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4 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 अर्थात् जो द्रव्य, गुण और पर्यायों के माध्यम से अरहन्त भगवान् को जानता है, वह अपने को जानता है तथा उसका मोह निश्चय से विनाश को प्राप्त होता है। और जिसका मोह नष्ट हो जाता है वह शुद्ध आत्म तत्त्व को सम्यग् रूपेण प्राप्त कर लेता है। इसी प्रक्रिया को अपनाकर सभी अरहन्त भगवान् कर्मों का नाशकर मुक्ति को प्राप्त हुये हैं।१६ यह प्रक्रिया कोई नवीन नहीं है, अपितु यह सनातन काल से चली आ रही है। श्रमण के द्वारा जिन अट्ठाइस मूल गुणों का पालन करना नितान्त आवश्यक है, वे इस प्रकार हैं- पञ्च महाव्रतों का पालन, पञ्च समितियों का पालन, पञ्चेन्द्रिय निरोध, केशलौंच, षडावश्यकों का पालन, अचेलपना, अस्नानव्रत, भूमिशयन, अदन्तधावन, खड़े होकर भोजन करना, एक बार भोजन करना-ये अट्ठाइस प्रकार के मूलगुण हैं। इन मुलगुणों में प्रमत्त होता हुआ श्रमण छेदोपस्थापक होता है। मास, पक्ष आदि से दीक्षा को कम करके पुनः चारित्र की उपस्थापना करना छेदोपस्थापना है।
वदसमिदिदियरोधो लोचो अवसयमचेलमण्हाणं। खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च।। एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता।
तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि।१७ श्रमण के पास बाल के अग्रभाग के बराबर भी बाह्य परिग्रह का निषेध किया गया है।१८ यद्यपि श्रमण के पास एक मात्र देह ही होती है, किन्तु वह उस देह में भी ममत्व रहित परिकर्म वाला होता है। साथ ही उस देह को तप में लगाकर वह अपनी शक्ति को छिपाता नहीं है।१९ यहाँ अचेल का अर्थ है पाँच प्रकार के वस्त्रों का त्याग।२० यद्यपि वस्त्रों का त्याग श्रमण के द्रव्यलिङ्ग को ही प्रकट करता है, किन्तु यहाँ श्रमण का भावलिङ्गी होना भी अपेक्षित है। क्योंकि भाव रहित श्रमण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप-इन चार आराधनाओं को प्राप्त कर लेता है और भाव रहित श्रमण चिरकाल तक दीर्घ संसार में भ्रमण करता है।२१ भाव श्रमण कल्याणों की परम्परा से युक्त होकर सुखों को प्राप्त करते हैं अर्थात् तीर्थङ्कर होकर गर्भ, जन्म आदि कल्याणकों से युक्त होकर परम सुख को प्राप्त करते हैं और गव्य श्रमण मनुष्य, तिर्यञ्च तथा कुदेव योनियों में जन्म लेकर दुःखों को प्राप्त करते हैं।२२