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जैन एवं बौद्ध दर्शन में प्रमा का स्वरूप एवं उसके निर्धारक तत्व : 45 इस प्रकार इन दार्शनिकों ने अपनी मान्यताओं के आधार पर ऐसी व्याख्या प्रस्तुत की जिसके आधार पर व्यवहार को समन्वित करने पर भी तत्त्व एवं तत्त्व साधन के प्रति उनका दृष्टिकोण सार्थक रहे।
सन्दर्भ:
१. खण्डनखण्डखाद्य-प्रमापक्ष, (कुलपति डॉ० मण्डन मिश्र की प्रस्तावना से अलंकृत) स्वामी श्री गुरुशरणानन्द, डॉ० हरिश्चन्द्रमणि त्रिपाठी, सम्पूर्णानन्द, संस्कृत वि०वि०, वाराणसी २. भारतीय दर्शन (ज्ञानमीमांसा एवं तत्त्वमीमांसा), डॉ० एच० एन० मिश्रा, पृ० २५ ३. भारतीय दार्शनिक समस्याएँ, डॉ० नन्द किशोर शर्मा, पृ० ६० ४. वही, पृ० ६१ ५. खण्डनखण्डखाद्य-प्रमापक्ष, पूर्वोक्त, पृ० ४६ ६. द्विविधो हि प्रमाणस्य विषयो ग्रहयोऽध्यवसेयश्च - न्यायबिन्दु टीका, पृ० १६ ७. खण्डनखण्डखाध:प्रमापक्ष, पृ० ४६-४७ ८. एतच्चानुमान ज्ञानं क्वचिद् प्रत्यक्षं क्वचिद् प्रत्यक्षमेव, प्रमाणवार्तिक भाष्य, पृ० ३३२ ९. भारतीय ज्ञानमीमांसा, डॉ. नीलिमा सिन्हा, पृ० ३५ १०. स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम् - स्वयंभूस्तोत्र, ६३ ११. प्रमाणं स्वपराभासिज्ञानं बाधविर्वजितम्, न्यायावतार, १ १२. व्यवसायात्मकं ज्ञानमात्माग्राहकं मतम्। ग्रहणं निर्णयस्तेन मुख्यं प्रामाण्यमश्नुते। लघीयस्त्रय, ६० १३. प्रमाणविसंवादिज्ञानमनधिगतार्थधिगमलक्षणत्वात्। अष्टशती, अष्टसहस्री, पृ १७५ १४. स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्, परीक्षामुख १-१ १५. सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्। स्वार्थव्यवसायात्मकंज्ञानं सम्यग्ज्ञानम्। प्रमाणपरीक्षा, विद्यानन्द, सम्पा. दरंबारीलाल कोठिया, वीरसेवा मन्दिर ट्रस्ट, वाराणसी, १९७७, पृ:१ १६. परीक्षामुख - १/२ १७. प्रमाणनयतत्त्वालोक, १/२ १८. प्रमाणमीमांसा, १/१/२ १९. वही २०. प्रमाणमीमांसा, १/१/४ २१. न्यायमंजरी, पृ० २३ २२. वेदांतपरिभाषा, पृ० १६ २३. सर्वदर्शनसंग्रह, पृ० १३७
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