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________________ संस्कृत छाया अथ भयतरलाक्ष्या इतस्ततस्तत्र परिभ्रमन्त्यां । उन्मार्गगमनभञ्जत्कण्टकाऽऽकीर्णचरणया ।। २१७ ।। पथश्रमश्रान्तया द्धं पदे पदे निःसहं क्वणन्त्या । वसत्यन्वेषणहेतुं चटित्वा स्थलैकस्मिन् ।। २१८ ।। यावद् छष्टं समन्तात्तावन्न श्यते कथमपि वसतिरिति । विचरद्व्यालनिवहाः समन्ततो भीषणाऽटवी ।। २१९ ।। तिसृभिः कुलकम् गुजराती अनुवाद २१८-२११. हवे अयथी फरती आंखवाली जंगलमा अहीं तहीं फरती, उन्मार्गमां जवाथी भांगेला कांटा थी भोंकायेला पगवाली...मार्गना श्रमथी थाकेली होवाथी पगले-पगले अत्यंत कणसती, वसतिने शोधवा माटे एक स्थळमां चडीने... ज्यां चारेबाजु जोयुं त्यं कोई वसति देखाई नहीं, पण फरतां व्याल-वाघना समूह वाली चारे बाजु भयंकर अटवी देखाई... (तिसृधिः विशेषकम्) हिन्दी अनुवाद भय के कारण मेरी आँखें फड़क रही थीं, गलत रास्ते पर भटक जाने के कारण पैरों में काँटे चुभ गए थे, चलते चलते थक जाने और पैर के कांटे के कारण कराहती, आस-पास कोई बस्ती है या नहीं, यह देखने के लिए एक ऊँचे स्थान पर चढ़कर चारों तरफ देखी किन्तु कोई बस्ती नहीं दिखाई दी किन्तु शेर बाघ वाला भयंकर जंगल अवश्य दिखाई दिया। गाहा अविय। कत्थ य कराल-केसरि-गुंजिय-सवणुत्तसंत-सारंगा । कत्थइ महंत-जुझंत-मत्त-वण-महिसयाइन्ना ।।२२०।। संस्कृत छाया अपि च । कुत्र च करालकेशरिगर्जनाश्रवणोत्रसत्सारङ्गाः । कुत्रापि महद्युध्यमानमत्तवनमहिषाकीर्णाः ।। २२० ।।
SR No.525092
Book TitleSramana 2015 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size15 MB
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