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30 : श्रमण, वर्ष 66., अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 १. मेरे पितामह अधार्मिक होने से यदि नरक में गए, तो वे अपने प्रिय पौत्र (मुझे) को यह कहने नहीं आए कि अधर्म मत करना। कहने का तात्पर्य यह है कि जीव ।
और शरीर एक हैं तभी तो मृत्यु के बाद कोई अस्तित्व नहीं रहा, अत: वे मुझे कहने नहीं आए। यदि शरीर और जीव भिन्न-भिन्न होते तो उनका जीव नया शरीर धारण करके भी प्रेमवश मुझे सजग करने जरूर आता। अत: जीव ही शरीर है। २. मेरी दादी धार्मिक प्रवृत्ति की थीं, वह भी स्वर्ग में जाकर मुझे चेताने या बताने नहीं आयीं। ३. अपने कृत प्रयोगों के आधार पर राजा कहता है कि लोहे की कुम्भी को लेप आदि से बन्द करने के बावजूद भी उसमें डाले गए जीवित पुरुष के मृत होने पर उस जीव के उसमें से निकलने के दरार आदि कोई निशान नहीं हैं। ४. लोहे की कुम्भी को लेप आदि से बन्द करने के बाद भी उसमें रखे हुए मृत शरीर में कृमि उत्पन्न हो गए। बिना छेद की बन्द कुम्भी में जीव कैसे प्रविष्ट हो गए? ५. तरुण और ताकतवर पुरुष एक साथ पाँच बाण निकालने में समर्थ होता है, किन्तु शक्तिहीन पुरुष पाँच बाण निकालने में समर्थ नहीं होता है। अत: जीव और शरीर एक हैं क्योंकि शरीर के बलशाली और अबलशाली होने से ही कार्य शक्ति में अन्तर आता है। ६. तरुण पुरुष वजनदार लोहे के भार को उठाने में समर्थ होता है जबकि एक वृद्ध पुरुष समर्थ नहीं होता है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि जीव और शरीर एक है। ७. जीवित मनुष्य और मृत मनुष्य के तौल में अन्तर नहीं होने से जीव और शरीर की भिन्नता सिद्ध नहीं होती। ८. जीवित व्यक्ति के टुकड़े-टुकड़े करके देखने पर भी उसमें कहीं जीव दिखाई नहीं दिया। अत: जीव की कोई पृथक् सत्ता नहीं है। उपर्युक्त सभी तर्कों के युक्तियुक्त उत्तर देकर राजा प्रदेशी को केशीश्रमण ने सन्तुष्ट किया। इसप्रकार वाद के प्रयोग से राजा के विचारों में परिवर्तन हो सका। सूत्रकृतांग में भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्य निर्ग्रन्थ उदक पेढालपुत्र का प्रत्याख्यान विषयक प्रश्न और गौतम गणधर के समाधान का एक सुन्दर वाद प्रस्तुत है। इसमें 'वाद' शब्द का प्रयोग करते हुए प्रश्न पूछा गया है-'सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वदासी'। उदक निम्रन्थ कहते हैं कि कुमारपुत्र नामक श्रमण निर्ग्रन्थ