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________________ संस्कृत छाया एतत् शब्दं श्रुत्वा भीता क एष एवमुल्लपति ? । इति चिन्तयित्वा यावदहं निजोत्सङ्गं प्रलोकयामि ।। २४५ ।। तावन्नास्ति तत्र पुत्रः विचिन्तितं तदा हा ! किमेतदिति । किं कथमपि भवेत् पतितोऽथवा केनाऽप्यपहृतः ? ।। २४६ ।। किं वा स्वप्नमेतत् किं वा मतिविभ्रमो ममैषः ? । एवमादि चिन्तयन्ती गवेषयितुं तदा प्रारब्या ।। २४७ ।। तिसृभिः कुलकम् गुजराती अनुवाद २४५-२४८. आ शब्दो सांधलीने हुं डटी गई. 'आ कोण बोले छे? आ प्रमाणे विचारीने ज्यां हूं मारा खोलाने जोउं छु त्यां तो पुटर न हतो, त्यारे विचार्यु अरे! आ शुं थयुं? शुंक्यांक ते पुत्र पडी गयो? अथवा तो शुं कोई ना वड़े अपहरण करायु? शुं आ स्वप्न छे आ मारो मतिश्रम छे? इत्यादि विचारती बालकने शोधवानी शरुआत की। हिन्दी अनुवाद उसके यह शब्द सुनकर मैं डर गयी यह कौन बोल रहा है? यह विचार करती हुई जब मैंने अपनी गोद देखी तो मेरा पुत्र मेरी गोद में नहीं था। मैंने सोचा यह क्या हो गया, क्या पुत्र कहीं गिर गया? या किसी ने उसका अपहरण कर लिया? या फिर कहीं यह स्वप्न मेरा मतिभ्रम तो नहीं है? ऐसा सोचते हुए बालक को खोजने लगी। गाहाइओ तओ तत्थ गवेसयंती सुयं महा-राय! अपाउणंती । सिरम्मि वज्जेणव ताडिया हं धसत्ति मुच्छाइ वसं गयत्ति ।। २४८।। संस्कृत छाया इतस्ततस्तत्र गवेषयन्ती सुतं महाराज ! अप्राप्नुवन्ति । शिरसि वज्रेणेव ताडिताऽहं धस इति मूच्छर्या वशं गतेति।।२४८। गुजराती अनुवाद २४८. आम-तेम पुत्रने शोधवा छतां पुत्रने न जोती तेवी हुं हे महाराजा! मस्तक पर जाणे वज्र वडे हणाली 'धस' र प्रमाणे मूर्छा वश थई।
SR No.525092
Book TitleSramana 2015 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size15 MB
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