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________________ गाहा दीहं नीससिऊणं भणियं समरप्पिएण सुण देव!। करि-वर-दिसा-पयट्टा पत्ता अडवीइ ता अम्हे ।।१२६।। संस्कृत छाया दीर्घ निश्वस्य भणितं समरप्रियेण शृणु देव !। करिवरदिक्प्रवृत्ताः प्राप्ता अटव्यां तस्माद् वयम् ।। १२६ ।। गुजराती अनुवाद १२६. दीर्घ निःसासो नाखीने समरप्रिये कह्यु- हे देव! सांभलो, हाथीनी दिशामां जतां अमे जंगलमां पहोंच्या. हिन्दी अनुवाद लम्बी सांस लेकर समरप्रिय ने कहा, 'हे देव! सुनिए, हाथी की दिशा में जाते हुए हम जंगल में पहुँचे। गाहा तत्थ य बहु-प्पयारं गवेसमाणेहिं देव! अम्हेहिं । दिवो न सो करि-वरो नेव य देवी न य पउत्ती।।१२७।। संस्कृत छाया तत्र च बहुप्रकारं गवेषयमाणै-देव ! अस्माभिः । छष्टो न स करिवरो नैव च देवी न च प्रवृत्तिः ।। १२७ ।। गुजराती अनुवाद १२०. त्या अनेक प्रकारे शोध करतां पण हे राजन! अपारा वडे ते हाथी जोवायो नथी के नथी जोवाई देवी प्राप्ति माटे कोई प्रवृत्ति पण जोवाई नथी. हिन्दी अनुवाद वहां अनेक प्रकार से खोजने पर भी वह हाथी नहीं मिला और देवी भी नहीं मिलीं। उनकी किसी प्रवृत्ति के विषय में कुछ भी पता नहीं चला। गाहा अवरावव-सवर-गणं पुच्छंताणं सुदूर-पत्ताणं । अह अन्न-दिणे कहियं कप्पडिय-नरेण एक्केण ।।१२८।।
SR No.525092
Book TitleSramana 2015 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size15 MB
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