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________________ 34 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 बुद्धिगम्य नहीं होते। इन सब बातों से केशीश्रमण की मनोज्ञता प्रकट होती है। केशीगौतम वाद तो पूर्ण रूप से मनोवैज्ञानिक है। वहाँ मानव-मन की बदलती हुई गति को देखते हुए बाहरी आचार-नियमों में परिवर्तन को आवश्यक बताया है। कर्मबन्ध में श्रेष्ठित्व या दरिद्रता कारण नहीं है, अपितु मन के भावों की उच्चावचता, रागद्वेषात्मकता कारण होती है। स्थविरों द्वारा श्रमणोपासकों के मन में बनी हुई वैचारिक प्रन्थियों को समझकर प्रत्युत्तर देना मनोवैज्ञानिकता को ही पुष्ट करता है। निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि वाद-विद्या में न केवल समुचित तकों से उत्तर दिया जाता है, अपितु श्रोता की मानसिकता को समझकर मनोवैज्ञानिक ढंग से उत्तर देकर श्रोता के मस्तिष्क और हृदय दोनों को सन्तुष्ट किया जाता है। संदर्भः १. उपायहृदय, प्रथम प्रकरण, पृष्ठ १ २. निशीथचूर्णि, २६-द्रष्टव्य: जैनधर्म की हजार शिक्षाएँ, मधुकर मुनि, मुनिश्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन, व्यावर, १९७३, पृष्ठ २०३ ३. उवासकदसाओ, मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८०, अध्य. ७, सूत्र २००, पृ. २५१ ४. राजप्रश्नीयसूत्र, सूत्र २३५-२७०, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर ५. सूत्रकृतांगसूत्र, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, सप्तम् अध्ययन, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, सूत्र ८४७, पृ. १८९ ६. वही, सूत्र ८८६, पृ. १८८ ७. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, प्रथम शतक, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, उद्देशक ९, सूत्र २५, पृ. १५२ ८. वही, द्वितीय शतक, उद्देशक ५, सूत्र १६-१९, पृ. २१९-२० ९. स्थानांगसूत्र, स्थान ४, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, सूत्र ६४८, पृ. ४४३ १०. वही, स्थान ४ *****
SR No.525092
Book TitleSramana 2015 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size15 MB
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