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________________ मुद्राराक्षस में प्रयुक्त प्राकृतों का सार्थक्य : 25 संस्कृत नाटकों में नीच कोटि के पात्र मागधी का प्रयोग करते हैं। क्षपणक, चाण्डाल, सिद्धार्थक, समिद्धार्थक, चेट, चेटी, वज्रलोमा आदि पात्र मागधी का प्रयोग करते हैं। मुद्राराक्षस के सप्तम् अंक के तृतीय श्लोक में मागधी का प्रयोग इस प्रकार है - मोतूण आमिसाइं मरणभएण तिणेहिं जीअंतं। वाहाण मुद्धहरिणं हन्तुं को णाम णिब्बंधो।। २४ अर्थात् मृत्यु भय से मांस छोड़कर तृणों से जीवन-यापन करने वाले भोले हिरणों को मारने में शिकारियों का कौन सा आग्रह है। मुद्राराक्षस के सप्तम् अंक में चाण्डाल वालोमा के कथन में भी मागधी का प्रयोग देखा जा सकता है - एसो अज्जणीदिसंजमिदबुद्धिपुलिसआले गिहीदे अमच्चरक्खसे त्ति। २५ अर्थात् आर्य की नीति से कुण्ठित बुद्धि और पुरुषार्थवाले अमात्य राक्षस पकड़ लिये गये हैं। राक्षस द्वारा द्वितीय अंक में मागधी का प्रयोग द्रष्टव्य है - पाऊण निरवसेसं कुसुमरसं कुसलदाए अत्तणो। जं उग्गिरेइ भमरो अण्णाणं कुणइ तं कज्ज।। २६ अर्थात् भ्रमर (मधुमक्खी ) अपनी चतुरता से समस्त पुष्परस को पीकर जो वस्तु बाहर निकालता है, वह दूसरे (देव पित) के कार्य को करता है। इसका पक्षान्तर यह है कि भ्रमर के समान मैं आपका दूत अपनी चतुरता से समस्त कुसुमपुर के वृत्तान्त को जानकर आपसे जो कुछ कहता हूं, वह कहा हुआ मेरा वचन आपके सन्धि, विग्रह आदि कार्य का साधन बनेगा। षष्ठ अंक के प्रारम्भ में ही सिद्धार्थक का कथन इस प्रकार है - जअदि जलदणीलो केसवो केसिघादी जअदि अ जणदिट्टि चन्दमा चन्दउत्तो। जअदि जअणकज्जं जाव काऊण सव्वं। पडिहदपरपक्खा अज्जचाणक्कणीदी।। २७ अर्थात् मेघ के समान श्यामवर्ण वाले तथा केशी नामक राक्षस को मारने वाले विष्णु की जय हो। मनुष्यों की दृष्टि के लिए चन्द्रतुल्य चन्द्रगुप्त की जय हो। युद्धार्थ उद्यत
SR No.525092
Book TitleSramana 2015 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2015
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size15 MB
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