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स्याद्वादकल्पलता में शब्द की द्रव्यत्व सिद्धि
डॉ० हेमलता जैन भारतीय दार्शनिक परम्परा में न्याय-वैशेषिक दर्शन शब्द को आकाश के गुण के रूप में प्रतिपादित करता है। न्याय-वैशेषिक दार्शनिक शब्द को गुण मानते हैं, जो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आत्मा, काल, दिक् एवं मन इन आठ द्रव्यों में नहीं रहता, अत: परिशेषानुमान से उसे आकाश का गुण स्वीकार किया गया है। जैन दार्शनिक शब्द को गुण नहीं अपितु द्रव्य मानते हैं। २०६६ वर्ष पूर्व भगवान् महावीर ने शब्द को पुद्गल द्रव्य बताया है। आज विज्ञान भी शब्द के पौद्गलिक स्वरूप को स्वीकार करता है। इस अन्तराल में शब्द-स्वरूप के विषय में विभिन्न मत प्रचलित रहे हैं। जैन आचार्यों ने शब्द को ध्वनि की दृष्टि से पौद्गलिक अर्थात् पद्गल द्रव्य और अर्थबोध की दृष्टि से ज्ञानात्मक माना है। वैज्ञानिक प्रयोगों ने भी शब्द के पौद्गलिक स्वरूप को सिद्ध किया है। जैन परम्परा में आगम साहित्य से लेकर सिद्धसेन, समन्तभद्र, मल्लवादी, हरिभद्रसूरि, भट्ट अकलंक, अभयदेवसूरि, प्रभाचन्द्र, हेमचन्द्र, उपाध्याय यशोविजय आदि के द्वारा विरचित ग्रन्थों में इस विषय पर पर्याप्त चिन्तन हुआ है। यह शोधालेख जैनाचार्य हरिभद्रसूरि (७००-७७०ई०) विरचित शास्त्रवार्तासमुच्चय तथा उस पर उपाध्याय यशोविजय (१७-१८वीं शती) कृत स्याद्वादकल्पलता टीका पर केन्द्रित है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने शास्त्रवार्तासमुच्चय के १०वें स्तवक में शब्दस्वरूप के विषय में वेदवादी, मीमांसक, बौद्ध, नैयायिक आदि के मतों को समुचित रीति से प्रस्तुत कर उसका तार्किक निरसन किया है। इस शोधालेख में मात्र न्यायवैशेषिकों की मान्यता का खण्डन कर शब्द में द्रव्यत्व की सिद्धि की गई है। नैयायिकों के मतों का खण्डन करते हुए उपाध्याय यशोविजयजी ने नैयायिकों द्वारा मान्य स्पर्श, संयोग, संख्या, अल्पत्व परिमाण, महत् परिमाण आदि गुणों और क्रिया के आधार पर शब्द का द्रव्यत्व सिद्ध किया है। मैंने नैयायिकों के शब्द-स्वरूप विषय से सम्बद्ध मतों को पूर्वपक्ष में रखकर उपाध्याय यशोविजय के तर्कों को उत्तरपक्ष के रूप में यहाँ प्रस्तुत किया है। इसके साथ ही स्वयं के कुछ अनुभव भी साझा किए हैं। पूर्व पक्ष : न्याय-वैशेषिक का तर्क शब्द को अनित्य एवं द्रव्य स्वीकार करने वाले जैनों के सम्बन्ध में नैयायिक कहते