaya would have had a keen interest in Dara Shukoh's inclusivist project, had he known about it, is certain. And it seems hard to imagine that he could not have known about it given the high status of the project, which gave employment to a great number of the most celebrated Sanskrit intellectuals of the day, and given also its pivotal role in one of the most momentous events of the epoch, providing Aurangzeb with an excuse to brand Dara Shukoh a heretic and arrange for his execution (having alreacy imprisoned their ailing father, Shahjahan), thereby usurping the Mughal throne. Yaśovijaya was eventually to return to Gujarat, but according to a curious detail in his biography, he went first to Agra and continued his work there for a few years. Whether true or not, and one cannot be entirely sure, the detail is indicative of the circulation of both people and ideas at this time between centers of Islamic and Hindu intellectual influence.
Yaśovijaya, I have suggested, sought a top-down account of the unity to which the various viewpoints are susceptible, a unity grounded in a shared appreciation of the intellectual virtues associated with the translational process of cultures' in-betweenness”. I have also suggested that he felt a considerable pull towards another account of unity, the bottom-up account represented by his interest in spiritual unity. This second move would have served to bring his thinking into line with the “Unity of Being” ideology currently in vogue in the centres of political power. The tension in Yaśovijaya's conception of a supra-religious spiritual community is apparent in the way he invokes that celebrated metaphor of identity-and-difference, the metaphor of the ocean and its waves. Yaśovijaya says: “The divisions born from the (various) standpoints are merged in a great universal form, just as the huge waves generated by strong winds in the ocean."23
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That seems both to recapitulate the Vedantic use of the image of waves not different from the body of water that is the ocean and yet retaining their separate identity24 but also to hint that it is the emergent pattern produced by the interaction in which the unity is to be found. The ability to see that picture comes, however, with the cultivation of the distinctively Jaina virtues of neutrality (madhyasthatā) and impartiality (samata), which for Yasovijaya are the grounding cosmopolitan virtues in a multi-faith community. Interestingly, Dara Shukoh appeals to the very same metaphor, again giving it a distinctive twist:
"The inter-relation between water and its waves is the same as that between body and soul or as that between śarīra and ātmā. The combination of waves, in their complete aspect, may be likened to abul-arwah or paramātmā; while water only is like the August Existence, or suddha or chetan."25
Here we have on display the two models of unity with which I began, the top-down model represented by the single pattern created by the waves in interaction with each other, and the bottom-up model signified by the body of water itself, to which all the waves belong. Where one might have expected the Jaina Yasovijaya to espouse the top-down model, and the Sufi Dara Shukoh the bottom-up model, what one finds instead is a desire by both to offer some accommodation of each model. And perhaps, indeed, a robust religious cosmopolitanism does require there to be space for both a unifying vision and a vision of unity.
References:
1. Goodman, Nelson. Ways of Worldmaking. The Harvester Press, 1978, p. 5.
2. Matilal, B. K., Central Philosophy of Jainism, L. D. Institute of Indology, Ahmedbad, 1981, p. 30
3. Desai, Mohanlal Dalichand. Yashovijayaji: The Life of a Great Jaina Scholar. Bombay: Meghji Hirji & Co., 1910, p.54
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The Cosmopolitan Vision of Yaśovijaya Gaņi : 81 4. Vidyabhushan S. C., History of Indian Logic, 1921: Culcutta University, p. 217 5. Aștasāśri-tātparyavivarana, Part 1, Ed. Munishri Vairagya Yati Viajayji, Pravachan Prakashan, Pune 2004, p.9 6. Nyāyakhanďakhădya, Folio 43 7.Yaśovijaya Gaņi, Jñānasāra, translated by A. S. Gopani, Jaina Sahitya Vikas Mandal, Bombay, 1986, p.3-4 8. Ibid, 16.2, p. 86 9. Ibid, 16.8, p.89 10. Ibid, 32.5, p.188 11. Ibid, 1.1, p.3 12.Adhyātmopanişad, Commentary by Bhadrankara Surishwarji Maharaj, Shri Jnanoday Printing Press, Pindwada, V.S. 2042,1.17, folio 20 13. Ibid, 1.18, folio 20 14. Ibid, 1.19, folio 20 15. Ibid, 1.45,46, folio 45-52 16. Ibid, 1.51, folio 67 17. Ibid, 1.71, folio 67 18. Ibid, 1.52, folio 50 19. Ibid, 1.2,4, folio 6,7 20. Adhyātmasāra, Ed. Dr. Sagarmal Jain, Shri Rajrajendra Prakashan Trust Ahmedabad, 2009, 18, 13-20, p.661 21. Bhagvadgitā, 3.42 22, Adhyātmasāra, 18.39-40 23. Adhyātmopanişat-prakaraṇa, 2.41 24. Brahmasūtra Šāṁkrabhāsya 2.1.13 25. Dara Shukoh 1929: 44f. BIBLIOGRAPHY (Texts of Yasovijaya Gaņi) Adhyātmasāra. Edited by Ramanalal C. Shah. Sayala: Sri Raja Sobhaga Satanga Mandala, 1996. Adhyātmopanişat-prakaraṇa. Edited by Sukhlalji Sanghvi. Ahmedabad: Sri Bahadur Singh Jaina Series, 1938. Dharmaparikṣā, Mumbai: Shri Andheri Gujarati Jain Sangha, 1986.
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1917.
82 : Śramaņa, Vol 66, No. 2, April-June 2015 Jaina Nyāyakhandanakhādya. Edited by Badarinath Shukla. Chowkhamba Sanskrit Series No. 170, 1966, Varanasi. Jaina Tarkabhāșă. Edited by Sukhlalji Sanghvi, Mahendra Kumar & Dalsukh Malvania. Ahmedabad: Sri Bahadur Singh Jaina Series, 1938/ 1942/1997. Jñānasāra, Edited & Translated by Dayanand Bhargava. Delhi: Motilal Banarsidas, Delhi, 1973. Other Primary Sources Brahmasūtra-śārkarAhāşya, Edited with Commentaries by N. A. K. Shastri and V. L. Shastri Pansikar. Bombay: Nirnaya Sagar Press, 1917. Secondary Literature Dr Shukna, viajma-ul-Barhain, or The Mingling of the Two Oceans by Prince Muhammad Dr Shukoh. Edited and Translated by M. Mahfuz-ul-Haq. New Delhi: Adam Publishers, 1655/1929 (2006 Edition). Dr Shukoh (1957 [1657]), Sirr-i Akbar: The Oldest Translation of the Upanişads from Sanskrit into Persian, Edited by Tara Chand & S. M. Raza Jalali Nayni. Tehran: Taban. Desai, Mohanlal Dalichand. Yashovijayaji: The Life of a Great Jaina Scholar. Bombay: Meghji Hirji & Co., 1910. Dundas, Paul. The Jains. London: Routledge, 1992. Dundas, Paul. “Beyond Anekāntavāda: A Jaina Approach to Religious Tolerance," Oxford Press, Delhi Ahimsā, Anekānta and Jainism. Edited by Tara Sethia, 123-136. Motilal Banarsidas, 2004, Delhi. Ernst, Carl W. “Muslim Studies of Hinduism? A Reconstruction of Arabic and Persian Translations from Indian Languages.” Iranian Studies 36, 2 (2003) 173-195. Ganeri, Jonardon. “Dr Shukoh and the Transmission of the Upanişads to Islam.” Migrating Texts and Traditions. Edited by William Sweet. Ottawa: University of Ottawa Press. Goodman, Nelson. Ways of Worldmaking. Hassocks: The Harvester Press, 1978.
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पार्श्वनाथ विद्यापीठ समाचार
A 15 Day National Workshop on 'Research Methodology in
Humanities' (April 11-25, 2015) organised successfully
Parshwanath Vidyapeeth (PV), an eminent institute of Indology in general and Jainology in particular, is well known to the academic world both within and outside India. It is recognized by Banaras Hindu University for Ph. D. degree and also by Scientific & Industrial Research Organization, Deptt. of Science and Technology, Government of India for conducting research.
Basically being a Research Institute, its total emphasis is on fundamental and result oriented original research in different branches of Śramaņa Tradition as well as Indological Studies. In absence of proper research methodology and research techniques, the researchers engaged in their research fail to do systematic and result oriented research even after spending lot of time than scheduled for research. Research methodology is defined as a systematic analysis or investigation into the research subject in order to discover rational and experimental principles, facts, theories, applications and processes. A successful completion of the research highly depends on its research methodology. Keeping in view the importance of the subject Parshwanath Vidyapeeth organised a 15 Day National Workshop on Research Methodology in Humanities from 11th to 25th April, 2015.
PAISLEREYANE
RESEARCH METHODOLOGY IN HUMAN
Inaugural Function
Digniteries on the dias in the inaugural session of Reserach
Methodology Workshop
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84 : Śramaņa, Vol 66, No. 2, April-June 2015 In this workshop the deliberations had confined to the subjects such as Sanskrit, Prakrit, Pali, Hindi, English, Linguistics, Philosophy and Religion, History, Ancient History, Culture & Archaeology, History of Art, Library Sciences, Museology, Education, Geography, Economics, Sociology.and Law. There were 115 participants from the different universities, i.e. Banaras Hindu University, Varanasi; Mahatma Gandhi Kashi Vidyapeeth, Varanasi; Sampurnanand Sanskrit University, Varanasi, I.I.T., Roorkee; Purvanchal University, Jaunpur; J.J.T. University, Zuzunu and Barkatullah University, Bhopal.
The Inaugural function was held on 11th April 2014. Prof. Prithivish Nag, Vice-chancellor, Mahatma Gandhi Kashi Vidyapith, Varanasi, was the Chief Guest, Prof. K. D. Tripathi, Hony. Advisor, Indira Gandhi National Centre for the Arts, Varanasi presided over this session and Sh. D. R. Bhansali, a famous Industrialist and Philanthropist was the Guest of Honour for this inaugural session.
Total 37 lectures were delivered by the experts in this workshop. These lectures are as follows: i. Significance and Nature of Research Methodology by Prof. S. P. Pandey, Head, Deptt. of Philosophy and Religion, BHU, Varanasi. 2. Research Methodology in Different Ways by Prof. Kamal Giri, Director, Jnan Pravah, Varanasi. 3. Research Terminology by Prof. Rajaneesh Shukla, Department of Philosophy, Sampurnanand Sanskrit University, Varanasi. 4+5. Research Methods; Research Methodology by Prof. Marutinandan Prasad Tiwari, Professor Emeritus, Faculty of Arts, BHU, Varanasi.
6+7. Academic Writing and Review; E-content Development by Dr. Sanjay Kumar Tiwari, Academic Staff College, BHU.
8. Bibliometric Study by Shri Ram Kumar Dangi, Assistant Librarian, Central Library, BHU, Varanasi.
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पार्श्वनाथ विद्यापीठ समाचार : 85 9+10+11. Qualitative Research; Citation; Referencing and Bibliography by Prof. Ravi Shankar Singh, Deptt. of Geography, BHU, Varanasi.
12. Historical Research by Prof. Sitaram Dubey, Former Head, Deptt. of Ancient Indian History, Culture and Archaeology, BHU, Varanasi. 13. Prācya Vidyā men Sodha Pravidhi by Prof. Hari Shankar Pandey, Dean, Faculty of Śramaņa Vidyā, Sampurnanand Sanskrit. University, Varanasi. 14. Aims and Objective of the Research by Prof. Rajaram Shukla, Head, Deptt. of Nyāya Darśana, SVDV, BHU, Varanasi. 15+16. Hypothesis; Data Collection by Prof. Usha Rani Tiwari, Muscology Section, Deptt. of Ancient Indian History, Culture and Archaeology, BHU, Varanasi. 17+18. Statistical Analysis by Prof. Sohan Ram Yadav, Head, Deptt. of Sociology, BHU, Varanasi.
19. Field Research by Prof. Arvind Kumar Joshi, Deptt. of Sociology, Faculty of Social Sciences, BHU, Varanasi. 20. How to prepare Synopsis by Prof. Ashok Kumar Jain, Deptt. Jaina-Bauddha Darśana, SVDV, BHU, Varanasi. 21. Sodha Vicāra athavā Šodha Jijñāsā kā Janma evam Samasyā Kathana ki Racanā by Dr. Ashish Tripathi, Deptt. of Hindi, BHU, Varanasi.
22. Ethical Issues in preparation of Research Reports including Publications by Prof. B. D. Singh, Former Rector, BHU, Varanasi.
23. Various Aspects of Research Methods and Methodology by Prof. R. K. Jha, Deptt. of Philosophy and Religion, BHU, Varanasi. 24. Role of Citation Analysis in Research Discussion on Web of Science and Scopus by Dr. Vivekanand Jain, Deputy Librarian, Central Library, BHU, Varanasi.
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86 : Sramaņa, Vol 66, No. 2, April-June 2015 25. Writing Style: Referencing, Notes and Citation by Prof. Rana Gopal Singh, Head, Deptt. of Geography, BHU, Varanasi. 26. Research Methodology in Humanities and Social Sciences: A Comparative Study by Prof. D. R. Patanayak, Deptt. of English, BHU, Varanasi. 27. Review of Literature by Dr. Jyoti Rohilla Rana, Deptt. of History of Art, BHU, Varanasi. 28. Content Analysis by Prof. Siddharth Singh, Deptt. of Pali and Buddhist Studies, BHU, Varanasi.
29. Selection of the Topic by Prof. Sachchidanand Mishra, Deput. of Philosophy and Religion, BHU, Varanasi. 30. Research and Research Methods by Prof. Bimalendra Kumar, Former Head, Deptt. of Pali and Buddhist Studies, BHU, Varanasi.
31. Various Aspects of Research in Vedic Literature by Dr. Upendra Tripathi, Deput. of Veda, SVDV, BHU, Varanasi.
32+33. Diacritical Marks and Transliteration; Editing and Proof reading by Dr. S. P. Pandey, Joint Director, Parshwanath Vidyapeeth, Varanasi.
34+35. Thesis Writing ; Manuscript Editing by Prof. Prabhunath Dwivedi, Former Head, Deptt. of Sanskrit, Mahatma Gandhi Kashi Vidyapeeth, Varanasi. 36. Interview and Questionnaire by Dr. A. P. Singh, Deptt. of Library Science, BHU, Varanasi. 37. Techniques of Research Writing by Prof. Sanjay Kumar, Deptt. of English, BHU, Varanasi. At the end of the workshop a Paper/Power-point presentation by the participants was done. On the basis of the final result four participants were awarded Certificate of Merit with prizes.
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Te fuito Hrar: 87 The Valedictory function was held on the 25th April 2015. Prof. Maheshwari Prasad, National Professor and Former Director, Parshwanath Vidyapeeth, Varanasi, presided over the session and Prof. S. N. Upadhyay, Former Director, I.I.T., BHU, Varanasi, was the Chief Guest. The Workshop was conducted under the Directorship of Dr. S. P. Pandey, Joint Director, Parshwanath Vidyapeeth, Varanasi. Dr. Shrinetra Pandey was the Coordinator of the workshop.
A 15 Day National Workshop on Prakrit Language &
Literature (15-29 May, 2015) organised successfully There is enormous literature in Prakrit language. Majority of the Prakrit works still remains inaccessible to the scholars of Jainology as well as to those working in other disciplines because of nonavailability of Prakrit texts with their translations in other languages. For comparative and comprehensive study of Indian tradition, history, culture, literature, language, poetics etc. knowledge of Prakrit is essential
Keeping in view the importance of the subject Parshwanath Vidyapeeth organised a 15 Day National Workshop on Prakrit Language and Literature from 151h - 291h May 2015. A great Scholar of Sanskrit, Prakrit and Jainism, Param Pujya Muni Shri Prashamarati Vijayji during his stay at Vidyapeeth had throughout encouraged and inspired Vidyapeeth to organise such workshops. Pujya Muni Shri not only encouraged but actively participated in the workshops. He wanted Prakrit Workshop to be the permanent feature of Parshwanath Vidyapeeth. This is the 5th workshop on Prakrit in this series. Parshwanath Vidyapeeth is committed to impart knowledge of Prakrit to the students and scholars interested in Indological studies. Teaching of Prakrit generally aims to enable the participants to successfully attempt and comprehend each Prakrit words, derived from Sanskrit. In fact the pattern of this workshop will be teaching Prakrit grammar through operational procedure employed in Sanskrit grammar. Sūtras of Prakrit grammar used in the words will be
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88 : Śramaņa, Vol 66, No. 2, April-June 2015 explained. The method adopted here for learning Prakrit language is drilling system. The formation of each word is analyzed and rules of grammar applied in a particular word are explained. After attending this course one will be able to cultivate the knowledge of Prakrit. The scholars working in the field of Indology will find a new area because of their access to original texts and their effort in comparative studies will get a boost. In turn, Prakrit studies will find a new bunch of scholars who can handle the Prakrit texts. Those adept in Sanskrit can grasp Prakrit very easily. They may be engaged in editing and translation of the Prakrit texts. Ultimately the base of Prakrit scholars is bound to expand, which is the need of the hour. The exploration of original sources is likely to enhance the standard of the researches in Indology as a whole.
The Inaugural function of the workshop was held on 15th May, 2015. Prof. G. C. Tripathi, Vice-chancellor, Banaras Hindu University, was the Chief-guest and Prof. Yadunath Prasad Dubey, Vicechancellor, Sampurnanand Sanskrit University, Varanasi presided over the session and Prof. M. N. P. Tiwari, Professor Emeritus, Faculty of Arts, BHU, Varanasi was the guest of honour.
Vice Chancellor, B.H.U. addressing the inaugural session of the
Prakrit Workshop There were 32 participants in the workshop from the different universities, i.e. Banaras Hindu University, Mahatma Gandhi Kashi
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पार्श्वनाथ विद्यापीठ समाचार : 89 Vidyapeeth, V. B. S. Puryanchal University, Jaunpur, and Sampurnanand Sanskrit University, Varanasi. In order to provide a sound background of Prakrit Language and Literature, besides regular three lectures scheduled per day (total 40 lectures) on grammar, one special lecture was arranged daily by the eminent scholars of the respective subjects. Following special lectures were delivered during the workshop: 1. Agamika Vyākhyā Sāhitya evar Prakrit Vyākarana Sahitya' by Dr. S. P. Pandey, Joint Director, PV, Varanasi. 2+3. ‘Abhilekhiya Prakrit'; 'Bhāratiya Vidyā evarn Sanskrti ke Adhyayana va Šodha men Prakrit Bhāṣā kā Mahattva? by Prof. Maheshwari Prasad, National Professor, New Delhi: 4. 'Pitaka Sāhitya' by Prof. Bimalendra Kumar, Ex-Head, Deptt. of Pali and Buddhist Studies, BHU, Varanasi. 5. 'Prakrit kathā Sāhitya' by Prof. Ashok Kumar Jain, Ex-Head, Deptt. of Jaina and Bauddha Darśana, BHU, Varanasi. 6. "Sauraseni Sāhitya'by Prof. Kamalesh Kumar Jain, Head, Deptt. of Jaina and Bauddha Darśana, BHU, Varanasi. 7. 'Prakrit ke Vividha Rūpa evaṁ Mahattva' by Prof. Deenanath Sharma, Gujarat University, Ahmedabad. 8. 'Vividha Prakrit Vyākarana’by Prof. Janaki Prasad Dwivedi, Sampurnanand Sanskrit University, Varanasi. 9. "Kāvyaprakāśa men Kāvyaśāstriya Tattva' by Dr. Umakant Chaturvedi, SVDV, BHU, Varanasi. 10. ‘A vyaya-vicāra' by Dr. Rahul Kumar Singh, PV, Varanasi. Apart from the special lectures maximum classes were engaged by Prof. Deenanath Sharma, Gujarat University, Ahmedabad and Dr. Rahul Kumar Singh, PV, Varanasi.
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90 : Sramana, Vol 66, No. 2, April-June 2015 In this workshop an examination was held followed by a viva-voce. On the basis of the final result three participants were awarded certificate of merit with prizes. Valedictory function of the workshop was held on 291h May, 2015. Prof. Prabhunath Dwivedi Former Head Deptt. of Sanskrit, MGKV Varanasi, Presided over the session. Prof. Yadunath Prasad Dubey, Vicc-chancellor, Sampurnanand Sanskrit University, Varanasi, was the Chief Guest and Prof. Deenanath Sharma, Gujarat University, Ahmedabad, was the Guest of Honour for this session. The Workshop was completed successfully under the Directorship of Dr. S. P. Pandey, Joint Director, Parshwanath Vidyapeeth, Varanasi and Dr. Rahul Kumar Singh, co-ordinator of the workshop.
ओटावा यूनिवर्सिटी, कनाडा के छात्रों/अध्यापकों का जैन विद्या प्रशिक्षण कार्यक्रम के अन्तर्गत पार्श्वनाथ विद्यापीठ में आगमन पार्श्वनाथ विद्यापीठ, करौंदी में दिनांक २ जून २०१५ को ओटावा यूनिवर्सिटी, कनाडा से जैन विद्या प्रशिक्षण कार्यक्रम के अन्तर्गत पधारे १४ छात्रों के लिए दो विशेष व्याख्यान पार्श्वनाथ विद्यापीठ एवं इग्नाइटिंग माइन्ड फाउण्डेशन, मुम्बई के संयुक्त तत्त्वावधान में
आयोजित किये गये। इस विशेष प्रशिक्षुदल का नेतृत्व कर रही थीं- प्रोफेसर एने वलेली, डिपार्टमेण्ट आफ क्लासिकल एण्ड रिलीजियस स्टडीज, यूनिवर्सिटी आफ ओटावा तथा डॉ. कामिनी गोगरी, यूनिवर्सिटी आफ मुम्बई। प्रथम व्याख्यान प्रो० मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी, इमरेटस प्रोफेसर, कला संकाय एवं पूर्व विभागाध्यक्ष, इतिहास-कला विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का जैन कला एवं प्रतिमा विज्ञान पर हुआ। कला को परिभाषित करते हुए प्रो० तिवारी ने कहा कि कला साहित्य की वैयक्तिक रचना है। कला पूरी संस्कृति की एक विस्तृत मौन अभिव्यक्ति है। किसी भी काल की कला वर्तमान में भी अपरिवर्तित रूप में ही प्राप्त होती है। इस दृष्टि से जैन कला के आधार पर पूरी जैन संस्कृति, दर्शन एवं धर्म को भलीभांति समझा जा सकता है। प्रो० तिवारी ने बताया कि जैन तीर्थंकर की मूर्तियाँ ध्यानमुद्रा एवं कायोत्सर्ग मुद्रा में ही पायी जाती हैं। ध्यानमुद्रा चिन्तन के शीर्ष बिन्दु को व्यक्त करती है और कायोत्सर्ग मुद्रा जैन कला का विलक्षण वैशिष्ट्य है। उपसर्ग में भी जैन तीर्थंकर कायोत्सर्ग मद्रा का परित्याग नहीं करते। उन्होंने बताया कि जैन तीर्थंकरों के साथ वृक्षों का उल्लेख उनके पर्यावरण के प्रति प्रेम का द्योतक है। इस क्रम में उन्होंने खजुराहो तथा
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पार्श्वनाथ विद्यापीठ समाचार : 91 दिलवाड़ा के मन्दिर, चन्द्रप्रभ की कुषाणकालीन मूर्ति, देवगढ़ के ऋषभनाथ इत्यादि मूर्तियों के काल, स्थान एवं उनकी विशेषताओं का उल्लेख करते हुये बताया कि मूर्तियाँ हमें यह सन्देश देती हैं कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह के आधार पर कोई भी व्यक्ति या साधक यशवान् एवं पूज्य हो सकता है। हिक
पास्वनाथ
चाराणसी सावित
Som
जैनविद्या अध्ययनरत ओटावा यूनिवर्सिटी का छात्र/अध्यापक दल दूसरा व्याख्यान प्रो० हरिहर सिंह, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी का जैन स्थापत्य पर था। प्रो० सिंह ने प्राचीन भारत में बनने वाली 'संरचनात्मक एवं शैलीकृत' दो प्रकार की इमारतों की विशेषताएँ एवं अन्तर का विवेचन करते हुए मानव निर्मित शैलकृत जैन गुफाओं की विशद् विवेचना की। उन्होंने चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा पटना में निर्मित पत्थरों के महलों की विशेषताओं की विवेचना करते हुए इसी काल में निर्मित नागार्जुन एवं बराबर की सर्वप्राचीन साप्त गुफाओं की विशेषताओं, निर्माताओं एवं निर्माण के उद्देश्यों पर विधिवत प्रकाश डाला। इसी क्रम में प्रो. सिंह ने राजगृह में प्राप्त दो जैन गुफाओं के साथ-साथ उदयगिरि तथा खण्डगिरि में खारवेल के परिजनों द्वारा निर्मित जैन गफाओं की विशेषताओं का भी विशद् विवेचन किया। उन्होंने इन गुफाओं में प्राप्त अभिलेखों पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला। प्रो० सिंह ने जूनागढ़ की शृंखलाबद्ध गुफाओं का विवेचन करते हुए चन्द्रगुफा का विशेष रूप से चित्रण किया जहाँ आचार्य हरिषेण के शिष्य पुष्पदन्त एवं भूतबली ने दिगम्बर जैन ग्रन्थ षट्खण्डागम की रचना की। इस क्रम में उन्होंने कर्नाटक के बादामी और अहिरोली की गुफाओं एवं एलोरा की गुफाओं का भी विशद् विवेचन किया। मार प्रो० सिंह ने जैन मन्दिरों की सामान्य विशेषताओं को व्याख्यायित करते हुए संरचनात्मक जैन मन्दिरों की विशिष्टताओं पर भी प्रकाश डाला। इस क्रम में उन्होंने
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92 : Sramana, Vol 66, No. 2, April-June 2015 विश्वविख्यात आबू पर्वत के जैन मन्दिरों के स्थापत्य एवं कला का विशद् विवेचन किया। गुजरात के प्रथम सोलंकी शासक भीमदेव प्रथम के मंत्री विमलशाह द्वारा निर्मित मन्दिर तथा सोलंकी नरेश भीमदेव द्वितीय के मंत्री तेजपाल द्वारा निर्मित मन्दिरों का उल्लेख करते हुए आपने इन मन्दिरों को जैन मन्दिरों में प्राचीनतम एवं जैन धर्म की पूजन पद्धति के अनुकूल बताया। व्याख्यान का प्रारम्भ जैन मंगलाचरण द्वारा हुआ। पश्चात् अतिथियों का स्वागत पार्श्वनाथ विद्यापीठ के संयुक्त निदेशक डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय ने किया। डॉ० पाण्डेय ने संस्था का संक्षिप्त परिचय देते हुए इस प्रकार के व्याख्यानों की प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला। अतिथियों का माापण कर स्वागत डॉ० राहुल कुमार सिंह, रिसर्च एसोसिएट तथा डॉ० ओमप्रकाश सिंह, पुस्तकालयाध्यक्ष ने किया। कार्यक्रम का संचालन डॉ० राहुल कुमार सिंह ने किया। इस अवसर पर ओटावा विश्वविद्यालय की प्रो० एन वलेली, मिरेला स्टोसिक, लीह ड्रपो, रैंडी फ्रोट्स, जोसन पिनेयू, स्टेफनी माल्टाइस, काइले वाल्डेन, चण्टल वाल, जेसिका फोर्ड, जे०सी० आयर्स, लिण्डशे इसेलेर, निकोलस अब्रान्स, जूलिया कन्सरेला तथा आशीष पिम्प्ले एवं डॉ० कामिनी गोगरी, मुम्बई यूनिवर्सिटी आदि उपस्थित थे। व्याख्यान के दौरान संस्थान के डॉ० मलय कुमार झा, डॉ० रुचि राय, श्री राजेश कुमार चौबे तथा अन्य विद्वान उपस्थित थे। कार्यक्रम के अन्त में आभार प्रदर्शन डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय ने किया। प्रो० मारुतिनन्दन तिवारी, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में
प्रोफेसर-एमरिटस के पद पर नियुक्त भारतीय कला-इतिहास, विशेषत: जैन कला एवं प्रतिमाविज्ञान के क्षेत्र में विश्वस्तरीय विद्वान प्रो० मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी की काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कला इतिहास विभाग में प्रोफेसर एमरिटस के रूप में नियुक्ति हुई है। प्रो० तिवारी पार्श्वनाथ विद्यापीठ के शोध छात्र रहे हैं। पार्श्वनाथ विद्यापीठ परिवार आपकी इस उपलब्धि पर गौरवान्वित है। डॉ० दीनानाथ शर्मा प्राकृत विभाग, गुजरात विश्वविद्यालय में
प्रोफेसर नियुक्त ... पार्श्वनाथ विद्यापीठ के पूर्व प्रवक्ता एवं वर्तमान में प्राकृत विभाग, गुजरात विश्वविद्यालय में रीडर के पद पर कार्यरत प्राकृत भाषा के बहुश्रुत विद्वान् डॉ० दीनानाथ शर्मा को
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पार्श्वनाथ विद्यापीठ समाचार : 93 पर्सनल प्रमोशन के तहत प्रोफेसर नियुक्त किया गया है। उनकी यह नियुक्ति ०१.०९.२००९ से मान्य होगी। प्रो० शर्मा को पार्श्वनाथ विद्यापीठ परिवार की तरफ से हार्दिक बधाई। जिला पार्श्वनाथ विद्यापीठ द्वारा योग शिविर का आयोजन | दिनांक २१ जून २०१५, अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर पार्श्वनाथ विद्यापीठ स्थित श्री यशोविजय ध्यान साधना केन्द्र में एक योग शिविर का आयोजन किया गया जिसमें विद्यापीठ परिसर स्थित छात्रावास के छात्र-छात्राओं तथा विद्यापीठ के कर्मचारियों एवं उनके परिवार द्वारा योगाभ्यास किया गया। शिविर के प्रतिभागियों को योग्य शिक्षक द्वारा आसन और प्राणायाम तथा ध्यान का उचित प्रशिक्षण दिया गया।
योग-शिविर में योगाभ्यास करते हुये प्रतिभागी
विद्यापीठ के रिसर्च एसोसिएट डॉ. राहुल सिंह की अनुवाद-परियोजना भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद् द्वारा स्वीकृत डॉ. राहल सिंह, रिसर्च एसोसिएट, पार्श्वनाथ विद्यापीठ को भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद् द्वारा हरिभद्र सूरि रचित 'अनेकान्तवाद-प्रवेश के अनुवाद की एक परियोजना स्वीकृत हुई है। इस परियोजना की अवधि दो वर्ष.है जिसमें डॉ. सिंह उक्त ग्रन्थ का हिन्दी एवं अंग्रेजी अनुवाद तथा रोमन ट्रान्सलिटरेशन करेंगे।
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जैन जगत्
भोगीलाल लहेरचन्द इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी, दिल्ली द्वारा प्राकृत भाषा और साहित्य की २७वीं ग्रीष्मकालीन अध्ययनशाला का सफल आयोजन
भोगीलाल लहेरचन्द इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी, दिल्ली द्वारा दिनांक १७ मई से ०७ जून २०१५ तक २७वीं इक्कीस दिवसीय प्राकृत भाषा एवं साहित्य की ग्रीष्मकालीन अध्ययनशाला का सफलता के साथ आयोजन किया गया। इस कार्यशाला में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल एवं दिल्ली आदि प्रदेशों के उच्च शिक्षण संस्थानों से समागत आरम्भिक एवं उच्चत्तर- इन दोनों पाठ्यक्रमों में बयालिस प्रतिभागियों ने भाग लिया।
इक्कीस दिवसीय इस प्राकृत कार्यशाला में अनेक ज्ञानवर्धक कार्यक्रमों का आयोजन हुआ। इनमें सर्वप्रथम २१ मई २०१५ को इण्डिया इण्टरनेशलन सेंटर, नई दिल्ली में संस्थान की ओर से नवसृजित व्याख्यानमाला के अन्तर्गत संस्थान के उपाध्यक्ष एवं एल०डी इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी, अहमदाबाद के निदेशक डॉ० जितेन्द्र बी० शाह का कल्पसूत्र के लघुचित्रों पर आधारित विशिष्ट व्याख्यान का आयोजन प्रसिद्ध कलाविद् विदुषी श्रीमती कपिला वात्स्यायन जी की अध्यक्षता में किया गया। साथ ही प्राकृत भाषा को शास्त्रीय भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने हेतु श्रीमती कपिला वात्स्यायन की प्रेरणा एवं सान्निध्य में दिनांक ०२ जून, २०१५ को इण्डिया इण्टरनेशलन सेंटर, नई दिल्ली में संस्थान की ओर से प्रतिनिधि सम्वाद का अयोजन किया गया। संस्थान के निदेशक प्रो० गयाचरण त्रिपाठी के संयोजकत्व में सम्पन्न इस कार्यक्रम में प्रमुख रूप से माननीया कुलपति समणी चारित्रप्रज्ञा जी, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूँ, प्रो० जितेन्द्र बी. शाह, निदेशक- एल०डी० इन्स्टीट्यूट, अहमदाबाद तथा प्रो० जगतराम भट्टाचार्य, विश्वभारती शान्तिनिकेतन, पश्चिम बंगाल, समणी कुसुमप्रज्ञा, जैन विश्वभारती आदि सम्मिलित हुए।
प्राकृत भाषा एवं साहित्य के इस पाठ्यक्रम में देश के ख्यातिलब्ध जिन विद्वानों ने अध्यापन कार्य किया उनमें वरिष्ठ विद्वान् प्रो० किरण कुमार थपल्याल (लखनऊ), प्रो० धर्मचन्द जैन (जोधपुर), प्रो० जगतराम भट्टाचार्य (शान्तिनिकेतन, पश्चिम बंगाल), प्रो० कमलेश कुमार जैन (जयपुर), डॉ० जितेन्द्र कुमार जैन (उदयपुर),
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जैन जगत् : 95 डॉ० पोरिक शाह (अहमदाबाद), डॉ० अनेकान्त कुमार जैन (दिल्ली), प्रो० गयाचरण त्रिपाठी (निदेशक), प्रो० फूलचन्द जैन प्रेमी (निदेशक, शैक्षिक) एवं प्रो० अशोक कुमार सिंह प्रमुख हैं। इस पाठ्यक्रम की सम्पूर्ति पर मौखिक एवं लिखित परीक्षा ली गई। इसमें प्रवीणता सूची के आधार पर प्रारम्भिक पाठ्यक्रम एवं उच्चतर पाठ्यक्रम में प्रथम द्वितीय एवं तृतीय पुरस्कार प्रदान दिया गया। इस अध्ययनशाला के उद्घाटन सत्र का आयोजन १७ मई २०१५ को किया गया। सत्र के अध्यक्ष थे- प्रो० रमेश कुमार पाण्डेय, कुलपति, श्रीलाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली। मुख्य अतिथि थे- प्रो० रमेशचन्द भारद्वाज, अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय एवं सारस्वत अतिथि थे प्रो० जयपाल विद्यालंकार। समापन समारोह का आयोजन ०७ जून २०१५ को श्री राजकुमार जैन
ओसवाल की अध्यक्षता में किया गया जिसकी मुख्य अतिथि थीं प्रो० दीप्ति एस० त्रिपाठी, प्रोफेसर दिल्ली विश्वविद्यालय। आचार्य सम्राट शिवमुनिजी म.सा. का मंगल चातुर्मास प्रवेश सूरत में श्रमण संघीय युगप्रधान आचार्य प.पू. शिवमुनिजी म.सा. तथा युवाचार्य प्रवर श्री महेन्द्र ऋषिजी का मंगल चातुर्मास प्रवेश इस बार सूरत (गुजरात) में दिनांक २५ जुलाई २०१५ को हो रहा है। आचार्यश्री अपने शिष्यवृन्द सहित प्रातः ०७.३० बजे महावीर भवन, भटार रोड से विहार कर शिवाचार्य समवसरण, सूरत में पधारेंगे। चातुर्मास के दौरान योग और ध्यान के अनेक शिविर आयोजित किये जायेंगे। लब्धिविक्रम गुरु कृपापात्र आचार्य विजय राजयशसूरीश्वरजी म.सा. का मंगल चातुर्मास प्रवेश शान्तानुज, मुम्बई में श्री शान्ताक्रुज जैन तपागच्छ संघ, मुम्बई में प्रखर प्रवचनकार पू. गुरुदेव श्रीमद् विजय राजयशसूरीश्वरजी म.सा. एवं पूज्य आचार्यदेव श्री रत्नयश सूरीश्वरजी म.सा., गणिवर्य विश्रुतयश विजयजी म.सा. आदि का विशाल साधु-साध्वी परिवार सहित मंगल चातुर्मास प्रवेश दिनांक २९ जुलाई २०१५ को प्रातः ०८ १७ बजे होगा। चातुर्मास के दौरान विविध कार्यक्रम आयोजित किये जायेंगे।
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साहित्य-सत्कार
ग्रन्थ समीक्षा : पुस्तक : जैन दर्शन पारिभाषिक शब्दकोश, मुनि क्षमासागर, मैत्री समूह, प्रथम संस्करण, २००९, द्वितीय संस्करण, २०१४, पृ. ४५३, हार्ड बाउण्ड, मूल्य २२० रुपये, आईएसबीएन-८१-७६२८-०१७-८१। जैन दर्शन के शब्दों की अपनी एक विशिष्ट व्यवस्था है, उनका अर्थ विशेष अध्ययन के उपरान्त ही स्पष्ट हो पाता है। समान्य पाठक कई बार जैन दर्शन का अध्ययन करते समय या धर्मोपदेश आदि सुनते समय शब्दों का. अर्थ स्पष्ट न होने के कारण कठिनाई का अनुभव करते हैं। उन्हें तत्क्षण अर्थबोध हो सके तथा अध्ययन-चिन्तन-मनन में आसानी हो, इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु मुनि क्षमासागर जी द्वारा लगभग १२ वर्षों के अथक प्रयास द्वारा इस शब्दकोश की रचना हुई है। यह शब्दकोश विभिन्न शब्दकोशों की परम्परा में एक छोटा सा कोश है। इसमें जैन तत्त्वज्ञान, आचार-शास्त्र, कर्म सिद्धान्त, भूगोल और पौराणिक विषयों से सम्बन्धित पाँच हजार शब्दों का संकलन कर उनका संक्षिप्त परिचय दिया गया है। यह संकलन अनेक महत्त्वपूर्ण और प्रामाणिक जैन ग्रन्थों के आधार पर किया गया है। ग्रन्थ के अन्त में शब्दों की सन्दर्भ-सूची भी दी गयी है। विशालकाय कोशों की बहुमूल्य सामग्री का संचयन करने वाले इस शब्दकोश की महत्ता और उपयोगिता जैन धर्म और दर्शन में रुचि रखने वाले सामान्य पाठकों के लिए अधिक है।
डॉ०- राहुल कुमार सिंह
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श्रीमद्धनेश्वरसूरिविरचितं सुरसुंदरीचरिअं (दशम् परिच्छेद)
पू. गणिवर्य श्री विश्रुतयशविजयजीकृत संस्कृत छाया, गुजराती और हिन्दी अनुवाद सहित
परामर्शदात्री प.पू. साध्वीवर्या रत्नचूलाजी म.सा.
पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी २०१५
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Surasundaricariam: An Introduction
Jaina narrative literature is enormously rich. Particularly the narrative literature of Śvetāmbaras is a veritable storehouse of folk-tales, fairy-tales, beast-fables, parables, illustrative examples, apologues, allegories, legends, novels, funny stories and anecdotes. Apart from a large number of tales and parables and legends found in Jaina canons itself, the Jaina writers/authors have created new stories and legends of their own also. The versatile Jaina monk authors were very practical minded. They exploited the Indian people's inborn love for stories for the propagation of their dharma.
Surasundaricariam (last quarter of the 11th century AD), is a voluminous romantic epic composed in Prakrit by Śrīmad Sadhu Dhanesvara Sūri, pupil of Śrī Jineśvara Sūri author of ' 'Kahāyaṇakośa.' Richer in content, it is an important work of Jaina narrative literature. The whole subject matter of the epic is divided into sixteen chapters (pariccheda). Each chapter contains a story interwoven with some another story which keep retained the interest of the readers.
This is the first time when it's Hindi translation is being published with Gujarati and Sanskrit cchāyā prepared by Parama Pujya Ganivarya Shri Vishrutayash Vijayaji Maharaj, the worthy disciple of Parama Pujya Acharya Pravara Shri Rajayash Surishvarji Maharaj.
We are very grateful to Acharyashri for entrusting this work to us for publication. Śramaņa is presenting this beautiful story for its readers in part. We shall be publishing it in every alternate issue. We have already published chapter 1-8 of Surasundaricariam in our successive issues. Here follows the 10th chapter.
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-The Editor
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Surasundaricariam
10th Pariccheda
The story of the 10th pariccheda of Surasundarīcariar revolves around Amaraketu, King of Hastinapur, queen Kamalāvatī, Śresthi Dhanadeva and his wife Candrakāntā, Śrīdatta, Vidhuprabha, Sumati, Samarapriya, Citravega along with some other characters. After Śreșthi Dhanadeva's wife gives birth to a son, Dhanadeva organizes a great function at this auspicious occasion. On 12th day of his son's birth, Dhanadeva goes to king and invites him with queen on dinner. The King comes to Dhanadeva's house with all his grace. The wife of Dhanadeva, Candrakāntā invites queen Kamalāvatī to name her newly born child. Kamalāvatī names the child as Śrīdeva. Since the queen has no child, seeing the Candrakāntā's son becomes grieved and expresses her desire of having a son to King Amaraketu. The King assures her that he will worship to God and very soon fulfill her desire. The king goes for rigorous worship and one day Vidyuprabha Deva of īsānakalpa appeared before him. Being pleased, Vidhuprabha gives his two ear-rings to King Amaraketu. Amaraketu gives those ear-rings to queen and after some days she dreams that a golden pitcher entered in her body and suddenly became disappeared. The king calls dream interpreters who confirm that she will gave birth to a son soon.
Dhanadeva reminds King Amaraketu the incident of snake bite of Citravega at Kuśāgra Nagar where the Bhīlapati (leader of a tribal group) made Citravega cured with a Mani (a precious stone). At that time Kevali Bhagavanta (the omniscient) had declared that in next birth Citravega will be born as a son of Amaraketu and after being kidnapped along with his mother by a Varīdeva, he will be grown-up at the house of a Vidyādhara. So the baby in womb of queen Kamalāvatī is definitely the Vidhuprabha. Dhanadeva added that still he has that special Maņi given by Pallipati in his ring and if that Mani is given to queen, she will have no problem in giving birth of the baby. Dhanadeva gives that Mani ring to king and king
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gives that to queen. After some time the queen got pregnant. In seventh month, she felt the craving of pregnancy (dohada) that she should give donations to poor and visit the city with all her public of the kingdom sitting on an elephant. The king gets that craving realized and does all that accordingly. (1-106) All of sudden the elephant gets mad and starts running uncontrolled in the direction of north-east. The queen who was sitting on the elephant becomes frightened. In order to get rid from the elephant, the king suggests Kamalāvatī to catch the branch of the banyan tree coming in the way. But she fails do that and the elephant flyes in the air rapidly along with her. The king sends his soldiers headed by Samarapriya in search of the queen and returns to home. After sometime, Samarapriya informs the king that though siill they have not been able to locate queen but they have got a clue. A passenger told Samarapriya that he had witnessed a lady and an elephant falling in the Padmodara pond. Now the king becomes worried and calls Sumati, the astrologer to know about the queen. Sumciti assures the king that she is alive. He tells to king that when you will get a stained string of flower beads (garland) laying in any odd place, exactly one month after that day you will meet the queen. Sumati proclaims that the queen will gave birth to a son but she will be separated with her son just after the birth. Days elapsed but there is no information about the queen. One day when king Amaraketu was in deep sleep, he saw a dream. He saw that a stained string of flower beads was coming towards him from north direction and when he caught that string that became fragrant. He proceeds in the same direction. In the way he looses his fly-whisk into a well covered by grass. When the soldiers went down in the well in search of the flywhisk, there they get Kamalāvati standing in the well. She was brought out of the well. She tells the complete story as to how she was kidnapped by the elephant, how she fell down in the pond, how she met with a group of travelers (sārtha), how she met with Śrīdatta, and how on the invitation of Śrīdatta she reached Kuśāgra Nagar. (107-207).
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Kamalāvati kept on saying the king that after having some rest, she accompanied the group of travelers and reached in the jungle where the Bhīls attacked on the group of travelers. The group of travellers was scattered and she was left alone in the jungle. The jungle was full of dangerous creatures, animals and hunters. She got thirsty and in search of water she reached to a pond. There she stayed at night. At midnight she felt pain (labor) in her stomach and after some time she gave birth to a child. She prayed all the gods, inhabitants of jungle and animals to protect her son. Being tired due to wandering all the way in the jungle she got slept. When she was in sleep, she heard someone calling her. When she awoke and proceeded in the direction the voice was coming from, suddenly she felt that her son was not there in her lap and she got fainted. (208-250)
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श्रीमद्धनेश्वरसूरिविरचितं सुरसुंदरीचरिअं दसवाँ परिच्छेदः
गाहा
तक्कम्म-कुसल-विलया-समूह-विहियम्मि सूइ-कम्मम्मि । हल्लुत्तावलि-गिह-दासि-विहिय-तक्काल-करणिज्जे ।।१।। सहरिस-परियण-वज्जरिय-वज्ज-सुय-जम्म-हरिसिय-मणेण ।
धणधम्म-सेठिणा अह वद्धावणयं समाढत्तं ।। २।। संस्कृत छाया
तत्कर्मकुशलवनितासमूहविहिते सूतिकर्मणि । हल्लुत्तावल (शीघ्रं)गृहदासीविहिततत्कालकरणीये ।।१।। सहर्षपरिजनकथितवर्यसुतजन्महर्षितमनसा ।
धनधर्मश्रेष्ठिनाऽथ वर्धापनकं समारब्धम् ।।२।। युग्मम् ।। गुजराती अनुवाद
१.२. ते कार्यमां कुशल स्वी महिलाओना समूह बड़े सूति कर्म (जन्म कृत्य) कराये छते, तथा शीघ्रता पूर्वक घरनी दासीओ वड़े ते समये करवा योग्य कार्य कराये छते... हर्षपूर्वक स्वजनों द्वारा कहेवायेल श्रेष्ठ पुत्रना जन्मथी खुश भयेल मनवाला धनधर्मश्रेष्ठिर वधामणानो प्रारम्भ कर्यो, (युग्मम्) हिन्दी अनुवाद
___ जन्मकृत्य कराने में कुशल महिलाओं द्वारा सूतिकर्म अर्थात् जन्म कृत्य कराए जाने के बाद, घर की दासियों द्वारा उस समय करने योग्य कार्य-सम्पन्न होने के बाद स्वजनों द्वारा पुत्र जन्म का समाचार पाकर प्रसन्न धनधर्म श्रेष्ठि ने बधाई का कार्य प्रारम्भ किया।
गाहा
अविय। गहियक्खवत्त-पविसंत-नयर-नारी-जणोह-रमणीयं । रमणी-यण-मुह-मंडण-वावड-निय-बंधु-वर-दारं ।।३।।
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वर-दारग्ग-निवेसिय-वंदण-माला-सणाह-सिय-कलसं। सिय-कलस-हत्य-पविसंत-वड-किज्जंत-कल-सहं ।।४।। कल-सह-पउर-पाउल-मंगल-संगीय-पवर-पेक्ख णयं । पेक्खणय-पिक्खणक्खित्त-लोय-दिज्जंतं-तंबोलं ।।५।। अविय घोसिय-जीवा-ऽघाओ मोयाविय-विउल-बंदि-निउरंबो। दिज्ज्त-विविह-दाणो दीणाणाहाइ-सुह-जणओ ।।६।। पइ-जिण-मंदिर-किज्जंत-वज्ज-वर-मज्जणाइ-वावारो। वर-वत्थमाइएहिं संमाणिय-साहु-संदोहो ।।७।। भोजिय-सयण-समूहो संमाणिय-वणिय-नायर-महल्लो ।
जण-जणिय-चमक्कारो सुय-जम्म-महूसवो विहिओ ।।८।। संस्कृत छाया
अपि च। गृहीताक्षतपात्रप्रविशन्नगरनारीजनौघरमणीयम्। रमणीजनमुखमण्डनव्यापृतनिजबन्युवरद्वारम्।।३।। वरद्वारापनिवेशितवन्दनमालासनाथसितकलशम्। सितकलशहस्तप्रविशद्वर्तक्रियमाणकलशब्दम्।।४।। कलशब्दप्रचुरप्रवरकुलमङ्गलसङ्गीतप्रेक्षणकम्। प्रेक्षणकप्रेक्षणक्षिप्तलोकदीयमानताम्बूलम्।।५।। तिसृभिः कुलकम्।। अपि च । घोषितजीवाघातः मोचितविपुलबन्दिनिकुरम्बः । दीयमानविविधदानो दीनाऽनाथादिसुखजनकः।।६।। प्रतिजिनमन्दिरक्रियमाणवर्यवरमज्जनादिव्यापारः । वरवस्त्रमादिकैः सन्मानितसाधुसन्दोहः ॥७॥ भोजितस्वजनसमूहः सन्मानितवणिग्नागरमहल्लो(समूहः)।
जनजनितचमत्कारः सुतजन्ममहोत्सवो विहितः ।।८।। गुजराती अनुवाद
३-८. (पुरजन्म महोत्सव)- ग्रहण करेला अक्षत पात्र सहित प्रवेश
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करता नगरना नारीजनोना समूह थी रमणीयो... रमणीयो (नारी) ना मुखमंडनमां लागेला पोताना बंधुवोंना श्रेष्ठ द्वार श्रेष्ठ द्वारमां स्थापन करेल वंदनमालाथी शोभता श्वेतकलश... श्वेतकलश उपर स्थापन करेल हाथ वड़े प्रवेश करता मार्गमां कराता मनोहर शब्द.. मनोहर शब्दथी प्रचुर मंगल संगीतवड़े श्रेष्ठ नाटक....नाटकने जोवामां व्याक्षिप्त चित्तवाला लोकोने तंबोल अपायुं तथा अमारीनी घोषणा कराई, घणा बंदीओना समूहने छोडावायो, दीन- अनाथादिने सुख उत्पादक विविध प्रकारनुं दान अपायुं, तथा प्रत्येक जिनमंदिरमां श्रेष्ठ अभिषेकादि अनुष्ठान कराया, श्रेष्ठ वस्त्रादि वड़े साधु समुदायनी भक्ति करा ... स्वजन समूहने भोजन कराव्या, वणिक् नगर जनोनुं सन्मान करायुं, आ प्रमाणे लोकोने चमत्कारदायक पुत्रजन्मनो महोत्सव करायो... ( षड्भिः कुलकम् )
...
हिन्दी अनुवाद
अक्षत पात्र लेकर नगर में प्रवेश करने वाली नारियों से रमणीय, नारियों के मुखमंडन हेतु उनके बांधवों द्वारा बनाए गए श्रेष्ठ द्वार और उन श्रेष्ठ द्वारों में स्थापित वन्दनमाला से सुशोभित श्वेत कलश को हाथों से ग्रहण करने पर उत्पन्न मनोहर शब्द से ओत-प्रोत संगीत से सजे नाटकों को विक्षिप्त चित्त से देखने वालों को पान दिया गया। उसके पश्चात् जीवघात न करने की घोषणा कर बहुत से बन्दीजनों को छोड़ दिया गया। गरीब एवं अनाथ लोगों को सुख देने वाले विविध प्रकार के दान दिए गए तथा प्रत्येक जिनमन्दिर में अभिषेक अनुष्ठान आदि कराए गए। श्रेष्ठ वस्त्रों से साधु समुदाय की भक्ति करने के पश्चात् स्वजनों को भोजन कराया गया तथा व्यापारी व वणिक वर्ग का सम्मान किया गया। इस प्रकार लोगों द्वारा चमत्कारी पुत्रजन्म महोत्सव मनाया गया।
गाहा
एवं कय- कायव्वो संपत्ते वारसम्म दियहम्मि । गहिऊण दरिसणीयं संपत्तो राइणो मूलं । । ९॥
संस्कृत छाया
एवं कृतकर्तव्यः सम्प्राप्ते द्वादशे दिवसे ।
गृहीत्वा दर्शनीयं सम्प्राप्तो राज्ञो मूलम् ।।९ ॥
गुजराती अनुवाद
:
९. आ प्रमाणे करेला कर्तव्यवालो ते श्रेष्ठि बार में दिवसे भेटणं लई 'राजानी पासे पहोंच्यो..
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हिन्दी अनुवाद
इस प्रकार कर्तव्य का पालन करने वाला वह श्रेष्ठि राजा से भेंट करने के लिए बारहवें दिन राजा के पास पहुंचा। गाहा
कय-विणओ धणदेवो भणइ महा-राय! सेट्ठि-वयणेण।
देवी-सहिएण तुमे भोत्तव्वं अम्ह गेहम्मि ।।१०।। संस्कृत छाया
कृतविनयो धनदेवो भणति महाराज ! श्रेष्ठिवचनेन ।
देवीसहितेन त्वया भोक्तव्यमस्माकं गेहे ।।१०।। गुजराती अनुवाद
१०. करेला विनयवालो धनदेव कहे छ, श्रेष्ठिना वचन बड़े हे महाराज! महाराणी सहित आपे अमारा घरे भोजन करवा पधारवा, छे. हिन्दी अनुवाद
विनय पूर्वक धनदेव ने राजा से कहा, आप महारानी सहित हमारे घर भोजन करने हेतु पधारें।
गाहा
हसिऊं रन्ना भणियं न होइ किं सेठिणो इमं गेहं ।
पिउ-सरिसो जं सेट्ठी विचिंतगो सयल-रज्जस्स? ।।११।। संस्कृत छाया
हसित्वा राज्ञा भणितं न भवति किं श्रेष्ठिन इदं गेहम् ?।
पितृसशो यत्श्रेष्ठी विचिन्तकः सकलराज्यस्य? ।।११।। गुजराती अनुवाद
११. हसीने राजास कहयु, श्रेष्ठि तो पिता सन्मान सकल राज्यको हितचिन्तक छे तेथी शुं आ श्रेष्ठिनुं घर न कहेवाय? हिन्दी अनुवाद
हँसते हुए राजा ने कहा कि श्रेष्ठि तो सम्पूर्ण राज्य का पिता होता है तो क्या यह घर श्रेष्ठि का नहीं है? .
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गाहा
तहवि हु सेट्ठी जं भणइ किंचि तं चेव अम्ह कायव्वं । इय भणिए धणदेवो महा-पसाउत्ति भणिऊण ।।१२।। निय-गेहे गंतूणं तक्कालुचियं समत्थ-करणीयं । निय-परियणेण कारइ आणंदिय-माणसो जाव ।।१३।। देवी-सहिओ राया करेणुया-विसर-परिगओ ताव ।
संपत्तो सेट्ठि-गिहे बंदि-जणुग्घुट्ठ-जय-सहो ।।१४।। संस्कृत छाया
तथाऽपि खलु श्रेष्ठी यद् भणति किञ्चित्तदेवाऽस्माकं कर्तव्यम् । इति भणिते धनदेवो महाप्रसाद इति भणित्वा ।।१२।। निजगेहे गत्वा तत्कालोचितं समस्तकरणीयम् । निजपरिजनेन कारयति आनन्दितमानसो यावत् ।।१३।। देवीसहितो राजा करेणुकाविसरपरिगतस्तावत् । सम्प्राप्तः श्रेष्ठिगृहे बन्दिजनोपुष्टजयशब्दः ।।१४।।
तिसृभिः कुलकम्।। गुजराती अनुवाद
१२-१४. राजानु श्रेष्ठिना घरे आगमन- छतां पण श्रेष्ठी जे कहे छे ते अमारे करवं जोइए आ प्रमाणे कहे छते धनदेव बोल्यो 'आपे महान कृपा करी राम कहीने पोताना घरे जइने आनन्दित मनवालो ते ज्यां सुधीमां करवा योग्य समस्त कार्य पोताना परिजनो पासे करावे छे। तेटलीवारमा स्तुतिपाठको द्वारा जोर जोरथी थतां 'जय' ना पूर्वक राजा हाथणीओना समूहथी युक्त देवीओ सहित श्रेष्ठिना घरे पधार्या (तिसृधिः कुलकम्) हिन्दी अनुवाद
फिर भी यदि श्रेष्ठि कहते हैं तो हमें अवश्य करना चाहिए। इतना कहने पर धनदेव ने कहा, आपने मुझ पर बड़ी कृपा की यह कहकर अपने घर जाकर 'आनन्दित होता है और उस समय करणीय सभी कार्यों को अपने परिजनों द्वारा कराता है। तभी हाथियों के समूह सहित बन्दीजनों द्वारा जयघोष किए जाते हुए राजा देवी-सहित श्रेष्ठि के घर पहुंचा। तिसृभिः कुलकम्। गाहा
कय-मंगलोवयारो उत्तरिय करेणुयाइ देवि-जुओ। वर-मुत्ताहल-विरइय-चउक्क-सीहासणे पवरे ।।१५।।
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उवविठ्ठो देवि-जुओ तत्तो य विलासिणीहिं पवराहिं । । आरत्तियावयारण-पमुहम्मि विहिम्मि विहियम्मि ।।१६।। भुत्तो दिव्याहारं निय-परियण-संजुओ जहा-विहिणा।
मोसीस-विलत्तंगो परिहाविय-दिव्व-वर-वत्थो ।।१७।। संस्कृत छाया
कृतमङ्गलोपचार उत्तीर्य करेणोदेवीयुतः । वरमुक्ताफलविरचितचतुष्कसिंहासने प्रवरे ।।१५।। उपविष्टो देवीयुतः ततश्च विलासिनीभिः प्रवराभिः । आरात्रिकावतारणप्रमुखे विधौ विहिते ।।१६।। भुक्तवान् दिव्याहारं निजपरिजनसंयुक्तो यथा विधिना । गोशीर्षविलिप्ताङ्गः परिधापितदिव्यवरवस्त्रः ।।१७।।
तिसृभिः कुलकम् ।। गुजराती अनुवाद
१५-१८. महाराणी सहित हाथणी पर थी ऊतीने करायेला मंगल ऊपचारवालो राजा राणी सहित श्रेष्ठ मुक्ताफलथी निर्मित चतुष्क (चार खूणा वाला) सिंहासन पर बेठो...त्यां श्रेष्ठ स्त्रीओ वड़े आरती उतारण वि. विधि कराये छते..विधिपूर्वक गोशीर्ष चंदनथी विलेपन करायेल अंगवाला, धारण करेला दिव्य वस्त्रयुक्त राजार स्व परिजन सहित दिव्य आहार, भोजन कर्यु... हिन्दी अनुवाद
मंगलोपचार कराए जाने के बाद राजा हाथी से उतरकर देवी सहित श्रेष्ठ मोतियों से अलंकृत चार पैरों वाले सिंहासन पर बैठा। देवी सहित बैठे राजा की श्रेष्ठ स्त्रियों ने आरती उतारी। तत्पश्चात् गोशीर्ष चन्दन आदि से विलेपित अंग वाले राजा ने दिव्य वस्त्रों वाले परिधान धारण कर स्वपरिजनों सहित दिव्य आहार का भोग किया। तिसृभिः कुलकम्।
गाहा
विणय-नएणं तत्तो धणदेवेणं इमं तु विन्नत्तो । देवीए पिय-भगिणी वज्जरइ इमं महा-राय! ।।१८।।
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संस्कृत छाया
विनय-नतेन ततो धनदेवेन इदन्तु विज्ञप्तः ।
देव्याः प्रियभगिनी कथयति इदं महाराज ! ।। १८ ।। गुजराती अनुवाद
१८. त्यारबाद विनयथी नमेला धनदेवे राजाने विनंति की- 'हे महाराजा! महाराणीनी प्रियधगिनी कहे छे केहिन्दी अनुवाद
विनयावनत धनदेव ने राजा से विनती किया 'हे महाराज! महारानी की प्रिय भगिनी कहती है किगाहा
पसवंति पिउ-हरम्मी पढमं किल सयल-वणिय-जायाओ।
कारण-वसेण केणवि संजायं नेव तं मज्झ ।।१९।। संस्कृत छाया
प्रसवन्ति पितृगृहे प्रथमं किल सकलवणिजजायाः ।
कारणवशेन केनाऽपि सज्जातं नैव तन्मम ।। १९ ।। गुजराती अनुवाद
११. दरेक वणिक् स्त्रीओ पिताना घरे प्रसूति करे छे. परंतु कोई कारणवशात् मारे ते प्रमाणे थयुं नथी... हिन्दी अनुवाद
सभी वणिक स्त्रियाँ अपनी पहली प्रसूति पिता के घर पर ही करती हैं किन्तु किसी कारणवश से मेरे साथ ऐसा नहीं हो पाया।
ता देवि-दसंणेणं इहेव किल पिउ-हरंति मन्नामि ।
ता जइ इत्तिय-भूमिं आगच्छइ होइ ता लढें ।।२०।। संस्कृत छाया
तस्मात् देवीदर्शनेनेहैव किल पितृगृहमिति मन्ये ।
तस्माद्यदि इयभूमिमागच्छति भवति तदा लष्टम् (सुन्दरम्)।२०। गुजराती अनुवाद. २०. तेथी महाराणीना दर्शन वड़े अहीं ज हुं पिता- घर छे एम मानुं छु तेथी जो अहीं सुधी महाराणी पधारे तो सुंदर....
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हिन्दी अनुवाद
महारानी के दर्शन के बाद यही मेरे पिता का घर है, ऐसा मैं मानती हूँ। इसलिए महारानी यदि यहाँ आ जाय तो यह अति उत्तम होगा। गाहा
एव च तेण भणिए अह देवी राइणा अणुण्णाया।
सिरिकंताए समीवे संपत्ता कंचुइ-समेया ।।२१।। संस्कृत छाया
एवञ्च तेन भणितेऽथ देवी राज्ञाऽनुज्ञाता ।
श्रीकान्तायाः समीपे सम्प्राप्ता कञ्चुकीसमेता ।। २१ ।। गुजराती अनुवाद
२१. आ प्रमाणे तेना वड़े कहेवाये छते राजा वड़े अनुज्ञा पामेली महाराणी कंचुकिनी साथे श्रीकांताना घरे आवी। हिन्दी अनुवाद
ऐसा उनके कहने पर महारानी राजा की आज्ञा पाकर अपने कंचुकी (अन्त:पुराध्यक्ष) सहित श्रीकान्ता के घर आ गयीं। गाहा
तत्थ य मणोरमाए विलेवणाहरण-वत्थमाईहिं।
पूइय भणिया देवी सुयस्स नामं करेसुत्ति ।। २२।। संस्कृत छाया
तत्र च मनोरमया विलेपनाऽऽभरणवस्त्रादिभिः ।
पूजयित्वा भणिता देवी सुतस्य नाम कुर्विति ।। २२ ।। गुजराती अनुवाद
२२. त्यां सुंदर विलेपन, आवरण, वस्त्रादि बड़े सत्कार कटीने श्रीमतीस कडं 'हे महाराणी! पुत्रनुं नाम पाडो'! हिन्दी अनुवाद
वहाँ सुन्दर विलेपन, आभरण और वस्त्र आदि से सम्मानित कर धनदेव की पत्नी ने कहा हे महारानी! पुत्र का नामकरण करें।
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गाहा
भणियं देवीए तओ सिद्धिणि! तुह चेव होइ उचियमिणं ।
तहवि तुमए भणियं कायव्वमवस्समम्हाणं ।। २३।। संस्कृत छाया
भणितं देव्या ततः श्रेष्ठिनि ! तवैव भवति उचितमिदम् ।
तथापि त्वया भणितं कर्तव्यमवश्यमस्माकम् ।। २३ ।। गुजराती अनुवाद
२३. महाराणीए कहयं हे शेठाणीजी! आ कार्य तमने ज उचित छे. छतां पण तमारा वड़े जे कहेवाय ते अमारे कट्यूँ जोइस. हिन्दी अनुवाद
महारानी ने कहा, 'हे श्रेष्ठि पत्नी! यह कार्य आप करें यही उचित है तथापि आप के द्वारा जो भी कहा जायेगा वह करना हमारा कर्तव्य है। गाहा
गहिऊण निउच्छंगे तं बालं कमल-कोमल-करहिं ।
कमलावईए भणिय सुगंध-गंधे खिवंतीए ।।२४।। संस्कृत छाया
गृहीत्वा निजोत्सङ्गे तं बालं कमलकोमलकराभ्यां ।
कमलावत्या भणितं सुगन्धगन्यान् क्षिपन्त्या ।। २४ ।। गुजराती अनुवाद
२४. कमल समान कोमल हस्तवड़े ते बालकने पोतानी गोदमां ग्रहण कटीने, सुगंधि गंधने प्रसरावती कमलावती राणीस कहा। हिन्दी अनुवाद
कमलके समान कोमल हाथों से बालक को अपनी गोद में लेकर सुगन्ध फैलाती हुई कमलावती रानी ने कहा। गाहा
सिरिकताए जणिओ धणदेवेणं तु बालओ एसो। माऊ-पिउ-अद्ध-नामो सिरिदेवो नाममेयस्स ।। २५।।
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संस्कृत छाया
श्रीकान्ताया जनितो धनदेवेन तु बालक एषः । मात- पित्रर्थनामा श्रीदेवो नामैतस्य ।। २५ ।।
गुजराती अनुवाद
२५. (पुत्रनुं नामकरण) - श्रीकांता अने धनदेवनो आ बालक छे. मातापितानुं अड़धा-अड़धा नाम सहित आ बालकनुं नाम 'श्रीदेव' थाओ. हिन्दी अनुवाद
श्रीकान्ता और धनदेव दोनों का यह बालक है, इसलिए माता-पिता दोनों आधे नाम के साथ इस बालक का नाम 'श्रीदेव' हो ।
गाहा
अइसोहणं हि नामं विहियं देवीइ इय भणंतेण । अविहव-नारि- गणेणं मंगल- सद्दो समुग्घुट्ठो ।। २६ ।।
संस्कृत छाया
अतिशोभनं हि नाम विहितं देव्येति भणता । अविधवानारीगणेन मङ्गलशब्दः समुद्घष्टः ।। २६ ।।
गुजराती अनुवाद
२६. महाराणी वड़े अति सुंदर नाम रखायुं, एम कहेती सोहागणनारी ओए मंगल शब्द गुंजाव्यो !
हिन्दी अनुवाद
महारानी ने बहुत सुन्दर नाम रखा, ऐसा कहकर सुहागन महिलाओं ने मंगल शब्द गाए।
गाहा
अह तं मणहर-देहं मुट्ठीकय-कर- - जुयं विसालच्छं । सुकुमाल-पाणि-पायं दट्ठूण विचिंतए देवी ।। २७ ।।
संस्कृत छाया
अथ तं मनोहरदेहं मुष्टिकृतकरयुतं विशालाक्षम् । सुकुमारपाणिपादं छष्ट्वा विचिन्तयति देवी ।। २७ ।।
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गुजराती अनुवाद
२८. हवे मनोहर शरीरवाला, मुट्टीमा समाय तेवा हस्त युगं, विशाल नेत्र, सुकोमल हाथ पगवाला ते बालकने जोइ महाराणी विचारे छे. हिन्दी अनुवाद
अब मनोहर शरीर वाले, मुट्ठी में समा जायें ऐसे हाथोंवाले, विशाल नेत्र तथा सुकोमल हाथ-पैर वाले उस बालक को देखकर महारानी विचार करती हैं। गाहा
धन्ना मज्झ वयंसी जीए सुओ एरिसो समुप्पन्नो ।
जण-मण-नयणाणंदो मह पुण एयंपि न हु जायं ।। २८।। संस्कृत छाया
धन्या मम वयस्या यस्याः सुत ईशः समुत्पन्नः ।
जनमनोनयनानन्दो मम पुनरेतदपि न खलु जातम् ।। २८ ।। गुजराती अनुवाद
२८. मारी सखी धन्य छे के जेने लोकोना मन अने नेत्रने खुश करनार सुन्दर पुत्र जनम्यो. माटे तो स्वो पुत्र नथी. हिन्दी अनुवाद
हमारी सखी धन्य है जिसने लोगों के मन और आँखों को आनन्दित करने वाला पुत्र पैदा किया है। मेरे पास तो ऐसा पुत्र नहीं है। गाहा
किं मज्झ जीविएणं किंवा मह विहल-गव्व-रज्जेण ।
जां निय-तणयस्स मुहं पिच्छामि न मंद-भग्गत्ति ।।२९।। संस्कृत छाया
किं मम जीवितेन किंवा मम विफलगर्वराज्यन ।
यावत् निजतनयस्य मुखं प्रेक्षे न मन्दभाग्येति ।। २९ ।। गुजराती अनुवाद
२९. (राणीनी पुत्र झंखना)- अथवा राज्यना फोगट गर्व वड़े शु? के मंद भाग्यवाली हुं पुत्रना मुखने नथी जोती तो मारा जीववा वड़े शुं? के मन्द भाग्यवाली हुं पुत्रना मुखने नथी जोती तो मारा जीववा वड़े. शुं।
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हिन्दी अनुवाद
जबतक अपने स्वयं के पुत्र का मुख न देख लूं मैं मन्दभाग्यवाली ही कही जाऊँगी। मेरे जीने से क्या लाभ? मुझे राज्य का अनावश्यक गर्व क्यों हो?
गाहा
एमाइ चिंतयंती आभासित्ता वयंसियं निययं ।
रन्ना सहिया देवी संपत्ता नियय-गेहम्मि ।।३०।। संस्कृत छाया
एवमादि चिन्तयन्त्याभाष्य वयस्यां निजकाम् ।
राज्ञा सहिता देवी सम्प्राप्ता निजगेहे ।। ३० ।। गुजराती अनुवाद
३०. इत्यादि विचारो करती पोतानी सखीने कहीने राजा सहित महाराणी पोताना महेले गई. हिन्दी अनुवाद
यह विचारती हुई रानी अपनी सखी को कहकर अपने महल में चली गयी। गाहा
तत्थ य तं चितंती सुय-जम्मुक्कंठिया ससोइल्ला। परिचत्त-देह-चिट्ठा उव्विग्गा सयल-कज्जेसु ।।३१।। मत्ता व मुच्छिया इव सुत्तव्य मयव्य विगय-सत्तव्व । झाण-गय-जोगिणि इव उवरय-नीसेस-वावारा ।।३२।। परिहायंत-सरीरा गुरु-सोयायास-साम-मुह-कमला ।
रन्ना कयाइ दिठ्ठा पुट्ठा कमलावई ताहे ।।३३।। संस्कृत छाया
तत्र च तं चिन्तयन्ती सुतजन्मोत्कण्ठिता सशोकवती । परित्यक्तदेहचेष्टोद्विग्ना सकलकार्येषु ।।३१।। मत्तेव मूर्छितेव सुप्तेव मृतेव विगतसत्त्वेव । ध्यानगतयोगिनीव उपरतनिःशेषव्यापारा ।।३२।। परिहीयमानशरीरा गुरुशोकायासश्याममुखकमला । राज्ञा कदाचिद्छटा पृष्टा कमलावती तदा ।।३३।। तिसृभिः कुलकम
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गुजराती अनुवाद
३१-३३. हवे ते बालकने याद करती पुत्र जन्म माटे उत्सुक, शोकयुक्ता, शरीरनी अन्य चेष्टाओथी रहित, सकल कार्योमां उद्विग्न पागल जेवी, जाणे मूर्च्छा पामेली, सुतेलानी जेम-मरेलानी जेम-जाणे प्राण रहित, ध्यानमा रहेल योगिनीनी जेम समस्त व्यापाररहित, दुबला शरीरवाली, भारे शोकना कारणे श्याममुखकमलवाली ते क्यारेक राजा वड़े जोवाई अने त्यारे कर्मलावती राणीने पूछयु... ( तिसृभिः कुलकम्)
हिन्दी अनुवाद
उस बालक को याद करती हुई पुत्र जन्म के लिए उत्सुक शोकयुक्त, शरीर की सभी चेष्टाओं से रहित सभी कार्यों में पागलों जैसी उद्विग्न, जैसे मूर्च्छित हो गयी हो, बिना प्राण के मरे हुए के समान सोई हुई, ध्यान में मग्न योगिनी की तरह सभी व्यापारों से रहित दुबली शरीर वाली भारी शोक से सन्तप्त होने के कारण मलिन मुखवाली को राजा कदाचित् देखकर कमलावती रानी से पूछा । (तिसृभिः कुलकम्)
गाहा
देवि! तुमं किं विमणा दुब्बल देहा य दीससे इण्हिं । किं वंछियं न पुज्जइ साहीणे किंकरम्मि मए ? ।। ३४ । । संस्कृत छाया
देवि त्वं किं विमना दुर्बलदेहा च दृश्यस- इदानीम् । किं वाञ्छितं न पर्यंते स्वाधीने किङ्करे मयि ।। ३४ ।।
गुजराती अनुवाद
३४. हे देवि! हालमां तुं विमनस्का तथा दुर्बल देहवाली केम देखाय छे? नोकरो मने स्वाधीन होते छते पण शुं तारी ईच्छा पूर्ण नथी थती? हिन्दी अनुवाद
हे देवि! आप अन्यमनस्क तथा दुर्बल देहवाली क्यों दिख रही हैं? क्या हमारे अधीन रहने वाले नौकर आपकी इच्छा पूर्ति नहीं कर पा रहे हैं?
गाहा
भणियं देवीए तओ अंसु-जलासार सित्त सिहिणाए । पिययम ! तुह प्यसाया संपज्जइ वंछियं सव्वं । । ३५ । ।
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संस्कृत छाया
भणितं देव्या ततोऽश्रुजलासारसिक्तस्तनया ।
प्रियतम ! तव प्रसादात् सम्पद्यते वाञ्छितं सर्वम् ।। ३५ ।। गुजराती अनुवाद
३५. त्यारे अश्रुजलधाराथी सिंचायेला स्तनवाली देवीए कह्यु-हे प्रियतम! तारा प्रसाद थी बधा वांछित पूर्ण थाय छे. हिन्दी अनुवाद
तब अश्रुजल धारा से सिंचित स्तनवाली देवी ने कहा- हे प्रियतम! आपकी कृपा से सभी वांछित कार्य सम्पन्न होते हैं। गाहा
तं नत्थि किंपि सोक्खं तुह प्पसायाउ जं न मे पत्तं ।।
नवरं पुत्त-पलोयण-सोक्खं सुइणेवि नो द8 ।।३६।। संस्कृत छाया
तन्नास्ति किमपि सुखं तव प्रसादात् यन्न मह्यं प्राप्तम् ।
नवरं पुत्रप्रलोकनसौख्यं स्वप्नेऽपि नो छष्टम् ।। ३६ ।। गुजराती अनुवाद
१६. तारा प्रसादथी एवं कोई पण सुख नथी जे मने प्राप्त न थयु होय... मात्र पुत्र दर्शन- सुख स्वप्नमां पण जोयुं नथी. हिन्दी अनुवाद
आपकी कृपा से ऐसा कोई सुख नहीं है जो मुझे प्राप्त नहीं है। मात्र पुत्र जन्म का सुख मैंने स्वप्न में भी नहीं देखा। गाहा
धन्नाउ ताउ नारीओ इत्थ जाओ अहोनिसिं नाह!।
निययं थणं धयंतं थणंधयं हंदि! पिच्छंति ।।३७।। संस्कृत छाया
धन्यास्ता नार्योऽत्र या अहर्निशं नाथ ! । निजकं स्तनं धयन्तं स्तनन्धयं हन्दि ! प्रेक्षन्ते ।। ३७ ।।
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गुजराती अनुवाद
३८. हे नाथ! ते नारीओ धन्य छे के जेओ निरंतर पोतानां स्तननुं पान करनार नवजात शिशुने खरेखर जुवे छ। हिन्दी अनुवाद
हे नाथ! वे नारियाँ धन्य हैं जो निरन्तर स्तनपान करते हुए नवजात शिशु को देखती हैं।
गाहा
पच्छा परिणीयाइवि सिरिकंताए सुओ समुप्पन्नो ।
तुमए मन्नायाए न पुणो मह मंदभागाए ।।३८।। संस्कृत छाया
पश्चात् परिणीतायामपि श्रीकान्तायां सुतः समुत्पन्नः ।
त्वया मान्याया न पुनर्मम मन्दभागायाः ।। ३८ ।। गुजराती अनुवाद
३८. मारा पछी परणेली स्वी श्रीकांताने पुत्र थइ गयो. परंतु तारी मानिती होवा छतां मन्द भाग्या स्वी मने हजु पुत्र नथी थयो. हिन्दी अनुवाद
मेरे बाप विवाह करनेवाली श्रीकान्ता को भी पुत्र हो गया। किन्तु आप द्वारा सम्मान्य होने पर भी आज तक मुझे पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई। गाहा
ता देव! देसु पुत्तं अह नवि ता नत्यि जीवियं मज्झ ।
तुट्टइ थणोवि अह एइ खीरमन्ना गई नस्थि ।। ३९।। संस्कृत छाया
तस्माद् देव ! देहि पुत्रमथ नाऽपि तर्हि नास्ति जीवितं मम ।
त्रुट्यतः स्तनावपि अथ एति क्षीरमन्या गति-नास्ति ।। ३९ ।। गुजराती अनुवाद
३९. तेथी हे देव! हवे पुत्र आप! ते (पुत्र) नथी तो माल जीवन नथी. मारा स्तन तूटी जशे. अथवा तेमां दूध आवशे ते सिवाय कोई गति नथी...
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हिन्दी अनुवाद
इसलिए हे देव! मुझे पुत्र दें नहीं तो उसके बिना मेरा जीवन नहीं है। मेरे स्तन या तो टूट जायेंगे या उनसे दूध निकलने के अलावा कुछ नहीं होगा ।
गाहा
तत्तो रन्ना भणियं एत्थत्थे कुणसु देवि ! मा सोगं । आराहित्ता तियसं पूरेमि मणोरहेऽवस्सं ।। ४० ।। संस्कृत छाया
ततो राज्ञा भणितमत्रार्थे कुरु देवि ! मा शोकम् । आराध्य त्रिदशं पूरयामि मनोरथानवश्यम् ।। ४० ।। गुजराती अनुवाद
४०. त्यारे राजाए कहयुं- 'हे देवि! आ विषयमां शोक न कंर, देवी आराधना करीने अवश्य तारा मनोरथ पूर्ण करीश.
हिन्दी अनुवाद -
तब राजा ने कहा, 'हे देवि इस विषय में आप शोक न करें। मैं देव की आराधना कर आपका मनोरथ अवश्य पूरा करूंगा।
गाहा
इय भणिऊणं राया काउं पूयं जिणिंद- पडिमाणं ।
सिय- वसण धरो उम्मुक्क-सयल मणि-कंचणाहरणो ।। ४१ ।।
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पोसह- सालं गंतुं अट्ठम भत्तं पगिहिउं विहिणा । कुस - सत्यरे निसन्नो एवं भणिउं समाढतो ।। ४२ ।। संस्कृत छाया
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इति भणित्वा राजा कृत्वा पूजां जिनेन्द्रप्रतिमानाम् । सितवसनधर उन्मुक्तसकलमणिकञ्चनाऽऽ भरणः ।। ४१ ।। पौषधशालां गत्वाऽष्टमभक्तं प्रगृह्य विधिना ।
कुशसंस्तारे निषण्ण एवं भणितुं समारब्धः ।। ४२ ।।
गुजराती अनुवाद
४१-४२. (देव आराधना)- एम कहीने श्वेतवस्त्रधारी, समस्तमणि
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तथा सुवर्णना अलङ्कारोनो त्याग करेला राजास जिनबिम्बोनी पूजा करीने, पौषधशालामां जईने विधिवड़े अट्ठमनुं पच्चक्खाण की कुशना संथारामां स्वा रहीने तेणे कहेवानो प्रारंभ कर्यो. (युग्मम्) हिन्दी अनुवाद
ऐसा कहकर समस्त मणि और स्वर्णाभूषणों को त्यागकर श्वेतवस्त्रधारी राजा ने जिनबिम्ब की पूजा कर, पौषधशाला में जाकर विधिपूर्वक अटुं का प्रत्याख्यान कर कुश के संस्तारक पर आसीन होकर कहना प्रारम्भ किया।
गाहा
देवो व दाणवो वा जिण-सासण-भत्ति-संजुओ कोवि ।
जह संनिहिओ सिग्धं आगच्छउ वंछियं देउ ।।४३।। संस्कृत छाया
देवो वा दानवो वा जिनशासनभक्तिसंयुक्तः कोऽपि ।
यथा संनिहितः शीघ्रमागच्छतु वाञ्छितं ददातु ।। ४३ ।। गुजराती अनुवाद
४३. जिनशासन ना प्रत्ये भक्तिवालो कोई पण देव होय के दानव होय जे नजीक होय ते जल्दी आवो अने माळं इच्छित पूर्ण कटो. हिन्दी अनुवाद
जिन शासन के प्रति भक्तिवाला कोई भी देव या दानव जो समीप हो, हमारी इच्छा पूर्ण करे। गाहा
एवं च चिंतयंतो एगते संनिरुद्ध-जण-पसरो। निच्चल-देहो चिट्ठइ राया जा तिन्नि दियहाई ।।४४।। ता रयणि-चरिम-जामे विद्धंसिय-सयल-तिमिर-संघायं ।
भासुर-देहं पुरिसं दटूण विचिंतए राया ।।४५।। संस्कृत छाया
एवञ्च चिन्तयन्नेकान्ते संनिरुद्धजनप्रसरः । निश्चलदेहस्तिष्ठति राजा यावत् त्रिणि दिवसानि ।। ४४ ।। तावद्रजनीचरमयामे विध्वंसितसकलतिमिरसङ्घातम् । भासुरदेहं पुरुषं ष्ट्वा विचिन्तयति राजा ।। ४५ ।। युग्मम् ।।
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गुजराती अनुवाद
४४-४५. आ प्रमाणे विचार करतां लोकरहित सकांतस्थानमां निश्चल देहवालो राजा ऋण दिवस गये छते राचिना छेल्ला प्रहरमां अंधकारनो नाश करनार सवा देदीप्यमान पुरुषने जोइने विचारे छे. (युग्मम्) हिन्दी अनुवाद
इस प्रकार विचार करते हुए एकान्त स्थान में जहाँ लोगों का आना जाना न हो, निश्चल शरीर वाला राजा तीन दिन बैठकर रात्रि के अन्तिम पहर में, जिसने समस्त अन्धकार समूह का नाश कर दिया है, ऐसे देदीप्यमान पुरुष को देखकर विचार करता है। (युग्मम्) गाहा
निमिसंति लोयणाइ ता किं एसो न होइ देवोत्ति ।
न य मणुयाण सरीरे जायइ एवंविहा दित्ती ।।४६।। संस्कृत छाया
निमिषतो लोचने तस्मात्किमेष न भवति देव इति ।
न च मनुजानां शरीरे जायतैवंविधा दीप्तिः ।। ४६ ।। गुजराती अनुवाद
४६. पलकारा युक्तलोचनवालो होवाथी आ देव तो न होइ शके, तथा मनुष्योना शरीरमां आवा प्रकारनी कांति नथी होती। हिन्दी अनुवाद
आखों की पलकें हिलने से यह देव तो नहीं हो सकता और मनुष्यों के शरीर में ऐसी कान्ति सम्भव नहीं है।
गाहा
ता होज्ज इमो को पुण चरणावि महिं फुसंति नेयस्स ।
एवं विगप्पयंतो राया आभासिओ तेण ।। ४७।। संस्कृत छाया
तर्हि भवेदयम् कः पुनश्चरणावपि महीं स्पृशतो नैतस्य । एवं विकल्पयन् राजा आभाषितस्तेन ।। ४७ ।।
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गुजराती अनुवाद
४८. तो आ कोण हो? वली आना चरणो पण पृथ्वी तलने स्पर्शता नथी. आ प्रमाणे विकल्पो करतो राजा ते देववड़े बोलावायो. हिन्दी अनुवाद
तो यह है कौन? इसके पैर भी जमीन को स्पर्श नहीं करते। ऐसा विचार करते हुए राजा ने उस देव से कहलाया। गाहा
भो अमरकेउ-नर-वर! उग्ग-तवेणं किलामिओ सि न किं? ।
एवं भणमाणो सो अब्भुट्टिय राइणा भणिओ ।।४८।। संस्कृत छाया
भो अमरकेतुनरवर ! उग्रतपसा क्लान्तोऽसि न किम् ? ।
एवं भणन् सोऽभ्युत्थाय राज्ञा भणितः ।। ४८ ।। गुजराती अनुवाद
४८. हे अमरकेतु राजा! उय तपथी तुं थाक्यो नथी ने? आ प्रमाणे कडं त्यारे उधो थईने राजा बोल्यो. हिन्दी अनुवाद
हे अमर केतु राजा! उग्र तपस्या से कहीं आप थक तो नहीं गए हैं। ऐसा कहे जाने पर उठकर राजा ने कहा। गाहा
को सिं तुमं कत्तो वा समागओ कहसु मह महाभाग!? ।
भणियं सुरेण नर-वर! कहेमि कोऊहलं जइ ते ।। ४९।। संस्कृत छाया___ कोऽसि त्वं, कुतो वा समागतः, कथय मम महाभाग? ।
भणितं सुरेण नरवर ! कथयामि कुतूहलं यदि ते ! ।। ४९ ।। गुजराती अनुवाद
४९. हे महायागयशाली! तमे कोण छो? क्या थी पधार्या? मने कहो, देव वड़े कहेवायु- हे राजा! जो तने कुतूहल होय तो कहुं?
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हिन्दी अनुवाद
हे महाभाग! तुम कौन हो? तुम कहां से आये हो मुझसे कहो। देव ने कहा हे राजा यदि तुम्हें कुतूहल है तो सुनो
गाहा
ईसाण-कप्प-वासी विहुप्पहो नाम सुर-वरो अहयं । आसन्न-चवण-समओ पर-लोय-हियं समायरिउं ।।५।। तित्थयर-वंदणत्थं विदेह-वासम्मि आगओ आसि ।
तत्थ मए सो भयवं आपुट्ठो नियय-वुत्तंतं ।। ५१।। संस्कृत छाया
ईशानकल्पवासी विथुप्रभो नाम सुरवरोऽहम् । आसन्नच्यवनसमयः परलोकहितं समाचरितुम् ।। ५० ।। तीर्थकरवन्दनार्थं विदेहवर्षेऽऽगत आसम् ।
तत्र मया स भगवन् आपृष्टो निजवृत्तान्तः ।। ५१ ।। युग्मम् ।। गुजराती अनुवाद
५०-५१. (देववाणी)- ईशानकल्पवासी विद्युत्प्रय नामनो हुं देव छु. नजीकमां ज च्यवन समय होवाथी परलोक, हित साधवा तीर्थंकर वंदना माटे हुं महाविदेह श्रेत्रमा गयो हतो, त्यां मारा बड़े पोतानो वृत्तांत भगवानने पूछायो. (युग्मम्) हिन्दी अनुवाद
मैं ईशानकल्पवासी विद्युत्प्रभ नाम का देव हूँ। च्यवन समय नजदीक होने से परलोक हित साधने हेतु तीर्थंकर वन्दना के लिए विदेह क्षेत्र में गया था। वहाँ मुझसे भगवान ने निज वृत्तान्त पुछवाया। गाहा
उप्पत्ती कत्थ महं चुयस्स एत्तो भविस्सए भयवं!? । तत्तो जिणेण भणियं भरहम्मि य हत्थिणपुरम्मि ।। ५२।। जो अच्छइ पुत्तत्थी पोसह-सालाइ पोसहम्मि ठिओ। सिरि-अमरकेउ-राया तस्स तुमं होसि पुत्तोत्ति ।। ५३।।
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संस्कृत छाया
उत्पत्तिः कुत्र मम च्युतस्येतो भविष्यति भगवन् ? । ततो जिनेन भणितं भरते च हस्तिनापुरे ।। ५२ ।। य आस्ते पुत्रार्थी पौषधशालायां पौषधे स्थितः । श्री अमरकेतुराजा तस्य त्वं भविष्यसि पुत्र इति ।। ५३ ।। युग्मम् गुजराती अनुवाद
५२-५३. हे भगवन्! अहींथी च्यवेला एवा मारो जन्म क्यां थशे? त्यारे भगवाने जणाव्यु. 'भरतक्षेत्रमां हस्तिनापुर नगरमां पुत्रनो अर्थी पौषधशालामां पौषधमां रहेलो जे श्री अमरकेतु राजा छे, तेनो तुं पुत्र थईश. हिन्दी अनुवाद
हे भगवन्! यहाँ से होने पर मेरा जन्म कहाँ होगा ? तब भगवान ने बताया कि भरतक्षेत्र के हस्तिनापुर नगर में पुत्रार्थी पौषधशाला के पौषध में रह रहे के पुत्र के रूप में तुम्हारा जन्म होगा।
अ
गाहा
तव्वयणं सोऊणं समागओ राय! तुह सभीवम्मि ।
तामाकुणसु किलेसं अहयं होहामि तुह पुत्तो ।। ५४ ।।
संस्कृत छाया
तद्वचनं श्रुत्वा समागतो राजन् ! तव समीपे ।
तस्माद् मा कुरु क्लेशमहं भविष्यामि तव पुत्रः ।। ५४ ।।
गुजराती अनुवाद
५४. परमात्मानुं वचन सांभलीने हे राजन्! तमारी पासे आव्यो छु तेथी क्लेश न करो, हुं तमारो पुत्र थईश !
हिन्दी अनुवाद
परमात्मा का वचन सुनकर हे राजन् ! मैं तुम्हारे पास आया हूँ। इसलिए तुम क्लेश मत करो। मैं तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लूंगा।
गाहा
गेहसु कुंडल - जुयलं नरिंद! एवं तओ उ देवीए । जीए इच्छसि पुत्तं दायव्वं तीइ आभरणं ।। ५५ ।।
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संस्कृत.छाया
गृहाण कुण्डलयुगलं नरेन्द्र ! एतत्ततस्तु देव्याः ।
यस्या इच्छसि पुत्रं दातव्यं तस्यै आभरणम् ।। ५५ ।। गुजराती अनुवाद
५५. (देव द्वारा कुंडलयुगल प्रदान)
तेथी हे राजा! आ कुंडल युगलने ग्रहण कर. तथा जे देवीथी तुं पुत्रने इच्छे छे तेने आ आधरण आप. हिन्दी अनुवाद
(देव द्वारा कुंडल युगल प्रदान) इसलिए हे राजा! यह कुण्डल युगल ग्रहण करें और जिस देवी के पुत्र रूप में जन्म लेना चाहते हों, उसे ही यह आभूषण दें। गाहा
इय भणिउं कन्नाणं उत्तारिय कुंडलाइं दिव्वाइं।
रन्नो समप्पिऊणं देवो अईसणीभूओ ।।५६।। संस्कृत छाया
इति भणित्वा कर्णाभ्यामुत्तार्य कुण्डले दिव्ये ।।
राज्ञे समर्प्य देवोऽदर्शनीभूतः ।। ५६ ।। गुजराती अनुवाद
५६. आ प्रमाणे कहीने कमांथी चे दिव्य कुंडल उतारी राजाने आपी देव अदृश्य थयो. हिन्दी अनुवाद
यह कहकर अपने कान से दो दिव्य कंडल उतार कर राजा को दिया और देव अन्तर्ध्यान हो गया। गाहा
रन्नावि रयणि-विरमे गंतुं देवीए वियसिय-मुहेण
सुर-दंसणाइ सव्वो वुत्तंतो साहिओ तत्तो ।।५७। संस्कृत छाया
राज्ञाऽपि रजनीविरमे गत्वा देव्या विकसितमुखेन । सुरदर्शनादिः सर्दो वृत्तान्तः कथितस्ततः ।। ५७ ।।
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गुजराती अनुवाद
५७. (राजा द्वारा महाराणीने कुंडल युगल प्रदान)___प्रसन्न मुखवाला राजास सवारे महाराणी पासे जईने देव दर्शन विगेरे सर्व वृत्तांत कह्यो। हिन्दी अनुवाद
प्रसन्न मुखवाला राजा भी सुबह होने पर रानी के पास जाकर देवदर्शनादि का वृत्तान्त कहा। गाहा-. ..कुंडल-जुयलं अप्पिय पभाय-किच्चं करित्तु नीसेसं ।
पडिलाहिय साहु-जणं सयं पभुत्तो वराहारं ।। ५८।। संस्कृत छाया
कुण्डलयुगलमर्पयित्वा प्रभातकृत्यं कृत्वा निःशेषम् ।
प्रतिलाभ्य साधुजनं स्वयं प्रभुक्तो वराहारम् ।। ५८ ।। गुजराती अनुवाद
५८. महाराणी ने कुंडल युगल आपीने, समस्त प्राध्यातिक कृत्य करीने, साधु भगवंतोने वहोरावीने पोते श्रेष्ठ भोजन कर्युहिन्दी अनुवाद
महारानी को कुण्डल युगल देकर, सभी ने प्रात: क्रिया से निवृत्त होकर साधु भगवन्तों को आहार बहोरा कर स्वयं श्रेष्ठ भोजन किया।
गाहा
अह अन्नया य देवी रिउ-ण्हाया रयणि-चरिम-जामम्मि ।
द8 सुमिणं सहसा पडिबुद्धा वेविर-सरीरा ।।५९।। संस्कृत छाया
अथान्यदा च देवी ऋतुस्नाता रजनीचरमयामे ।
ष्ट्वा स्वप्नं सहसा प्रतिबुद्धा वेपमानशरीरा ।। ५९ ।। गुजराती अनुवाद
५९. (महाराणीने स्वप्रदर्शन)
हवे कोई समये ऋतु स्नाता, कंपता शरीरवाली राणी स्वप्न जोइने रात्रिना चरम समये एकदम जागी।
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हिन्दी अनुवाद
इस प्रकार एक दिन रानी ऋतु स्नानोपरान्त कम्पित शरीर वाली रात्रि के अन्तिम प्रहर में स्वप्न देखकर सहसा जाग गयी। गाहा
भणिया रन्ना सुंदरि! कीस अकम्हाओ कंपिया तं सि ।
तीए भणियं पिययम! संपइ सुमिणं मए दि8 ।।६।। संस्कृत छाया
भणिता राज्ञा सुन्दरि ! कस्मादकस्मात् कम्पिता त्वमसि । ... तया भणितं प्रियतम । सम्प्रति स्वप्नं मया छटम् ।। ६० ।। गुजराती अनुवाद
६०. राजास कह्यु- हे सुन्दरी! तुं ओचिंती केम कंपवा लागी? त्यारे महाराणीस कडं 'हे प्रियतम! हमणा में स्वप्न जोयुं छे! . हिन्दी अनुवाद
राजा ने कहा, हे सुन्दरी! तुम अचानक कैसे कांप रही हो। तब महारानी ने कहा 'हे प्रियतम! अभी-अभी हमने एक स्वप्न देखा है।
गाहा
किल कणगमओ कलसो मज्झ मुहे पविसिउं विणिक्खंतो।
केणावि भंजणत्यं नीओ दूरं स कुद्धेण ।।११।। संस्कृत छाया
किल कनकमयः कलेशो मम मुखे प्रविश्य विनिष्क्रामन् । - केनाऽपि भजनार्थ नीतो दूरं स कुद्धेन ।। ६१ ।। गुजराती अनुवाद
६१. सुवर्णमय कलश मारा मुखमां प्रवेशीने नीकली गयो- क्रुद्ध थयेलो कोई तेने भागवां माटे दूर लई गयो। हिन्दी अनुवाद
मैंने देखा कि सुवर्णमय कलश प्रवेश कर निकल गया। क्रुद्ध हुआ कोई व्यक्ति उसे तोड़ने के लिए दूर ले गया।
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गाहा
पुणरवि बहु- कालाओ कहवि हु लद्धो स खीर- पडिपुन्नो । सिय- कुसुम - मालियाए मएवि संपूइओ तत्तो ।। ६२।। संस्कृत छाया
पुनरपि बहुकालात् कथमपि खलु लब्धः स क्षीरप्रतिपूर्णः । सितकुसुममालया मयाऽपि सम्पूजितस्ततः ।। ६२ ।।
गुजराती अनुवाद
६२. अने फरी पाछो घणा समये क्यांयथी पण ते कलश खीरथी भरेलो प्राप्त थयो, त्यार पछी पुष्पनी माला वड़े में पण करी |
पूजा
हिन्दी अनुवाद
उसके बाद काफी समय बाद किसी प्रकार वह कलश खीर से भरा हुआ प्राप्त हुआ। तब मैंने पुष्प की माला से उसकी पूजा की।
गाहा
एवं सुमिणं दठ्ठे मुह कडुयं परिणईइ सुंदरयं जाओ भएण कंपो मह देहे तेण नर - नाह! ।। ६३।। संस्कृत छाया
एतत् स्वप्नं दृष्ट्वा मुखकटुकं परिणत्यां सुन्दरम् । जातो भयेन कम्पो मम देहे तेन नरनाथ ! ।। ६३ ।।
गुजराती अनुवाद
६३. प्रारंभमां कटुक तथा परिणाममां (अंते) सुंदर आ स्वप्नने जोइने हे राजन्! तेथी भयवड़े मारा शरीरमां कंप थयो छे ।
हिन्दी अनुवाद
प्रारम्भ में कड़वा किन्तु सुन्दर अन्त वाला वह स्वप्न देखकर हे राजन! उसके भय से मेरा शरीर कांपने लगा।
गाहा
तं सोऊण नरिँदो जाओ सोगाउरो दढं हियए ।
वज्जरइ देवि! सुविणं लाभं सूएइ तणयस्स ।। ६४ ।।
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संस्कृत छाया
तच्छुत्वा नरेन्द्रो जातः शोकातुरो छ हृदये ।
कथयति देवि ! स्वप्नो लाभं सूचयति तनयस्य ।। ६४ ।। गुजराती अनुवाद
६४. ते सांथलीने हृदयमा अत्यंत शोकातुर थयेला राजाए कहो. हे देवि! आ स्वप्न पुत्रनो लाभ सूचवे छे. हिन्दी अनुवाद
यह सुनकर हृदय में अत्यन्त शोकाकुल होकर राजा ने कहा, हे देवि! यह स्वप्न पुत्र लाभ की सूचना देता है। गाहा
सेसं च सुविण-जाणग-पुच्छग-विहिणा वियाणिउं तुज्झ ।
साहिस्सं मा काहिसि उव्वेगं किंचि हिययम्मि ।। ६५।। संस्कृत छाया
शेषं च स्वप्नज्ञापकपृच्छकविधिना विज्ञाय तव ।
कथयिष्यामि मा करिष्यसि उद्वेगं किञ्चिदहृदये ।। ६५ ।। गुजराती अनुवाद
६५. अने चाकी- सर्व, स्वप्न जाणकारने विधिपूर्वक पूछीने, जाणीने, तने कहीश, तेथी हृदयमां जरा पण उद्वेग न कर। हिन्दी अनुवाद
शेष स्वप्न पाठकों से विधिपूर्वक पूछ कर तथा जानकारी लेकर मैं आपको बताऊँगा। इसलिए आप हृदय में कोई उद्वेग न लाएं। गाहा- तत्तो पभाय-समए गंतुं अत्थाण-मंडवे राया।
आणवइ सुमिण-सत्थत्थ-जाणए झत्ति बाहरह ।।६६।। संस्कृत छाया
ततः प्रभातसमये गत्वाऽऽस्थानमण्डपे राजा । आज्ञापयति स्वप्नशास्त्रार्थज्ञापकान् झटिति व्याहरत ।। ६६ ।।
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गुजराती अनुवाद
६६. त्यारवाद सवारे सभा-मंडपमा जईने राजार जल्दीथी स्वप्न पाठकोने बोलावो ते प्रमाणे आज्ञा की। हिन्दी अनुवाद
. उसके बाद सुबह सभामंडप में आकर राजा ने 'शीघ्र स्वप्नपाठकों को बुलाओ, ऐसा आदेश दिया। पाहा
तत्य निउत्त-नरेहिं तहेव संपाडियाए आणाए। सामंत-मंति-पुर-नायगेहिं पुन्नम्मि अत्याणे ।।६७।। कय-विणया सुविणन्नू उवविट्ठा अह नरिंद-आसन्ने ।
घणदेवोवि हुरन्नो आसन्नो चेव उवविट्ठो ।।६८।। संस्कृत छाया- ...
तत्र नियुक्तनरैस्तथैव सम्पादितायामाज्ञायाम् । सामन्तमन्त्रिपुरनायकैः पूणे आस्थाने ।। ६७ ।। कृतविनयाः स्वप्नज्ञा उपविष्टा अथ नरेन्द्राऽऽसन्ने ।
धनदेवोऽपि खल राज्ञ आसन्न एवोपविष्टः ।।६८।।युग्मम्।। गुजराती अनुवाद
६०-६८. (स्वापाठकोर्नु आगमन)
नियुक्त लोको वड़े ते ज प्रमाणे आज्ञा पालन कराये छते सामन्तमन्त्री तथा नगरना श्रेष्ठीओथी भरेली सभामां विनयपूर्वक हवे स्वप्नपाठको राजानी नजीक बेठा, धनदेव पण राजानी नजीक ज घेठो. (युग्मम्) हिन्दी अनुवाद
नियुक्त लोगों द्वारा उसके अनुसार आदेश पालन कराए जाने पर सामन्त, मन्त्री तथा शहर के श्रेष्ठ लोगों से भरी सभा में स्वप्नपाठक राजा के नजदीक बैठे। धनदेव भी राजा के नजदीक बैठा। गाहा
तत्तो रन्ना तेसिं सिट्ठो सुर-दंसणाइ-वृत्तंतो। . पुवुत्तो सव्वीवि हु सुविणग-उवलंभ-अवसाणे ।।६९।।
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संस्कृत छाया
ततो राज्ञा तेषां शिष्टः सुरदर्शनादिवृत्तान्तः । ...
पूर्वोक्तः सर्वोऽपि खलु स्वप्नोपलम्भावसाने ।। ६९ ।। गुजराती अनुवाद
६१. त्यारे राजास तेओने देवना दर्शनथी प्रारंभीने पूर्वोक्त समस्त वृत्तान्त स्वप्ननी प्राप्ति पर्यन्तनो कहयो. हिन्दी अनुवाद
तब राजा ने उस देवदर्शन की घटना से प्रारम्भ कर स्वप्न पर्यन्त तक की सम्पूर्ण घटना को बताया। गाहा
सम्मं विणिच्छिऊणं सुविण-सरूवं कहेह भो! तत्तं । इय भणिया ते रना अन्नोन्नं जाव चिंतिंति ।।७०।। ताव य धणदेवेणं भणियं नर-नाह! देसु अवहाणं।
सुविण-परमत्थ-जाणण-हेउं निसुणेसु वुत्तुंतं ।।७१।। संस्कृत छाया
सम्यग् विनिचित्य स्वप्नस्वरूपं कथयत भो ! तत्त्वम् । इति भणिता ते राज्ञाऽन्योन्यं यावच्चिन्तयन्ति ।। ७० ।। तावच्चधनदेवेन भणितं नरनाथ ! देहि अवधानम् ।
स्वप्नपरमार्थज्ञानहेतु निशृणुत वृत्तान्तम् ।।७१।।युग्मम्।। गुजराती अनुवाद
60-6१. हे स्वप्नपाठको! तमे सारी ते विचारीने तत्त्व जणावो,' आ प्रमाणे राजा वड़े कहेवायेला तेओ परस्पर ज्यां विचारे छे. तेटलीवारमां धनदेवे का-हे राजन! सावधान छनो. स्वप्नना परमार्थने जाणवा माटे आ वृत्तांत सांभलो... हिन्दी अनुवाद
. राजा ने कहा- हे स्वप्रपाठकों! तुम अच्छी प्रकार विचार कर स्वप्न के तत्त्व को बताओ। राजा के ऐसा कहने पर वे परस्पर विचार करने लगे। तभी धनदेव ने कहा हे राजन्! ध्यान दें। स्वप्न का परमार्थ जानने के लिए यह वृत्तान्त सुनें। युग्मम् ॥
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तओ। अह अडवीए दिट्ठो भिल्लवई, तेण जह य सप्पेहिं । बद्धो उ चित्तवेगो विमोइओ मणि-पभावाओ ।।७२।। जह तेण नियय-चरिए सिढे देवस्स आगमो आस । देवेण केवली अह दिट्ठो य कुसग्गनयरम्मि ।।७३।। जह भावि-भवं पुट्ठो केवलिणा जह य तस्स आइलैं । सिरि-अमरकेउ-रन्नो होहिसि पुत्तो तुमं भइ! ।।७४।। जणणीइ समं तत्थ य अवहरिओ पुष्व-वेरिय-सुरेण ।
ता चित्तवेग! खयराहिवस्स गेहम्मि वडिहिसि ।।७५।। संस्कृत छाया
ततः। अथाऽटव्यां ण्टो भिल्लपतिस्तेन यथा च सपैः । बद्धस्तु चित्रवेगो विमोचितो मणिप्रभावात् ।। ७२ ।। यथा तेन निजकचरिते शिष्टे, देवस्याऽऽगम आसीत् । देवेन केवली अथ छटश्च कुशासनगरे ।। ७३ ।। यथा भाविभवं पृष्टः केवलिना यथा च तस्मै आदिष्टम् । श्रीअमरकेतुराज्ञो भविष्यसि पुत्रस्त्वं भद्र ! ।। ७४ ।। जनन्या समं तत्र चापहतः पूर्ववैरिसुरेण ।
तस्मात् चित्रवेग ! खचराधिपस्य गेहे वय॑सि ।। ७५ ।। गुजराती अनुवाद
धनदेव द्वारा वृत्तान्त कथनः
८२-८५. हवे जंगलमा श्रीलपतिस जे सीते सर्पथी वीटलायेल चित्रवेगने मणिना प्रभावथी छोडाव्यो जेथी पोतानां चरित्रमा देवनुं आगमन जे रीते कडुंअने देवे कुशायनगरमां केवलज्ञानीने जोया अने भाविध्याव पूछया... केवलज्ञानी भगवंते तेने कर्वा के- 'भद्र! तुं अमरकेतु राजानो पुत्र थईश. तथा पूर्वभवना वैी देव वड़े मातानी साथे अपहरण करायेलो हे चित्रवेग! तुं विद्याधर अधिपतिना घरमां मोटो थईश...
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हिन्दी अनुवाद
जंगल में भीलपति ने जिस प्रकार सर्प दंश का उपचार मणि के प्रभाव से किया, जिस प्रकार अपने चरित्र में देव के आगमन को बताया और देव कुशाग्रनगर में केवलज्ञानी को देखकर हाल-चाल पूछा... केवली भगवन्त ने उन्हें बताया कि भद्र, 'तूं अमरकेतु राजा का पुत्र होगा तथा पूर्वजन्म में वैरीदेव द्वारा मां के साथ अपहृत हे चित्रवेग ? तूं विद्याधर राजा के घर में बड़ा होगा।
गाहा
एमाइ पुव्व- उत्तं सवित्थरं साहियं नर- वइस्स । धणदेवेणं जाव य संपत्तो हत्थिणपुरम्मि ।।७६।। संस्कृत छाया
एवमादि पूर्वोक्तं सविस्तरं कथितं नरपतेः I
धनदेवेन यावच्च सम्प्राप्तो हस्तिनापुरे ।। ७६ ।।
गुजराती अनुवाद
७६. धनदेवे हस्तिनापुरमां आव्यो त्यांसुधीनो पूर्वोक्त वृत्तांत आ प्रमाणे विस्तारपूर्वक राजाने कह्यो.
हिन्दी अनुवाद
धनदेव ने खुद के हस्तिनापुर में आने तक का समस्त वृत्तान्त इस प्रकार राजा को कहा।
गाहा
ता देव! देवि - उदरे विहुप्पहो सो सुरो समुप्पन्नो ।
होही, जओ न केवलि-वयणं इह अन्नहा होइ ।। ७७ ।।
संस्कृत छाया
तस्मात् देव ! देव्युदरे विधुप्रभः स सुरः समुत्पन्नः ।
भविष्यति, यतो न केवलिवचनमिहाऽन्यथा भवति ।। ७७ ।।
गुजराती अनुवाद
७७. तेथी हे राजन् ! महाराणीनी कुक्षिमां ते विद्युत्प्रभदेव उत्पन्न थयो हरी. कारण के केवलज्ञानीनुं वचन अन्यथा यतुं नथी ।
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हिन्दी अनुवाद
इससे हे राजन्! ऐसा लगता है कि महारानी के गर्भ में वह विधुप्रभ देव उत्पन्न हुआ है क्योंकि केवलज्ञानी का वचन वृथा नहीं जाता। गाहा
पुव्व-विरुद्ध-सुरेणं हरिओ खयरस्स वडिओ गेहे।
साहिय-बहुविह-विज्जो मिलिही सो नियय-जणणीए ।।७८।। संस्कृत छाया
पूर्वविरुद्धसुरेण हतः खचरस्य वर्धितो गेहे ।
साधितबहुविधविद्यो मिलिष्यति स निजकजनन्याः ।। ७८ ।। गुजराती अनुवाद
6८. पूर्वना वैरी देववड़े अपहरण करायेलो विद्याधरनां आवासमां वधेलो, साधेली घणी-विद्यावालो ते पोतानी माताने मलशे.
हिन्दी अनुवाद
पूर्वजन्म के वैरी देव द्वारा अपहरण किया हुआ तथा विद्याधर आवास में पला-बढ़ा तथा अनेक विद्याओं का साधक वह अपनी माता से मिलेगा।
इच्छिय-कन्नादाणं मालाए पूयणंपि मन्ना सि ।
एसो नरिंद! सुविणय-परमत्यो फुरइ मह हियए ।।७९।। संस्कृत छाया
इच्छितकन्यादानं मालाया पूजनमपि मन्ये ।
एष नरेन्द्र ! स्वप्नपरमार्थस्स्फुरति मम हृदये ।। ७९ ।। गुजराती अनुवाद
१. हे नरेन्द्र! इच्छित कन्यादान- माला वड़े पूजन शयुं सन्म हुं मानुं छु आ प्रमाणे स्वप्न मारा हृदयमा स्फुरे छे. हिन्दी अनुवाद
. हे नरेन्द्र! इच्छित कन्यादान का माला द्वारा पूजन हुआ, ऐसा मैं मानता हूँ और इस प्रकार स्वप्न हमारे हृदय में स्फुरित हो रहे हैं।
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गाहा
एयं धणदेवस्स ओ वयणं सोऊण सुविणयन्नूहि ।
भणियं अहो! अउव्वं एयस्स उ बुद्धि-कोसल्लं ।।८।। संस्कृत छाया
एतद् धनदेवस्य ओ वचनं श्रुत्वा स्वप्नज्ञैः ।
भणितं अहो ! अपूर्वमेतस्य तु बुद्धिकौशल्यम् ।। ८० ।। गुजराती अनुवाद
८०. (स्वापाठकोनुं मंतव्य)- आ प्रमाणे धनदेव, वचन सांथलीने स्वप्नपाठकोस कह्यु, खरोखर! आ धनदेवनुं बुद्धिकौशल्य अपूर्व छे. हिन्दी अनुवाद
___ धनदेव का यह वचन सुनकर स्वप्रपाठकों ने कहा इस धनदेव का बुद्धि कौशल अपूर्व है। गाहा
सययं तल्लिच्छेहिवि बहु-सत्थ-वियक्खणेहिं अम्हेहिं।
तव्धिह-बुद्धि-विउत्तेहिं सक्कियं नो विणिच्छेउं ।। ८१।। संस्कृत छाया- सततं तल्लिप्सैरपि बहुशास्त्रविचक्षणैरस्माभिः । . तद्विधबुद्धिवियुक्तैश्शक्यं नो विनिशेतुम् ।। ८१ ॥ गुजराती अनुवाद
८१. अनेक शास्त्रोमां विचक्षण ते ते शास्त्रोमांज मम होवा छतां तेवा प्रकारनी बुद्धिथी रहित अमारा बड़े आनो निश्चय करवो अशक्य छे. हिन्दी अनुवाद
___ अनेक शास्त्रों में विचक्षण, उन-उन शास्त्रों में मग्न होने पर भी उस प्रकार की बुद्धि से रहित हमारे द्वारा यह निश्चय करना सम्भव नहीं है। गाहा
सुसिलिट्ठो नणु अत्यो निरूविओ राय! वणिय-उत्तेण । सव्वेसिं अम्हाणवि सुसंमओ चेव एसोत्ति ।। ८२।।
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संस्कृत छाया- सुश्लिष्टो नन्वर्थो निरूपितो राजन् ! वणिजपुत्रेण ।
सर्वेषामस्माकमपि सुसम्मतवैष इति ।। ८२ ।। गुजराती अनुवाद
८२. परंतु हे राजन! वणिकपुत्र धनदेव वड़े आ स्वप्ननो अर्थ सारी रीते कहेवायो छे. अमने सर्वने पण ते मान्य छे. हिन्दी अनुवाद
परन्तु हे राजन्! वणिक पुत्र धनदेव द्वारा इस स्वप्न का अर्थ ठीक प्रकार से किया गया है, और यह हम सभी को मान्य है।
गाहा
इय भणिए ते रन्ना तंबोल-पयाण-पुव्ययं सव्वे ।
पट्टविया तह सव्वे सामंत-महंतमाईया ।।८३।। संस्कृत छाया
इति भणिते ते राज्ञा ताम्बूलप्रदानपूर्वकं सर्वे ।
प्रस्थापिता तथा सर्वे सामन्तमहत्तमादिकाः ।। ८३ ।। गुजराती अनुवाद
८३. आ प्रमाणे कहेवाये छते स्वप्न पाठको तथा सामंत-महंतादिओने तंबोल-पानवीडु आपवा पूर्वक राजास विदाय आपी. हिन्दी अनुवाद
ऐसा कहकर राजा ने सभी स्वप्नपाठकों तथा सामन्तों आदि को ताम्बूल अर्पण कर विदा किया। गाहा
तत्तो रन्ना भणियं इण्डिं धणदेव! किमिह कायव्वं ।
देवीइ समं अम्हं उवट्ठिए दुसह-विरहम्मि ।।८४।। संस्कृत छाया
ततो राज्ञा भणितमिदानीं धनदेव ! किमिह कर्तव्यम् । देव्या सममस्माकमुपस्थिते दुःसहविरहे ।। ८४ ।।
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गुजराती अनुवाद
८४. (राजानी चिंतानो उपाय)
हवे राजास कह्यु- हे धनदेव! देवीनी साथे अन्मारो दुःसह वियोग उपस्थित थये छते ते विषयमां शुं करवू जोइस. हिन्दी अनुवाद
तब राजा ने कहा 'हे धनदेव! रानी के साथ हमारा दुःसह वियोग उपस्थित हुआ है, इस विषय में क्या करना चाहिए? गाहा
किं एत्थ अत्थि कोवि हु पडिघाय-विही सुदुट्ठ-सुविणस्स ।
भणियं धणदेवेणं न अन्नहा केवलि-गिरा ओ ।।८५।। संस्कृत छाया
किमत्राऽस्ति कोऽपि खलु प्रतिघातविधिः सुदुष्टस्वप्नस्य ।
भणितं धनदेवेन नान्यथा केवलिगिरा ओ ।। ८५ ।। गुजराती अनुवाद
८५. आ अतिदुष्ट स्वप्ननां प्रतिघातनो कोइ पण उपाय अहीं छे. त्यारे धनदेवे कह्यु, 'केवलीधगवंतनुं वचन अन्यथा थतु नथी! हिन्दी अनुवाद
इस दुष्ट स्वप्न के प्रतिघात का क्या यहाँ कोई उपाय है? तब धनदेव ने कहा कि केवली भगवन्त का वचन अन्यथा नहीं होता। गाहा
तहवि हु एस उवाओ कीरइ मा होज्ज तेण पडिघाओ।
मंचय-पडियाण पुणो तहट्ठिया चेव भूमित्ति ।। ८६।। संस्कृत छाया
तथापि खल्वेष उपायः क्रियते मा. भवेत्तेन प्रतिघातः ।
मञ्चकपतितानां पुनस्तथास्थिता एव भूमिरिति ।। ८६ ।।। गुजराती अनुवाद
८६. छतां पण आ सक उपाय कटी शकाय भले तेनाथी प्रतिघात न पण थाय, कारण के मांचडा उपर थी पडेलाने भूमि ज आशरो छे.
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हिन्दी अनुवाद
फिर भी एक उपाय किया जा सकता है। भले ही उससे स्वप्न का प्रतिघात न हो, किन्तु मंच पर से गिरे हुए को भूमि का ही आसरा होता है।
गाहा
पल्लीवइणा तइया दिव्व मणी जो समप्पिओ मज्झ । सो एस अंगुलीयग- निवेसिओ चिट्ठउ करम्मि ।। ८७ ।। एसो अचिंत सत्ती अणेय ठाणेसु दिट्ठ- माहप्पो । ता एयं देवीए करट्ठियं देव! कारेह ।। ८८ ।। संस्कृत छाया
पल्लीपतिना तदा दिव्यमणि-र्यः समर्पितो मम । स एष अङ्गुलीयकनिवेशितस्तिष्ठतु करे ।। ८७ ।। एषोऽचिन्त्यशक्तिरनेकस्थानेषु छष्टमाहात्म्यः । तस्मादेतं देव्याः करस्थितं देव ! कारयत ।। ८८ ।। युग्मम् ।। गुजराती अनुवाद
८७-८८. पल्लिपतिए त्यारे मने जे दिव्यमणि आप्यो हतो ते आ हाथना अंगुठामा रहेलो छे. आ दिव्यमणि अचिन्त्य शक्तियुक्त छे, तेनो प्रभाव अन्य स्थानोमां जोवायो छे. तेथी हे देव! ए दिव्यमणि महाराणीना हाथमां पहेरावो.. (युग्मम्)
हिन्दी अनुवाद
पल्लिपति ने उस समय जो मणि दिया था वह हमारे हाथ के अंगूठे में है। यह दिव्य मणि अचिन्त्य शक्तियुक्त है। उसका प्रभाव अन्य स्थानों में देखा गया है। इसलिए हे देव! यह दिव्यमणि रानी को पहनाइए ।
गाहा
पुव्व - विरुद्धोवि सुरो हरणे देवीइ होज्ज असमत्थो । एयस्स पभावाओ, अह कहवि करिज्ज अवहरणं ।। ८९ । । तहवि हु, अवगारम्मी सक्किस्सइ नेव वट्टिउं वइरी ।। नाउं इमं नरेसर ! मा सोगं किंचिवि करेह ।। ९० ।।
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संस्कृत छाया
पूर्वविरुद्धोऽपि सुरो हरणे देव्या भवेदसमर्थः । एतस्य प्रभावादथ कथमपि कुर्यादपहरणम्। ८९ ।। तथापि खल्वपकारे शक्ष्यते नैव वर्तितुं वैरी ।
ज्ञात्वेदं नरेश्वर ! मा शोकं किञ्चिदपि कुरुत ।। ९० ।। गुजराती अनुवाद__८९-९०. पूर्वनो शत्रुदेव पण आ दिव्यमणिना प्रध्यावथी महाराणीनुं अपहरण करवा असमर्थ थशे. ओ कदाच अपहरण करशे तो पण तेनो अपकार करवा ते वैरी समर्थ नहीं ज बने. आ जाणीने हे नरेश्वर! जरा पण शोक न करो... हिन्दी अनुवाद
पूर्व का शत्रुदेव भी दिव्य मणि के प्रभाव से महारानी का अपहरण करने में असमर्थ हो जायेगा। यदि कदाचित् अपहरण कर भी लिया तो उनका अपकार तो कर ही नहीं सकता। इसलिए यह जानकर हे राजा! आप शोक न करें।
गाहा
अन्नं च। सुविण-पडिघायणत्यं कारेसु जिणालएसु महिमाओ।
पूएस समण-संघं तदुचिय-वत्थासणाईहिं ।।११।। संस्कृत छाया
अन्यच्च । स्वप्नप्रतिघातार्थ कारय जिनालयेषु महिम्नः ।
पूजय श्रमणसचं तदुचितवस्त्रासनादिभिः ।। ९१ ।। गुजराती अनुवाद
११. अने वली. स्वप्नना प्रतिघात माटे जिनालयोमा महोत्सव कटरावो, सुयोग्य वस्त्र आसनादि बड़े श्रमण संघनो सत्कार करो. हिन्दी अनुवाद
स्वप्न के प्रतिघात के लिए अथवा स्वप्न का आपके जीवन पर कोई असर न पड़े, इसके लिए जिनमन्दिरों में महोत्सव और श्रमण संघ को सुयोग्य, वस्त्र आदि दान करें।
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गाहा
दावेसु अभय दाणं विविहाभिग्गह- तवेसु उज्जमसु ।
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एवं कयम्मि नर- वर! सव्वंपि हु सुंदरं होही ।। ९२ ।।
संस्कृत छाया
दापय अभयदानं विविधाऽभिग्रहतपस्सु उद्यच्छ ।
एवं कृते नरवर ! सर्वमपि खलु सुन्दरं भविष्यति ।। ९२ ।। गुजराती अनुवाद
९२. अभयदान आपो, विविध प्रकारनां अभिग्रह तथा तपमां उद्यम करो, आ प्रमाणे कराये छते हे नरपति! बधुं ज सुंदर थशे.
हिन्दी अनुवाद
आप अभयदान दें। विभिन्न प्रकार के अभिग्रह पूर्वक तप करें। ऐसा करने से हे राजन् ! सब कुछ अच्छा होगा।
गाहा
इय भणिउं धणदेवो समप्पिडं अंगुलीययं निययं । पणमित्ता रायाणं विणिग्गओ राय
• भवणाओ ।। ९३ ।
संस्कृत छाया
इति भणित्वा धनदेव: समर्प्य अङ्गुलीयं निजम् । प्रणम्य राजानं विनिर्गतो राजभवनात् ।। ९३ ।।
गुजराती अनुवाद
९३. आ प्रमाणे कहीने राजाने पोतानी अंगुठि समर्पित करीने, राजाने प्रणाम करीने धनदेव राजभवनथी पाछों फर्यो!
हिन्दी अनुवाद
ऐसा कहकर राजा को अपनी अंगूठी समर्पित कर तथा राजा को प्रणाम कर धनदेव वापस राजभवन आ गया।
गाहा
रन्नावि हुं गंतूणं देवी- भवणम्मि सयल वृत्तंतो । सिट्ठो समप्पियं तह देवीए अंगुलीयं तं । । ९४ । ।
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संस्कृत छाया
राज्ञापि खलु गत्वा देवीभवने सकलवृत्तान्तः।
शिष्टः समर्पितं तथा देव्यै अगुलीयं तम् ।। ९४ ।। गुजराती अनुवाद
१४. राजास पण महाराणीना भवनमां जई सकल वृत्तांत कहयो. तथा महाराणी ने ते अंगूठी आपी। हिन्दी अनुवाद
राजा ने महासनी के भवन में जाकर उन्हें सारा वृत्तान्त सुनाया और महारानी को वह अंगूठी दे दी।
गाहा
भणिया य देवि! एयं खणंपि हत्थाओ नेव मोत्तव्वं ।
एयस्स पभावाओ पभवंति न खुद्द-सत्ताई ।।१५।। संस्कृत छाया
भणिता च देवि ! एतद् क्षणमपि हस्तान्नैव मोक्तव्यम् ।
एतस्य प्रभावात् प्रभवन्ति न क्षद्रसत्त्वानि ।। ९५ ।। गुजराती अनुवाद
९५. अने राजास कहयुं- हे देवि! आ अंगुठी क्षणवार पण हाथमाथी काढवी नहीं, आ अंगुठीना प्रभावथी क्षुद्र प्राणीओ विगेरे उपद्रव करवा समर्थ नहीं बने. हिन्दी अनुवाद
राजा ने कहा, हे देवी! आप यह अंगूठी- एक क्षण के लिए भी हाथ से मत निकालिएगा। इस अंगूठी के प्रभाव से क्षुद्र प्राणी किसी प्रकार का उपद्रव करने में सफल नहीं होंगे। गाहा
जिण-मंदिर-जत्ताइं कारवियं ताहि राइणा सव्वं । कमलावईवि तत्तो जाया आवन्न-सत्तत्ति ।।९६।।
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संस्कृत छाया
जिनमन्दिरयात्राणि कारापितं तदा राज्ञा सर्वम् ।
कमलावत्यपि ततो जाताऽऽपन्नसत्त्वेति ।। ९६ ।। गुजराती अनुवाद
९६. कमलावतीनुं गर्भधारण तथा दोहद (गर्भिणी स्त्री का मनोरथ) -
त्यारबाद राजास जिनमंदिरामा यात्रा विगेरे सर्व अनुष्ठान कराव्या, त्यारबाद कमलावती पण गर्भवती थईहिन्दी अनुवाद
उसके बाद राजा ने जिनमन्दिर में यात्रा आदि सभी अनुष्ठान कराया। उसके बाद कमलावती भी गर्भवती हो गयी। गाहा
सुह-संपडत-हिय-इट्ठ-वत्थु-सुविणीय-परियण-जुयाए ।
अह सत्तमम्मि मासे जाओ देवीए दोहलओ ।।९७।। संस्कृत छाया
सुखसम्पहृदयेष्टवस्तुसुविनीतपरिजनयुतायाः ।
अथ सप्तमे मासे जातो देव्या दोहदकः ।। ९७ ।। गुजराती अनुवाद
१८. सुखपूर्वक प्राप्तथती हितकारी इष्ट वस्तु तथा विनीत परिवार थी युक्त महाराणीने हवे सातमे महिने दोहद थयो. हिन्दी अनुवाद
सुखपूर्वक सभी इच्छित वस्तुओं तथा विनीत परिवार के साथ रहती हुई रानी को सातवें महीने में दोहद हुआ। गाहा
लज्जाए तं कस्सवि जाहे न कहेइ ताव कइयावि ।
परिहायंत-सरीरा दिट्ठा रन्ना इमं भणिया ।।९८।। संस्कृत छाया
लज्जया तं कस्याऽपि यदा न कथयति तावत् कदाऽपि । परिहीयमानशरीरा छटा राजेदं भणिता ।। ९८ ।।
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गुजराती अनुवाद
१८. पण लज्जाथी राणी कोई ने कई पण कहेती नथी त्यारे क्यारेक सुकाता शरीरवाली तेने जोईने राजास कह्यु... हिन्दी अनुवाद
किन्तु शर्म के मारे रानी ने इस बात को किसी से नहीं बताया। फिर सुख रहे शरीर वाली रानी को देखकर राजा ने कहागाहा
देवि! तुह किं न पुज्जइ दीससि अइदुब्बला जओ इण्डिं ।
देवीए तो भणियं दोहलओ एस मे नाह! ।।९९।। संस्कृत छाया
देवि ! तव किं न पूर्यते श्यसेऽतिदुर्बला यत इदानीम् ।
देव्या ततो भणितं दोहदक एष मम नाथ ! ।। ९९ ।। गुजराती अनुवाद
९९. हे देवि! शुं तारी इच्छा पूर्ण थती नथी. के जेथी हमणां तु अति दुबली देखाय छे? त्यारे महाराणीस कां 'हे नाथ! मने दोहद उत्पन्न थयो छे. हिन्दी अनुवाद
हे देवि! क्या आपकी इच्छा पूर्ण नहीं हो रही है जिससे कि आप अत्यन्त दुर्बल दीख रही हो। तब महारानी ने कहा, हे नाथ! मुझे दोहद उत्पन्न हुआ है। गाहा
वर-वारणमारूढा दाणं दिती य अस्थि-लोयस्स । तुह-उच्छंग-निविट्ठा तुमए छत्तं धरतेणं ।।१०।। हिंडामि राय! नयरे परियरिया सयल-भिच्च-वग्गेण। रन्ना भणियं सुंदरि! कीरइ अहुणा दुयं एयं ।।१०१।। अह पवर-पट्ट-हत्थी सिंगारिय आणिओ निउत्तेहिं ।
तत्थारूढो राया देवी उण तस्स उच्छंगे ।।१०२।। संस्कृत छाया
वरवारणमारूढा दानं ददती चार्थिलोकस्य । तवोत्सङ्गनिविष्टा त्वया छत्रं धारयता ।। १०० ।।
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हिण्डे राजन् ! नगरे परिवृत्ता सकलभृत्यवर्गेण । राज्ञा भणितं सुन्दरि ! क्रियते अधुना द्रुतमेतद् ।।१०१।।युग्मम् । अथ प्रवरपट्टहस्ती श्रृङ्गारयित्वाऽऽनीतो नियुक्तः ।
तत्राऽऽरूढो राजा देवी पुनस्तस्योत्सङ्गे ।। १०२ ।। गुजराती अनुवाद- .
१०-१०२. श्रेष्ठ हाथी उपर बेठेली, याचक वर्गने दान आपती, तमारा खोलामां बेठेली, स्वी मने तमे छा धारण करता हो ते रीते हे राजन्! समस्त चाकर समुदायथी परिवरेली हुं नगरमां फळं... त्यारे राजार का हे सुन्दरि! हमणा शीघ्र आ कराशे।। हिन्दी अनुवाद
श्रेष्ठ हाथी पर बैठी हुई, याचक वर्ग को दान देती हुई, आपकी गोद में बैठी हुई आप मेरे लिए छत्र धारण किये हो, इस प्रकार हे राजन्! मैं समस्त सेवक समुदाय के साथ नगर में फिरूं ऐसा दोहद उत्पन्न हुआ है। तब राजा ने कहा, 'हे सुन्दरी! यह मैं शीघ्र ही करवाऊंगा। गाहा
उवरि धवलायवत्तं मुत्ताहल-रेहिरं सयं रन्ना। धरियं तत्तो विविहं पढंत-थुइ-पाढ-निवहेण ।।१०३।। तूरेसु रसंतेसु वज्जतेसु य असंख संखेसु । कलपाणएहिं विहिए वियंभमाणे य संगीए ।।१०४।। अस्थि-जण-पूरियासं दाणं देता समत्थ-नयरम्मि । आणंद-निन्भराहिं थुव्वंता नयर-नारीहिं ।।१०५।। आहिंडिऊण विविहं चउक्क-तिय-चच्चरेसु इच्छाए ।
अह पुर-वराउ बाहिं नीहरिओ कुंजरो कमसो ।।१०६।। संस्कृत छाया
उपरि धवलातपत्रं मुक्ताफलराजमानं स्वयं राज्ञा । घृतं ततो विविध पठ्यमानस्तुतिपाठनिवहेन ।। १०३ ।। तूर्येषु रसत्सु वाद्यमानेषु चाऽसंख्यसंख्येषु । कलपानकैर्विहिते विजृम्भमाणे च सङ्गीते ।। १०४ ।।
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अर्थिजनपूरिताशं दानं ददती समस्तनगरे । आनन्दनिर्भराभिः स्तूयमाना नगरनारीभिः ।। १०५ ।। आहिण्ड्य विविधं चतुष्कन्त्रिकचत्वरेष्विच्छया । अथ पुरवराद् बहिर्निःसृतः कुञ्जरः क्रमशः ।। १०६ ।। चतसृभिः कलापकम्
गुजराती अनुवाद
१०३-१०६. (राणीना दोहदनी पूर्ति) रानी के दोहद की पूर्ति हवे नियुक्त पुरुषो वड़े शणगार सजीने श्रेष्ठ पट्टहस्ती लवायो. ते हाथी पर राजा आरूढ थया, अने महाराणी राजानां खोलामां बेठी, राणीनी ऊपर मुक्ताफल थी शोभतुं श्वेत आतपत्र स्वयं राजाएं धारण कर्यु. त्यारबाद स्तुति पाठकोनो समुदाय जयजयकार करतो हतो। हाथी विविध मार्गोथी पसारथतो नगर बहार निकल्यो ।
हिन्दी अनुवाद
सभी नियुक्त पुरुषों ने सज-धज कर श्रेष्ठ पट्ट हाथी को लियां, राजा उस हाथी पर आरूढ़ हुए और महारानी उनकी गोद में बैठीं। रानी के ऊपर मोतियों से शोभित छत्र राजा ने धारण किया। उसके पश्चात् स्तुति पाठक जय-जयकार कर रहे थे। हाथी विविध मार्गों से फिरता हुआ नगर के बाहर निकला।
गाहा
सहसच्चिय उम्मिट्ठो विच्छोलिंतो समत्थ- जण-नियरं । अइवेगेण पयट्टो इसान - दिसा मुहो ताए । । १०७ ।। संस्कृत छाया
सहसैव निरङ्कुश (उम्मिट्ठो) कम्पयन् समस्तजननिकरम् । अतिवेगेन प्रवृत्तः ईशानदिग्मुखस्तदाः ।। १०७ ।।
गुजराती अनुवाद
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१०७. ( गजराजनो उपद्रव)
अने ओचींतो गांडो थई गयेलो ते हाथी समस्त जन समूहने कंपावतो, ईशान दिशा तरफ त्यारे अतिवेग वड़े चाल्यो.
हिन्दी अनुवाद - ( गजराज का उपद्रव)
अचानक पागल हो गया वह हाथी समस्त जनसमूह को कम्पायमान करता हुआ ईशान दिशा की तरफ अतिवेग से बढ़ा।
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गाहा
रे! लेह लेह, धावह एस गओ एस जाइ पुरओत्ति ।
एमाइ वाहरंतो भिच्च-जणो धाइ पट्ठीए ।।१०८।। संस्कृत छाया
रे! लात लात धावत एष गज एष याति पुरत इति ।
एवमादि व्याहरन् भृत्यजनो धावति पृष्ठे ।। १०८ ।। गुजराती अनुवाद
१०८. अरे! अरे! लो...लो.. दोड़ो..दोड़ो...आ हाथी पासे आवी रह्यो छे. इत्यादि बोलतो नोकरवर्ग पाछल दोड़े छे. हिन्दी अनुवाद
अरे! अरे! लो दौड़ो। वह हाथी पास आ रहा है, यह कहता नौकरवर्ग पीछे की तरफ दौड़ा। गाहा
रायावि हु जाहि कहवि हु धरिउं व चएइ करि-वरं तं तु । ताहे भणिया देवी एस गओ ताव उम्मिट्ठो ।।१०९।। अइवेगओ पयट्टो चाइज्जइ कहवि नो नियत्तेउं ।
ता उत्तरिमो कहवि हु इयरह अडवीए पाडेही ।।११०।। संस्कृत छाया
राजाऽपि खलु यदा कथमपि खलु धर्तुं न शक्नोति करिवरं तन्तु । तदा भणिता देवी एष गजस्तावनिरङ्कुशः ।। १०९ ।। अतिवेगतः प्रवृत्तः शक्यते कथमपि न निवर्तितम् ।
तस्मादुत्तरावः कथमपि खल्वितरथाऽटव्यां पातयिष्यति ।११०। गुजराती अनुवाद
१०९-११०. राजा पण केमे कटीने आ श्रेष्ठ हाथीने वश करवा समर्थ न थयो त्यारे देवीने कह्यु. आ हाथी उन्मत्त थयो छे. अतिवेगवालो थयेलो ते केमे कटीने टोकवो शक्य नथी. तेथी कोई पण ते हाथी परथी उतरी जइस अन्यथा आपणने जंगमां पाडशे.
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हिन्दी अनुवाद
राजा भी सब प्रयास कर उस श्रेष्ठ हाथी को वश में करने में समर्थ नहीं हो सके। देवी ने कहा यह हाथी उन्मत्त हो गया है, इस अतिवेग वाले हाथी को रोकना सम्भव नहीं है। इसलिए हमें किसी प्रकार हाथी से नीचे उतरना चाहिए, नहीं तो हम स्वयं परेशानी में पड़ जायेंगे। गाहा
कमलावईए भणियं ओयरियव्वं कहं नु नर-नाह! । रन्ना भणियं निसुणसु पिच्छसि वड-पायवं पुरओ ।।१११।। एयस्स य हेतुणं जाही हत्थी तओ तुमे देवि! ।
साहाए लग्गिअव्वं सहसा हत्थिं पमोत्तूण ।।११२।। संस्कृत छाया
कमलावत्या भणितमवतरितव्यं कथन्नु नरनाथ ! । राज्ञा भणितं निश्रृणु प्रेक्षसे वटपादपं पुरतः ।। १११ ।। एतस्य चाऽधः यास्यति हस्ती ततस्त्वया देवि ।
शाखायां लगितव्यं सहसा हस्तिनं प्रमुच्य ।। ११२ ।। गुजराती अनुवाद
१११-११२. राणी कमलावतीस कह्यु- हे राजन्! केवी रीते उतरवू? त्यारे राजार का-सांधल! आगल वटवृक्ष देखाय छे. हे देवि! ते वृक्षनी नीचेथी हाथी पसार थशे त्यारे एकदम हाथीने छोड़ीने डाली पकडी लेवी। हिन्दी अनुवाद
रानी कमलावती ने कहा हे राजन! मैं किस प्रकार उतरूं? राजा ने कहा सुनो। आगे बरगद का पेड़ दिख रहा है ज्योंही हाथी पेड़ के नीचे से गुजरे, हाथी को छोड़कर पेड़ की डाली को पकड़ लेना। गाहा
एवं च जाव राया देविं उल्लवइ ताव सो हत्थी।
अइवेगेणं पत्तो वड-वायव-हिट्ठ-भूभागे ।।११३।। संस्कृत छाया
एवं च यावद्राजा देवीमुल्लपति तावत् स हस्ती । अतिवेगेन प्राप्तो वटपादपाधोभूभागे ।। ११३ ।।
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गुजराती अनुवाद
११. आ प्रमाणे राजा महाराणीने ज्यां कहे छे त्यां तो ते हाथी अतिशय वेगपूर्वक वटवृक्षनी नीचे आवी गयो. हिन्दी अनुवाद
इस प्रकार राजा ने रानी से जैसा कहा था, अतिशय वेगपूर्वक चलता वह हाथी उस बरगद के पेड़ के नीचे आ गया। गाहा
दक्खत्तणओ राया झत्ति विलग्गो य तस्स साहाए ।
लग्गसु लग्गसु देवि! झत्ति एवं भणेमाणो ।।११४।। संस्कृत छाया
दक्षत्वतो राजा झटिति विलग्नश्च तस्य शाखायाम् ।
लग लग देवि ! झटिति एतद् भणन् ।। ११४ ।। गुजराती अनुवाद
११४. हे देवि! जल्दी शाखा पकड़ी लो...पकड़ी लो...सम बोलतो चतुराईथी राजा शीघ्र ते झाडनी शाखाने वलगी गयो. हिन्दी अनुवाद
हे देवी जल्दी शाखा पकड़ लो, ऐसा कहकर राजा ने चतुराई से पेड़ की शाखा को पकड़ लिया।
गाहा
अइवेगओ करिस्सा (स्स?) अदक्खयाए य इत्थि-भावस्स । गम्भस्स य गरुयत्ता भय-वेविरओ सरीरस्स ।।११५।। कय-अज्झवसायावि हुन सक्किया जाहि तत्थ लग्गेउं ।
ताहे य करि-वरो सो झडत्ति तत्तो अवक्कंतो।।११६।। संस्कृत छाया
अतिवेगतः करिणोऽदक्षतया स्त्रीभावस्य । गर्भस्य च गुरुत्वात् भयवेपमानतश्शरीरस्य ।। ११५ ।। कृताऽध्यवसायाऽपि खलु न शक्या यदा तत्र लगितुम् । तदा च करिवरः स झटिति ततोऽपक्रान्तः ।।११६।। युग्मम् ।।
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गुजराती अनुवाद
११५-११६. राणी हाथीना अतिवेगने कारणे, चतुराइनो अभाव, स्त्री सहज स्वधाव, गर्धनी गुरुता तथा शरीरमां अयने कारणे कंप होवाथी अध्यवसाय कर्यो होवा छता ते शाखाने पकडवा ज्यारे समर्थ न बनी अने ते हाथी तो झडप थी त्यांथी पसार थई गयो! हिन्दी अनुवाद
रानी हाथी के अतिवेग के कारण चतुराई के अभाव, स्त्री सहज स्वभाव, गर्भ की गुरुता तथा शरीर भय के कारण कांपने के कारण चाह कर भी शाखा पकड़ने में समर्थ नहीं हो सकी और हाथी जल्दी से वहाँ से चला गया।
गाहा
अह गुरु-सोगो राया तहठिओ जा तओ पलोएइ ।
ता पिच्छइ गयणेणं जंतं बेगेण तं करिणं ।।११७।। संस्कृत छाया
अथ गुरुशोको राजा तथास्थितो यावत्ततः प्रलोकते ।
तावत् प्रेक्षते गगनेन यान्तं वेगेन तं करिणम् ।। ११७ ।। गुजराती अनुवाद
११८. हवे त्यां रहेलो शोकातुर राजा त्यांथी ज्यां नजर करे छे त्यां तो आकाशमार्गे जतां ते गजराजने जोयो... हिन्दी अनुवाद
तब शोकाकुल राजा ने जहाँ तक दृष्टि जा सकती थी आकाश मार्ग से जाते हुए हाथी को देखा। गाहा
अह विम्हिओ मणेणं चिंतइ राया अहो! महच्छरियं ।
मोत्तुं भूमि-पयारं वच्चइ हत्थी नह-यलेण ।।११८।। संस्कृत छाया
अथ विस्मितो मनसा चिन्तयति राजा अहो ! महदाश्चर्यम् । मुक्त्वा भूमिप्रचारं व्रजति हस्ती नभस्तलेन ।। ११८ ।।
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गुजराती अनुवाद
११८. हवे आश्चर्य पामेलो राजा मनमां विचाटे छे. अरे! महान् आश्चर्य! भूमि उपर चालवायूँ छोडीने हाथी आकाशमार्गे चाले छे. हिन्दी अनुवाद
आश्चर्यचकित राजा विचार करता है कि अरे यह तो महान आश्चर्य है कि भूमि पर चलने वाला हाथी भूमि को छोड़कर आकाश मार्ग से जा रहा है। गाहा
अहवा। पुष्व-विरुद्ध-सुरो सो विलसइ नूणं इमेण रूवेण ।
न हु केवलिणा भणिया भावा इह अन्नहा होति ।।११९।। संस्कृत छाया
अथवा ! पूर्वविरुद्धसुरः स विलसति नूनमनेन रूपेण ।
न खलु केवलिना भणिता भावा इहाऽन्यथा भवन्ति ।।११९।। गुजराती अनुवाद___ ११९. (देवमाया राणीनुं अपहरण)
अथवा तो पूर्वनो वैरी देव आ आप बड़े विलास करतो लागे छे. खरेखर केवलिब्धगवंते कहेला यावो अहीं अन्यथा थता नथी! हिन्दी अनुवाद
अथवा तो पूर्व का बैरी देव इस रूप में विलास कर रहा है। सच. कहें तो केवली भगवंत का कहा गया भाव अन्यथा नहीं होता।
गाहा
एवं विचिंतयंतस्स तस्स, हत्थी अदंसणीभूओ।
ताव अणु-मग्ग-लग्गं रन्नो सिन्नं समणुपत्तं ।।१२०।। संस्कृत छाया
एवं विचिन्तयतः तस्य हस्त्यदर्शनीभूतः । तावदनुमार्गलग्नं राज्ञः सैन्यं समनुप्राप्तम् ।। १२० ।।
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गुजराती अनुवाद
१२०. राजा आ प्रमाणे चिंतवता हता त्यांतो हाथी अदृश्य थई गयो. तेलीवारमां पाछळ रहेलुं राजानुं सैन्य मली गयुं.
हिन्दी अनुवाद
राजा इस प्रकार चिन्ता कर ही रहा था कि हाथी वहाँ से अदृश्य हो गया। इतनी देर में पीछे रहे हुए राजा के सैनिक भी वहां आ पहुँचे।
गाहा
अह करि-वर- मग्गेणं समरप्पिय- पमुह- सुहड-सय- कलियं । देवी - गवेसणत्थं पट्टविडं साहणं राया ।। १२१ ।। कहकहवि गरुय - सोओ सामंत-महंतगाण वयणेण । पत्तो निय- नयरम्मी सुन्नो वुन्नो निराणंदो ।। १२२ ।। संस्कृत छाया
अथ करिवरमार्गेण समरप्रियप्रमुखसुभटशतकलितम् । देवीगवेषणार्थं प्रस्थाप्य साधनं राजा ।। १२१ ।। कथंकथमपि गुरुशोकः सामन्तमहत्तमानां वचनेन । प्राप्तो निजनगरे शून्य उद्विग्नो निरानन्दः ।। १२२ ।। युग्मम् ।। गुजराती अनुवाद
१२१ -१२२. हवे हाथीना मार्गे राणीने शोधवा माटे समरप्रिय विगेरे सो सुभट सहित सैन्यने मोकलीने गुरु शोकवालो, शून्य मनस्क, उद्विग्न तथा आनंद रहित राजा सामंत तथा महंतोना वचनवड़े केमे करीने पोतानां नगरमां आव्यो! (युग्मम्)
हिन्दी अनुवाद
अब हाथी के जाने वाले मार्ग पर रानी की तलाश के लिए समरप्रिय सुभट से युक्त सैनिकों को भेजकर शोकयुक्त, अन्यमनस्क, उद्विग्न तथा आनन्द रहित राजा सामंत तथा महन्तों के अनुसार अपने नगर में आया।
गाहा
परिचत्त- रज्ज - चित्तो चिट्ठइ जा कइवि तत्थ दिवसाणि । कमलावइ- संपावण- आसाए धरिय निय-जीओ ।। १२३ ।।
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ता अन्न-दिणे सिन्नं समरप्पिय-समुहमागयं सहसा ।
दीणं विमणं खिन्नं लज्जा-विमणंत-मुह-कमलं ।।१२४।। संस्कृत छाया
परित्यक्तराज्यचित्तस्तिष्ठति यावत् कत्यपि तत्र दिवसानि । कमलावतीसम्प्रापणाऽऽशया घृतनिजजीवितः ।। १२३ ।। तस्मादन्यदिने सैन्यं समरप्रियप्रमुखमागतं सहसा ।
दीनं विमनः खिन्नं लज्जाविनतमुखकमलम् ।। १२४।।युग्मम् ।। गुजराती अनुवाद
१२३-१२४. (महाराणीनी शोध छतां अप्राप्ति)
राज्यने विषे विमनस्क, कमलावती राणीने प्राप्तिनी आशा बड़े पोताना जीवने धारण करतो राजा केटलां दिवस त्यां रहयो, त्यां एक दिवस ओचीतु दीन, विमन, खेद पामेलु, तथा लज्जाथी नमेलां मुखकम्पलवालुं समरप्रियनी मुख्यतावालु, सैन्य आवी गा... (युग्मम्) हिन्दी अनुवाद
कमला रानी मिलेगी, ऐसी आशा में जीवित राज्य के विषय में अन्यमनस्क राजा कुछ दिनों तक वहाँ रहे। तभी एक दिन अचानक वहाँ दीन, बिना मन के, दुःखी तथा लज्जा से झुके मुखकमल वाला समरप्रिय प्रमुख सैनिक आया..(युग्मम) गाहा
अह रन्ना आपुट्ठो समरप्पिओ कहसु भह! वुत्तंतं ।
किं दिट्ठो दुट्ठ-करी देवीवि विमोइया तत्तो? ।।१२५।। संस्कृत छाया__अथ राज्ञाऽऽपृष्टः समरप्रियः कथय भद्र ! वृत्तान्तम् ।
किं छटो दुष्टकरी देव्यपि विमोचिता ततः ? ।। १२५ ।। गुजराती अनुवाद
१२५. त्यारे राजार समरप्रियने पूछयु 'हे भद्र! वृत्तांत जणाव शुं दुष्ट हाथी जोवायो? ते हाथी पासेथी देवी ने छोडावी?... हिन्दी अनुवाद
तब राजा ने समरप्रिय से पूछा क्या वह दुष्ट हाथी मिला? उस हाथी के पास से देवी को छुड़ाया क्या?
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गाहा
दीहं नीससिऊणं भणियं समरप्पिएण सुण देव!।
करि-वर-दिसा-पयट्टा पत्ता अडवीइ ता अम्हे ।।१२६।। संस्कृत छाया
दीर्घ निश्वस्य भणितं समरप्रियेण शृणु देव !।
करिवरदिक्प्रवृत्ताः प्राप्ता अटव्यां तस्माद् वयम् ।। १२६ ।। गुजराती अनुवाद
१२६. दीर्घ निःसासो नाखीने समरप्रिये कह्यु- हे देव! सांभलो, हाथीनी दिशामां जतां अमे जंगलमां पहोंच्या. हिन्दी अनुवाद
लम्बी सांस लेकर समरप्रिय ने कहा, 'हे देव! सुनिए, हाथी की दिशा में जाते हुए हम जंगल में पहुँचे।
गाहा
तत्थ य बहु-प्पयारं गवेसमाणेहिं देव! अम्हेहिं ।
दिवो न सो करि-वरो नेव य देवी न य पउत्ती।।१२७।। संस्कृत छाया
तत्र च बहुप्रकारं गवेषयमाणै-देव ! अस्माभिः ।
छष्टो न स करिवरो नैव च देवी न च प्रवृत्तिः ।। १२७ ।। गुजराती अनुवाद
१२०. त्या अनेक प्रकारे शोध करतां पण हे राजन! अपारा वडे ते हाथी जोवायो नथी के नथी जोवाई देवी प्राप्ति माटे कोई प्रवृत्ति पण जोवाई नथी. हिन्दी अनुवाद
वहां अनेक प्रकार से खोजने पर भी वह हाथी नहीं मिला और देवी भी नहीं मिलीं। उनकी किसी प्रवृत्ति के विषय में कुछ भी पता नहीं चला। गाहा
अवरावव-सवर-गणं पुच्छंताणं सुदूर-पत्ताणं । अह अन्न-दिणे कहियं कप्पडिय-नरेण एक्केण ।।१२८।।
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संस्कृत छाया
अपरापरशबरगणं पृच्छतां सुदूरप्राप्तानाम् ।
अथाऽन्यदिने कथितं कार्पटिकनरेणैकेन ।। १२८ ।।
गुजराती अनुवाद
१२८. परस्पर भीलना समुदायने पूछतां पूछतां दूर पहोंची गयेला अमने कोई दिवसे एक कार्पेटक नरे कां...
हिन्दी अनुवाद
आपस में भील लोगों से पूछते-पूछते हम काफी दूर निकल गये तभी एक दिन एक कार्पटिक हमें मिला। उसने हमें बताया
गाहा
तत्तो सत्तम-1
-दिवसे पउमोयर- नामए सर - वरम्मि । गयणाउ निवडमाणो महिला संहिओ करी दिट्ठो ।। १२९ । ।
संस्कृत छाया
ततः सप्तमदिवसे पद्मोदरनाम्नि सरोवरे ।
गगनाद् निपतन्महिलासहितः करी दृष्टः ।। १२९ ।।
गुजराती अनुवाद
१२९. 'सात दिवस पहेलां पद्मोदर नामना सरोवरमां आकाशमांथी पड़ता स्त्री सहित हाथीने जोयो हतो.
हिन्दी अनुवाद
हमने सात दिन पहले पद्मोदर नामक तालाब में आकाश से गिरते हुए एक स्त्री और हाथी को देखा था।
गाहा
तत्तो भय-भीएणं दूर - ट्ठिय-गुविल- तरु पविद्वेण । नारी - रहिओ पुणरवि पलोइओ तत्थ हत्थित्ति ।। १३० ।। वियरंतो सर - तीरे, इय तस्स ओ वयणयं सुणेऊण । भणियं दंससु भद्दय! तं सिग्घं सर- वरं अम्ह । । १३१ ।। संस्कृत छाया
ततो भयभीतेन दूरस्थितगुपिलतरुप्रविष्टेन ।
नारीरहितः पुनरपि प्रलोकितस्तत्र हस्तीति ।। १३० ।।
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विचरस्सरःतीरे, इति तस्य ओ वचनं श्रुत्वा ।
भणितं दर्शय भद्रक ! तत् शीघ्रं सरोवरमस्माकम् । १३१। युग्मम् गुजराती अनुवाद
१३०-१३१. त्यारवाद डरना मार्या दूर रहेल वृक्षमां छूपाईने रहेल अमे फटी स्त्रीरहित हाथी ने त्यां सरोवरने किनारे फरतो जोयो, आ प्रमाणे तेना वचन सांथलीने अमे का 'हे भद्र! जल्दी अमने ते सरोवर बताव! (युग्मम्) हिन्दी अनुवाद
उसके बाद डर के मारे पेड़ों की आड़ में छुपकर मैंने फिर स्त्री रहित हाथी को उस तालाब के किनारे टहलते हुए देखा। ऐसा सुनकर हमने शीघ्र वह तालाब कहां है? बताने को कहा। गाहा
अह तेण दंसियं तं पलोइयं सर-वरं समं तेण ।
न य उवलद्धा देवी निउणंपि गवेसमाणेहिं ।। १३२।। संस्कृत छाया
अथ तेन दर्शितं तत् प्रलोकितं सरोवरं समं तेन ।
न चोपलब्या देवी निपुणमपि गवेषयमाणैः ।। १३२ ।। गुजराती अनुवाद
१३२. पछी ते कार्पटिके बतावेल सरोवर तेनी साथे जोयुं, खूब सारी रीते शोधखोल करवा छतां महाराणीनी प्राप्ति न थई! हिन्दी अनुवाद
फिर उस यात्री के बताने के अनुसार हमने उसके साथ उस तालाब को देखा! किन्तु अच्छी प्रकार से खोजने पर भी महारानी कहीं नहीं मिलीं। गाहा
सर-वर-जोयण-मित्ते विउत्त-पुरिसेहिं पाविओ हत्थी ।
तं धित्तुं निराणंदा इहागया देव-मूलम्मि ।।१३३। संस्कृत छाया
सरोवरयोजनमात्रे वियुक्तपुरुषैः प्राप्तो हस्ती । तं गृहीत्वा निरानन्दा इहाऽऽगता देवमूले ।। १३३ ।।
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गुजराती अनुवाद
१३. शोधवा गयेल पुरुषोने स.रोवरना एक योजन मात्रविस्तारमा हाथी मली गयो तेने लइने आनंद विनाना अमे आपनी पासे अहीं आव्या छीस। हिन्दी अनुवाद
तलाश करने गए व्यक्तियों को तालाब के एक योजन विस्तार में हाथीं मिल गया उसे लेकर हम आनन्द रहित आपके पास आये हैं। गाहा
ता किं तत्येव सरे गभीर-नीरम्मि उवरया देवी ।
अह तत्तो उत्तरिउं पत्ता उ कहिंपि वसिमम्मि? ।।१३४।। संस्कृत छाया
तस्मात्किं तत्रैव सरसि गभीरनीरे उपरता देवी ।
अथ तत उतीर्य प्राप्ता तु कस्मिन्नपि वसतौ ? ।। १३४ ।। गुजराती अनुवाद
१३४. तेथी शुं ते ज सरोवरना उंडा पाणीमां देवी सन्माई गया हशे? (मृत्यु पाम्या हशे) अथवा तो त्यांथी उतरीने कोई वसतिमां गया हशे? हिन्दी अनुवाद
इसलिए ऐसा लगता है कि उस सरोवर के पानी में या तो देवी समा गयी हैं (मृत्यु को प्राप्त कर चुकी हैं) या वहाँ उतर कर किसी गाँव में चली गयी हैं? गाहा
अहवा सावय-पउरे वणम्मि केणवि विणसिया होज्ज ।
न य जाणामो किंचिवि नरिंद! देवीए वुत्तंतं ।।१३५।। संस्कृत छाया
अथवा श्वापदप्रचुरे वने केनाऽपि विनाशिता भवेत् ।
न च जानीमः किञ्चिदपि नरेन्द्र ! देव्या वृत्तान्तम् ।। १३५ ।। गुजराती अनुवाद
- १३५. अथवा तो घणांजंगली पशुओथी युक्त वनमा कोइस मारी नांख्या हशे. हे नरेन्द्र! देवीनो बीजो कोई वृत्तांत अन्मे जाणता नथी.
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हिन्दी अनुवाद
या इन जानवरों से भरे जंगल में कोई उन्हें मार डाला हो। हे राजन्! देवी का अन्य कोई वृत्तान्त हमें ज्ञात नहीं है। गाहा
एवं च जाव जंपइ समरप्पिओ पत्थिवस्स से पुरओ।
ताव य दार-निउत्तो कय-विणओ एवमुल्लवइ ।।१३६।। संस्कृत छाया
एवञ्च यावज्जल्पति समरप्रियः पार्थिवस्य तस्य पुरतः ।
तावच्च द्वारनियुक्तः कृतविनय एवमुल्लपति ।। १३६ ।। गुजराती अनुवाद
१३६. आ प्रमाणे समरप्रिय अट ते राजानी आगल ज्यां वात करे छे त्यां तो करेलाविनयवालो द्वारपाल आ प्रमाणे बोले छे. हिन्दी अनुवाद
इस प्रकार समरप्रिय भट उस राजा के आगे जहाँ बात कर रहा था, वहाँविनयपूर्वक अभिवादन करता हुआ द्वारपाल आकर राजा से बोला। सुमति नाम के ज्योतिषी का आगमनः
गाहा
दारम्मि सुमइ-नामो नेमित्ती चिट्ठइत्ति सुणिऊण । भणियं रन्ना किं भो! सो एसो सुमइ-नेमित्ती? ।।१३७।। जस्साएसाउ तया दिन्ना नरवाहणेण मह देवी? । पास-ट्ठिएहिं सिटुं, नरिंद! एवंति, अह रन्ना ।।१३८।। भणियं पविसउ सिग्धं पुच्छामो जेण देवि-वुत्तंतं ।
वयणाणंतरमेसो पवेसिओ दारवालेण ।।१३९।। संस्कृत छाया
द्वारे सुमतिनामा नैमित्तिकस्तिष्ठति इति श्रुत्वा ।। भणितं राज्ञा किं भो! स एष सुमतिनैमित्तिकः ? ।। १३७ ।। यस्याऽऽदेशात्तदा दत्ता नरवाहनेन मम देवी ? । पार्थस्थितैःशिष्टं, नरेन्द्र ! एवमिति, अथ राज्ञा ।। १३८ ।।
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भणितं प्रविशतु शीघ्रं पृच्छामो येन देवीवृत्तान्तम् ।
वचनानन्तरमेष प्रवेशितो द्वारपालेन ।। १३९ ।। गुजराती अनुवाद
१३०-१३९. (सुमति नैमित्तिकनुं आगमन)- द्वारमा सुमति नामनो नैमित्तिक आवी उधो छे, ते सांधली राजार का 'शुं ते जे पेलो सुमति निमित्तियो, के जेना आदेशथी त्यारे नरवाहन वड़े मने देवी अपाई हती... त्यारे बाजुमां रहेला लोकोस कडं हे नरेन्द्र! हा. एज.. त्यारे राजार कह्यु जल्दीथी तेने प्रवेश आपो, जेथी देवीनो वृत्तांत पूर्छ' राजाना आ वचन बाद तरत ज द्वारपाले नैमित्तिकनो प्रवेश कराव्यो. (त्रिभिः विशेषकम) हिन्दी अनुवाद
दरवाजे पर सुमति नाम का ज्योतिषीं आकर खड़ा है। ऐसा सुनकर राजा ने कहा, 'क्या यह वही सुमति है जिसके आदेश पर नरवाहन की तरफ से मुझे देवी प्राप्त हुई थीं। तब पास में रहने वाले लोगों ने कहा कि हां, राजन! यह वही है। तब राजा ने कहा, 'शीघ्र उन्हें अन्दर ले आओ, जिससे उनसे हम देवी का वृत्तान्त पूछ सकें। राजा के इस वचन के बाद द्वारपालों ने ज्योतिषी का महल में प्रवेश कराया। गाहा
कय-उवयारो रन्ना उवविट्ठो विणय-पुव्ययं सुमई।
आपुट्ठो, किं देवी जीवइ व नवत्ति वज्जरसु? ।। १४०।। संस्कृत छाया
कृतोपचारो राज्ञा उपविष्टो विनयपूर्वकं सुमतिः ।
आपृष्टः, किं देवी जीवति वा नवेति कथय ? ।। १४० ।। गुजराती अनुवाद
१४०. करायेल उपचारवालो सुमति नैमित्तिक विनयपूर्वक बेठो, त्यारे राजार पूछयु 'शुं महाराणी जीवे छे के नहीं ते कहो! हिन्दी अनुवाद
- स्वागत आदि किए गये उपचार के बाद सुमति ज्योतिषी विनयपूर्वक बैठा। तब राजा ने उससे पूछा कि महारानी जीवित हैं या नहीं।
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गाहा
उaओगं दाऊणं भणियं अह सुमइणा जियइत्ति ।
अक्खय-देहा संपइ मिलिया इव बंधु- वग्गस्स ।। १४१ ।।
संस्कृत छाया
उपयोगं दत्त्वा भणितमथ सुमतिना जीवतीति ।
अक्षयदेहा सम्प्रति मीलितेव बन्धुवर्गस्य ।। १४१ ।।
गुजराती अनुवाद
१४१. (नैमित्तिक द्वारा राणी वृत्तांत) -
उपयोग आपीने सुमति नैमित्तिके कह्युं 'ते जीवे छे.. अखंड देहवाली हमणां बंधुवर्गने मलेली जाणे जणाय छे.
हिन्दी अनुवाद
ज्ञान से देखकर ज्योतिषी ने कहा कि 'वह जीवित है। अखण्ड देहवाली देवी अपने बन्धु बांधवों को मिल गयी हैं, ऐसा लगता है।
गाहा
कइया समागमो मह तीए, किं वा हवेज्ज से गब्भे ? | इय पुट्ठो नर - वइणा कय- उवओगो पुणो भाइ ।। १४२ ।।
संस्कृत छाया
कदा समागमो मम तस्याः, किंवा भवेत्तस्या गर्भे ? ।
इति पृष्टो नरपतिना कृतोपयोगः पुनर्भणति ।। १४२ ।।
गुजराती अनुवाद
१४२. 'ते राणीनो मने समागम क्यारे थशे? तेणीना गर्भनुं शुं थशे ? आ प्रमाणे राजा वड़े पूछायेल नैमित्तिके उपयोग मूकीने फरी आ प्रमाणे बोल्यो.
हिन्दी अनुवाद
उस रानी से मेरा मिलन कब होगा? उसके गर्भ का क्या होगा? ऐसा ज्योतिषी से पूछने पर उसने कहा ।
गाहा
जइया नरिंद! सुविणे गिण्हसि विसम-ट्ठियं कुसुम - मालं । तत्तो य मास- मित्ते समागमो तुम्ह देवीए ।। १४३।।
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संस्कृत छाया
यदा नरेन्द्र ! स्वप्ने गृह्णासि विषमस्थितां कुसुममालाम् । ततश्च मासमात्रे समागमस्तव देव्याः ।। १४३ ।।
गुजराती अनुवाद
१४३. 'हे नरेन्द्र ! ज्यारे स्वप्नमां तु विषम स्थानमा रहेली पुष्पमालाने ग्रहण करीश त्यारथी एक महिनामा तने देवीनुं मिलन थशे.
हिन्दी अनुवाद
हे राजा! जब आप विषम स्थान में पड़ी पुष्पमाला का ग्रहण करेंगे, उसके एक महीने के अन्दर आपका देवी से मिलन होगा।
गाहा
होही तणओ तीए विजुज्जिही किंतु जाय- मेत्तो सो । निय - माऊए, नर - वर ! एवं किल कहइ हु निमित्तं । । १४४ । ।
संस्कृत छाया
भविष्यति तनयस्तस्या वियोक्ष्यते किन्तु जातमात्रः सः । निजमातुः, नरवर ! एवं किल कथयति खलु निमित्तम् ।। १४४।। गुजराती अनुवाद
१४४. राणीने पुत्र थशे पण हे राजन् ! जन्मतानी साथे तेने मातानो वियोग थशे. ए प्रमाणे निमित्तशास्त्र कहे छे.
हिन्दी अनुवाद
रानी को पुत्र प्राप्ति होगी किन्तु हे राजन् ! जन्म के साथ ही उसका माँ से वियोग हो जायेगा, ऐसा ज्योतिष शास्त्र कह रहा है।
गाहा
पुट्ठो पुणरवि रन्ना जप्पणि- विउत्तो स जीविही किं नो? | कत्थवि वुद्धिं जाही, कइया व समागमो तेण ? । । १४५ । । संस्कृत छाया
पृष्टः पुनरपि राज्ञा जननीवियुक्तः स जीविष्यति किं न ? । कुत्राऽपि वृद्धिं यास्यति, कदा वा समागमस्तेन ? ।। १४५ ।।
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गुजराती अनुवाद
१४५. फी पण राजार पूछयु :माताथी वियोग पामेलो ते जीवशे के नहीं? ते मोटो क्यां थशे? तेनो मेलाप क्यारे थशे? हिन्दी अनुवाद
राजा ने पुन: पूछा 'माता से वियोग को प्राप्त वह जीवित रहेगा कि नहीं। वह बड़ा कहाँ होगा? उससे मिलना कब होगा? गाहा
अह सुमई भणइ पुणो बहु-कालं जीविही स ते पुत्तो।
कत्थ य बुड्ढं जाही एयं पुण नेव जाणामो ।।१४६।। संस्कृत छाया
अथ सुमति-भणति पुनर्बहुकालं जीविष्यति स तव पुत्रः ।
कुत्र च वृद्धिं यास्यति एतद् पुन-नँव जानीमः ।। १४६ ।। गुजराती अनुवाद
१४६. त्यारे सुमति नैमित्तिके कह्यु- 'तारो पुत्र लांबो काल जीवशे, परंतु ते क्यां मोटो थटो ते वात हुँ जाणतो नथी. हिन्दी अनुवाद
तब सुमति ज्योतिषी ने कहा, 'आपका पुत्र लम्बे समय तक जीवित रहेगा किन्तु वह बड़ा कहाँ होगा, मैं यह बात नहीं जानता। गाहा
कुसुमायर-उज्जाणे जइया गयणाओ कन्नगा पडिही ।
तत्तो य सिग्यमेव हि समागमो तुम्ह तणएण ।।१४७।। संस्कृत छाया
कुसुमाकरोद्याने यदा गगनात् कन्या पतिष्यति ।
ततश्च शीघ्रमेव हि समागमस्तव तनयेन ।। १४७ ।। गुजराती अनुवाद
१४८ कुसुमाकर उद्यानमां ज्यारे आकाशमार्गथी कन्या पडशे व्यारबाद तरतज तारो पुत्र साथे समागम थो.
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हिन्दी अनुवाद
कुसुमाकर उद्यान में जब आकाशमार्ग से कन्या गिरेगी उसके तुरन्त बाद आपका आपके पुत्र के साथ मिलन होगा। गाहा
तव्वयणं सोऊणं गय-सोगो पहसिओ भणइ राया।
भो! भो! सुवन्न-लक्खं सिग्धं सुमइस्स देहत्ति ।।१४८।। संस्कृत छाया
तद्वचनं श्रुत्वा गतशोकः प्रहसितो भणति राजा ।
भो ! भोः ! सुवर्णलक्षं शीघ्रं सुमतये देहीति ।। १४८ ।। गुजराती अनुवाद
१४८. (नैमित्तिकने भेट तथा विसर्जन)
नैमित्तिक, ते वचन सांथलीने चाली गयेल शोकवालो तथा खुश भयेलो राजा कहे छे. 'अरे! अरे! एक लाख सुवर्ण जल्दी थी सुमतिने आपो. हिन्दी अनुवाद
ज्योतिषी की यह बात सुनकर शोक मुक्त एवं खुशी से राजा कहता हैसुमति को शीघ्र ही एक लाख सुवर्ण मुद्रा दो।
गाहा
एय-वयणाओ अम्हं देवी-विरहम्मि गरुय-सोगग्गी ।
पसरंतो ओल्हविओ समागमासा-जलोहेण ।।१४९।। संस्कृत छाया
एतद्वचनादस्माकं देवीविरहे गुरुशोकाग्निः ।
प्रसरन् विध्यापितः समागमाऽऽशाजलौघेन ।। १४९ ।। गुजराती अनुवाद___ १४९. आना वचनथी देवीना विरहमा फेलायेलो थारे शोकलप अग्मि, देवीना समागमछपी पाणीना धोध बड़े बुझावायो छे. हिन्दी अनुवाद
___ इस वचन से देवी के विरह से फैले भारी शोक रूपी अग्नि, देवी के मिलन रूपी पानी के झरने से बुझ गयी।
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गाहा
अह निययाभरणेणं सुवन-लक्खेण पूइओ सुमई।
नीहरिओ रायावि हु मणयं जाओ विगय-सोगो ।।१५०।। संस्कृत छाया
अथ निजकाऽऽभरणेन सुवर्णलक्षण पूजितः सुमतिः ।
निःसृतो राजाऽपि खलु मनाक् जातो विगतशोकः ।। १५० ।। गुजराती अनुवाद
१५०. हवे पोताना आधरण तथा लक्षसुवर्ण वड़े सन्मान पामेल नैमित्तिक सुमति विसर्जन पाम्यो, राजा पण थोड़ो शोक रहित थयो. हिन्दी अनुवाद
उसके बाद आभूषण और एक लाख सुवर्ण मुद्राओं से सम्मानित सुमति ज्योतिषी अपने घर चला गया और राजा भी शोकरहित हो गए।
गाहा
अह अन्नया य राया सुत्तो रयणीइ पेच्छए सुमिणं । उत्तर-दिसा-मुहेणं वयमाणेणं मए कूवे ।।१५१।। पडिया अद्ध-मिलाणा धवला कुसुमाण मालिया दिट्ठा ।
गहिया सहसा जाया पच्चग्गा सुरहि-गंधडा ।।१५२।। संस्कृत छाया
अथाऽन्यदा च राजा सुप्तो रजन्यां प्रेक्षते स्वप्नम् । उत्तरदिङ्गमुखेन व्रजता मया कूपे ।। १५१ ।। पतिताऽर्धम्लाना धवला कुसुमानां मालिका छटा ।
गृहीता सहसा जाता प्रत्यया सुरभिगन्याया ।।१५२।।युग्मम् । गुजराती अनुवाद
१५१-१५२. (राजाने स्वप्न दर्शन)
हवे कोई वखते रात्रिमा सूतेलो राजा जुवे छे के 'उत्तरदिशा तरफ थी आवती कूवामां पडेली, अडधी म्लान थयेली पुष्पमाला मारा वड़े ग्रहण कराई अने ते माला ओचिंती सुरभिगंधयुक्त ताजी थई गई. (युग्मम्) हिन्दी अनुवाद
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किसी समय रात में सोया राजा स्वप्न देखता है कि उत्तर दिशा की ओर से आती हुई कुएं में गिरी आधी म्लान हो गयी पुष्पमाला को मैंने ग्रहण किया और वह माला तुरन्त सुगन्ध से भरी ताजी हो गयी। गाहा
दठूणमिणं सुमिणं पडिबुद्धो चिंतए इमं राया।
एयं हि सुमइ-भणियं दिटुं सुमिणं मए अज्ज ।।१५३।। संस्कृत छाया
छट्वेदं स्वप्नं प्रतिबुद्धचिन्तयतीदं राजा ।
एतद् हि सुमतिभणितं छटं स्वप्नं मयाऽद्य ।। १५३।। गुजराती अनुवाद
१५३. आ स्वप्न जोईने जागेलो राजा आ प्रमाणे विचारे छे के, सुमति निमित्तिया ना कहेवा प्रमाणे मे आजे स्वप्न जोयुं छे. हिन्दी अनुवाद
यह स्वप्न देखकर जाग्रत हुआ राजा विचार करता है कि सुमति के कहने के अनुसार ही आज मैंने स्वप्न देखा है। गाहा
ता होही लहु इण्डिं मज्झ वयंतस्स उत्तर-दिसाए ।
विसम-दसा-पत्ताए देवीए संगमोऽवस्सं ।।१५४।। संस्कृत छाया
तस्मात् भविष्यति लघु इदानीं मम व्रजत उत्तरदिशि ।
विषमदशाप्राप्ताया देव्याः सङ्गमोऽवश्यम् ।। १५४ ।। गुजराती अनुवाद
१५४. (स्वप्नोचित कार्या तेथी अत्यारे उत्तरदिशामां जता विषम परिस्थितिमां आवेली देवीनो अवश्य मने शीघ्र समागम थशे. हिन्दी अनुवाद
इसलिए उत्तर दिशा में जाते हुए विषम परिस्थिति में आती हुई देवी का मुझसे शीघ्र ही मिलन होगा।
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गाहा
-
इय चिंतिऊण राया निय- देस पलोयण- च्छलेणं तु । गुरु- सेणा - परियरिओ नीहरिओ हत्थिण- पुराओ ।। १५५ ।।
संस्कृत छाया
इति चिन्तयित्वा राजा निजदेशप्रलोकनच्छलेन तु । गुरुसेनापरिकरितो निःसृतो हस्तिनापुरात् ।। १५५ ।।
गुजराती अनुवाद
१५५. आ प्रमाणे विचारीने पोताना देशने जोवाना बहानाथी मोटी सेनाथी परिवरेलो राजा हस्तिनापुर थी नीकलयो !
हिन्दी अनुवाद
यह विचार कर राजा अपने देश का दौरा करने के बहाने बड़ी सेना लेकर हस्तिनापुर से निकल गया।
गाहा
कइवय-पयाणगाइं गंतुं उत्तंग- गिरि- समाइन्ने ।
अइगुविल- तरु-सणाहे अडवि-पएसम्मि एगम्मि । । १५६ । । आवासिओ ससेन्नो अह कूवे दीह - तण - समोच्छइए । कहवि हु पमाय-वसओ पडिया रन्नो चमर- हारी ।। १५७ ।। युग्मं
संस्कृत छाया
कतिपयप्रयाणकानि गत्वोतुङ्गगिरिसमाकीर्णे । अतिगुपिलतरुसनाथेऽटवीप्रदेशे एकस्मिन् ।। १५६ ।। आवसितः ससैन्य अथकूपे दीर्घतृणसमवच्छन्ने ।
कथमपि खलु प्रमादवशतः पतिता राज्ञः चामरधारिणी । । ।। १५७।।
युग्मम्
गुजराती अनुवाद
१५६-१५७. केटलाक प्रयाणो करीने उंचा पर्वतोथी व्याप्त, खूबज गहन वृक्षोना समुदायवाला एक जंगलना प्रदेशमां सैन्य सहित राजा रहयो, हवे लांबा घास थी आच्छादित कुवामां कोइक प्रमादना वशथी राजानी चामरधारी ते कुवामां पडी. युग्मम् ।
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हिन्दी अनुवाद
कितना प्रयाण कर ऊँचे पर्वतों से व्याप्त, गहन वृक्षों से युक्त एक जंगल प्रदेश में राजा सैनिकों सहित रहा। तभी लम्बी घास से ढके कुएं में असावधानीवश राजा का चामरधारी गिर पड़ा। युग्मम्। गाहा
अह रन्ना आणत्तो पुरिसो रज्जु-प्पओगओ तत्थ । ओइन्नो संतमसे इओ तओ जाव गविसेइ ।।१५८।। ता एगत्थ-निलुक्कं पिच्छइ जुवई तडीइ अगडस्स ।
भय-कंपंत-सरीरं संतमसे तत्थ अच्चंतं ।। १५९।। संस्कृत छाया
अथ राज्ञाऽऽज्ञप्तः पुरुषो रज्जुप्रयोगतस्तत्र । अवतीर्ण सन्तमस इतस्ततो यावत् गवेषयति ।। १५८ ।। तावदेकत्र निलीनां प्रेक्षते युवती तट्यामवटस्य ।
भयकम्पमानशरीरां सन्तमसे तत्राऽत्यन्तम् ।। १५९ ।। गुजराती अनुवाद
१५८-१५९. हवे राजानी आज्ञा पामेला पुरुषो दोरडाना प्रयोगथी ते कुवामां उता. अंधारामां अहीं-तहीं ज्यां शोधे छे त्यां तो कुवाना किनारे अत्यंत अंधारामां एक बाजु छुपायेली तथा भयथी धूजता शरीरवाली युवतीने जुवे छे. (युग्मम्) हिन्दी अनुवाद
राजा की आज्ञा दिए हुए कुछ पुरुष रस्सी के सहारे कुएं में उतरे और अंधेरे में इधर-उधर खोजने लगे। तभी वे कुएं के एक किनारे अंधेरे में छुपी भय से काँपती युवती को देखते हैं। गाहा
कासि तुमं इह सुंदरि! इइ पुट्ठा जा न देइ पडिवयणं । ताव य जल-मज्झ-गया विलासिणी कंठ-गय-पाणा।।१६०।। संपत्ता तेण तओ चित्तूण तयं कमेण नीहरिओ। वज्जरइ राय! एत्थं अन्नावि हु अच्छए जुवई ।।१६१।।
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संस्कृत छाया
काऽसि त्वमिह सुन्दरि ! इति पृष्टा यावन्न ददाति प्रतिवचनम् । तावच्च जलमध्यगता विलासिनी कण्ठगतप्राणा ।। १६० ।। सम्प्राप्ता तेन ततो गृहीत्वा तां क्रमेण निःसृतः ।
कथयति राजन् ! अत्राऽन्याऽपि खल्वास्ते युवती ।। १६१ ।।
युग्मम् ।।
गुजराती अनुवाद
१६० - १६१. हे सुन्दरि ! तुं कोण छे? र प्रमाणे पूछायेली कई जवाब थी आपती त्यां तो ते स्त्री कंठे आवेला प्राण समान पाणीनी अंदर पहोंची गई. त्यारबाद तेने प्राप्त करी अनुक्रमे बहार आव्यो अने कहे छे राजन्! अहीं बीजी पण महिला छे?
हिन्दी अनुवाद
हे सुन्दरी! तुम कौन हो ? ऐसा पूछने पर भी कोई जवाब न देने वाली वह स्त्री जैसे उसके प्राण कंठ में आकर रुक गए हों, पानी में अन्दर पहुँच गयी। फिर उसे लेकर वे बाहर आये और राजा से बोले, हे राजन् ! यहाँ एक दूसरी महिला भी है।
गाहा
आभट्ठावि न भासइ भएण कंपंत-तणु-लया वरई । एयं निसम्म रन्नो फुरियं अह दाहिणं नयणं ।। १६२ ।। संस्कृत छाया
आभाषितापि न भाषते भयेन कम्पमानतनुलता वराकी । एतद् निशम्य राज्ञः स्फुरितमथ दक्षिणं नयनम् ।। १६२ ।। गुजराती अनुवाद
१६२. भयथी कंपायमान तनु लता समान ( पतली लता समान्) ते बिचारी बोलाववा छतां बोलती नथी. आ वात सांभलीने राजानी जमणी आँख फरकवा लागी.
हिन्दी अनुवाद
भय से कांपती, पतली लता के समान वह बेचारी बुलाने से भी नहीं बोल रही थी। यह सुनकर राजा की दाहिनी आँख फड़कने लगी।
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गाहा
अह विम्हिएण रन्नो विचिंतियं किं हविज्ज सा देवी।
अहवा इह अडवीए देवीए संभवो कत्थ? ।।१६३।। संस्कृत छाया
अथ विस्मितेन राज्ञा विचिन्तितं किं भवेत् सा देवी ।
अथवा इहाटव्यां देव्याः सम्भवः कुतः ? ।। १६३ ।। गुजराती अनुवाद
१६३. हवे विस्मयपामेल राजार विचार्यु शुं ते महाराणी हशे, पण आ अरण्यमां देवीनी संभावना क्याथी? हिन्दी अनुवाद
आश्चर्यचकित राजा ने विचार किया, क्या वह महारानी हैं किन्तु इस जंगल में उस देवी की सम्भावना कैसे हो सकती है? गाहा
अहवा कम्म-वसाणं सत्ताणं नवरि एत्थ संसारे ।
भवियव्वया-वसेणं नत्थि तयं जं न संभवइ ।।१६४।। संस्कृत छाया
अथवा कर्मवशानां सत्त्वानां नवरमत्र संसारे ।
भवितव्यतावशेन नास्ति तद् यन्न सम्भवति ।। १६४ ।। गुजराती अनुवाद
१६४. अथवा तो खरेखर आ संसारमा कर्मवश प्राणीओने भवितव्यताना योगथी एवं कंइ ज नथी के जे न थाय. हिन्दी अनुवाद
अथवा तो इस संसार में कर्मवश प्राणिओं के भाग्य से ऐसा कुछ भी नहीं है जो न हो सकता हो। गाहा__ जइ सा हविज्ज देवी ता सुंदरमेव, कावि अह अन्ना ।
तहवि हु उत्तारिज्जउ करुणा-मूलो जओ धम्मो ।।१६५।।
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संस्कृत छाया
यदि सा भवेत् देवी तर्हि सुन्दरमेव, काप्यथान्या ।
तथापि खलु उत्तार्यतां करुणामूलो यतो धर्मः ।। १६५ ।। गुजराती अनुवाद
१६५. जो ते देवी होय तो तो सरस ज अथवा जो बीजी कोई पण महिला होय तो पण खरोखर तेने बहार काढ़वी जोईस कारण के करुणामय ज धर्म छ। हिन्दी अनुवाद
यदि वह वही देवी है तब तो ठीक है किन्तु यदि दूसरी कोई महिला भी हो तो निश्चित ही उसे बाहर निकालना चाहिए क्योंकि करुणा ही धर्म है। गाहा
इय चिंतिऊण रना भणिओ पुरिसो तयंपि कड्डेहि ।
अह सो रज्जूइ पुणो पुरिसो कूवम्मि ओइन्नो ।।१६६।। संस्कृत छाया
इति चिन्तयित्वा राज्ञा भणितः पुरुषः तामपि कर्ष ।
अथ स रज्ज्वा पुनः पुरुषः कूपेऽवतीर्णः ।। १६६ ।। गुजराती अनुवाद
१६६. आ प्रमाणे विचारीने राजास पुरुषने कह्यु- 'ते स्त्रीने पण बहार काढ़ त्यारबाद दोरडा साथे ते पुरुष फरी कुवामां उतयो. हिन्दी अनुवाद
ऐसा विचार कर राजा ने उस पुरुष से कहा, 'उस स्त्री को भी बाहर निकालो। उसके बाद रस्सी के सहारे वह व्यक्ति दुबारा कुएं में उतरा। गाहा
भणिया य सुयण! अहयं रन्नो सिरि-अमरकेउ-नामस्स ।
वयणणं तुहुत्तारण-कज्जेणं पुणरवि पविट्ठो ।।१६७।। संस्कृत छाया
भणिता च सुतनो ! अहं राज्ञः श्रीअमरकेतुनाम्नः । वचनेन तवोत्तारणकार्येण पुनरपि प्रविष्टः ।। १६७ ।।
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गुजराती अनुवाद
१६०. ते पुरुषे ते स्त्रीने कां- 'हे सुतनो! श्री अमरकेतुनामना राजानी आज्ञा थी तने बचाववा बहार काढवा फटी हुं अहीं आव्यो छु. हिन्दी अनुवाद
__ उस पुरुष ने उस स्त्री से कहा, 'हे देवि श्री अमरकेतु नामक राजा की आज्ञा से तुम्हें बचाने के लिए अथवा बाहर निकालने हेतु पुनः यहाँ आया हूँ। गाहा
ता आरुह मंचीए नरगागाराओ अंध-कूवाओ। जेणुत्तारेमि लहुं एयं च निसम्म सा वयणं।।१६।। आरूढा मंचीए कमेण उत्तारिया तओ देवी ।
दुब्बल-देहा रन्ना कहकहवि हु पच्चभिन्नाया ।।१६९।। संस्कृत छाया
तस्मादारोह मञ्चायां नरकागारादन्यकूपात् । येनोत्तारयामि लघु एतच्च निशम्य सा वचनम् ।। १६८ ।। आरूढा मञ्चायां क्रमेणोतारित्ता ततो देवी ।
दुर्बलदेहा राज्ञा कथंकथमपि खलु प्रत्यभिज्ञाता ।।१६९।। युग्मम्।। गुजराती अनुवाद
१६८-१६९. (कूवामाथी राणीनी प्राप्ति)
तेथी मांचा उपर बेसी जा जेथी अंधकूवामाथी तने जल्दी बहार काढुं आ वचन सांधलीने ते स्त्री मांचा उपर चढ़ी गई. क्रमथी तेने बहार काढ़ी. दुर्बल देहवाली ते देवीने राजास महामुश्केलीस ओलखी. (युग्म्म्) हिन्दी अनुवाद
इसलिए मंच के ऊपर बैठ जाओ जिससे अंधेरे से तुम्हें बाहर निकाला जा सके। यह सुनकर वह स्त्री मंच के ऊपर बैठ गई। बाहर निकलने के बाद दुर्बल शरीरवाली उस देवी को कठिनाई से राजा पहचान सके। गाहा
सावि य दट्टुं रायं रोवंती घग्घरेण सहेण । चरण-विलग्गा रन्ना अंसु-जलप्फुन्न-नयणेण ।।१७०।।
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नया निययावासे देविं दट्ठूण परियणो सव्वो ।
अइगुरु- सोगो रोवई विविह पलावेहिं दीण - मुहो । । १७१ । ।
संस्कृत छाया
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सापि च दृष्ट्वा राजानं रुदन्ती घर्घरेण शब्देन ।
चरणविलग्ना राज्ञा अश्रुजल (अप्फुन्न) आपूर्णनयनेन ।। १७० ।। नीता निजकावासे देवीं दृष्ट्वा परिजनः सर्वः । अतिगुरुशोको रोदिति विविधप्रलापै दीनमुखः ।। १७१।। युग्मम् ।। गुजराती अनुवाद
१७० - १७१. तेणी पण राजाने जोइने गद्गद् शब्दों वड़े रडती अश्रुजलथी पूर्ण नेत्री वड़े राजाना चरणमां पडी. ओ राजा पण तेणीने पोताना महेलमा लइ गयो, महाराणीने जोइने अत्यंत शोकयुक्त दीनमुखवाली समस्त परिजन वर्ग विविध प्रलापो वड़े रडवा लाग्यो.
हिन्दी अनुवाद
राजा को देखकर गद्गद् होकर रोती हुई आंसुओं से भरी आंखों वाली वह राजा के चरण में गिर पड़ी। राजा भी उसे अपने महल में ले गए। महारानी को देखकर अत्यन्त शोकाकुल दीन मुखवाले परिजन रोने लगे ।
गाहा
अह कय- सरीर-चिट्ठा पुट्ठा कमलावई नरिंदेण । तइया करिणा नीयाए किं तुमे देवि! अणुभूयं ? ।। १७२ ।। संस्कृत छाया
अथ कृतशरीरचेष्टा पृष्टा कमलावती नरेन्द्रेण ।
तदा करिणा नीतया किं त्वया देवि ! अनुभूतम् ? ।। १७२ ।। गुजराती अनुवाद
१७२. हवे शारीरिक क्रियाओ पूर्ण करी राजाए कमलावती राणीने पूछयुं. हे देवी! हाथी तने उंचकीने लइ गयो त्यारे ते शुं अनुभूति करी? हिन्दी अनुवाद
पश्चात् शारीरिक दैनिक क्रियाएँ पूर्ण कर राजा ने कमलावती रानी से पूछाहे देवी! जब हाथी आपको ले गया तब आपने क्या अनुभव किया ?
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गाहा
कइया व कहव पडिया भीसण-कूवम्मि एत्थ अडवीए? ।
कमलावईइ भणियं सुणसु महा-राय! साहेमि ।।१७३।। संस्कृत छाया
कदा वा कथं वा पतिता भीषणकूपेऽत्राटव्याम् ? ।
कमलावत्या भणितं श्रृणु महाराज ! कथयामि ।। १७३ ।। गुजराती अनुवाद
१८३. क्यारे अने केवी रीते तुं आ जंगलमा भीषण कूदामां पडी त्यारे कमलावती र कडं हे महाराजा! हुं कहुं छु, आप सांथलो. हिन्दी अनुवाद
कब और कैसे तूं इस जंगल के भीषण कुएं में गिरी? तब कमलावती ने कहा, महाराज मैं बता रही हूँ सुनिए।
गाहा
वड-पायवम्मि लग्गे देवे तं विलग्गिउं असत्ता हं।
वेग-पहाविय-करिणा हरिया एगागिणी ताव ।।१७४।। संस्कृत छाया
वटपादपे लग्ने देवे तं विलगितुमशक्ताहम् ।
वेगप्रधावितकरिणा हृता एकाकिनी तावत् ।। १७४ ।। गुजराती अनुवाद
१८४. (कमलावती राणीनो वृत्तांत)- आपे वडना झाडने पकड़ी लीधुं पण हु पकडवा असमर्थ बनी तेटली वारमां तो वेगथी दोडता हाथीए मने स्कलीने धारण कटी. हिन्दी अनुवाद
___ आपने पेड़ की डाल को पकड़ लिया था किन्तु मैं नहीं पकड़ सकी। इतनी देर में शीघ्रता से दौड़ता हुआ हाथी आया और मुझ अकेली को धारण कर लिया। गाहा
अह सो गिरि-सरियाए विसम-तडिं पाविऊण सहसत्ति । अइवेग-भंग-भीउव्य नह-यलं झत्ति उप्पइओ ।।१७५।।
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संस्कृत छाया
अथ स गिरिसरितो विषमतटीं प्राप्य सहसेति ।
अतिवेगभङ्गभीत इव नभस्तलं झटिति उत्पतितः ।। १७५ ।। गुजराती अनुवाद
१८५. अने अचानक ते हाथी पर्वत-नदी विगेरे विषम स्थलोने प्राप्तकरी अति वेगना भंगथी जाणे डी न गयो होय तेम आकाशमा उड्यो. हिन्दी अनुवाद
___तभी अचानक वह हाथी पहाड़, नदी आदि विषम स्थलों से होता हुआ अति वेग के टूटने से जैसे डर गया हो, आकाश में उड़ गया। गाहा
तत्तो भय-भीयाए विचिंतियं हंत! करि-वर-पविट्ठो।
अवहरइ कोवि देवो न जेण करिणो वयंति नहे ।।१७६।। संस्कृत छाया
ततो भयभीतया विचिन्तितं हन्त ! करिवरप्रविष्टः ।
अपहरति कोऽपि देवो न येन करिणो व्रजन्ति नभसि ।।१७६।। गुजराती अनुवाद
१८६. त्यारे अयथी डरेली में विचार्यु के 'हाथीमा प्रवेश करेल कोई पण देवे मारुं अपहरण करेल छे. अन्यथा हाथी आकाशमा उडे नहीं। हिन्दी अनुवाद
तब भय के कारण डरी हुई मैंने विचार किया कि हाथी में प्रवेश किये हुए किसी देव ने मेरा अपहरण किया है, अन्यथा हाथी आकाश में उड़ता नहीं।
गाहा
इय विम्हिय-हियया हं पुणो पुणो जा महिं पलोएमि ।
पिच्छामि ताव गिरि-तरु-पमुहं समगंव वच्चंतं ।।१७७।। संस्कृत छाया
इति विस्मितहृदयाहं पुनः पुनर्यावन्महीं प्रलोकयामि । प्रेक्षे तावद् गिरितरुप्रमुखं समकं वा व्रजन्तम् ।। १७७ ।।
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गुजराती अनुवाद
१७७ आ प्रमाणे विस्मित हृदयवाली हूं वारंवार पृथ्वीने जोती हती त्यारे पर्वत-वृक्षो आदि पण साथे जतां हूं जोती हती.
हिन्दी अनुवाद
इस प्रकार विस्मित हृदयवाली मैं बार-बार पृथ्वी को देखती रही तथा साथसाथ जाते पहाड़ और वृक्षों को भी देखती रही।
गाहा
अविय।
20
गागिणी अरण्णे महिला बीहिज्ज अडवी - मज्झम्मि । इय कलिउंव सहाया तरुणो वेगेण धावंति ।। १७८ ।।
संस्कृत छाया
अपि च ।।
एकाकिनी अरण्ये महिला बिभीयात् अटवीमध्ये |
इति कलयित्वेव सहायास्तरवो वेगेन धावन्ति ।। १७८ ।।
गुजराती अनुवाद
१७८. अने वळी, जंगलमां रहेली एकली महिला जंगलनी वच्चे डरे एम समजीने ज जाणे वृक्षो वेगथी दोडता हता.
हिन्दी अनुवाद
और जंगल में रही अकेली स्त्री जंगल के बीच में होने के कारण डरी हुई है, ऐसा समझकर जैसे वृक्ष तेजी से दौड़ रहे थे।
गाहा-.
किडिय - नयर - समाई चलंत- मणुयाइं गाम- नयराई ।
जल - भरिय - सर - वराइंवि (पि?) महि - निवडिय - छत्त सरिसाई । १७९ दीहर-वण- राईओ सप्प- सरिच्छाओ सच्चविज्जंति ।
पालि- सरिच्छा गिरिणो सारणि- सरिसाओ सरियाओ ।। १८० ।।
संस्कृत छाया
कीटकानगरसमानि चलन्मनुजानि ग्रामनगराणि ।
जलभृतसरोवराण्यपि महीनिपतितछत्रसदृशानि ।। १७९ ।।
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दीर्घवनराजयः सर्पसच्क्षा श्यन्ते ।
पालिसक्षा गिरयः सरणीसशाः सरितः ।। १८० ।। गुजराती अनुवाद
१८१-१८०. चालता मानवो तथा गाम मे नगरो कीडियाटा समान..तथा पाणीथी भरेला सोवो पृथ्वी पर पडेला छा समान...मोटी वनराजीओ सर्प समान...पर्वतो पाली समान... तथा नदीओ नीक समान..देखाती हती...युग्मम. हिन्दी अनुवाद
चलते मानव तथा गाँव और नगर चींटी के समान, पानी से भरे तालाब पृथ्वी पर रखे छाते के समान, बड़े वृक्षों की कतारें सांप के समान, पहाड़ मेड़ के समान तथा नदियाँ नाली के समान दिख रही थीं। गाहा
अह दूरमइगयाए संभरिओ अंगुलीयग-मणी सो।
अवहत्थिय ताहि भयं पहओ सो तेण कुंभ-यडे ।।१८१।। संस्कृत छाया
अथ दूरमतिगतया संस्मृतोऽगुलीयकमणिः सः ।
अपहस्तयित्वा तदा भयं प्रहतः स तेन कुंभस्तटे ।। १८१ ।। गुजराती अनुवाद
___ १८१. दूर गया पछी मने आंगलीमा रहेलो पेलो मणि याद आव्यो, त्यारे में भय छोड़ीने ते हाथीनां कुंथस्थल ऊपर घा कर्यो. हिन्दी अनुवाद
- दूर जाने के बाद अंगुली में पड़ी मणि याद आई। तब मैंने निडर हो हाथी के कुंभस्थल पर वार किया। गाहा
अविय। मणि-संजुय-कर-पहओ वज्जेणिव ताडिओ गइंदो सो। मोत्तुं गुरु-चीहाडिं अहोमुहो झत्ति गयणाओ ।।१८२।। जा निवडइ वेगेण ताव य हिट्ठा-मुहं नियंतीए । दिटुं महंतमेगं सरो-वरं भंगुर-तरंगं ।।१८३।।
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संस्कृत छाया
अपि च ।। मणिसंयुक्तकरप्रहतो वज्रेणेव ताडितो गजेन्द्रः सः । मुक्त्वा गुरुचीहाडी (चीत्कार) अधोमुखो झटिति गगनात् । १८२ यावन्निपतति वेगेन तावच्च अधोमुखं पश्यन्त्या ।
छष्टं महदेकं सरोवरं भङ्गुरतरङ्गम् ।। १८३ ।। युग्मम् ।। गुजराती अनुवाद
१८२-१८३. अने वली मणियुक्त हाथना प्रहारथी जाणे ताडन न करायो होय तेम मोटी गर्जना करीने अधोमुखवाळो जल्दी आकाशथी नीचे वेगपूर्वक उतरे छे. त्यारे नीचे जोती में नाशवंत तरंगोवालुं एक मोटुं सरोवर जोयुं। हिन्दी अनुवाद
मणियुक्त हाथ के प्रहार से जैसे कभी किसी ने प्रताड़ित न किया होय, वैसी बड़ी गर्जना कर नीचे मुखवाला हाथी जल्दी से नीचे उतर रहा है। तभी नीचे देखती हुए मुझे तरंग रहित एक तालाब दिखा। गाहा
परिहत्थ-मच्छ-पुच्छ-च्छडाहि उच्छलिय-सलिल-उप्पीलं ।
महु-मत्त-महुयरी-विसर-रुद्ध-वियसंत-तामरसं ।। १८४।। संस्कृत छाया
(दक्ष) परिहत्थमत्स्यपुच्छच्छटाभिरुच्छलितसलिलोप्पीलम् (सङ्घातम्)।
मधुमत्तमधुकरीविसररुद्धविकसत्तामरसम् ।। १८४ ।। गुजराती अनुवाद
१८४. (सरोवरचं वर्णन)
माछळीओना पूंछडानी छटाथी जलराशि जेन्मां उछली रही हती, मदोन्मत्त मधुकरीना समुदायथी रुंधायेल विकसित कमलो जेमां छे. हिन्दी अनुवाद
वह तालाब ऐसा था जिसमें मछलियों के पूंछ से जलराशि उछल रही थी, जिसमें मदोन्मत्त भंवरों के समुदाय को बन्द कर देने वाले कमल खिले थे।
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गाहा
अविय।
फुरंत मणि- जालयं तरंत टिट्टिभालयं । रहंग - पंति- मंडियं विहंग - सत्थ- वडुयं ।। १८५ ।।
अपि च ।।
संस्कृत छाया
स्फुरद्मणिजालकं तरत्टिट्टिभालयम् ।
रथाङ्गपङिक्तमण्डितं विहङ्गसार्थवडुयं (व्याप्तम्) ।। १८५ ।।
गुजराती अनुवाद
१८५. अने वली स्फुरायमान मणीनी जाल जेवुं, तरता टिट्टिभ (तितली) नुं जाणे घर चक्रवाकनी पंक्तिथी शोभतुं, पक्षीओना समूह थी व्याप्त.
हिन्दी अनुवाद
तेजवाले मणि से शोभित तथा जिसमें तैरते हुए टिट्टिभ (तितली) प्रकाशित मणियों के जाल की तरह शोभित है जो पक्षिओं के समूह से व्याप्त है तथा जिसमें चक्रवाक पक्षी की कतारें शोभित हो रही हैं।
गाहा
भमंत - भूरि- गोहियं सरोरुहालि - सोहियं । अणेग-सावयाउलं झसोह- लुद्ध - साउलं ।। १८६।।
संस्कृत छाया
भ्रमद्भूरिगोधिकं सरोरुहालिशोभितम् ।
अनेकश्वापदाकुलं झषौघलुब्धसङ्कुलम् ।। १८६ ।।
गुजराती अनुवाद
१८६. भमती मोटी गोधाओयुक्त, कमळोनी श्रेणीथी शोभतुं, अनेक दुष्ट प्राणी ओथी व्याप्त, माछलीओना समुदायमां लुब्ध शिकारीओ थी व्याप्त. हिन्दी अनुवाद
जिसमें विशेष प्रकार के बड़े जीव टहल रहे थे, जो कमल की पंक्तियों से शोभित है, जिसमें अनेक दुष्ट जीव हैं तथा जो मछली मारने वाले शिकारियों से व्याप्त है।
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गाहा
चलंत-भीम-गाहयं रडत-दद्रोहयं ।
मराल-पंति-सोहियं तमाले-ताल-रेहियं ।। १८७।। संस्कृत छाया
चलभीमग्राहकं रटन्द१रौघकम् ।
मरालपतिशोभितं तमालतालराजितम् ।। १८७ ।। गुजराती अनुवाद
· १८०. चालता भयंकर ग्राह जंतुओ ज्यां छे. अवाज करता देडकाओना समूह ज्यांछे, राजहंसनी पंक्तिओथी मनोहर, तमाल अने लालना झाडथी सुंदर. हिन्दी अनुवाद
जिसमें मगर आदि अनेक भयंकर जीव चलते हैं, जिसमें मेढकों का समूह टर-टर की आवाज करता है तथा जो तमाल के पेड़ों तथा राजहंस की पंक्तियों से शोभित है। गाहा
रणंत-छप्पयालियं बलाय-पंति-मालियं ।
फुरंत-सिप्पि-संपुडं भमंत-भीम-दीवडं ।।१८८।। संस्कृत छाया
रणत्वट्पदालिकं बलाकापतिमालिकम् ।
स्फुरत्शुक्तिसम्पुटं प्रमभीमदीवडम ।। १८८ ।। गुजराती अनुवाद
. १८८. रणकार करता अपराओनी श्रेणिवालुं, छगलाओनी हारमाला थी शोधतुं, सुंदर छीपलाओना संपुटवावं, अमता भयंकर दीपडाथी आकुल. हिन्दी अनुवाद
- जिसमें भंवरों की श्रेणियां गुंजार कर रही हैं, जो बकुलों की पंक्तिमाला से शोभित है, जिसमें सुन्दर सीपों के सम्पुट हैं तथा जो भयंकर विशेष प्रकार के जीवों से आकुल है। गाहा
अह तम्मि नीर-पुन्ने अणोरपारम्मि सर-वरे हत्थी। गयणाओ नीसहंगो पडिओ बुड्डो य जल-मज्झे ।।१८९।।
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संस्कृत छाया
अथ तस्मिन् नीरपूर्णेऽणोरपारे सरोवरे हस्ती । गगनाद् निःसहाङ्गः पतितो मग्नश्च जलमध्ये ।। १८९ ।।
गुजराती अनुवाद
१८९. हवे ते आंवा पाणीथी भरेला अगाध सरोवरमां गगनथी असक्त अंगवालो हाथी पडयो अने पाणीमां डूबी गयो. (पञ्चभिः कुलकम् ) हिन्दी अनुवाद
तभी पानी से भरे अगाध तलाब में आकाश से अशक्त अंगों वाला हाथी गिरा और पानी में डूब गया। (पंचभि कुलकम् )
गाहा- -
अह नीसहे गइंदे बुड्ढे गंभीर - नीर- मज्झम्मि ।
मणिणो माहप्पेणं जल उवरिं चेव थक्का हं ।। १९० ।।
-
संस्कृत छाया
अथ निःसहे गजेन्द्रे मग्ने गम्भीरनीरमध्ये |
मणे- महात्म्येन जलोपरिमेव स्थिताऽहम् ।। १९० ।।
गुजराती अनुवाद
१९०. हवे अशक्त अंगवालो हाथी उंडापाणीमां डूबी गये छते मणिना प्रभावथी हूं जल ऊपर ज रही.
हिन्दी अनुवाद
अशक्त अंगों वाला हाथी गहरे पानी में डूब गया किन्तु मणि के प्रभाव से मैं ऊपर ही तैरती रही।
गाहा
आसाइय-फलगावि य उत्तरिउं सर- वरस्स तीरम्मि । उवविट्ठा भय- भीया गुरु- सोगा इय विचिंतंता । । १९१ । ।
संस्कृत छाया
आसदितफलकाऽपि चोत्तीर्य सरोवरस्य तीरे ।
उपविष्टा भयभीता गुरुशोकेति विचिन्तयन्ती ।। १९१ ।।
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गुजराती अनुवाद
१९१. प्राप्त करेला पाटीयावाली हुं सोवरनां किनारे उतरी. अने अयथी डरेली तथा थारे शोकवाली आ प्रमाणे विचार करती बेठी! हिन्दी अनुवाद
प्राप्त तख्ते के सहारे मैं तालाब के किनारे उतरी। भय से डरी तथा शोकयुक्त मैं इस प्रकार विचार करती हुई बैठी। गाहा
तारिस-रिद्धि-जुयावि हु खणेण एयागिणी कहं जाया ।
देसियं-जुवईव अहो! अइ-गुविलो कम्म-परिणामो ।। १९२।। संस्कृत छाया
ताशर्खियुताऽपि खलु क्षणेनैकाकिनी कथं जाता ।
देशिकयुवतिरिव अहो ! अतिगुपिलः कर्मपरिणामः ।।१९२।। गुजराती अनुवाद
१९२. (सरोवर पा राणीनो विलाप)
तेवा प्रकारनी ऋद्धिवाली क्षणवारमा देशमा प्रवास माटे गयेली स्त्रीनी जेम एकली केवी रीते थई गई? खरेखर! कर्म परिणाम अति गहन छे. हिन्दी अनुवाद
सरोवर के पास रानी का विलाप
इतनी ऋद्धि से सम्पन्न देश में रहने के लिए गयी स्त्री की तरह अकेली किस प्रकार हो गई, यह निश्चित रूप से कर्म फल अति गहन है।
गाहा
सो कत्थ भिच्च-वग्गो सा य सिरी सो विणीय-परिवारो।
होहामि कहं इण्हिं विहिया एगागिणी विहिणा? ।।१९३।। संस्कृत छाया
स कुत्र भृत्यवर्गः सा च श्री स विनीतपरिवारः ।
भविष्यामि कथमिदानी विहिता एकाकिनी विधिना ? ।।१९३।। गुजराती अनुवाद
१९३. ते नोकरवर्ग क्या? ते लक्ष्मी क्या? ते विनीत परिवार क्या? भाग्यवड़े मने एकली कराई हवे शुं थशे?
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हिन्दी अनुवाद
वे नौकर-चाकर कहाँ हैं? लक्ष्मी कहां हैं, वह विनीत परिवार कहां है, भाग्य के कारण मैं अकेली हो गयी, आगे क्या होगा?
गाहा
एमाइ चिंतयंती उवरिम-वत्येण छाइडं वयणं ।
सरण-विहूणा सोएणं तत्थ अहं रोविउं लग्गा ।।१९४।। संस्कृत छाया
एवमादि चिन्तयन्ती उपरितनवस्त्रेण च्छादयित्वा वदनम् ।
शरणविहीना शोकेन तत्राऽहं रोदितुं लग्ना ।। १९४ ।। गुजराती अनुवाद
१९४. इत्यादि विचार करती उपरना वस्त्रबड़े मुखने ढांकीने शरण रहित हुं शोकवड़े त्यां रुदन करवा लागी. हिन्दी अनुवाद
इत्यादि विचार करती हुई मैं शरण रहित ऊपरी वस्त्र से मुंह ढंककर रोने लगी। गाहा
एत्थंतरम्मि केणवि भणिया किं सुयणु! रोयसे करुणं? ।
तत्तो ससंभमाए पलोइयं मे तओहुत्तं ।।१९५।। संस्कृत छाया
अत्रान्तरे केनाऽपि भणिता किं सुतनो ! रोदिषि करुणम् ? ।
ततः ससम्भ्रमया प्रलोकितं मया तदभिमुखम् ।। १९५ ।। गुजराती अनुवाद
१९५. स्टलीवारमा कोइ वड़े कहेवायु- हे सुतनो! केम करुणाजनक रडे छे? त्यारे संभ्रमपूर्वक में तेनी सामे जोयु... हिन्दी अनुवाद
तभी किसी ने कहा हे पुत्री क्यों इतनी करुणापूर्वक विलाप कर रही हो। तभी संभ्रम पूर्वक मैंने सामने देखा
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गाहा
कइवय-पुरिस-सहाओ तरुण-नरो वेसरीइ आरूढो ।
कय-मुह-संधी पुरओ दिट्ठो उद्भलियंगिल्लो।।१९६।। संस्कृत छाया
कतिपयपुरुषसहायस्तरुणनरो वेसर्यामारूडः ।
कृतमुखसन्धिः पुरतो छष्ट उधूलिताङ्गवान् ।। १९६ ।। गुजराती अनुवाद
११६. (सार्थनो मेलाप)
केटलाक पुरुषोनी साथे खच्चर उपर बेठेलो, धूलथी खरडायेल शरीरवालो युवान पुरुष आगळ जोयो। हिन्दी अनुवाद
अनेक पुरुषों के साथ खच्चर पर बैठा हुआ, धूलधूसरित शरीर वाला एक युवक दिखाई दिया। गाहा
अह सो दह्रण ममं विम्हिय-हियउव्व वेसराहिंतो।
उत्तरिय मज्झ चलणेसु निवडिओ भणइ एवं तु ।।१९७।। संस्कृत छाया
अथ स ष्ट्वा मां विस्मित हृदय इव वेसर्याः ।।
उत्तीर्य मम चरणयो-र्निपतितो भणति एवन्तु ।। १९७ ।। गुजराती अनुवाद
१९८. हवे ते पुरुष मने जोइने जाणे विस्मय पामेलो खच्चर परथी उतरीने मारा चरणोमां पडयो. अने आ प्रमाणे बोल्यो. हिन्दी अनुवाद___तब वह पुरुष मुझे देखकर आश्चर्य चकित हो खच्चर पर से उतर कर मेरे चरणों में गिरकर इस प्रकार बोलागाहा
परिजाणसि भगिणि! ममं सिरिदत्तो हं कुसग्गनयराओ। आसि गओ पर-विसए वणिज्ज-बुद्धीए सत्य-जुओ ।।१९८।।
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संस्कृत छाया
परिजानासि भगिनि ! मां श्रीदत्तोऽहं कुशाग्रनगरात् । आसं गतः परविषये वणिज्यबुद्धया सार्थयुतः ।। १९८ ।।
गुजराती अनुवाद
१९८. हे भगिनी ! मने ओलखे छे? कुशाग्रनगर थी आवेलो श्रीदत्त छु- व्यापार माटे सार्थनी साये अन्यदेशमां गयो हतो.
हिन्दी अनुवाद
हे भगिनी ! मुझे पहचानती हो ? मैं कुशाग्र नगर से आया हुआ श्रीदत्त हूँ। सार्थ के साथ व्यापार के लिए मैं अन्य देश में गया था।
गाहा
बारसम-वच्छराओ पुणरवि चलिओ पुरम्मि निययम्मि । सत्येण समं इण्हिं संपत्तो इह पएसम्मि । । १९९ ।।
संस्कृत छाया
द्वादशवत्सरात् पुनरपि चलितः पुरे निजे ।
सार्थेण सममिदानीं सम्प्राप्त इह प्रदेशे ।। ९९९ ।।
गुजराती अनुवाद
१९९. चार वर्ष बाद हवे पाछो पोताना नगर तरफ चालेलो सार्थनी साथै हालमां आ प्रदेशमां आव्यो ।
हिन्दी अनुवाद
सार्थ के साथ बारह वर्षों पश्चात् अपने नगर की तरफ वापस आने पर हाल ही में इस प्रदेश में आया हूँ।
गाहा
ता भगिण! केण विहिणा जाया एगागिणी तुमं एत्थ ? । इय भणिया तेण अहं विगय- भया झत्ति संजाया ।। २०० ।। संस्कृत छाया
तस्माद् भगिनि ! केन विधिना जातैकाकिनी त्वमत्र ? |
इति भणिता तेनाऽहं विगतभया झटिति सञ्जाता ।। २०० ।।
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गुजराती अनुवाद
२००. तेथी हे बहेन! क्या कारणथी तुं अहीं सकली थइ छे? आ प्रमाणे तेणे कर्वा तेथी हुँ तरत भयरहित थई। हिन्दी अनुवाद
हे भगिनी! किस कारण से तुम यहाँ अकेली हो गयी हो? उसके ऐसा कहने पर मैं तुरन्त भयरहित हो गयी।
गाहा
तत्तो य मए सिट्ठो गयावहाराइ-नियय-वुत्तंतो।
अह दिन्न-वयण-सोया भणिया वणिएण तेणाहं ।। २०१।। संस्कृत छाया
ततश्च मया शिष्टो गजाऽपहतादिनिजवृत्तान्तः ।
अथ दत्तवदनशौचा भणिता वणिजेन तेनाऽहम् ।। २०१ ।। गुजराती अनुवाद
२०१. त्यारबाद में हाथी द्वारा अपहरणनो माटो वृत्तांत कह्यो-पछी ते वाणियास मुख शुद्धि करावी ओ पछी मने कह्यु. हिन्दी अनुवाद
उसके बाद हाथी के द्वारा किए अपहरण के वृत्तान्त को मैंने उसे सुनाया। उसके बाद उस बनियें ने मुख शुद्धि कराने के बाद मुझसे कहा। गाहा
दूरम्मि हत्थिणपुरं सावय-चोरेहिं दुग्गमो मग्गो ।
आसन्नं खु कुसग्गं किं कायव्वं तुमे भगिणि!? ।। २०२।। संस्कृत छाया
दूरे हस्तिनापुरं श्वापदचौरै-टुंगमो मार्गः ।
आसन्नं खलु कुशाग्रं किं कर्तव्यं त्वया भगिनि !? ।। २०२ ।। गुजराती अनुवाद
२०२. हस्तिानापुर नगर दूर छे. दुष्ट प्राणीओ तथा चोरो थी व्याप्त दुर्गम मार्ग छे. कुशायनगर नजीकमां छे, तो हे भगिनी! तारे | करवू छे?
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हिन्दी अनुवाद__हस्तिनापुर नगर दूर है। वहां जाने का रास्ता खतरनाक प्राणियों और चोरों के कारण दुर्गम है। कुशाग्रनगर नजदीक है। तो हे बहन! अब तुम्हें क्या करना है? गाहा
तत्तो य मए भणियं कुसग्गनयरम्मि वच्चिमो ताव ।
पेच्छामि बंधु-वग्गं पभूय-कालाओ सिरिदत्त!।। २०३।। संस्कृत छाया
ततश्च मया भणितं कुशाग्रनगरे व्रजावस्तावत् ।
प्रेक्षे बन्युवर्ग प्रभूतकालात् श्रीदत ! ।। २०३ ।। गुजराती अनुवाद
२०३. त्यारे में कहयुं हे श्रीदत्त! हमणा कुशायनगरमा जइस घणा वखते बंधुवर्गने जोइशा... हिन्दी अनुवाद
तब मैंने कहा हे श्रीदत्त! अभी कुशाग्रनगर में चलेंगे और वहाँ काफी लम्बे समय से मिले भाइयों से मिलेंगे। गाहा
अह तेण सहरिसेणं नीया सत्यम्मि नियय-आवासे ।
विणओवयार-पुव्वं च कारिया सयल-देह-ठिई ।।२०४।। संस्कृत छाया
अथ तेन सहर्षेण नीता सार्थे निजकावासे ।
विनयोपचारपूर्वं च कारिता सकलदेहस्थितिः ।। २०४ ।। गुजराती अनुवाद
___२०४. हवे श्रीदत्त हर्षपूर्वक मने सार्थमां पोताना आवासमां लई गयो, अने विनय-उपचार पूर्वक समस्त शरीरनी सारवार करावी। हिन्दी अनुवाद
तब श्रीदत्त खुशी-खुशी मुझे अपने आवास में ले गया और विनय तथा उपचार पूर्वक शरीर की सेवा सुश्रुषा की।
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गाहा
तं देव-दिन-कुंडल-पमुहं सव्वंपि नियय-आभरणं ।
मोत्तूंण अंगुलीयं समप्पियं तस्स वणियस्स ।। २०५।। संस्कृत छाया
तद् देवदत्तकुण्डलप्रमुखं सर्वमपि निजकाऽऽभरणम् ।
मुक्त्वाऽगुलीयं समर्पितं तस्य वणिजस्य ।। १०५।। गुजराती अनुवाद
.. २०५. एक मात्र अंगुठी छोडीने देवे आपेल कुंडल विगेरे बधां आधरण ते वाणियाने आफ्या. हिन्दी अनुवाद___ एक मात्र अंगूठी को छोड़कर देव द्वारा दिए गए कुंडल आदि सभी आभूषण उस बनियें को मैंने दिया। गाहा
तत्तो सत्येण समं चलिया सिरिदत्त-परियण-समेया।
किज्जंत-विविह-विणया वणिएणं, डोलियारूढा ।। २०६।। संस्कृत छाया
ततः सार्थेण समं चलिता श्रीदत्तपरिजनसमेता ।
क्रियमाणविविधविनया वणिजेन, (शिबिका)डोलिकारूढा ।।२०६।। गुजराती अनुवाद
२०६. त्यारबाद सार्थनी साथे श्रीदत्तना परिजन साथे हुंचाली, वाणिया वड़े करायेला विविध प्रकारना विनयवाली हुं शिविकामां बेठी! हिन्दी अनुवाद
उसके बाद कारवां (सार्थ) और श्रीदत्त के परिजनों के साथ मैं चली। बनियें द्वारा किये गए विभिन्न प्रकार की विनय वाली मैं डोली में बैठी। गाहा
सोवि हु सत्थो जाव य लहुय-पयाणेहिं वयइ अणुदियहं । कइवय-पयाणगाई ता एग-दिणम्मि अडवीए ।। २०७।।
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संस्कृत छाया
सोऽपि खलु सार्थो यावच्च लघुकप्रयाणै र्व्रजत्यनुदिवसम् । कतिपयप्रयाणकानि तावदेकदिनेऽटव्याम् ।। २०७ ।।
गुजराती अनुवाद
२०७. ते सार्थ पण जल्दी प्रयाण करवा पूर्वक दररोज आगल चाले छे. आम केटलाक प्रयाणी द्वारा एक दिवस जंगलमां आंव्यो ।
हिन्दी अनुवाद
वह कारवाँ भी शीघ्रता से प्रतिदिन आगे आगे चलता रहा। इस प्रकार कई दिन चलने के बाद एक दिन जंगल में आया।
गाहा
अवसउणेणं थक्को दियहे दियहे न जायए सउणं । जाव य दिवड - मासे वोलीणे सव्व-सत्थिल्ला ।। २०८ ।। संबल-रहिया तहइं ठाउमसत्ता तओ समुच्चलिया । अवगन्निय अवसउणं निय-पुर-गमणस्स तुरमाणा ।। २०९ ।। संस्कृत छाया
अपशकुनेन स्थितो दिवसे दिवसे न जायते शकुनम् । यावच्च द्वयार्धमासेऽतिक्रान्ते सर्वसार्थिकाः ।। २०८ ।। शम्बलरहितास्तत्र स्थातुमशक्तास्ततः समुच्चलिताः । अवगणय्य अपशकुनं निजपुरगमनस्य त्वरमाणाः ।। २०९ ।। युग्मम् गुजराती अनुवाद
२०८. अपशुकन थवाथी सार्थ रोकाई गयो. दिवसोना दिवसो गया पण शुकन न था. सार्थना बधा लोकोए दोढमास जेटलो समय त्यां पसार कर्यो पण भाथु खलास थई जवा थी त्यां रहेवा असमर्थ एवा तेओ अपशुकननी अवगणना करीने पोतानां नगरमां जवानी उतावला करतां त्यांथी
चाल्या.
हिन्दी अनुवाद
अपशकुन होने से कारवां को रोक लिए गया। कई दिन बीत गए पर शकुन नहीं हुआ। कारवां के सभी लोग पन्द्रह दिन तक वहाँ रहे किन्तु रास्ते का भोजन
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समाप्त हो जाने के कारण वहाँ रहने में असमर्थ लोग अपशकुन की अवगणना कर अपने नगर में जाने के लिए उत्सुक हो चल पड़े।
गाहा
तत्तो बीय-पयाणे पभाय- समयम्मि तम्मि सत्यम्मि ।
सहसा अन्नाउच्चिय दिन्नो भिल्लेहिं ओक्खंदो ।। २१० ।।
संस्कृत छाया
ततो द्वितीयप्रयाणे प्रभातसमये तस्मिन् सार्थे ।
सहसा अज्ञात एव दत्तो भिल्लैरवस्कन्दः ।। २१० ।।
गुजराती अनुवाद
२१०. (सार्थमां धाड)
त्यारबाद बीजा प्रयाणमां प्रभात समये ते सार्थ ऊपर अचानक अजाणता ज भीलोए धाड पाडी.
हिन्दी अनुवाद
उसके बाद दूसरे प्रयाण में सुबह के समय अन्जाने भीलों ने कारवां पर अचानक हमला कर दिया।
गाहा
अह कलयलं निसामिय सत्थ-जणे तत्थ आउलीभूए । भिल्लेहिं हम्ममाणे ल्हसिज्जंते य सयराहं । । २११।। सज्झस - भरिया अहमवि पडिया अडवीइ जाव इक्कल्ला । घेत्तूणं एग- दिसं नट्ठा अइगुविल- तरु-: - गहणे ।। २१२ ।।
संस्कृत छाया
अथ कलकलं निशम्य सार्थजने तत्राऽऽकुलीभूते ।
भिल्लै - र्हन्यमाने स्त्रस्यमाने च (सयराहं ) शीघ्रम् ।। २११ ।। साध्वसभृताऽहमपि पतिताटव्यां यावदेकाकी ।
गृहीत्वा एकदिशं नष्टाऽतिगुपिलतरुगहने ।। २१२ ।।
गुजराती अनुवाद
२११-२१२. 'हवे कोलाहल सांभलीने सार्थना प्रवासीओ आकुल व्याकुल थया. भीलो बड़े हणाये छते जल्दी सरकवा लाग्या. भय युक्त हूं
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पण एकली जंगलमां आवी पड़ी. त्यारे एक दिशा तरफ अतिगहन वृक्षोनी झाडी तरफ नाशी... हिन्दी अनुवाद
कोलाहल सुनकर कारवां के सभी लोग परेशान हो गए। भील द्वारा पराभूत हो जल्दी-जल्दी जाने लगे। डर के कारण मैं अकेले झाड़ी युक्त जंगल में आ गयी।
गाहा
खणमेगं तत्थच्छिय वयामि किल तम्मि सत्थ-ठाणम्मि । पुणरवि मिलामि जेणं सत्थस्स अहंति चिंतंती ।। २१३।. जाव पयट्टा गंतुं ताव न जाणामि कत्थ गंतव्वं ।
कत्तो समागया हं काए व दिसाए सो सत्थो ।। २१४।। संस्कृत छाया
क्षणमेकं तत्रस्थिता व्रजामि किल तस्म॑िस्सार्थस्थाने । पुनरपि मिलामि येन सार्थस्यऽहमिति चिन्तयन्ती ।। २१३ ।।. यावत् प्रवृत्ता गन्तुं तावन्न जानामि कुत्र गन्तव्यम् ।
कुतस्समागताऽहं कस्यां वा दिशायां स सार्थः ।। २१४ ।। युग्मम् गुजराती अनुवाद
२१३-२१४. क्षणमात्र त्यां रही पुनः ते सार्थना स्थाने जवू अने फरी ते सार्थने हुँ मलूं सम विचारती जवा माटे तैयार तो थई पण क्या जवू ते जाणी न शकी. क्याथी हुं आवी छु अने कइ दिशामां ते सार्थ छे ते पण न जणायु. हिन्दी अनुवाद
मैं वहाँ कुछ देर रही फिर कारवां में मुझे वापस जाना चाहिए, यह सोचकर जाने के लिए तैयार हो गयी। किन्तु कहाँ जाऊं? मैं कहां से आई हूँ? और मेरा कारवां किस दिशा में है? यह मैं न जान सकी। गाहा
भय-कंपंत-सरीरा ताहे एयं दिसं गहेऊण । संजाय-दिसा-मोहा चलिया तरु-गहण-मज्झेण ।। २१५।।
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संस्कृत छाया
भयकम्पमानशरीरा तदा एकां दिशं गृहीत्वा ।
सजातदिग्मोहा चलिता तरुगहनमध्येन ।। २१५ ।। गुजराती अनुवाद
२१५. (सार्थथी विखूटी पडेली राणी)
भयंकर कंपता शरीरवाली त्यारे ते दिशाने लक्ष्यकरीने दिशाथी मोहित थयेली वृक्षोना गहन भागनी मध्यमांथी पसार थई। हिन्दी अनुवाद
— जोर से कांपती मैं तब उस दिशा को लक्ष्य कर जैसे उस दिशा से मोहित हो गयी हूँ, घने वृक्षों के बीच में आ गई। गाहा
दूरं गंतूण पुणो वलिया वच्चामि पिट्ठओहुत्तं ।
सिरिदत्त-जण-गवेसण-परायणा तत्थ वण-गहणे ।। २१६।। संस्कृत छाया
दूरं गत्वा पुनर्वलिता व्रजामि पृष्ठतोमुखम् ।
श्रीदत्तजनगवेषणपरायणा तत्र वनगहने ।। २१६ ।। गुजराती अनुवाद
२१६. श्रीदत्तना माणसोने शोधवान्मां लागेली दूर जइने फटी पाछी वली. अने ते भयंकर अटवीमां फटी आगल चाली. हिन्दी अनुवाद
श्रीदत्त के लोगों को ढूढ़ती हुई दूर जाकर पुन: पीछे आई और उस भयंकर जंगल में फिर से आगे बढ़ी।
गाहा
अह भय-तरलच्छीए इओ तओ तत्थ परिभमंतीए । उम्मग्ग-गमण-भज्जंत-कंटयाइन्न-चरणाए ।। २१७।। पह-सम-सुढियाइ दढं पए पए नीसहं कणंतीए । वसिमन्नेसण-हेडं चडिऊण थलम्मि एगम्मि ।। २१८।। जा पुलइयं समंता ताव न दीसइ कहंपि वसिमंति । वियरंत-वाल-निवहा समंतओ भीसणा अडवी ।। २१९।।
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संस्कृत छाया
अथ भयतरलाक्ष्या इतस्ततस्तत्र परिभ्रमन्त्यां । उन्मार्गगमनभञ्जत्कण्टकाऽऽकीर्णचरणया ।। २१७ ।। पथश्रमश्रान्तया द्धं पदे पदे निःसहं क्वणन्त्या । वसत्यन्वेषणहेतुं चटित्वा स्थलैकस्मिन् ।। २१८ ।। यावद् छष्टं समन्तात्तावन्न श्यते कथमपि वसतिरिति । विचरद्व्यालनिवहाः समन्ततो भीषणाऽटवी ।। २१९ ।।
तिसृभिः कुलकम् गुजराती अनुवाद
२१८-२११. हवे अयथी फरती आंखवाली जंगलमा अहीं तहीं फरती, उन्मार्गमां जवाथी भांगेला कांटा थी भोंकायेला पगवाली...मार्गना श्रमथी थाकेली होवाथी पगले-पगले अत्यंत कणसती, वसतिने शोधवा माटे एक स्थळमां चडीने... ज्यां चारेबाजु जोयुं त्यं कोई वसति देखाई नहीं, पण फरतां व्याल-वाघना समूह वाली चारे बाजु भयंकर अटवी देखाई... (तिसृधिः विशेषकम्) हिन्दी अनुवाद
भय के कारण मेरी आँखें फड़क रही थीं, गलत रास्ते पर भटक जाने के कारण पैरों में काँटे चुभ गए थे, चलते चलते थक जाने और पैर के कांटे के कारण कराहती, आस-पास कोई बस्ती है या नहीं, यह देखने के लिए एक ऊँचे स्थान पर चढ़कर चारों तरफ देखी किन्तु कोई बस्ती नहीं दिखाई दी किन्तु शेर बाघ वाला भयंकर जंगल अवश्य दिखाई दिया। गाहा
अविय। कत्थ य कराल-केसरि-गुंजिय-सवणुत्तसंत-सारंगा ।
कत्थइ महंत-जुझंत-मत्त-वण-महिसयाइन्ना ।।२२०।। संस्कृत छाया
अपि च । कुत्र च करालकेशरिगर्जनाश्रवणोत्रसत्सारङ्गाः । कुत्रापि महद्युध्यमानमत्तवनमहिषाकीर्णाः ।। २२० ।।
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गुजराती अनुवाद
२२०. अने वळी, क्यांक भयंकर सिंहनी बाडना श्रवणथी बास पामेला हरणो हता, क्यांक मोटु युद्ध करतां मत्त जंगलनी भेंसो हती... हिन्दी अनुवाद
वहाँ कहीं तो सिंह की भयंकर गर्जना से डरे हुए हिरन थे तो कहीं लड़ते हुए जंगली भैंसे थे। गाहा
कत्थइ गरुय-पवंगम-विमुक्क-बोक्कार-बहिरिय-दियंता ।
कत्थ य वण-दव-डझंत-जंतु-कय-भीसणारावा ।। २२१।। संस्कृत छाया
कुत्रापि गुरुकप्लवङ्गमविमुक्तबुत्कारबधिरितदिगन्ताः । __ कुत्र च वनदवदह्यमानजन्तुकृतभीषणारावाः ।। २२१ ।। गुजराती अनुवाद
२२१. क्यांक मोटा वानटोना मुकाता बुत्कार थी बहेरा कराया छे दिशाना अंतम्याग, अने क्यांक. वनना दावानलथी बळता जीवो वड़े भीषण
अवाज थई रह्यो हतो....... हिन्दी अनुवाद
कहीं तो बन्दरों के चित्कार से बहरी हो गयी दिशाएं थीं तो कहीं बन में लगी दावानल (जंगली आग) में उबल रहे जीवों की भयंकर आवाज हो रही थी। गाहा
कत्थइ पयंड-गंडय-खंडिय-रुरु-विसर-रुहिर-बीभच्छा।
कत्थइ सरह-पलोयण-पलायमाणोरु-करि-विसरा ।।२२२।। संस्कृत छाया
कुत्राऽपि प्रचण्ऽगण्डकखण्डितरुरुविसररुधिरबीभत्साः ।
कुत्रापि सरभप्रलोकनपलायमानोरुकरिविसराः ।। २२२ ।। गुजराती अनुवाद
२२२.क्यांक प्रचंड गेंडाथी पीडित थयेलहरणो हता, खेचरोना रुधिरथी खीभत्स क्यांक सिंहना जोवाथी पलायमान थता हाथीओनो समुदाय हतो.
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हिन्दी अनुवाद
कहीं गैंडों से पीड़ित हिरन थे तो कहीं खेचरों के खून से बीभत्स बने... कहीं सिंह को देखकर भागता हाथियों का समूह था। गाहा
अविय। वियरंत-महा-धणु-हत्थ-लोद्धया सुक्क-मय-सिर-सणाहा ।
जेट्ठक्क-मूल-कलिया गुरु-चित्ता-रोहिणी-समेया ।। २२३।। संस्कृत छाया
अपि च । विचरन्महाधनुर्हस्तलुब्धकाः शुष्कमृगशिरसनाथाः ।
ज्येष्ठार्कमूलकलिता गुरुचित्रारोहिणीसमेताः ।। २२३।। गुजराती अनुवाद
२२३. अने वळी, मोटा धनुष्य हाथमां लइने फरता शिकारिओ, हरणोना शुष्क मस्तकोथी युक्त शिकारीओ... मोटा आकडाना वृक्षना मूलथी युक्त- गुरु चित्र तथा रोहिणी औषधथी युक्त....
(पक्षे)- मघा नक्षत्र, धनुः राशि, हस्त नक्षत्र, आर्द्रा नक्षत्र जेमां छे... शुक्र-मृगशिर नक्षत्र सहित... ज्येष्ठ नक्षत्र, सूर्य, मूल नक्षत्रथी युक्त... बृहस्पति तथा चित्रा सोहिणी नक्षत्रथी युक्त... हिन्दी अनुवाद
जिसमें बड़े-बड़े धनुष हाथ में लिए शिकारियों का समूह घूम रहा था, सूखे हुए हिरनों के मस्तक से युक्त शिकारी... बड़े... आकड़े के वृक्ष की जड़ से युक्त तथा गुरु, चित्र तथा रोहिणी औषधि युक्त, मघा नक्षत्र धनुराशि, हस्त नक्षत्र, आर्द्रा नक्षत्र जिसमें है, जो शुक्र मार्गशीर्ष नक्षत्रों से युक्त ज्येष्ठ नक्षत्र सूर्य, मूल तथा वृहस्पति चित्रा रोहिणी नक्षत्र से युक्त है।
गाहा
भद्द-वय-समण-सहिया उटुंत-विसाह-पयड-मंदारा । वियरंत-भूरि-रिक्खा रेहइ अडवी नह-सिरिव्व ।। २२४।।
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संस्कृत छाया
भद्रव्रतश्रमणसहिता, उत्तिष्ठद्विशाखप्रकटमन्दाराः ।
विचरद्भरिनक्षत्रा राजतेऽटवी नभःश्रीरिव ।। २२४ ।। गुजराती अनुवाद
२२४. सारा व्रत नियमोनुं पालन करनारा साधुओ जेमां छे. शाखा विनाना प्रगट मंदार वृक्षो जेमा छे तथा अल्लूक (टींछ) प्राणीओ जेमां फटी रह्या छ।
(पक्षे)- भद्रपद तथा श्रावणनक्षत्रथी युक्त.. विशाखा-शनि-मंगल-विगेरे नक्षत्रोथी युक्त आकाशनी शोधानी जेम आ अटवी शोधी रही छे. हिन्दी अनुवाद____जिसमें व्रत आदि नियमों का पालन करने वाले साधु हैं, जिसमें शाखा रहित मन्दार वृक्ष है, जिसमें भालू आदि प्राणि विचरण कर रहे हैं। (पक्षे) जहाँ भाद्रपद तथा श्रवण नक्षत्र से युक्त विशाखा, शनि, मंगल आदि नक्षत्रों से युक्त आकाश सुशोभित हो रहा है। गाहा
अह तं अडविं सुइरं पलोययंतीइ गाढ-तिसियाए ।
एक्कम्मि दिसा-भाए दिह्र जल-भरिय-सरमेगं ।। २२५।। संस्कृत छाया
अथ तामटवीं सुचिरं प्रलोकयन्त्या गाढतृषितया ।
एकस्मिन् दिग्भागे छटं जलभृतसर एकम् ।। २२५ ।। गुजराती अनुवाद
२२५. हवे आ अटवीने लांबा काल पर्यंत जोती अत्यन्त तृषातुर थयेली में एक दिशा भागमां. पाणीथी भरेलुं एक सटोवर जोयु. हिन्दी अनुवाद
ऐसे जंगल को लम्बे समय से देखती, प्यास से व्याकुल मैंने पानी से भरा हुआ एक सरोवर देखा।
गाहा
तत्तो तत्तोहुत्तं चलिया भय-लोल-लोयणा अहयं ! कहकहवि हु संपत्ता तम्मि पएसम्मि किच्छेण ।। २२६।।
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संस्कृत छाया
ततस्तदभिमुखं चलिता भयलोललोचना अहम् ।
कथंकथमपि खलु सम्प्राप्ता तस्मिन् प्रदेशे कृच्छ्रेण ।। २२६ ।। गुजराती अनुवाद
२२६. त्यारे थयथी चञ्चल नेत्रवाली हुं ते सरोवर तरफ चाली, केमे करीने ते स्थाने महात्महेनते पहोंची. हिन्दी अनुवाद
भययुक्त चंचल नेत्रों वाली मैं उस सरोवर की तरफ चल पड़ी और काफी मेहनत करने के बाद वहाँ पहुँची। गाहा
पीयं च तत्थ सलिलं उवविट्ठा तरु-वरस्स हिट्ठम्गि ।
एत्थंतरम्मि तरणी अंतरिओ पसरिया रयणी ।। २२७।। संस्कृत छाया
पीतं च तत्र सलिलमुपविष्टा तरुवरस्याऽधः ।
अत्रान्तरे तरणिरन्तरितः प्रसृता रजनी ।। २२७ ।। गुजराती अनुवाद
२२८. त्यां पाणी पीयूं अने वृक्षनी नीचे बेठी. तेटलीवारमा सूर्यास्त थइ गयो अने रात्रि फेलाई. हिन्दी अनुवाद
वहाँ पानी पीकर पेड़ के नीचे बैठी। इतने में सूर्यास्त हो गया और रात हो गयी। गाहा
तओ। फेक्कारंति सिवाओ जह जह गुञ्जन्ति सावया विविहं ।
तह तह भएण हिययं कंपइ मह तत्थ रन्नम्मि ।। २२८।। संस्कृत छाया
ततः। फेत्कारयन्ति शिवा यथा यथा गर्जन्ति श्वापदा विविधम् । तथा तथा भयेन हृदयं कम्पते मम तत्राऽरण्ये ।। २२८ ।।
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गुजराती अनुवाद
२२८. त्यारबाद शियालीयाओ जेम-जेम फेल्काटो छोडे छे अने जंगली प्राणीओ विविध प्रकारे अवाज करे छे तेम-तेम ते जंगलमा भय वड़े माझं हृदय कम्पवा लाग्युं. हिन्दी अनुवाद
उसके पश्चात् जैसे-जैसे सियारिन हुआं-हुआं करती हुई चिल्लाती, जंगली जीव भिन्न-भिन्न प्रकार की आवाजे निकालते वैसे-वैसे उस जंगल में डर के मारे मेरा हृदय कांपने लगा। गाहा
अह अह-रत्त-समए जाया उदरम्मि दूसहा वियणा । तव्वसओ य कणंती लुलामि भूमीए जाव अहं ।। २२९।। ताव य मिगीव रन्ने अइगुरु-वियणाहि पीडिय-सरीरा ।
सयमेव पसविया हं महा-किलेसेण नर-नाह ! ।। २३०।। संस्कृत छाया
अथ अर्धरात्रसमये जातोदरे दुस्सहा वेदना । तद्वशतश्च क्वणन्ती लोलामि भूमौ यावदहम् ।। २२९ ।। तावच्च मृगीवाऽरण्येऽतिगुरुवेदनाभिः पीडितशरीरा ।
स्वयमेव प्रसूताऽहं महाक्लेशेन नरनाथ ! ।। २३० ।। युग्मम् ।। गुजराती अनुवाद
२२९-२३०. (पुत्रजन्म)- तेटलामा अडधी राते पेटमा असह्य वेदना थवा लागी. ते वेदनाना कारणे कणसति हुँ भूमि पर ज्यां आलोटु छु तेटलीवारमा तो हरणियानी जेम अति भारे वेदनाओथी पीडित शीरवाली में हे नरनाथ! प्रसव कर्यो। (जन्म आप्यो) हिन्दी अनुवाद
इतने में आधीरात के समय पेट में असह्य दर्द उठने लगा। उस दर्द के कारण कराहती मैं जब भूमि पर लोटने लगी, तभी हरिणी की तरह भारी शरीर वाली मुझे प्रसव हुआ। (बालक को जन्म दिया)
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गाहा
मुच्छा-विरमे य तओ लुलमाणं महि-यलम्मि तं बालं । घित्तूण निजुच्छंगे गरुय-सिणेहेण तत्तो य ।। २३१।। गंतूण जलासन्ने पहावित्ता ताहि नियय-वत्थाई।
पक्खालिय एगते उवविट्ठा तरु-लया-गहणे ।। २३२।। संस्कृत छाया
मूर्छाविरमे च ततो लुठन्तं महीतले तं बालम् । गृहीत्वा निजोत्सङ्गे गुरुस्नेहेन ततश्च ।। २३१ ।। गत्वा जलाऽऽसन्ने स्नात्वा तदा निजकवस्त्रादि ।
प्रक्षाल्य एकान्ते उपविष्टा तरुलतागहने ।। २३२ ।। युग्मम् ।। गुजराती अनुवाद
२३१-२३२. मूर्छा चाली गई त्यारे पृथ्वीतल पर आलोटता ते बालकने अति स्नेह वड़े पोताना खोलामां लइने नजीकना सटोवरमां स्नान करीने त्यारबाद मारा वस्त्रादि धोईने सकांतमां वृक्षनी गहन झाडीमां बेठी। हिन्दी अनुवाद
मूर्छा समाप्त होने के बाद जमीन पर लोटते बालक को उठाकर अति स्नेह से मैंने अपनी गोद में लिया, पास के सरोवर में स्नान कर फिर अपने कपड़े आदि धोकर एकान्त में वृक्ष की गहन झाड़ी में बैठ गयी। गाहा
तं दिव्वं-मणि-सणाहं उत्तारिय अंगुलीययं हत्था । __कंठम्मि मए बद्धं सुयस्स एवं भणंतीए ।। २३३।। संस्कृत छाया
तं दिव्यमणिसनाथमुत्तार्य अंगुलीयकं हस्ताद् ।
कण्ठे मया बद्धं सुतस्यैवं भणन्त्या ।। २३३ ।। गुजराती अनुवाद
२३३. ते दिव्यमणिथी प्रभावित मुद्रिका हाथमाथी उतारीने पुत्रना कंठमां मे आ प्रमाणे बोलता पहेलावी.
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हिन्दी अनुवाद
फिर उस दिव्य मणि से प्रभावित अंगूठी को हाथ में से उतार कर पुत्र के गले में यह कहते हुए पहना दी। गाहा
एयस्स पभावाओ मा मह तणयस्स केवि अंगम्मि ।
पहरंतु भूय-सावय-पिसाय-दुट्ठ-ग्गहाईया ।। २३४।। संस्कृत छाया
एतस्य प्रभावामा मम तनयस्य केऽपि अङ्गे ।
प्रहरन्तु भूतश्वापदपिशाचदुष्टप्रहादिकाः ।। २३४ ।। गुजराती अनुवाद
२३४. आना प्रभावथी मारा पुत्रना कोइ पण अंगमा भूत, जंगली पशुओ, पिशाच के दुष्ट ग्रहो वि. प्रहार नहीं करे। हिन्दी अनुवाद
इस अंगूठी के प्रभाव से हमारे पुत्र के किसी भी अंग को भूत-पिशाच, जंगली जानवर तथा दुष्ट ग्रह किसी भी प्रकार नुकसान न पहुँचा सकें।
गाहा
वण-वासिणीओ! निसुणह भो भो वण-देवयाओ । मह वयणं ।
तणय-समेया संपइ सरणं भवईणमल्लीणा ।। २३५।। संस्कृत छाया
वनवासिन्यः ! निशृणुत भो भो वनदेवताः ! मम वधनम् । * तनयसमेता सम्प्रति शरणं भवतीनामालीना ।। २३५ ।। गुजराती अनुवाद
२३५. हे वनवासिओ! हे वनदेवता! माझं वचन सांथलो. पुत्र सहित हुं हमणां तमारा शरणे आवेली छु। हिन्दी अनुवाद____ हे वनवासियों! हे देवतागण! मेरा वचन सुनो, पुत्र सहित मैं तुम्हारे शरण में आई हूँ।
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गाहा
केसरि-वग्घाईणं मंसाहाराण कूर - सत्ताणं । भीसण- अडवी-पडिया रक्खेयव्वा पयत्तेण ।। २३६ ।।
संस्कृत छाया
केशरिव्याघ्रादीनां मांसाहाराणां क्रूरसत्त्वानाम् । भीषणाटवीपतिता रक्षितव्या प्रयत्नेन ।। २३६ ।।
गुजराती अनुवाद
२३६. सिंह वाघ आदि मांसाहारी क्रूरप्राणी ओथी आ भयंकर अटवीमां पडेलां अमारूं प्रयत्न पूर्वक रक्षण करवुं.
हिन्दी अनुवाद
सिंह, बाघ आदि मांसाहारी क्रूर जीव से इस भयंकर जंगल में प्रयत्न पूर्वक हमारी रक्षा करो।
गाहा
जइ पुत्त! इमा रयणी होंता मह तम्मि हत्थिणपुरम्मि । ता एत्तिय - वेलाए राया वद्धाविओ होंतो ।। २३७।। संस्कृत छाया
यदि पुत्र ! इयं रजनी अभविष्यत् मम तस्मिन् हस्तिनापुरे । तदा एतावन्वेलायां राजा वद्धार्पितोऽभविष्यत् ।। २३७ ।। गुजराती अनुवाद
२३७. हे पुत्र ! जो आ रात्रि ते हस्तिनापुर नगरमां होत तो आटलीवारमां तो राजाने वधामणी प्राप्त थई गई होत !
हिन्दी अनुवाद
हे पुत्र ! आज की रात यदि हम हस्तिनापुर में होते, तो इतने समय में राजा को बधाई संदेश भी प्राप्त हो गया होता।
गाहा
सयलस्स परियणस्स य पुरस्स सामंत मंति- वग्गस्स ।
कस्स व न होज्ज तोसो पुत्तय! तुह जम्म- समयम्मि ।। २३८ ।।
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संस्कृत छाया
सकलस्य परिजनस्य च पुरस्य सामन्तमन्त्रिवर्गस्य ।
कस्य वा न भवेत्तोषः पुत्र ! तव जन्मसमये ।। २३८ ।। गुजराती अनुवाद
२३८. हे पुत्र! सकल परिजन, नगरना सामंत-मन्त्रीवर्ग आदि कोने तारा जन्म समये आनंद न थयो होत? हिन्दी अनुवाद
सकल परिजनों को, नगर के सामन्त और मन्त्रीवर्ग आदि किसको तुम्हारे जन्म के समय आनन्द नहीं हुआ होता? गाहा
दुविहिय-विहि-विहाणा पडियाए भीसणे य रन्नम्मि ।
जाओ सि मज्झ पुत्तय! करेमि किं मंद-भग्गा हं? ।। २३९।। संस्कृत छाया
दुर्विहितविधिविधानात् पतिताया भीषणे चारण्ये ।
जातोऽसि मम पुत्र ! करोमि किं मन्दभाग्याऽहम् ? ।।२३९।। गुजराती अनुवाद
२३९. नहीं धारेलु विधि-भाग्य करनार होवाथी भयंकर जंगलमा आवी पडया त्यारे हे पुत्र! तुं जनम्यो, मंद भाग्यवाली हुं शुं करूं? हिन्दी अनुवाद
___ दुर्भाग्य के कारण मैं इस भयंकर जंगल में आ पड़ी। तब तुम्हारा जन्म हुआ। मैं मंदभाग्यशाली हूँ, क्या करूं? गाहा
जायम्मि तुमे पुत्तय! रन्नपि हु संपयं इमं वसिमं ।
नटुं भयं असेसं उच्छंग-गए तुमे वच्छ! ।। २४०।। संस्कृत छाया
जाते त्वयि पुत्र ! अरण्यमपि खलु साम्प्रतमिदं वसतिम् ।
नष्टं भयमशेषमुत्सङ्गगते त्वयि वत्स ! ।। २४० ।। गुजराती अनुवाद
२४०. हे पुत्र! तारो जन्म थये छते आ जंगल पण वसति समान छे. तुं खोलामा होते छते मारो समस्त भय नष्ट थइ गयो छे.
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हिन्दी अनुवाद
हे पुत्र! यहाँ तुम्हारा जन्म होने के कारण यह जंगल भी बस्ती के समान है। तुम हमारी गोद में आने के बाद मेरा सम्पूर्ण भय समाप्त हो गया है। गाहा
तुह मुह-पलोयणेणं संपन्न-मणोरहा भविस्सामि ।
रवि-कर-पहयंधयारे जायम्मि दिणम्मि सकयत्था ।। २४१।। संस्कृत छाया
तव मुखप्रलोकनेन संपन्नमनोरथा भविष्यामि ।
रविकरप्रहतान्यकारे जाते दिने सकृतार्था ।। २४१ ।। गुजराती अनुवाद
२४१. सूर्यना किरणोथी अंधकार नाश थये छते दिवस उगता तारा मुखने जोवाथी पूर्ण मनोरथवाली हुं कृतार्थ थइ. हिन्दी अनुवाद
सूर्य की किरणों से नाश को प्राप्त अंधकार के बाद दिन उगने जैसे तुम्हारा मुख देखकर मेरी सभी इच्छाएं पूरी हो गईं, मैं कृतार्थ हो गयी।
गाहा
एमाइ भणंतीए पह-सम-खिन्नाए नीसहंगाए ।
वियणा-विगमाओ तहिं समागया मे तहिं निहा ।।२४२।। संस्कृत छाया
एवमादि भणन्त्याः पथश्रमखिन्नया निःसहाङ्गया ।
वेदनाविगमात्तत्र समागता मां तदा निद्रा ।। २४२ ।। गुजराती अनुवाद
२४२. आ प्रमाणे बोलतां मार्गना श्रमना खेदथी असमर्थ अंग थवाथी तथा वेदना दूर थवाथी मने त्यारे निद्रा आवी गई। हिन्दी अनुवाद
ऐसा कहते हुए मार्ग में किए गए श्रम के कारण चलने में असमर्थ होने के दुःख की वेदना के दूर हो जाने के कारण मुझे नींद आ गयी। गाहा
तत्तो खणंतराओ पडिबुद्धा झत्ति मंद-भग्गा हं । केणावि हु उल्लवियं एयं सहं सुणेऊणं ।। २४३।।
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संस्कृत छाया
ततः क्षणान्तरतः प्रतिबुद्धा झटिति मन्दभाग्याऽहम् ।
केनाऽपि खलल्लपितमेतद् शब्दं श्रुत्वा ।। २४३ ।। गुजराती अनुवाद
२४३. (कमलावतीराणी ना पुत्र नु अपहरण)
कोइना वडे बोलायेला आ शब्दो सांधलीने मंदभाग्यवाली हुं त्यारबाद क्षणवारमा जागी. हिन्दी अनुवाद
किसी के द्वारा बुलाए गये शब्द सुन कर मैं मन्दभाग्यवाली जग गयी। गाहा
निउणं जोयंतेणवि पभूय-कालाओ पाव! दिट्ठो सि।
काहामि वइर-अंतं अणुहव-दुविहिय-फलमिहि ।। २४४।। संस्कृत छाया
निपुणं पश्यताऽपि प्रभूतकालतः पाप ! छटोऽसि ।
करिष्यामि वैरान्तं, अनुभव दुर्विहितफलमिदानीम् ।। २४४ ।। गुजराती अनुवाद
२४४. 'सावधानीपूर्वक जोवा छतां पण हे पापी! तुं घणा समये देखायो छे. हवे वैरनो अंत कटीश. हवे दुष्कृत्यना फळने अनुभव. हिन्दी अनुवाद
___ सावधानी पूर्वक तलाशने पर हे पापी! तूं बहुत समय बाद दिखाई दिया है। अब मैं दुश्मनी का अन्त करूंगा। तूं अब अपने बुरे कर्मों का फल भुगत!
गाहा
एयं सदं सोच्चा भीया, को एस एवमुल्लवइ? । इय चिंतिय जाव अहं निय-उच्छंगं पलोएमि ।। २४५।। . ता नत्थि तत्थ पुत्तो विचिंतियं ताहि हा! किमेयंति । किं कहवि होज्ज पडिओ अहवा केणावि अवहरिओ? ।। २४६। किंवा सुमिणं एयं किंवा मइ-विन्भमो महं एसो? । एमाइ चिंतयंती गवेसिउं ताहि पारद्धा ।। २४७।।
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संस्कृत छाया
एतत् शब्दं श्रुत्वा भीता क एष एवमुल्लपति ? । इति चिन्तयित्वा यावदहं निजोत्सङ्गं प्रलोकयामि ।। २४५ ।। तावन्नास्ति तत्र पुत्रः विचिन्तितं तदा हा ! किमेतदिति । किं कथमपि भवेत् पतितोऽथवा केनाऽप्यपहृतः ? ।। २४६ ।। किं वा स्वप्नमेतत् किं वा मतिविभ्रमो ममैषः ? । एवमादि चिन्तयन्ती गवेषयितुं तदा प्रारब्या ।। २४७ ।।
तिसृभिः कुलकम् गुजराती अनुवाद
२४५-२४८. आ शब्दो सांधलीने हुं डटी गई. 'आ कोण बोले छे? आ प्रमाणे विचारीने ज्यां हूं मारा खोलाने जोउं छु त्यां तो पुटर न हतो, त्यारे विचार्यु अरे! आ शुं थयुं? शुंक्यांक ते पुत्र पडी गयो? अथवा तो शुं कोई ना वड़े अपहरण करायु? शुं आ स्वप्न छे आ मारो मतिश्रम छे? इत्यादि विचारती बालकने शोधवानी शरुआत की। हिन्दी अनुवाद
उसके यह शब्द सुनकर मैं डर गयी यह कौन बोल रहा है? यह विचार करती हुई जब मैंने अपनी गोद देखी तो मेरा पुत्र मेरी गोद में नहीं था। मैंने सोचा यह क्या हो गया, क्या पुत्र कहीं गिर गया? या किसी ने उसका अपहरण कर लिया? या फिर कहीं यह स्वप्न मेरा मतिभ्रम तो नहीं है? ऐसा सोचते हुए बालक को खोजने लगी। गाहाइओ तओ तत्थ गवेसयंती सुयं महा-राय! अपाउणंती । सिरम्मि वज्जेणव ताडिया हं धसत्ति मुच्छाइ वसं गयत्ति ।। २४८।। संस्कृत छाया
इतस्ततस्तत्र गवेषयन्ती सुतं महाराज ! अप्राप्नुवन्ति ।
शिरसि वज्रेणेव ताडिताऽहं धस इति मूच्छर्या वशं गतेति।।२४८। गुजराती अनुवाद
२४८. आम-तेम पुत्रने शोधवा छतां पुत्रने न जोती तेवी हुं हे महाराजा! मस्तक पर जाणे वज्र वडे हणाली 'धस' र प्रमाणे मूर्छा वश थई।
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हिन्दी अनुवाद
इधर-उधर पुत्र को तलाशने पर भी उसे न पाकर हे राजन्! ऐसा लगा जैसे मेरे मस्तक पर किसी ने वज्र से प्रहार किया है। मैं घायल 'धस' करके मूर्च्छित हो गयी।
गाहा
साहु-धणेसर-विरइय-सुबोह-गाहा-समूह-रम्माए । रागग्गि-दोस-विसहर-पसमण-जल-मंत-भूयाए ।। २४९।। एसोवि परिसमप्पइ कमलावइ-पुत्त-हरण-नामोत्ति ।
सुरसुंदरि-नामाए कहाइ दसमो परिच्छेओ ।। २५०।। संस्कृत छाया
साधुधनेश्वरविरचितसुबोधगाथासमूहरम्यायाः । रागाग्निद्वेषविषधरप्रशमनजलमत्रभूतायाः ।। २४९ ।। एषोऽपि परिसमाप्यते कमलावतीपुत्रहरणनामेति ।
सुरसुन्दरिनाम्न्याः कथायाः दशमः परिच्छेदः ।। २५० ।। गुजराती अनुवाद
२४९-२५०. साधु धनेश्वर वड़े रचायेली सुबोध गाथाना समूह बड़े रग्य, रागामि तेम ज द्वेष छप विषधरने शांत करवा पाणी तेमज मंत्ररूप... 'कमलावती पुत्रहरण' नामनो सुरसुन्दरि नामनी कथानो आ दशमो परिच्छेद समाप्त थयो...
इति दशमः परिच्छेदः हिन्दी अनुवाद
साधु धनेश्वर द्वारा रचित सुबोध गाथाओं की समूह रूप सुन्दर रागाग्नि और द्वेष रूपी विषधर को शान्त करने वाले जल और मन्त्र रूप कमलावती पुत्रहरण नामक सुरसुन्दरी कथा का दसवां परिच्छेद समाप्त हुआ।
दशमः परिच्छेद समाप्तः ।।
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________________ भक्तामर यंत्र - 1 Bhaktamara Yantra - 1 TUR 'भक्तामरप्रणतमालिमाणप्रभाणा 'नक्ली नकली नक्ती नवती नकली नक्ली नकली सास्वाहा। स्लाम वालम्बनं भवजले पततां जनानाम् // 1 // नक्ली नक्तो नकली नकली नकली कली क्ली नकली नकली केली नकली / होहा फटावकार विहताणमो ayeGIG | नकली नकली कली क्ली नकली नकली नकली क्ली जैक्ती केली क्ली का मुद्योतकं दलितपापतमोवितानम् / सपतय AANSUSHILE PREHENSEENE PEHERE - hone alnnabali ऋद्धि-ॐ हीं अर्ह णमो अरिहंताणं णमो जिणाणं ॐ अ सि आ उ सा अप्रतिचक्रे फट् विचक्राय झौ झौं स्वाहाँ। मंत्र-ॐ हाँ ही हं श्रीं क्लीं ब्लू क्रौं ॐ हीं नमः स्वाहा। प्रभाव--सारी विघ्न-बाधाएँ दूर होती हैं। Removal of all obstacles. Parshwanath Vidyapeeth, I.T.I. Road, Karaundi, Varanasi-5