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________________ आगमों में वादविज्ञान डॉ. श्वेता जैन तत्वबोध के लिए गुरु-शिष्य के मध्य हुआ संवाद या दो विद्वानों या व्यक्तियों के मध्य हुआ विमर्श वाद कहलाता है। वाद सद्धर्म की प्रस्तुति, सुलक्षण की स्थापना और दुर्लक्षण की निवृत्ति तथा मिथ्या धारणाओं के खण्डन के लिए किया जाता रहा है। उपायहृदयकार तो यहाँ तक कह देते हैं- 'यदीह लोके वादो न भवेत्, मुग्धानां बाहुल्यं स्यात्” यदि लोक में वाद नहीं होगा, तो मूढ़ लोगों की बहुलता हो जाएगी। अर्थात् वाद मूढ़ता के नाश के लिए किया जाता रहा है। कहा भी गया है - 'मोहो विण्णाण विवच्चासो र विवेक ज्ञान का विपर्यास ही मोह या मूढ़ता है। अतः मूढ़ता के नाश हेतु किया गया वाद ज्ञान का सेतु या साधन है। ज्ञान के सेतु या साधन के रूप में कृत वादों के अनेक उदाहरण आगमों में प्राप्त होते हैं। उपासकदशांगसूत्र के सातवें अध्ययन में भगवान् महावीर का सकडालपुत्र से नियति की कारणता को लेकर वाद होता है। इस वाद में भगवान् द्वारा ऐसे हेतु उपस्थापित किये जाते हैं, जिनका वह प्रत्युत्तर नहीं दे पाता है और अन्त में उसे पुरुषार्थ की महत्ता का बोध होता है। मिट्टी के बर्तन आदि नियति से बनते हैं, पुरुषार्थ से नहीं - सकडालपुत्र द्वारा यह कहने पर भगवान् महावीर उससे पूछते हैं कि कोई अग्निमित्रा के साथ विपुल भोग भोगे तो तुम क्या करोगे ? उत्तर में वह कहता है कि मैं उसे पीयूँगा, बाँध दूंगा, धमकाऊँगा, उसकी भर्त्सना करूँगा। तब भगवान् कहते हैं- 'तो जं वदसि - नत्थि उट्ठाणे इ वा जाव नियया सव्वभावा, तं ते मिच्छा'। तुम प्रयत्न, पुरुषार्थ आदि के न होने की तथा होनेवाले सब कार्यों के नियत होने की जो बात कहते हो, वह असत्य प्रस्तुत वाद में यह बात उभर कर आ रही है कि जिस नियति के सिद्धान्त को सकडाल स्वीकार करता है, उसका आचरण या व्यवहार में अनुपालना करने में वह असमर्थ है। अतः जो सिद्धान्त सैद्धान्तिक रूप में तो सिद्ध होता है, किन्तु व्यवहार में असिद्ध है, उसका स्वीकरण नहीं हो पाता - ऐसा तत्त्वबोध इस वाद से होता है। उपासकदशांग के छठें अध्ययन में कुण्डकौलिक और देव के मध्य इसी तरह का वाद प्राप्त होता है, जिससे पुरुषार्थ की कारणता की सिद्धि होती है। राजप्रश्नीयसूत्र में केशीश्रमण और राजा प्रदेशी का 'शरीर भिन्न है और जीव भिन्न है' विषय को लेकर वाद हुआ। राजा प्रदेशी के कुल में यह मान्यता चली आ रही थी कि जो जीव है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है। वह इस सिद्धान्त के औचित्य को तर्कों और प्रयोगों के आधार पर सिद्ध करते हुए कहता है
SR No.525092
Book TitleSramana 2015 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size15 MB
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