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________________ 40 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 विसंवाद के कारण प्रमाण नहीं होता । अनुमित्यात्मक ज्ञान में संस्थान मात्र की उपस्थिति ही अर्थक्रिया है, फलतः वह प्रमा है। मरुमरीचिका में जल की प्रतीति अभिमत अर्थक्रिया न होने से अप्रमा है। इस प्रकार संपूर्ण लोक प्रसिद्ध भ्रमज्ञान अविसंवादि पद के व्यावर्त्य हैं, अन्यथा उनके प्रमात्मकत्व की आपत्ति होती है। अतः अभिप्राय के अविसंवाद से ही ज्ञानों को प्रमाण माना जाता है। विसंवाद की स्थिति में कोई ज्ञान प्रमाण नहीं हो सकता । धर्मकीर्ति ने शब्द को, वक्ता के विवक्षित अर्थ को श्रोता की बुद्धि में प्रकाशित करने के कारण प्रमाण कहा है; किन्तु शब्द का यह प्रमाण्य वस्तु के यर्थाथता के आधार पर नहीं है, अन्यथा विभिन्न शास्त्रों के प्रवर्तक आचार्य तत्त्व के विषय में विभिन्न मान्यतायें न उपस्थित करते । अतः अर्थ तत्त्व निबन्धन न होने से शब्द का प्रामाण्य उपेक्ष्य ही है। यही कारण है कि बौद्ध दार्शनिक शब्दादि को सार्वभौम प्रमाण नहीं मानते, क्योंकि अपने-अपने सम्प्रदायों के सीमित क्षेत्र में ही शब्द, प्रमात्मक ज्ञान करा पाता है; किन्तु अपने सम्प्रदायों में शब्द की प्रमाणिकता बौद्धों को इष्ट है। वास्तव में धर्मकीर्ति आदि का मत बौद्धों के उपयोगितावाद का ही परिष्कृत रूप है इसलिए वे उन कठिनाइयों से जो उस मत के मूल रूप से संबन्धित हैं, मुक्त नहीं हो सकते। धर्मकीर्ति के इस मत पर भी प्रश्न उठता है कि किसी ज्ञान के उत्पन्न होने पर कौन सा फल उसके अनुकूल है तथा कौन सा इसके प्रतिकूल यह निर्णय कैसे हो ? उदाहरणार्थ हमें ज्ञान उत्पन्न होता है कि सामने घड़े में पानी है। हम उसे पीते हैं तथा पीने पर वह खट्टा सा पेय लगता है। हमें इससे ज्ञान होता है कि घट में पानी नहीं, अन्य कोई द्रव्य है। किन्तु इस निर्णय के पूर्व हमें यह ज्ञान होना आवश्यक है कि पानी का स्वाद किस प्रकार का होता है पुनः प्रश्न उठता है कि इस पूर्व ज्ञान का आधार क्या है और फिर पूर्णरूपेण विज्ञानवादी मीमांसा में जिसमें किसी भी स्थायी तत्त्व को हम स्थान नहीं देना चाहते हैं, यह कठिनाई और भी जटिल रूप में सामने आती है। जल का पूर्ण ज्ञान पूर्णरूपेण वैयक्तिक है अथवा उसमें अवश्य ही व्यक्ति निरपेक्षता तथा साधारणता है? यदि हम किसी स्थायी जल तत्त्व की निरपेक्ष सत्ता न मानें तब प्रत्येक व्यक्ति का जल का अनुभव न केवल भिन्न-भिन्न होगा बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि अलगअलग समय उसका जल ग्रहण अपनी सुविधा के अनुसार भिन्न-भिन्न भी हो सकता है। ऐसी स्थिति में कोई वस्तु है ही नहीं मात्र विज्ञान का एक प्रवाह है, एक के बाद दूसरी कड़ी पूर्णतः असंबंधित होते हुए भी प्रवाहमय है तथा उसकी निरंतरता ही उसकी अनिवार्यता है। ऐसी स्थिति में ज्ञान के प्रमात्व अथवा अप्रमात्व की कल्पना नहीं की जा सकती है। बौद्ध स्वयं इस बात को भली प्रकार जानते हैं इसीलिए उन्होंने ज्ञान तथा उसके विषय में साधारणता तथा निरपेक्षता लाने के लिए मूल भांति की चर्चा की है। यह मूल
SR No.525092
Book TitleSramana 2015 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size15 MB
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