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________________ 32 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 2, अप्रैल-जून, 2015 व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में अप्रत्याख्यानक्रिया के सम्बन्ध में गणधर गौतम ने भगवान महावीर से जिज्ञासा की कि क्या श्रेष्ठी और दरिद्र को, रंक और क्षत्रिय (राजा) को अप्रत्याख्यान क्रिया अर्थात् कर्मबन्ध समान होता है ? भगवान् हेतु सहित उत्तर देते हुए कहते हैं-'गोयमा! अविरतिं पडुच्च; से तेणट्टेणं गोयमा! एवं वुच्चइ सेटिट्ठस्स य तणुयस्स य किविणस्स य खत्तियस्स य समा चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ।' अर्थात् हे गौतम! अविरति के कारण श्रेष्ठी, दरिद्र, कृपण (रंक) और राजा को अप्रत्याख्यान क्रिया -कर्मबन्ध समान होता है। यह वाद स्पष्ट कर रहा है कि कर्म-बन्धन का नियम राजा और रंक में कोई भेद नहीं करता है, वह सबके लिए समान है। अत: धर्म-साधना कोई गरीब भी उतने ही सामर्थ्य से कर सकता है, जितना कि कोई अमीर व्यक्ति। व्याख्याप्रज्ञप्ति के द्वितीय शतक में स्थविरों और श्रमणोपासकों के मध्य संयम और तप-फल के सम्बन्ध में वाद हुआ। श्रमणोपासकों के पूछने पर स्थविर कहते हैं कि संयम का फल अनास्रवता और तप का फल व्यवदान अर्थात् कर्मों का विशेष रूप से काटना या मलिन आत्मा को शुद्ध करना है। प्रत्युत्तर में श्रमणोपासक पुनः प्रश्न करते हैं कि यदि संयम का फल अनास्रवता है और तप का फल व्यवदान है तो देव देवलोक में किस कारण से उत्पन्न होते हैं? यह प्रतिप्रश्न संकेत करता है कि उनके मन में यह धारणा बनी हुई है कि संयम और तप से देवलोक प्राप्त होता है। स्थविर इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि रागयुक्त तप से, सराग-संयम से, कर्मिता (कर्मक्षय न होने से), संगिता (द्रव्यासक्ति) से देव देवलोक में उत्पन्न होते हैं। इस वाद के द्वारा श्रमणोपासकों की संयम और तप से देवलोक-प्राप्ति की मिथ्याधारणा समाप्त हो गई तथा वे संयम और तप के सम्यक् प्रयोजन को समझ पाए। इसप्रकार जैनागमों में श्रमणों, श्रमणोपासकों और स्वयं भगवान महावीर के वादों का वर्णन प्रस्तुत हुआ है। तत्त्वबोध के प्रयोजन से किये जाने वाले ये वाद वीतरागकथा कहे जाते हैं क्योंकि इनमें जय-पराजय को कोई स्थान नहीं होता है। धर्मप्रचार के साधन के रूप में वाद का महत्त्व रहा है। यही कारण है कि भगवान् महावीर के ऋद्धिप्राप्त शिष्यों की गणना में वाद-प्रवीण शिष्यों की पृथक् गणना की गई है। स्थानांगसूत्र में कहा है'समणस्स णं भगवओ महावीरस्स चत्तारि सया वादीणं सदेवमणुयासुराए . परिसाए अपराजियाणं उक्कोसिता वादिसंपया हुत्था'।
SR No.525092
Book TitleSramana 2015 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size15 MB
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