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________________ मुद्राराक्षस में प्रयुक्त प्राकृतों का सार्थक्य : 21 व्याकरणों में सबसे पहले इसी का वर्णन रहता है। दूसरी प्राकृतों के विषय में उनके विशेष नियम देकर कह दिया जाता है ‘शेषं महाराष्ट्रीवत्' अर्थात् शेष महाराष्ट्री की भाँति। भरत ने नाट्यशास्त्र में आवन्ती और वाह्लीकी भाषा का उल्लेख महाराष्ट्री के सन्दर्भ में किया है। उन्होंने नाटकों में धूर्त पात्रों के लिए आवन्ती का और द्यूतकारों के लिए वाह्लीकी का प्रयोग कहा है। कालिदास से लेकर उसके बाद के सभी नाटकों में पद्य में प्राय: महाराष्ट्री भाषा का ही व्यवहार देखा जाता है। नाटकों के स्त्री पात्र अपने गीत महाराष्ट्री में गाते हैं। शौरसेनी प्राकृत मध्यदेश की भाषा थी। संस्कृत-नाटकों में प्राकृत गद्यांश सामान्य रूप से शौरसेनी भाषा में लिखा गया है। भरत के नाट्यशास्त्र में शौरसेनी भाषा का उल्लेख है, उन्होंने नाटक में नायिका और सखियों के लिए इस भाषा का प्रयोग बताया है। मागधी पूर्व प्रान्त की प्राकृत है। इसका केन्द्र प्राचीन मगध देश था। नाटकों में नीच पात्र मागधी बोलते हैं। भरत के नाट्यशास्त्र में मागधी भाषा का उल्लेख है और उन्होंने नाटकों में राजा के अन्तःपुर में रहनेवाले, सुरंग खोदनेवाले, कलवार, अश्वपालक वगैरह पात्रों के लिए और विपत्ति में नायक के लिए भी इस भाषा का प्रयोग करने को कहा है।१४ परन्तु मार्कण्डेय द्वारा अपने प्राकृतसर्वस्व में उद्धृत किये हुए कोहल के ‘राक्षसभिक्षक्षपणकचेटाद्या मागधी प्राहुः' इस वचन से मालूम होता है कि भरत के कहे हुए उक्त पात्रों के अतिरिक्त भिक्षु, क्षपणक आदि अन्य लोग भी इस भाषा का व्यवहार करते थे। नाटकीय प्राकृतों में मागधी भाषा के उदाहरण देखे जाते हैं। नाटकीय मागधी के सर्व-प्राचीन नमूने अश्वघोष के नाटकों के खण्डित अंशों में मिलते हैं। भास के नाटकों में, कालिदास के नाटकों में और मृच्छकटिक आदि नाटकों में मागधी भाषा के उदाहरण विद्यमान हैं। वर्ण विकार में यह प्राकृत अन्य प्राकृतों से बहुत भेद रखती है। इसमें संस्कृत स को श और र को ल हो जाता है। य यथास्थित रहता है बल्कि ज का भी य हो जाता है। नाट्याचार्यों द्वारा परिगणित दस प्रकार के रूपकों और अट्ठारह प्रकार के उपरूपकों में भाण, डिम, बीथी, त्रोटक, सट्टक, गोष्ठी प्रेखण रसक, हल्लीसक और भाणिक चूँकि लोकन्सट्य के प्रकार हैं, इसलिए अनुमान है कि ये मूलतः प्राकृत में ही रहे होंगे। रूपक-उपरूपक के उक्त भेदों में प्रायः वे ही पात्र हैं जो प्राकृत में कथोपकथन करते हैं। प्राकृत-भाषाओं का प्रथम नाटकीय प्रयोग संस्कृत के रूपकों में उपलब्ध होता है। संस्कृत नाटकों में मुख्यत: अश्वघोष से लेकर राजशेखर पर्यन्त के नाटकों में
SR No.525092
Book TitleSramana 2015 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size15 MB
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