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________________ नैषधीयचरितम् (प्रथमः सर्गः) सम्पादक : अनुवादक मोहनदेव पन्त मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली * मुम्बई * कलकत्ता * चेन्नई * बंगलौर पुणे * वाराणसी * पटना
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________________ महाकविश्रीहर्षप्रणीतं नैषधीयचरित-महाकाव्यम् 'छात्रतोषिणी'-टीका-सहितम् विस्तृत-टिप्पणी-भूमिका-हिन्दीभाषानुवादोपतञ्च टीकाटिप्पणीकारो हिन्दीभाषानुवादकश्च मोहनदेवपन्तः अम्बालास्कन्धावारस्थ-दीवान-कृष्णकिशोरसनातनधर्म-संस्कृत-महाविद्यालयस्य सेवानिवृत्तप्रधानाचार्यः मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली * मुम्बई * कलकत्ता * चेन्नई * बंगलौर .. , पुणे * वाराणसी * पटना
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________________ प्रथम संस्करण : वाराणसी, 1976 पुनर्मुद्रण : दिल्ली, 1994, 1997 (c) मोतीलाल बनारसीदास बंगलो रोड, जवाहर नगर, दिल्ली 110 007 8, महालक्ष्मी चैम्बर, वार्डेन रोड, मुम्बई 400 026 120, रायपेट्टा हाई रोड, मैलापुर, मद्रास 600 004 सनाज प्लाजा, सुभाष नगर, पुणे 411 002 16, सेन्ट मार्कस रोड, बंगलौर 560 001 8, कैमेक स्ट्रीट, कलकत्ता 700 017 अशोक राजपथ, पटना 800 004 . चौक, वाराणसी 221 001 मूल्य : रु०२८ नरेन्द्रप्रकाश जैन, मोतीलाल बनारसीदास, बंगलो रोड, दिल्ली 110 007 द्वारा प्रकाशित तथा जैनेन्द्रप्रकाश जैन, श्री जैनेन्द्र प्रेस, ए-४५ नारायणा, फेज़-१, नई दिल्ली 110 028 द्वारा मुद्रित
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________________ दो शब्द उत्कृष्ट काव्य होने के कारण श्रीहर्ष के नैषधीय चरित के पठन-पाठन का पहले से ही बड़ा प्रचार है। यह प्रायः सभी उच्च परीक्षाओं में पाठ्यपुस्तक के रूप में भी नियत रहता है। इसे पढ़ाते समय छात्र-वर्ग का मुझ से बार-बार आग्रह होता रहता था कि मैं अपने मालोचनात्मक ढंम से इस पर मी 'छात्रतोषिषो' लिखू। उनका भाग्रह मैंने मान तो लिया, लेकिन मेरे पास समय न था। कॉलेज से सेवा-निवृत्त होने पर ही मुझे समय मिला। इसी बीच दिल्ली के प्रसिद्ध प्रकाशक मोतीलाल-बनारसीदास वालों ने मी मुझ से इस पर टीका लिखने का अनुरोध किया और मैंने यह 'छात्रतोषिणी' लिख दी। यो सच पूछो तो नैषध काव्य पर नयी और पुरानी कितनी ही टीकार्य लिखी गई हैं। प्रसिद्ध पाश्चात्त्य विद्वान् डा० ऑफेक्ट ने अपनी ग्रन्यकार सूची में ( Catelogus Catalogorum) में नैषध के ये 23 टीकाकार गिना रखे है-मानन्दराजानक, ईशानदेव, उदयनाचार्य (न्यायाचार्य से भिन्न ) गोपानाथ, चाण्डू पण्डित, चारित्रवर्धन, जिनराज, नरहरि, नारायण, भगीरथ, भरतसेन, भवदत्त, मथुरानाथ, मल्लिनाथ, महादेव विद्यावागीश, रामचन्द्र शेष, वंशोवदन शर्मा, विद्याधर, विद्यारण्य योगो, विश्वेश्वराचार्य, मोदत्त, श्रीनाथ और सदानन्द / इनमें से सर्वप्रथम टीकाकार विद्याधर (1250-60 के लगमग ) हैं जिनको टोका 'साहित्यविद्याधरो' नाम से विख्यात है / इनके बाद 1353 ( वैक्रम ) में खिो चाण्डू पंडित की 'दोपिका' टीका आती है। ये वही चाण्डू पंडित हैं, जिन्होंने सायप्प से पहले ऋग्वेद पर मी माव्य लिखा था जो अब लुप्त है। तत्पश्चात् ईशानदेव, नरहरि, विश्वेश्वर, जिनराज, मल्लिनाथ और नारायण की टीकायें आती हैं। मल्लिनाथ की टोका का नाम 'जीवातु' और नारायण की टोका का नाम 'प्रकाश' है। ये दोनों आजकल प्रकाशित मिलती हैं। कुछ समय पूर्व सदानन्द को टीका मो मुझे मुद्रित मिठो थी, लेकिन वह अब नहीं मिलती। अन्य टीकाओं में बहुत सी लुप्त हो गई हैं। कुछ ऐसी हैं जो हस्तलिखित रूप में तत्तत् ग्रन्थालयों में सुरक्षित हैं, किन्तु कितनी हो अधूरी हैं, किन्हीं में कुछ ही सर्ग मिलते हैं। कृष्णकान्त हण्डोकी ने स्वसंपादित और अंग्रेजी में अनुवादित नैषध में तत्तत् टोकाओं की पाण्डुलिपियों में से अपनी टिप्पणियों में यत्र-तत्र उद्धरण दे रखे हैं। म० म० शिवदत्त ने साहित्यविद्याधरी को पाण्डुलिपि जयपुर के राजगुरु श्रीनारायण मट्ट से प्राप्त करके विद्याधर द्वारा किया हुआ प्रत्येक श्लोक में अलंकारविवेचन स्वसंपादित नेषष के पाद-टिप्पण में उद्धृत कर रखा है। इस तरह नैषध पर इतनी अधिक संख्या में टीकाओं के लिखे जाने से सिद्ध होता है कि यह कान्य प्राचीन काल से ही कितना अधिक लोकप्रिय बना चला पा रहा है। वर्तमान काल में नेषध को मल्लिनाथ प्रणीत 'जीवातु' और नारायण प्रपीत 'प्रकाश' इन दोनों
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________________ [ 2 ] टीकाओं का पठन-पाठन में प्रचार हैं। प्राचीन टीकाकारों की तरह नारायण जहाँ 'खण्डान्वय' से चलते हैं, वहाँ मल्लिनाथ 'दण्डान्वय' से। नारायणी टीका बड़ी विस्तृत है और अनेकों अर्थों का विकल्प सामने रखकर पाठक को द्विविधा में डाल देती है कि कौन-सा अर्थ लें, कौन-सा न लें, जब कि मल्लिनाथ टीका संक्षिप्त है / नारायण ने अलंकारों का कोई विवेचन नहीं किया, मल्लिनाथ ने किया है। ऐसी स्थिति में कोमल-मति छात्रों हेतु एक सरल, प्रकरण-परक, आलोचनात्मक ढंग से लिखी टीका की कमी अनुभव हो रही थी। हाल ही में पं० जगद्राम शास्त्रो ने पाँच सगों तक एक टीका अवश्य लिखी है, किन्तु वे अपेक्षित आलोचनात्मक ढंग नहीं अपना सके। इसलिए इस कमी की पूर्ति हेतु मेरा यह लघु प्रयास है। इसमें मैं कहाँ तक सफल हुआ है-यह छात्र-वर्ग ही बताएगा। मूल-पाठ मैंने नारायण का अपनाया है, किन्तु जीवातु की तरह मैं दण्डान्वय से चला हूँ। अन्वय और टीका करके टिप्पणी में हरेक बात की आलोचना कर गया हूँ। व्याकरण का पृथक् स्तम्भ बनाकर शब्दों की व्युत्पत्ति भी बता दी है / लाघव की दृष्टि से समासों को मैं व्याकरण-स्तम्भ में न रखकर टीका के साथ-साथ ही ब्रैकटों में स्पष्ट कर गया हूँ। जैसा कि नियम है, अनुवाद की माषा शाब्दिक और चलती हो रखी है। आरम्म में एक आलोचनात्मक विस्तृत भूमिका भी दे दी है। प्रस्तुत पुस्तक लिखने में मुझे कृष्णकान्त हण्डीको के टिप्पणों और अंग्रेजी अनुवाद तथा म० म० शिवदत्त द्वारा सपादित नारायणी टोका वाले नैषध से सहायता मिली है। चौखम्बा वालों द्वारा प्रकाशित मल्लिनाथ की 'जीवातु' से मी मैंने लाम उठाया है। अतः इन समो महानुभावों का मैं कृतश हूँ। मैं मोतीलाल बनारसीदास वालों का भी आभारी हूँ, जिन्होंने इस पुस्तक को प्रकाशित करने का मार उठाया है। दिल्ली से दूर रहने के कारण मुझे प्रफ देखने की सुविधा नहीं मिली, इसलिए मुद्रण में जो कुछ अशुद्धियां रह गई हो, उनके लिए मैं पाठकों से क्षमाप्राथी हूँ। देहरादून दीपावली 22-10-76 मोहनदेव पन्त
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________________ भूमिका श्रीहर्ष द्वारा प्रारमपरिचय-प्राचीन संस्कृत कवियों के सम्बन्ध में यह बात आम पाई जातो है कि वे इतने निरमिमानी रहे कि अपने व्यक्तिगत जीवन के विषय में कोई जानकारी नहीं दे गये। कालिदास, भास प्रभृति मूर्धन्य कलाकारों का जीवन-वृत्त भाज तक अन्धकार के गर्त में पड़ा हुआ है / उनके सम्बन्ध में निश्चित रूप से हम अब तक कुछ नहीं जान पा रहे हैं; अटकल ही लगा रहे हैं, किन्तु अपवाद-स्परूप बापम की तरह मीहर्ष भो इस कोटि में नहीं आते। इन्होंने अपनी कृति 'नैषधीय-चरित' में माता-पिता, रचनायें, आश्रित राजा आदि का थोड़ा-बहुत परिचय स्वयं दे रखा है। इनके सम्बन्ध में बाह्य साक्ष्य भी पर्याप्त मात्रा में मिल जाते हैं। इनके नैषध के प्रत्येक सर्ग का अन्तिम श्लोक व्यक्तिगत संकेतपरक है। इन्होंने अपने पिता का नाम भीहोर और माता का नाम मामल्लदेवी बता रखा है। पिता को इन्होंने 'कविराज-राजिमुकुटालंकारहोरः१ अर्थात् कवि-मण्डल के मुकुटों में अलंकार-स्वरूप हीरे के रूप में स्मरण किया है, जो काशीनरेश विजय-चन्द की राजसभा के प्रधान पण्डित थे। योग्य पिता के योग्य पुत्र श्रीहर्ष मो विद्वत्ता और काव्य-क्षेत्र में अपने पिता से किसी वरह कम नहीं रहे, प्रत्युत उनसे एक पग आगे ही बढ़े हुये हैं। ये मी पिता की तरह विजयचन्द के पुत्र जयचन्द्र को राज-सभा के प्रधान पण्डित और राजकवि बने रहे। उन्हें राज-दरबार में पान के दो बीड़े और आसन राजकीय सम्मान के रूप में प्राप्त थे / इससे स्पष्ट हो जाता है कि ये कितने प्रकाण्ड विद्वान् तथा महाकवि थे। किन्तु ध्यान रहे कि प्रकृत काव्यकार श्रोहर्ष बाण के सम-सामयिक नाटककार श्रीहर्ष ( सम्राट हर्षवर्धन ) से भिन्न हैं / नाटककार के नाम के साथ श्री शब्द आदरार्थ जोड़ा जाता है, जबकि काव्यकार का नाम ही श्रीहर्ष है। अपने प्रति आदरार्थ श्री जोड़ने पर इन्होंने अपने को श्रीश्रीहर्ष कह रखा है / देश काल-श्रीहर्ष का जन्म अथवा निवास स्थान कौन था-इस विषय में इन्होंने अपनी कृति में स्वयं कोई संकेत नहीं दिया है। इसलिये यह प्रश्न विवादग्रस्त है। इस पर विद्वानों के मिन्नभिन्न विचार हैं। डा० मट्टाचार्य-जैसे बंगाली विद्वानों का कहना है कि श्रीहर्ष गौड़ देश के निवासी थे। उनका तर्क नैषध के सातवें सर्ग के अन्तिम श्लोक में कवि द्वारा उल्लिखित अपने 'गाडोवीशकुलप्रशस्ति४ नामक ग्रन्थ में गौड़ राजवंश की प्रशस्ति पर आधारित हैं। गौड़ देश बंगाल को कहते हैं। 1. 'मोहर्षः कविराज-राजि-मुकुटालंकार-होरः सुतम् / श्रीहोरः सुषुवे मितेन्द्रियचयं मामल्ल देवी च यम् // 1 // 2. ताम्बूल-व्यमासनं च लमते यः कान्यकुब्जेश्वरात् (22 / 153) / 3. श्रीश्रीहर्षकवेः कृतिः (22 / 155) / 4. 'गौडोवीशकुलपशस्तिमणितिभ्रातयंयम् /
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________________ बदि श्रीहर्ष गौड़देशीय नहीं होते तो गौड़-राज वंश की प्रशंसा में क्यों ग्रन्थ लिखते ? किन्तु हमारे विचार से जब तक उक्त ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हो जाता तब तक निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता / इस ग्रन्थ के आधार पर बंगालियों का श्रीहर्ष को बंगाली कहना उनकी ऐसी ही अटकल समझिये जैसे कालिदास नाम के आगे काली शब्द जुड़ने से उनका कालिदास को कालिकांपासक बंगाल देश का निवासी कहना / डाक्टर साहब अपने मत की पुष्टि हेतु दूसरा तर्क * ह भी देते हैं कि श्रीहर्ष ने दमयन्ती के विवाहोत्सव पर पुर-सुन्दरियों द्वारा हर्ष में की हुई 'उलूलु' ध्वनि का उल्लेख किया है। बंगाल में ही विवाहादि मांगलिक अवसरों पर महिलायें हथेली को गोलाकार करके शंख की तरह हाथ के खोखले में मुँह से फूंक मारकर उलूलु-ध्वनि किया करती हैं। इसका समर्थन उन्हें नारायण को इस टोका से मिला-'विवाहाद्युत्सवे स्त्रीणां धवलादिमङ्गलगोतिविशेषो गौड़देशे 'उललः' इत्युच्यते / सोऽव्यक्तवर्ण उच्चार्यते / स्वदेश-रीतिः कविनोका / किन्तु नारायण की व्याख्या कोई अकाट्य प्रमाण नहीं हो सकती। मल्लिनाथ ने 'उदीच्यानामाचारः' कहकर उत्तर भारत मात्र में यह आचार माना है। तभी तो काश्मीरी पंडित कहे जाने वाले मुरारि ने अपने 'अनर्घराघव' में सीता के विवाह के समय पुर-सुन्दरियों द्वारा की जाने वाली उल्लु-ध्वनि का उल्लेख किया है / 2 उक्त नाटक के टीकाकार रुचिपति ने इस लोकाचार को दक्षिण भारत में माना है 3 / कितने ही अन्य काव्यकारों ने भी अपनी कृतियों के भीतर तत्तत् देशों में इस प्रथा के प्रचलन को उल्लेख कर रखा है, जिनमें से उद्धरणों को देकर हम यहाँ विस्तार में नहीं जाना चाहेंगे। इसी तरह उक्त डाक्टर महोदय ने विवाहादि के समय नैषध में उल्लिखित 'आलेपन' प्रथा का बंगाल में होने का तर्क भी दिया है। आलेपन गेरू से जमीन लाल करके उसके ऊपर पिष्टोदक ('पीठे' ) से की जाने वाली तरह-तरह की माङ्गलिक चित्रकारी को कहते हैं / इसे अल्पना भी कहते हैं किन्तु यह प्रथा भी बंगाल तक ही सीमित नहीं है, देश-व्यापक है, इसलिए उनका यह तकं मी अनैकान्तिक है / ___ कुछ ऐसे भी विद्वान् हैं, जो श्रीहर्ष की माता के मामल्लदेवी नाम से यह अटकल लगाते हैं कि महिलाओं के ऐसे विचित्र नाम उत्तर मारत में न होकर काश्मीर में हुमा करते हैं उनके अनुसार मम्मट को श्रीहर्ष का मामा बताते हैं / अतः कवि भी काश्मीरी पण्डित रहे होंगे, लेकिन यह भी उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि-जैसे हम श्रीहर्षके व्यक्तिगत जीवन में आगे बताएँगे-श्रीहर्ष यदि काश्मीरी होते, तो जब वे काश्मीर गये थे तो वहां अपने को काश्मीर-नरेश के आगे 'वैदेशिकोऽस्मि' यह न कहते, न काश्मीरी पण्डितों के हाथों उनकी वहां जो दुर्गति बुई, वह होती और नहीं राजा के आगे अपने को काश्मीरी भाषा से अनभिज्ञ कहते / इसलिये कुछ विद्वानों के कथनानुसार वातापि के समीप मामल्लपुर एक कसवा है, जो श्रीहर्षकी माता का जन्म-स्थान था। उसी कसबे के नाम 1. सैवाननेभ्यः पुर-सुन्दरीणामुच्चैरुलूलुध्वनिरुच्चचार / (14.51) / 2. वैदेही-कर-बन्धु-मङ्गलयजुःसक्तं द्विजानां मुखे, नारीणां च कपोलकन्दलतले श्रेयानुलूलु ध्वनिः (3.55) / 3. 'उलउली' इति प्रसिद्धः दक्षिणदेशे विवाहाधवसरे स्त्रीमिरुललुध्वनिः किथवे इत्याचारः /
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________________ [ 3 ] से उनको मामल्लदेवी कहा गया। काश्मीर से इसका कोई सम्बन्ध नहीं / प्रसिद्ध साहित्यशास्त्री मम्मट कवि के मामा थे / इस पर हम आगे विचार करेंगे। __इस प्रकार श्रीहर्ष के जन्म-स्थान के सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ मी कह सकने योग्य न होने पर भी इतना ही हम निश्चय से कह सकते हैं कि जिस तरह कालिदास के जन्म-स्थान का पता न होने पर भी उनका जीवन उज्जयिनी में बोता, उसी तरह श्रीहर्ष के जन्म-स्थान का निश्चय न होने पर मी जिस स्थान में उन्होंने अपना जीवन-निर्वाह किया और वे फले फूले, वह कन्नौज था। यह उन्होंने स्वयं स्वीकार भी किया है जैसा कि हम पोछे बता आये हैं। कन्नौज की सीमा तब काशी तक पहुँची हुई थी। इसीलिये इनके पिता को काशीनरेश का राजपण्डित भी कहते थे, मले ही ये लोग मूलतः गौड़देशीय रहे हों और इनकी धमनियों में बंगाली खून बहता हो। ___ जहाँ तक श्रीहर्ष के स्थिति-काल का प्रश्न है, वह निश्चित-प्राय ही समझिये / हम पीछे स्पष्ट कर चुके हैं कि श्रीहर्ष कान्यकुब्जेश्वर की राजसभा के पण्डित थे / इस सम्बन्ध में अब हमें इतना मात्र निश्चय करना है कि यह कान्यकुब्जेश्वर कौन थे तथा उनका स्थित-काल क्या है। प्रसिद्ध जैन कवि राजशेखर ने अपने 'प्रबन्ध-कोश' ( 1348 ई० में लिखित ) के अन्तर्गत 'श्रीहर्ष-विद्याधरजयन्तचन्द्र-प्रबन्ध' में श्रीहर्ष की जो जीवनी दे रखी है, तदनुसार यह कान्यकुब्जेश्वर जयन्तचन्द्र ( जयचन्द्र ) थे, जिनके पिता का नाम विजयचन्द्र था जिनको प्रशंसा में श्रीहर्ष ने नैषध के पन्चम सर्ग के अन्त में संकेतित अपने 'श्रीविजयप्रशस्ति' नामक ग्रन्थ की रचना की थी। ये वही जयचन्द्र हैं, जिनकी कन्या सयोगिता को स्वयंवर-स्थल से दिल्ली राज्य के अन्तिम नरेश पृथ्वीराज चौहान ने बलात् अपहरण कर लिया था। इतिहास में यह वह समय है जब भारतीय राजाओं में आपसो फूट का लाभ उठाकर मुहम्मद गोरी ने आक्रमण करके देश को हथिया लिया था और मुस्लिम साम्राज्य की नींव डाली थी। इतिहास के अनुसार जयचन्द का शासन काल 1168-94 ई० हैं। यह जयचन्द के यौवराज्यभिषेक के बाद भारद्वाजगोत्रीय डोडराउत श्रीअणंग नामक ब्राह्मण को दान में दिये गये कैमोली ग्राम के दान-पत्र से भी सिद्ध हो जाती है, जिसमें दान का समय 'त्रिचत्वारिंशदधिक-द्वादशसम्वत्सरे, अङ्कतोऽपि सम्बत् 1243' अर्थात् 1166 ई० स्पष्ट उल्लिखित है / 1 फलतः श्रीहर्ष का स्थिति-काल बारहवीं शती ई० का उत्तराधे ठहरता है। ___ कुछ विद्वान् कहते हैं कि चन्दबरदाई कवि ने अपने 'पृथ्वीराज रासो' के प्रारम्भिक मंगलाचरण पदों में पूर्ववती कवियों का स्मरण करते हुये श्रीहर्षको कालिदास का पूर्ववती कहा है 2 / इससे सिद्ध होता है कि श्रीहर्ष बड़े प्राचीन कवि हैं। यदि वे बारहवीं शती ई० के होते, तो वे चन्दबरदाई के समसामयिक ही ठहरते हैं। ऐसी स्थिति में यह कैसे संभव है कि श्रीहर्ष और उनका नैषध काम्य अपने ही समय में इतना लोक-विख्यात हो जाय कि अपने ही समसामयिक चन्दबरदाई के वन्दनम 1. Indian Antiquary (1511-12), अभिलेख 22 / 2. नरं रूपं पन्चम्मं श्रीहर्षसारं, नले राय कंठं दिने पद्ध हारं // छठं कालिदासं सुभाषा सुबद्धं , जिनै बागबानी सुबानी सुबद्धं //
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________________ [ 4 ] पात्र बन जायँ / किन्तु श्रीहर्ष की प्राचीनता के उक्त तक में बल नहीं है। पहले तो प्रचलित पृथ्वीराज-रासो चन्दबरदाई द्वारा प्रणीत है यह प्रश्न ही अमो तक विवाद-ग्रस्त है, क्योंकि कई विद्वानों और ऐतिहासिकों ने कहा है पृथ्वीराज को मृत्यु के तत्काल बाद मुसलमानों ने चन्दबरदाई को मी मार दिया था। इसके अतिरिक्त रासो में मुसलमानी भाषा के बहुत सारे शब्द आये हुए हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि वह मुस्लिमसाम्राज्य-स्थापना के बहुत समय बाद उनकी माषा के देश में प्रचलित हो जाने पर किसी अन्य ने बनाया है / दूसरे, यदि श्रीहर्ष इतने प्राचीन कलाकार होते, तो कालिदास के ग्रन्यों की तरह परवती साहित्यशास्त्री और आलंकारिक लोग इनके नैषध में से भी अपनी रचनाओं में उद्धरण देते। तीसरे राजशेखर के निम्नलिखित कथन के अनुसार तब तक तीन कालिदास हो चुके थे: 'एकोऽपि जीयते हन्त कालिदासो न केनचित् / शृङ्गारे ललितोद्गारे कालिदास-त्रयी किमु // हो सकता है कि श्रीहर्ष का परवती कोई अमिनव कालिदास चन्दबरदाई को अभीष्ट हो / एक कालिदास राजा भोज (11 वीं शती उत्तरार्द्ध) के समय में भी था, जिसने राजा भोज का वृत्तान्त लिखा है / रासो में मोज-प्रबन्ध का स्पष्ट उल्लेख है / __ इसके अतिरिक्त हम देखते हैं कि विद्याधर के बाद नैषध के दूसरे प्रसिद्ध टीकाकार अहमदाबाद के चाण्डू पंडित ने ( 1269 ई० में लिखी) अपनो टीका में 22 वें सर्ग को समाप्ति पर नैषध को नया काव्य कहा है२ / स्वयं श्रीहर्ष भी अपने श्रीमुख से अपने काव्य को 'कविकुलारष्टाचपान्थे' अर्थात् नया ही कह गये हैं / इससे नैषधकाव्य और उसके प्रणेता को प्राचीनता का निराकरण हो जाता है। वैसे विद्वन्मण्डली में भी श्रीहर्ष का नैषधीय-चरित भारवि द्वारा काव्य क्षेत्र में प्रचलित अलंकृत शैली का अन्तिम श्रेष्ठतम काव्य माना जाता है / इसलिये राजशेखर के 'श्रीहर्षः कान्यकुब्जाधिपतिजयचन्द्रस्य सभासन्महाकविरासोत्' इस कथन के अनुसार श्रीहर्ष का स्थिति काल बारहवीं शती ई० का उत्तरार्ध मानने में हमें कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिये। श्रीहर्ष का व्यक्तिगत जीवन-श्रीहर्ष द्वारा दिये गये आत्म-परिचय के अतिरिक्त राजशेखर ने अपने 'प्रबन्धकोश' में इनके व्यक्तिगत जीवन के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी दे रखी है। उसके अनुसार श्रीहर्ष जब बालक ही थे, तो एक वार इनके पिता हीर को एक विद्वान ने राजा के सामने शास्त्रार्थ में परास्त कर दिया। परास्त करने वाला विद्वान् न्यायशास्त्र का अगाध पण्डित उदयनाचार्य था। 1. कियो कालिका मुख्ख वासं सुसुद्ध। जिन सेतबंध्योति भोजप्रबन्धं // 2. बुद्ध्वा श्रीमुनिदेवसंशविबुधात् काव्यं नवं नैषधम् / 3. 8106 /
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________________ [ 5 ] हार खाया हुआ पिता लज्जा और आत्मग्लानि में घुलता-घुलता मर ही गया, लेकिन मृत्यु से पूर्व अपने पुत्र को कह गया-'बेटा, यदि तू सुपुत्र है, तो मेरे वैरी उस विद्वान् को राज-समा में परास्त करके मेरी पराजय का बदला अवश्य लेना' / पुत्र ने मरणासन्न पिता को वचन दे दिया कि मैं अवश्य ऐसा करूँगा। बालक श्रीहर्ष तीक्ष्य-बुद्धि था ही। बदला लेने की लगन मी हृदय में पकड़ गया। फिर तो क्या था, वह विद्याध्ययनार्थ घर से निकल पड़ा। थोड़े समय के भीतर ही उसने तत्तत् विषयों के विशेष शाता अनेक आचार्यों से सभी शास्त्र पढ़ लिये और किसी 'सुगुरु' द्वारा दिया हुआ चिन्तामणि मन्त्र' गंगा के तट पर एक वर्ष के मीतर सिद्ध कर के भगवती त्रिपुरा के प्रसाद से अगाध विद्वत्ता और मेधा प्राप्त कर ली और राजशेखर के शब्दों में 'खण्डनादि-ग्रन्थान् परःशतान् जग्रन्थ'। फिर श्रीहर्ष जयचन्द की राजसमा में पधारे / राजा ने उनको पण्डितोचित सम्मान दिया। इन्होंने भी उदात्त ढंग से राजा का इस तरह स्तवन किया"गोविन्दनन्दनतया च वपुःश्रिया च, मास्मिन् नृपे कुरुत कामधियं तरुण्यः / अस्वीकरोति जगतां विजये स्मरः स्त्री रस्त्री जनः पुनरनेन विधीयते स्त्री" // . साथ ही 'तारस्वर में इसकी व्याख्या मो को जिसे सुनकर क्या राजा और क्या समासद-सभी इनकी विद्वत्ता से दंग रह शये। राजा इनपर बड़े प्रसन्न हो गये। फिर ये राजसमा में अपने पिता के पराजेता पण्डित को ललकारते हुए बोले: "साहित्ये सुकुमारवस्तुनि दृढन्यायग्रहग्रन्थिले, तकें वा मयि संविधातरि समं लीलायते मारती। शय्या वास्तु मृदूत्तरच्छदवती दर्भाङ्करैरास्तृता, भूमिर्वा हृदयंगमो यदि पतिस्तुल्या रतियोषिताम् // पण्डित बेचारा पहले हो इनके प्रचण्ड पाण्डित्य से हत-प्रभ और हत-प्रतिम हुआ इनका लोहा मान बैठा था। उसकी सारी पंडिताई हिरन हो गई। क्या शास्त्रार्थ करता इस दिग्गज से ! उत्तर में इतना ही बोला "देव वादीन्द्र, भारतीसिद्ध, तव समः कोऽपि न किं पुनरधिकः / हिंसाः सन्ति सहस्रशोऽपि विपिने शौण्डीर्यवीर्योद्यता. स्तस्यैकस्य पुनः स्तुवीमहि महः सिंहस्य विश्वोत्तरम् / केतिः कोलकुलमदो मदकलः कोलाहलं नाहलैः, ___ संहर्षो महिषैश्च यस्य मुमुचे साहंकृते हुकृते // " 1. इस मन्त्र के सम्बन्ध में प्रथम सर्ग के अन्तिम श्लोक में हमारी टिप्पयो देखिए /
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________________ यह सुनकर श्रीहर्ष का क्रोध शान्त हो गया। राजा दोनों पण्डितों को महल के भीतर ले गये और उनका परस्पर आलिंगन कराके पुराना वैर समाप्त करा दिया। श्रीहर्ष को राजा ने एक लाख सुवर्ण-मुद्राएँ पुरस्कार में दीं। शान्त चित्त हुए श्रीहर्ष को एकबार राजा ने कहा-'वादोन्द्र, कोई काव्य रचो' / तदनुसार इन्होंने 'दिव्य रस वाला, महागूढ व्यङ्गयभरा' नैषधीय-चरित महाकाव्य रचा। उसे राजा को दिखाया, तो वे बहुत प्रसन्न हुए और बोले-'तुम्हारा यह कवि-कम बड़ा स्तुत्य है, किन्तु इसे लेकर काश्मीर जाओ और वहाँ के पण्डितों को दिखाकर उनके द्वारा काश्मीर-नरेश माधवदेव से यह प्रमाणपत्र लिखवाकर लाओ कि यह निर्दोष काव्य है।' काश्मीर उस समय वागीश्वरी का निवास-भूत प्रसिद्ध विद्या-केन्द्र था। सभी विद्याओं और विद्वानों की वहाँ परीक्षा हुआ करती थी। श्रीहर्ष अपना अभिनव काव्य लेकर काश्मीर पहुँचे। वहाँ के पंडितों से मिले, तो किसी ने उन्हें खार के कारण मुँह तक नहीं लगाया, काव्य देखने और उसके लिए राजा से प्रमाण-पत्र दिलाने की बात दूर रही। वहाँ रहते-रहते इन्हें बहुत महीने हो गये। पास का सारा द्रव्य मी खर्च हो गया / बेचारे बड़े परेशान थे कि अब क्या करें। संयोग-वश एक दिन वे नदी के समीप स्थित एक कुएँ के निकट रुद्र का जप कर रहे थे कि सामने क्या देखते हैं कि दो घरों को दा नौकरानियाँ कुएँ से पहले जल मरने के प्रश्न को लेकर आपस में झगड़ रही हैं और जोर-जोर से परस्पर कुछ बोल भी रही हैं / बात ही बात में नौबत यहाँ तक पहुँच गई कि वे अपने कलशों से एक-दूसरी का सिर फोड़ बैठी। मामला फोजदारो का बन गया। निर्णय हेतु जब राजा के पास पहुँचा, तो साक्षा के रूप में नौकरानियों ने जा करते हुए इन पंडित जी को बताया। श्रीहर्ष न्यायालय में बुलाये गये / राजा द्वारा झगड़े के सम्बन्ध में पूछे जाने पर ये संस्कृत में बोले-'महाराज! मैं नो विदेशी हूँ / यहाँ की भाषा नहीं जानता। इन्होंने अपनी भाषा में एक दूसरो को क्या-क्या कहा-यह तो मैं कुछ नहीं समझ सका। किन्तु हाँ, इन्होंने आपस में जो-जा शब्द प्रयुक्त किर हैं उन्हें मैं अक्षरशः आनुपूर्वी के साथ दोहरा सकता हूँ। यह कहकर फिर इन्होंने वे सभी शब्द ज्यों के त्यां राजा के आगे दोहरा डाले। सुनकर काश्मीर-नरेश इनकी प्रज्ञा और वारणा-शक्त से बड़े चकित हो गये / नौकरानियों के लिए यथोचित दंड-व्यवस्था करके इन्हें पास बुलाया और पूछा-'शिरोमणि तुम कौन हो ?' इन्होंने काश्मीर आने से लेकर तब तक की अपनी सारी करुष्प कहानी राजा को सुना दी। वे इनके साथ अपने पण्डितों का दुर्व्यवहार सुनकर बहुत दुःखी हुए। उन्होंने अपने पण्डितों को बुलाया और इन्हें फटकारते हुए बोले-'मूखों, धिक्कार है तुम लोगों को, जो इस रत्न से स्नेह न करके द्वेष कर रहे हो! वरं प्रचलिते वहावहायानेहितं ( 1 ) वपुः / न पुनर्गुणसम्पन्ने कृतः स्वल्पोऽपि मत्सरः' / ___ जाओ, अपने घर ले जाकर इनका यथोचित आदर-सत्कार करो"। राजा की आज्ञा के अनुसार वे इन्हें अपने-अपने घर ले गये और इनका खूब प्रादर-सत्कार किया। इनका नेषध काव्य देखा,
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________________ तो-जैसा इन्होंने स्वीकार किया है। उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और इन्हें अन्य की शुद्धता का अपेक्षित, स्वहस्ताक्षरित प्रमाण-पत्र राजा से दिलवाकर सम्मान-पूर्वक काशी के लिए विदा किया। प्रमाणपत्र लेकर भीहर्ष काशी आये और जयचन्द से मिले। प्रमाणपत्र पढ़कर राजा बहुत प्रसन्न हुए / फिर तो क्या था, इनके नैषध काव्य का सारे जगत् में डंका बज गया। ये राजकवि बन गये और 'नर-मारती' नाम से प्रसिद्ध हो गये। राजशेखर के 'प्रबन्ध कोष' के अनुसार जयचन्द ने शालापति को नवयुवति, परम-रूपवती,विधवा पत्नी सूहवदेवी 'मागिनी' (रखैल) के रूप में रखी हुई थी। वह बड़ी नीति-निपुण, कला-निष्यात और विदुषी थी। अपने वैदुष्य और कलाभिशता के अभिमान में आकर वह अपने को जगत् में 'कलाभारती' को उपाधि से विख्यात किये हुए थी। राजा पर उसने अपना पूरा जादू चढ़ा रखा था। इधर देखा तो श्रीहर्ष भी विद्या कला में कोई कम न थे। ये 'नर-मारती' थे। किन्तु वह अमि. मानिनी रानी ईर्ष्यावश मला इनका यश क्यों सहन करतो। एक समय वह श्रीहर्ष को आदर-पूर्वक अपने पास बुला बैठी और पूछ पड़ी-'तुम कौन हो ? ये बोले-'कलासर्वज्ञ हूँ'। रखैल रानी जल गई और बोली-'यदि यह सच है, तो यों करो, तुम जूते बनाकर मुझे पहनाओ' / उस कुटिलमति का भाव यह था कि जूता बनाना भी एक कला है जिसे यह बेचारा ब्राह्मण भला क्या जान सकेगा / यदि यह कह देता है कि मैं नहीं जानता, तो मैं कह दूंगी कि तुम 'कला-सर्व काहे के ?' इस प्रकार इसका सारा अभिमान चूर हो जायगा और वह हमेशा के लिए अपने को 'कलासर्वज्ञ' कहना भूल जायेगा। लेकिन हमारे 'कला-सर्वश' महाराज भी भला कब कच्ची गोली खेले थे। रानी की सारी दुरभिसन्धि तत्काल समझ गये। इन्होंने झट रानी के आगे हाँ भर ली। घर आये और वृक्षों की छालों से येन केन प्रकारेण जूते बनाकर सायं दरबार चले आये। रानी को बुलाया और अछूतों को तरह दूर ही स्थित हो स्वामिनी के पैरों में जूते पहना दिए यह कहते हुए कि 'कला-भारती' रानी जी, मैं चमार हूँ। आपको छू लिया है। गंगा-जल का छींटा मारकर अपने को शुद्ध कर लो' / सुनते ही रानी की बोलती बन्द हो गई और वह बहुत झेंपी। वाद में राजकवि ने रानी की यह कुचेष्टा राजा को सुना दी। किन्तु राज-गृह से ये खिन्न हो उठे। तत्काल राजाश्रय छोड़ दिया और अन्त में उन्होंने गंगा के तट पर संन्यास ले लिया। श्रीहर्ष को कोई सन्तान थी या नहीं-इस सम्बन्ध में ये स्वयं मूक हैं और इनका चरित-लेखक राजशेखर भी मूक है। श्रीहर्ष का व्यक्तित्व-श्रीहर्ष बहुमुखी और वैविध्यपूर्ण प्रतिभा-शाली व्यक्तित्व के धनी थे। इनके इस व्यत्तित्व को उभारने का सारा श्रेय इनके शैशव में इनके पिता की शास्त्रार्थ में पराजय को घटना और मरते समय पिता का इनसे अपने वरी से बदला लेने का वचन प्राप्त करने को जाता है। पिता के प्रति वचनबद्ध होकर इसे पूरा करने की धुन बालक के मन में ऐसा घर जमा बैठी कि विद्याध्ययन के कठिन परिश्रम में जुटकर अन्ततोगत्वा पिता के वैरी को परास्त करके उनकी दिवंगत आत्मा को पराजय के आक्रोश से और अपने को पिता के ऋण से उन्मुक्त कर ही गये / इससे इनको अटूट पितृ-भक्ति और सत्य-सन्धता प्रकट होती है। माता के भी ये कम भक्त नहीं थे। तभी तो 1. 'काश्मीरैर्महिते चतुर्दशतयीं विद्या विदद्भिर्म हाकाव्ये तद्भुवि नैषधीयचरिते' ( 16 / 132 )
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________________ [ 8 ] प्रत्येक सर्ग के अन्त में पिता के साथ-साथ माता का भी पुण्यस्मरण करते हुए ये अपने सारे नैषध काव्य को मातृ-चरणों में अर्पित कमलमाला का रूप दे गये। श्रीहर्ष त्रिपुरा देवी के मक्त थे, जिसे इन्होंने सिद्ध कर रखा था और जिसकी अमोच अनुकम्पा से हो इन्हें अप्रतिम प्रतिभा मिली थी। लेकिन अन्य देवताओं के लिए मो इनके हृदय में पूरी श्रद्धा-भक्ति रही। दमयन्ती को ब्याहकर घर लाने पर भी नल से इन्होंने शिव की 'शत-रुद्रिय' सूत्र से विष्णु को पुरुषसूक्त से और अन्यान्य कृष्ण, राम आदि सभी अवतारों तथा सूर्यादि देवों की विधिवत् पूजा-अर्चना करवाकर अपनी ही निष्ठा व्यक्त की है। दार्शनिक विचारों में ये ब्रह्मचारी थे। यही कारण है कि नैषध काव्य में प्रस्तुत कथानक के साथ-साथ ये रह-रहकर यत्र-तत्र अप्रस्तुत रूप में अपने वेदान्त-सिद्धान्त को अभिव्यक्ति देते रहे। जगत् के नानातत्व का खण्डन करके इन्होंने अद्वैत की पुष्टि कर रखी है। इनका 'खण्डनखण्डखाद्य' ग्रन्थ तो अद्वैतवाद का ही समर्थक ग्रन्थ है। श्रीहर्ष को अपनी विद्वत्ता का पूरा अभिमान था। हम पीछे देख आये हैं कि जयचन्द की राज. सभा में पिता के बैरो को देखकर ये ऐसे अभिमान के साथ गरजे कि वह बेचारा पानी-पानो हो गया। उसने इन्हें विद्यारण्य का ऐसा सिंह कह डाला, जिसका 'साहंकृत हुंकृत'-अभिमान-भरी दहाड़-हो सारे विद्वत्-पाणियों को मार देती है, प्रहार दूर रहा। नैषध के अन्त में इन्होंने अपने काव्य को 'अमृत-भरा क्षोरोदन्वान्' कहते हुए अन्य कवियों को रचनाओं को क्षुद्र पहाड़ी नदियों माना है५ आर भवभूति को तरह इन्होंने अपनी रचना पर नाक-भौं सिकोड़नेवाले, अरसिक आलोचकों को आड़े हाथों खबर ली है / इनको ये सभी बातें इनको अभिमानी प्रकृति को द्योतक है। वास्तव में इनका अभिमान् अर्थवान् था, क्योंकि ऐसी कौन-सी विद्या है, जिसमें इनको गति प्रतिहत हुई हो। नैषध काव्य के सर्वप्रथम टीकाकार विद्याधर, उपनाम 'साहित्य विद्याधर' ( लगमग 1250-60 ई.) ने अन्तिम सर्ग को टीका करते हुए श्रीहर्ष के सर्वतोमुखी शास्त्रीय शान का इस प्रकार उल्लेख किया है: "अनेनास्य आत्मसर्वज्ञता अभिव्यञ्जिताअष्टौ व्याकरणानि तर्कनिवहः साहित्यसारो नयो, वेदार्थावगतिः पुराणपठितियस्यान्यशास्त्राण्यपि / नित्यं स्युः स्फुरितार्थदीपविहताज्ञान्धकाराण्यसौ, व्याख्यातुं प्रमवत्यमुं सुविषमं सर्ग सुधीः कोविदः // " क्या आठों व्याकरण, क्या तर्कशास्त्र, क्या साहित्य, क्या वेद-पुराण और क्या अन्य शास्त्रसमी में ये पारंगत थे। तर्क में तो इन्होंने स्वयं को 'तकंष्त्रसमश्च यः" कह रखा है। इसी तर्क के बल पर तो इन्होंने उदयनाचार्य के न्याय-सिद्धान्तों का खण्डन किया है। इस तरह स्पष्ट है कि 1-12 / 112 / 4-21108 / 2-21 // 32-118 / 3-1440, 2 / 1,78 / 3 / 3, 4, 62 / 5-22.152 / 6-22 / 153 / 7-101137 /
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________________ विद्याओं में ये सर्वतन्त्र स्वतन्त्र व्यक्तित्व रखे हुए हैं। हमारे विचार से नल के सम्बन्ध में इनको कही हुई 'अमुष्य विद्या रसनाअनर्तकी त्रयीव नीताङ्गगुणेन विस्तरम्' यह उक्ति स्वयं इन पर भी लागू हो जाती है। शास्त्रों के अतिरिक्त कलाओं में भी श्रीहर्ष पीछे नहीं रहे। विवाहोपरान्त अपने राजमहल में नल द्वारा आयोजित संगीतगोष्ठी, जिसमें दमयन्ती की पढ़ाई-सिखाई शिष्याय, सखियाँ, किन्नरियाँ तथा स्वयं दमयन्ती मी वीणा-स्वर के साथ निषाद स्वर से मधुर गान में भाग ले रह थी, कवि की संगीतकला-कोविदता पर प्रकाश डाल देती हैं। इन्होंने कितने हो स्थलों में नृत्य भी करा रखे हैं नल के महल के प्रांगण में नाटकों के अभिनय करा रखे हैं। विवाह से पूर्व दमयन्ती द्वारा राजकीय चित्रकारों से राज-गृह की भित्ति पर लोकातिशायी सौन्दर्य वाले युगल का चित्र बनवाकर उससे अपने और नल की तुलना अपने महल के भीतर बनाये नल के चित्र, विदर्भ के लोगों के घरघर में खींचे दमयन्ती के चित्र तथा नल के महल में ब्रह्मा सरस्वती और इन्द्र अहिल्या आदि के कामुक चित्र कवि को चित्रकलाभिज्ञता व्यक्त कर देते हैं / इनका वास्तुकला-शान राजा मोम की . कुण्डनपुरी के महलों, अटारियों, 'क्षितिगर्भधाराम्बर-आलयों' 'मणिमय कुट्टिमों, एवं दमयन्ती के 'सप्त-भूमिक' हयं और नल के 'सोध-भूधर' निर्माण में झलक जाता है। इसीलिए श्रीहर्ष अपने को 'कला-सर्वश' कहा करते थे, जिस पर राजा की कला-पारखी 'कला-भारती' रानी द्वारा आपत्ति उठाने पर इन 'कलासर्वश' ने उसके नहछे पर कैसा दहला मारा-यह हम पीछे देख आये हैं। वैसे तो व्याकरण, दर्शन आदि शुष्क और गम्भीर विषयों के प्रकाण्ड विद्वान् होने के नाते श्रीहर्ष को गम्भीर प्रकृति का व्यक्तित्व वाला होना चाहिए था, लेकिन नहीं। वे जीवन में मृदु और विनोद-शील रहे। जीवन के मधुर क्षणों को, हास-परिहास के अवसरों को वे यों ही नहीं जाने देते; उनसे पूरा-पूरा विनोद-लाम करते थे। प्रथम सर्ग में ही दमयन्ती के सौन्दर्यवर्णन-प्रसङ्ग में इन्द्राणी. लक्ष्मी, सरस्वती आदि की प्रतिक्रियायें कवि ने कितनी हल्की-फुल्को, विनोदी तरङ्ग में अमिव्यक्त की हैं / दमयन्ती के स्वयंवर का सारा वातावरण, वारातियों और कन्यापक्षीय नर-नारियों का हास्यविनोद, युवा-युवतियों की परस्पर नर्म-पूर्ण चुटकियों तथा बीच-बीच में कमी-कमी शालीनता की सीमा लाँधे शृंगारिक चेष्टायें कवि की सोल्लास मनोवृत्ति की परिचायक हैं स्वयंवर के बाद अपनेअपने स्थान को लौटते हुए इन्द्रादि देवताओं को स्वयंवर में जाता हुआ जब कलि मिलता है, तो उसका और उसके साथ नास्तिक मौतिकवादियों का देवताओं के साथ हुए वार्तालाप वाले सत्रहवें सर्ग के आधे भाग में श्रीहर्ष के हास्य, ऋषि-मुनियों पर कटाक्ष और विद्रूप देखते ही बनते हैं। कामोपमोग-परायण चार्वाकों के मुँह से वेदों, यशों, एवं व्रत-नियमों का कितना उपहास करवा रखा है, धर्मशास्त्र और पुराणों की कैसी छिछालेदर करवाई है, मनु, व्यास आदि ऋषिमुनियों के व्यक्तिगत जीवन पर कैसे कटु व्यङ्गय अथवा चुमती फबतियों कसवाई हैं, मीमांसा आदि दार्शनिक सिद्धान्तों तथा उनके प्रवर्तकों को कैसा उपहासास्पद बनवाया है, यहाँ तक कि जीवात्मा 1-22 / 125-30 / 2-1138 / 3-10 // 35 //
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________________ की सर्वथा सुख-दुःखादि रूप चैतन्य के अत्यन्ताभाव वाली अवस्था को मुक्ति का स्वरूप मानने वाले न्यायदर्शनकार गौतम को गोतम ( बड़ा भारी बैल) तक कहलवा दिया है। ये कवि की निजी उद्भावनायें हैं / इसी तरह एक दिन अपने प्रातःकालीन धर्म-कर्म में व्यस्त रहने के कारण देरी हो जाने से प्रणय-कुपित दमयन्ती को मनाते हुए नल को उसको अन्तरा सखी कला के साथ हुई पाते भी कितनी परिहास-पूर्ण है / इन सब में श्रीहर्ष का विनोदो व्यक्तित्व मुखरित हुआ पड़ा है। मोहर्ष संयतात्मा थे। प्रत्येक सर्ग के अन्त में ये बार-बार अपने को 'जितेन्द्रियचयम्' लिखते आये हैं / अन्य की परिसमाप्ति के अन्तिम श्लोक में 'यः साक्षात्कुरुते समाधिषु परब्रह्म प्रमो. दार्णवम्' लिखकर अपने को समाधि-अवस्था में ब्रह्मानन्द का साक्षात्कार करने वाला बता गये। हमारे विचार से ये गृहस्थाश्रम में क्या हो प्रविष्ट हुए होंगे। 'ब्रह्मप्रमोदार्णव' में स्नान करने से पवित्र हुई आत्मा भला क्षणभंगुर सांसारिक प्रमोद की ओर कमो आकृष्ट हो सकती है ! ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है कि कवि नैषध में फिर भुक्त-भोगी की तरह शृङ्गार-रस का इतना अच्छा सफल चित्रण कैसे कर गया ? भगवती की कृपा से उसे सब कुछ शान हो चुका था-इसके सिवा हमारे पास इसका कोई उत्तर नहीं। श्रीहर्ष की कृतियाँ हम पीछे देख आये हैं कि राजशेखर ने श्रीहर्ष के सम्बन्ध में लिख रखा है कि भगवती त्रिपुरा से वर-प्राप्ति के फल-स्वरूप इनमें अद्भुतशक्ति-विकास होने के बाद ये सैकड़ों ग्रन्थों का निर्माण कर बैठे, किन्तु वह 'खण्डनखण्डखाद्य' का ही उल्लेख करके सन्तोष कर गया, इनके अन्य सैकड़ों ग्रन्यों का परिगणन नहीं कर पाया। इन्होंने ही स्वयं नैषध के सों के अन्त में स्व-प्रणीत जिन नौ ग्रन्थों का नामोल्लेख किया है, वे हैं-१. नैषधीयचरित, 2. स्थैर्यविचारप्रकरण, 3. विजय-प्रशस्ति, 4. खण्डनखण्डखाच, 5. गौडो:शकुल-प्रशस्ति, 6. अर्णव. वर्णन, 7. छिन्दप्रशस्ति, 8. शिवशक्तिसिद्धि और नवसाहसांकचरित। किन्तु अपने खण्डनखण्डखाध ग्रन्थ में इन्होंने स्व-प्रणीत ईश्वरामिसन्धि नामक ग्रन्थ का मो उल्लेख किया है। इस तरह कुल मिलाकर इनके ग्रन्थों की संख्या दस तक पहुँच जाती है, लेकिन इनमें से इस समय नैषधीयचरित, खण्डनखण्डखाय ये दो ही ग्रन्य उपलब्ध होते हैं, शेष लुप्त हैं। जैसे कि इन अन्यों के नाम हैं, नैषध में नल राजा का चरित है और खण्डनखण्डखाद्य में न्याय-सिद्धान्त का खण्डन और वेदान्त-मत को स्थापना है। खण्डनखण्डखाद्य का अर्थ है खण्डन हो खाने योग्य खाँड अर्थात् खण्डन ही जिस ग्रन्थ का मोठा खाद्य ( विषय ) है। यह वेदान्त के प्रसिद्ध ग्रन्थों में गिना जाता है / इसका उल्लेख कवि ने नैषध में 'खण्डनखरतोऽपि सहजात्' इस रूप में किया है जिससे सहज हो अनुमान लगाया जा सकता है कि नेषध और खण्डनखण्डखाच-दोनों सहजात १–'तदत्यन्त-विमोक्षोऽपवर्गः'। २-मुक्तये यः शिलात्वाय शास्त्रमूचे सचेतसाम् / __ गोतमं तमवेक्ष्यैव यथा वित्य तथैव सः // ( 1775 ) 3-6 / 113 /
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________________ [ 11 ] अर्थात् साथ-साथ लिखे गये होंगे, क्योंकि खण्डनखण्ड में भी नैषध काव्य का उल्लेख है / खण्डन में उल्लिखित ईश्वरा भिसन्धि को रचना कवि ने इन दोनों ग्रन्थों के बाद की होगी। जहाँ तक अनुपलब्ध ग्रन्थों के प्रतिपाद्य विषय का प्रश्न है, कुछ नहीं कहा जा सकता। इनके नामों से इनके विषयों का थोड़ा-बहुत आभास हो मिल सकता है। स्थैर्यविचारप्रकरण के सम्बन्ध में प्रसिद्ध टीकाकार नारायण ने व्याख्या में लिखा है-'स्थैर्यविचारणं क्षणभङ्गनिराकरणेन स्थिरत्वस्य विचारण-सूचको ग्रन्थः' अर्थात् इसमें कवि ने बौद्धों के क्षणभङ्गवाद का खण्डन करके पदार्थों के स्थिरत्व पर विचार किया होगा। विजयप्रशस्ति में अपने आश्रयदाता जयचन्द के पिता विजयचन्द का स्तव अथवा प्रशंसा होनी चाहिये / गौडोझेशकुलप्रशस्ति में गौड़ देश के भूपालों के वंश का परिचय और प्रशंसा होगी। अर्णव-वर्णन में कुछ विद्वानों का कहना है कि चहान वंश के राजा अर्णवराज का चरित है, किन्तु वर्णन का अर्थ चरित नहीं होता, अतः हमारे विचार से इसमें समुद्र का ही वर्णन होगा / छिन्द प्रशस्ति५ में नारायण के अनुसार छिन्द-नामक किसी राजा विशेष की प्रशंसा की होगी। कहीं छन्द प्रशस्ति पाठ मिलता है, जिसके अनुसार यह छन्दग्रन्थ होना चाहिये, लेकिन उन्दों के साथ प्रशस्ति शब्द की संगति ठीक नहीं बैठती। शिवशक्तिसिद्धि अथवा शिवभक्तिसिद्धि कोई स्तोत्र-ग्रन्थ अथवा तन्त्रग्रन्थ होगा। नवसाहसाचरित एक चम्पू. काव्य है, जिसमें नवसाहसाङ्क राजा का चरित-वर्णन है। कहीं कहीं नृपसाहसाचरित पाठ मी है / यह नवसाहसाङ्क अथवा नृपसाहसाङ्क कौन था-इसपर विद्वानों में मतभेद है। कोई गौड़ेन्द्र को कोई राजा मोजको और कोई जयचन्द को लेता है, लेकिन निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। नैषधीय चरित का कथानक-राजा वीरसेन के पुत्र नल निषध देश के प्रसिद्ध चन्द्रवंशी राजा थे-सभी विद्याओं में पारदृश्वा, रूप-सम्पदा में कामविजयी, शौर्यकर्म में अतुल और उदारता में पराकाष्ठा को पहुँचे / विदर्भदेश की परम सुन्दरी राजकुमारी दमयन्ती ने लोगों से जब उनके गुणों को चर्चा सुनी, तो अनदेखे ही उनपर अनुराग करने लगी। इधर नल भी तीनों लोकों में चर्चित उसके लोकातिशायी लावण्य और गुणों का समाचार पाकर मन में उसे चाहने लगे। 'पूर्णराग' में ही काम धीरे-धीरे दोनों में काम करने लगा। एक दिन राजा प्रमोद-वन में अपना विरहाकुल मन बहला रहे थे। सहसा सामने क्या देखते हैं कि तालाब के किनारे एक अदृष्टपूर्व स्वपिल हंस निद्रित अवस्था में स्थित है। कौतूहलवश दबे पाँव जाकर उसे एक दम पकर लेते हैं। बाद में उसकी करणा-भरी चोख-पुकार सुनी, तो दयावश छोड़ भी देते हैं। हंस ने मानुषी वाणी में राजा के प्रति कृतज्ञता प्रकट की और प्रत्युपकार के रूप में उन्हें दमयन्ती प्राप्त कराने में योग देने का वचन दे दिया और तमी वह विदर्भ को राजधानी कुण्डन नगरो को उड़ गया। राजकुमारी क्रीडा वन में 4. 9160 // 1. 4 / 123 / 5. 14222 / 2. 5.138 / 6. 18154 / 3. 7 / 110 / 7. 22 / 151 /
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________________ [ 12 ] खेल रही थी। मिलकर नलगुष्प-गान द्वारा उसे उनकी ओर और अधिक आकृष्ट करके उन्हें ही वरने हेतु पक्का कर बैठा। वापस आकर हंस ने दमयन्ती का निश्चय राजा नल को सुना दिया। फिर तो क्या था, दोनों ओर हृदय में धुंधुंआ रहो कामाग्नि सरासर सुलगने लगी। विरह में हृदय की तड़पन अधिकाधिक बढ़ चली। विदर्भनरेश भोम लड़की की हालत देखकर भांप जाते हैं कि वह विवाह चाहती है। उन्होंने स्वयंवर के आयोजन का निश्चय कर लिया। सभी देश-विदेशों के राजकुमारों को निमंत्रण भेज दिए गये / क्योकि स्वर्गलोक तक में भी दमयन्ती के अनुपम सौन्दर्य की धाक जमी हुई थी, इसलिए नारद से जब उसके स्वयंवर का समा वार मिला, तो इन्द्र, वरुण, अग्नि और यम-चारों देवता मी अपने-अपने वाहनों पर चढ़ कर स्वयंवर में सम्मिलित होने चल पड़ते है। अचानक रास्ते में अपने रथ में सवार हो स्वयंवर में जाते हुए नल से उनकी भेंट हो जाती है। उन्होंने बड़ी चालाकी से राजा के सौजन्य का लाभ उठाकर उन्हें इस बात के लिए तय्यार कर लिया कि वे उनकी तरफ से दूत बनकर गुप्त रूप से दमयन्ती के पास जायेंगे और उससे अनुरोध करेंगे कि वह चारों देवताओं में से किसी एक का वरण करे, अन्य का नहीं। नल वचन-बद्ध थे। देवताओं द्वारा दी हुई स्वेच्छानुसार अदृश्य होने को शक्ति से वह दमयन्ती के 'सत-मंजले' महल के मोतर जा पहुँचते हैं। वहाँ लड़की की अतुल लावण्य-लक्ष्मी देखो, तो नल की आँखें फटी की फटी रह गई। उधर एकाएक अपने कमरे में घुसे मदन-जैसे एक अतिसुन्दर, अजनवी युवा को सामने खड़ा देखा तो राजकुमारी भी अवाक रह गई, सुध-बुध भूल बैठी। पूछने पर आगन्तुक ने अपने को देवतात्रों का दूत बताया और दमयन्तो से अनुरोध किया कि वह नल का स्वप्न देखना छोड़कर इन्द्रादि चार देवताओं में किसी एक को वरे, अन्यथा कुपित हुए वे उस पर मुसोबत ढा देंगे। लड़की देख। तो पहले ही नल को अपना हृदय अपित कर चुको थी। जब उसने अपना आराध्य देव मत्यं ह। बना लिया, तो अमर्त्य देवों का वह क्या करतो। वह टस से मस नहीं हुई। किन्तु देवताओं द्वारा दी जाने वाली मुसीबत की बात सुनकर बह चौक पड़ो और तत्काल दूत के आगे बुरी तरह से रो पड़ी। उसकी आँखों में झड़ी लगी देख अन्त में दयावश नह अपनी असलियत राजकुमारी को बता देते हैं कि मैं हो नल हूँ। वापस आकर उन्होंने अपने दौत्य-कर्म की असफलता की सूचना देवताओं को दे दी। इससे पूर्व इन्द्र आदि ने अपनो दूती भी उपहारों के साथ दमयन्ती को अपने अनुकूल बनाने हेतु भेजी थी। वह भी विफल होकर लौट आई थीं। दूसरे दिन स्वयंवर आरम्म हुआ। अन्यान्य राजाओं के साथ खूब सजे-धजे चारों देवता नल का रूप धारण किये बैठे हुए थे / निज सौन्दर्य प्रमा द्वारा राजगों की आँखों को चौंधियाती हुई भूलोक / की उर्वशी दमयन्ती ने स्वयंवर स्थल में प्रवेश किया। विष्णु द्वारा परिचायिकाके रूप में मेजी, अपना रूप बदले सरस्वती उसके आगे-आगे थी। वह एक-एक करके राजाओं का परिचय देती जा रही थी और स्वयंवर-वधू एक-एक करके उन सबको छोड़ती जा रही थो। अन्त में जब एक-साथ पाँच नलों को देखती है तो दमयन्ती हैरान हो जाती है। सरस्वती देवताओं का छल जाने हुए है। वह चाहती तो उन 'छिपे रुश्तमों' की पोल खोल सकती थी, लेकिन मय के मारे देव-रूप में उनका असली परिचय न दे सकी। उनका परिचय देने में वह ऐती श्लेष-गर्मित माषा का प्रयोग करती है
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________________ कि जो इन्द्रादि देवों और नल-दोनों बोर ग जाती है। इस पर बेचारी दमयन्ती असमजप्त में पड़ जाती है और जान नहीं पाती है कि असली नल कौन है, जिसपर वह अयमाला डाल सके। अन्त में विषाद और चिन्ता में हुबो वह मरी सभा में इन्द्रादि चारों देवों की करुणा-मरी प्रार्थना करने लगती है। इससे देवों का हृदय कुछ पिघल जाता है और वे निनिमेषता आदि अपने कुछ मेदक चिह्नों को प्रकट कर बैठते हैं। प्रसन्न हुई राजकुमारी अवशिष्ट मयं नल के गले में वरमाला डाल देती है। जाते समय अपने स्वाभाविक रूप में प्रकट हुए देव दमयन्तो के सतीत्व से प्रसन्न हो उसके वृत पति को अपना-अपना वर देते हैं। सरस्वती भी अपने असली रूप में आकर वर-वधू को आशीष देकर चली जाती है। ___ अब विधिवत् पाणिग्रहण-संस्कार होना है। शिविर से बड़ी धूमधाम के साथ नल की बारात मीम के राजमहल को चल पड़ी। राजा भीम ने नल और बारातियों के आदर-सत्कार में कोई कोरकसर नहीं रखो। मोन में खूब चहल-पहल मची रहो। भोजन परोसने वाली नवयुवति दासी छोकरियों और नवयुवक बारातियों का परस्पर हास-परिहास और कमी-कभार छेड़छाड देखते ही बनती यो / पाणि-ग्रहण संस्कार सम्पन्न हो जाने पर नल चार-पाँच दिन ससुराल में रहे और बाद को वधू. सहित निषष वापस आ गये। ___ उधर अपने-अपने स्थान को जाते हुए इन्द्रादि देवों को रास्ते में अपने काम, क्रोध, लोम, मोह साथियों को साथ लिये कति स्वयंवर में जाता हुआ मिल पड़ा / 'स्वयंवर हो चुका है और दमयन्ती ने नल का वरण कर ख्यिा है' यह समाचार देवताओं से सुनकर कलि क्रोध में आग-बबूला हो उठा / वह चाहता था कि दमयन्ती मुझे वरे / तत्काल उसने दमयन्ती को नल से पृथक् करने की ठान ली, साथ ही उसने और उसके मौतिकवादी साथियों ने देवताओं के आगे वेद-पुराणों ऋषि-मुनियों और आस्तिक दर्शन-शास्त्रों को खूब खिल्ली उड़ाई। बाद को मछे ही देवता उनका खण्डन कर चुके थे, देवताओं के मना करने पर मी आखिर दुष्ठ कलि बदला लेने विदर्भ का मार्ग छोड़कर निषध का मार्ग पकड़ बैठा और वहाँ पहुँच हो गया। , राज्य-मार मंत्रियों को सौंप राजा नल का प्रेयसी के साय अपके 'सौध-भूधर' में हनीमून-आनन्द मास-भारम्भ हो गया। वे दोनों के दोनों अपनी चिर-संचित कामनाओं-आकांक्षाओं और आशाप्रत्याशाओं को मूर्त रूप देने लगे। युगल के लिए इस ऐन्द्रिय पर्व के दिन स्वपिल और राते मधुमयी पनी रहने लगी। परस्पर की लुका-छिपी, आँखमिचौनी, छेड़-छाड़ मान और अनुनय-विनय आदि प्रणय-डीलाओं और भोग-विकास के नव अनुभव जीवन में सुधारस बरसाने लगे। अभिप्राय यह कि बोवन का मोगपक्ष पूरी तरह काम कर रहा था। किन्तु यह सब कुछ होते हुए भी नल ने मियमपूर्वक अपनी धार्मिक क्रियाओं एवं देवी-देवताओं की अर्चना-पूजना से कमो मुंह नहीं मोड़ा। हमेशा धर्म और कर्तव्यनिष्ठ रहे, हालांकि विभीतक वृक्ष पर बैठे कर कलि को कुटिल आँख राजा के किसो धर्मभ्रंश के क्षण को भातुरता से एकटक बरावर देखती रहती थी। कथानक की अपूर्णता और उसका निराकरण-कुछ आलोचकों का कहना है कि नैषधीय
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________________ [ 14 ] चरित में हमें नल का आंशिक चरित ही मिलता है, पूरा नहीं। इसमें दमयन्ती के साथ नल के विवाह तथा कुछ समय तक उनके आमोद-प्रमोद तक का ही कथा है। आगे का कलिप्रभावित, विपत्ति-भरा, लम्बा-चौड़ा चरित नहीं है। इससे अनुमान किया जा समता है कि श्रीहर्ष का यह उपलब्ध काव्य ग्रन्थ अपने में अधूरा है; इसका शेष माग, जो कई सर्गों में कवि ने लिखा होगा, लुप्त हो गया है। कारण यह कि चरित में सारी ही जीवनी प्रतिपादित है, जीविनी का एकदेश नहीं। यदि विवाह तक ही कथा कवि को विवक्षित होती, तो वह इस काव्य का नाम 'नैषधीयचरित' क्यों रखता ? 'दमयन्ती-स्वयंवर' अथवा 'नल-विवाह' रखता। साथ ही अनपेक्षित कलिप्रसंग यहाँ क्यों अन्तर्गत करता, जिसका युगल के आमोद-प्रमोद से कोई सम्बन्ध नहीं ? हम उक्त मत से सहमत नहीं हैं। पहली बात तो यह हैं कि काव्य के अन्त में कवि ने श्रीरस्तु नस्तुष्टये रूप में समाप्ति का मंगल कर रखा है तथा परिशिष्ट श्लोकों में उसने अपनी कृति के सम्बन्ध में लिखकर उसका समापन भी कर दिया है। यदि वे श्लोक प्रक्षिप्त माने जॉय-जैसे कि वे मानते हैं तो प्रत्येक सर्ग के अन्त में दिये गये कवि के आत्मपरिचय सम्बन्धी अन्य श्लोक भी क्यों प्रक्षिप्त न माने जायँ ? फिर तो हम कवि के माता-पिता एवं उसकी कृतियों के सम्बन्ध में अन्धकार में हो पड़े रहेंगे। वे हो प्रामाणिक क्यों ? दूसरे, कवि ने अपने श्रीमुख से सर्गों के अधिकतर श्लोकों में अपने काव्य के लिए 'चारु' शब्द का प्रयोग कर रखा है। चारु, उज्ज्वल, शुचि शब्द शृङ्गार-रस के पर्याय हैं। पहले सर्ग के अन्त में 'शृङ्गार-भङ्गया' लिखकर ग्यारहवें सर्ग के अन्त में अपने काव्य को कवि 'शृङ्गारामृतशीतगुः' ( शृंगारस-रूप अमृत-मरा चौद ) कह गया है। इससे सिद्ध होता है कि कवि को यह महाकाव्य शृंगारस-प्रधान हो रखना अभीष्ट रहा। उसने इसीलिए इसको स्वयंवर और स्वयंवर के प्रणयि युगल का शृगार-चित्रण तक ही सीमित रखा। इसमें उसने कलिपमावित, शृङ्गार विरोधी, विपत्ति-पूर्ण उत्तर नल-चरित क्यों वर्णन करना था ? तीसरे, यदि नैषध काव्य का कोई अंश अवशिष्ट रहा होता, तो उसके बारह-तेरह टीकाकारों में से कोई भी तो इस सम्बन्ध में कुछ सूचना देता। कवि से थोड़े ही समय बाद के सर्व-प्रथम टीकाकार विद्याधर ( 1250-60 ई. के लगभग ) भी चुप हैं। रही चरित शब्द की व्यापकता की बात। चरित शब्द तो एक देश में मो प्रयुक्त हो सकता है। एकदेश और एकदेशी में अभेद-सम्बन्ध कोई नयी बात नहीं। गद्यकाभ्य के सम्राट् बाणभट्ट ने अपने 'हर्षचरित' में अपने आश्रयदाता सम्राट हर्षवर्धन के चरित का एकदेश ही तो लिख रखा है, सारा नहीं। बाण से सम्राट के प्रशंसकों द्वारा उनके चरित लिखने का अनुरोध करने वालों को उन्होंने स्पष्ट कह रखा है:-"कः खलु पुरुषायुषशतेनापि शक्नुयादविकलस्य चरितं वर्णयितुम् / एकदेशे तु यदि कुतूहलं वः, सज्जा वयम्" / तदनुसार एकदेश ही लिखकर बाण ने उसके लिए चरित शब्द का ही प्रयोग किया है : भवभूति ने भी रामचन्द्र की जोवनो का पूर्वार्ध हो लिखकर उसे 'महावीरचरितम्' हो कहा है। फिर नल का एकदेश लिखने पर उसके लिए चरित शब्द के प्रयोग के सम्बन्ध में श्रीहर्ष के विरुद्ध आपत्ति क्यों उठाई जाय ? इसी तरह कलि-प्रसङ्ग अन्तर्गत करने के तर्क में भी बल नहीं है। जीवन के आमोद-प्रमोद-पूर्ण उज्ज्वल पक्ष
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________________ [ 15 ] के बाद नल के जीवन का भविष्यगर्भ-निहित, कलिकृत, संकटमय कृष्प्यपक्ष भो शेष है जो मेरा विषय नहीं है-इसकी सूचना-मात्र अपने पाठकों को दे देने में हम नहीं समझ पाये कि बीहर्ष ने कौन-सा अनुचित काम किया है / काव्य के संविधान में यह लिखा हुआ है-जैसे कि हम आगे बताएंगे"कवि को प्रत्येक सर्ग के अन्त में अगले सर्ग में आने वाले कथानक की ओर संकेत कर देना चाहिए" / क्या इससे वह ध्वनित नहीं होगा कि कवि के काव्य के अन्त में भी कानक के अवशिष्ट भाग की ओर संकेत कर देना चाहिए ? हमारे मत का समर्थन प्रसिद्ध टोकाकार नारायण ने भी किया है-महामारतादौ वर्णितस्याप्युत्तरनलचरित्रस्य नीरसत्वानायकानुदयवर्णनेन रसमङ्ग सद्भावाञ्चोत्तरचरित्रं श्रीहर्षख न वर्णितम्'। इसलिए हमारे विचार से उपलब्ध नैषध काव्य का कथानक अपने में पूरा हो है, अधूरा नहीं / काव्य भी पूरा हो है, अंशतः लुप्त नहीं। कथानक का मूल-स्रोत और कविकृत परिवर्तन-वैसे तो नल-दमयन्ती की प्रसिद्ध कथा ब्राह्मण-ग्रन्थों से लेकर मत्स्य, पद्म, वायु आदि पुराणों एवं परवर्ती कथासरित्सागर आदि कथा-ग्रन्थों में भी मिलती है, किन्तु विस्तार के साथ यह मुख्यतः महाभारत में आई हुई है जिसे वृहदश्व युधिष्ठिर को सुना रहे हैं / यह वनपर्व में 53 से लेकर 79 तक 27 अध्यायों में 'नलोपाख्यान' नाम से प्रसिद्ध है। यहो उपाख्यान श्रीहर्ष ने अपने नैषध महाकाव्य के मूल स्रोत रूप में अपनाया है / इसकी स्वयंबर तक को कथा महाभारत के 53 से 57 तक केवल पाँच अध्यायों के 166 श्लोकों में आई हुई है जबकि कवि ने कल्पना-शक्ति द्वारा अपनी तरफ से इधर-उधर कुछ और जोड़कर इसका 22 सर्गों के अन्तर्गत 2804 श्लोकों में विस्तार कर रखा है। सच पूछो तो कवि का काम इतिवृत्त मात्र बनाना नहीं होता। वह तो इतिहासकार का काम है। व्यक्ति-विवेककार ने ठीक ही कहा है-'न हि कवेरितिवृत्तमात्रनिर्वाहेणात्मपदलाभः, इतिहासादेव तसिद्धेः' / कवि तो अवलम्ब-मात्र हेतु इतिहास का आँचल पकड़ता है। अपनी कल्पना-परो को उड़ान भरने देने के लिए इतिहास को धरा पर एक छोटा-सा 'रन-वे' हवाई पट्टी-चाहता है जहाँ से उड़कर वह अपने 'करिश्मे'-नैपुण्य-भरे करतब-दिखा सके अथवा यों समझ लीजिए कि इतिहास अतीत के गर्भ-गत गों में दबे पड़े नर कंकालों का एक संग्रहालय है, जहाँ से कवि अभिप्रेत कुछ कंकाल बाहर निकाल लेता है, उनमें कल्पना-शक्ति द्वारा रुधिर-मांस भरता है, फिर रस की प्राण प्रतिष्ठा करके हमारे आगे इस प्रकार जीवन्त रूप में खड़ा कर देता है कि देखते ही हृदय आनन्द-विभोर हो उठता है। इसी में कवि के कवित्व को अर्थवत्ता निहित है। कालिंदास, भारवि, बाण आदि सभी कलाकार ऐसा करते आये हैं। श्रीहर्ष ने भी ऐसा ही किया। वे निष्धाणों के प्राण-प्रतिष्ठापक हैं, नीरसों के रसस्रष्टा हैं। उन्होंने महाभारत से उक्त कथा-कंकाल निकाला और निज नर-नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा और उर्वर काना-शक्ति द्वारा उसे-उन्हीं के शब्दों में--'शृङ्गारामृतशीतगुः' अथवा 'अमृतभरे क्षीरोदन्वान्' में परिणत कर दिया। इस प्रक्रिया में उन्हें बहुत कुछ अपनी तरफ से जोड़ना पड़ा / 6, 7, 15, 19, 20, 21 सर्गों का प्रतिपाद्य महाभारत में कहीं नहीं है। इसी तरह 10 से 14 तक पाँच सगों में स्वयंवर का विस्तृत-विवरण, उसमें भोजन के समय हास्य-रस की सृष्टि कवि
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________________ [ 16 ] की अपनी चीज है। सरस्वती को रूप बदले परिचाविका बनाना भी मूल कथा में कहीं नहीं है। वह कवि-कल्पना है, अन्यथा विदर्भ में कौन ऐसी सवंश स्त्रो यो जो इतने सारे अजनवी राजों का परिचय देती ? कलि के भौतिकवादी अनुयायियों द्वारा आस्तिकों, उनके धर्म, धर्म-प्रवर्तकों एवं साहित्य पर कीचड़ उछालना और बाद को देवताओं द्वारा समर्थन तथा अन्तिम सगों में वर्णित विवाहित युगल का ऐन्द्रिका अथवा मोगविलास के चित्र अथवा 'शृंगारोदन्वान्' का सतत प्रवाह सब कवि के अपने ही मस्तिष्क के निर्माण हैं। दूर क्यों आवें? काव्य का प्रारम्म ही देखिएराजा नल का उदात्त चरित्र, उनके और दमयन्ती के मध्य 'पूर्वराग' की दस कामदशायें, नल का घोड़ा, उद्यान, सरोवर, नल और हंस के मध्य करुणारस-भरा विस्तृत वार्तालाप, कुण्डननगरी, चन्द्र और मदन को दमयन्ती-कृत मामिक उपालम्म दमयन्ती के महल में अदृश्य नल की स्त्रियों से टक्कर इत्यादि-इनके बिम्बग्राही अनोखे शब्दचित्र मला मूलकथा में कहाँ हैं ? ये सब कविकल्पना-प्रसूत ही है। मूल में राजा नल हंस से दमयन्ती-प्राप्ति के कार्य में सहायता देने का वचन लेने के बाद छोड़ देते हैं, किन्तु कवि की दृष्टि में यह राजा को स्वार्थपरता दीखती है, जो उनके उम उदात्त चरित्र पर अच्छा प्रभाव नहीं डालतो, जिसके अनुसार वे दमयन्ती से नल को छोड़कर इन्द्रादि देवताओं में से किसी एक को वरने का अनुरोध करके अपने हृदय को विशालता और उदारता का परिचय देते हैं। कवि करुणा-वश हो राजा से हंस को छुरवाता है और सौजन्य-वश हंस स्वयं ही राजा को सहायता का वचन देता है। इस परिवर्तन से कवि ने राजा और हंस दोनों का चरित्र ऊँचा उठाया है। मूल में स्वर्णिल हंस कितने ही होते हैं, जिनमें से राजा एक को पकड़ कर बाद को उसे छोड़ देता है। तत्पश्चात् समी हंस कुण्डननगरी को जाते हैं जिनमें से दमयन्ती और उसकी सखियाँ अलग-अलग एक-एक हंस को पकड़ने लगती हैं, परन्तु कवि को यह घटना-क्रम पसंद नहीं। दोत्य-कर्म में निहित रहस्य की दृष्टि से वह एक ही हंस को मेजता है', जो सखियों को मण्डली में से राजकुमारी को दूर ले जाकर तव एकान्त में उससे नल-विषयक बातें करवाता है / मूल में दमयन्ती को विर हावस्था का हाल सखियाँ उसके पिता राजा भीम को कहती हैं, किन्तु यहाँ पिता स्वयं ही हाल देख जाता है जो औचित्य की दृष्टि से कवि को ठोक लगा। इसी तरह मूल में देव-दूत बनकर नल महल में जाते ही अपने को 'मैं नल हूँ' कह बैठते हैं, जबकि यहाँ वह अपने व्यक्तित्व को दूत के हम में छिपाये दमयन्ती से और दमयन्तो उनसे खुलकर लम्बी चौड़ी बाते करती है / जब दमयन्ती उनके आगे रो पड़ती है, तब जाकर नल अपनी असलियत प्रकट करते हैं। यह स्थिति दौत्य कर्म से ठीक संगत हो जाती है। यदि दमयन्ती आगन्तुक को पहले ही प्रियतम जान लेतो, तो 'पहली मुलाकात' में क्या उसे सात्त्विक भाव नहीं होते ? उसे स्वेद, स्तम्भ अथवा स्वर-भंग हो जाती। वह सहम जाती। लजा जाती। वैसी अवस्था में मला वह खुलकर प्रियतम से वे लंबी चौड़ी बातें कैसे कर पाती जो उसने दूत-रूप में आये हुए आगन्तुक से की है। साथ हो राजा नल के भीतर उठा स्वार्थ और कर्तव्य के बीच का संघर्ष कवि कैसे हमारे आगे रखता ? ऐसी अन्य भी : १–'हैमेषु हंसेष्वहमेक एव भ्रमामि मूलोकविठोकनोत्कः' ( 3.18 ) /
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________________ [ 17 ] बहुत सारी कई बातें हैं जिनमें कवि ने बौचित्य एवं रस-निष्पत्ति को दृष्टि से कल्पना द्वारा हेरफेर कर रखे हैं। वास्तव में मूठ तो प्रेरणा स्रोत होता है। उसके ऊपर खड़ी की गई कवि की सारी सृष्टि सामान्यतः स्वोपश ही हुआ करती है। यदि कवि स्वोपज्ञ सृष्टि नहीं रचसकता, कल्पना को ऊँची उडाने मरकर सहृदयों के हृदयों में 'रसोदन्वान्' नहीं खौला सकता, वस्तु के धरातल से ही चिपका रहता है, तो वह कवि नहीं, कुछ और है / काव्य का उद्भव और विकास-नैषध काव्य और श्रीहर्ष के कलावैशिष्टय पर लिखने से पूर्व यहाँ काव्य के उद्भव और विकास के इतिहास पर एक विहंगम-दृष्टि डालना हमारे विचार से अप्रासङ्गिक न होगा। जहाँ तक काव्य के उद्भव का सम्बन्ध है, कौन विद्वान् स्वीकार नहीं करेगा कि संस्कृत साहित्य की अन्य विधाओं की तरह काव्य-विधा का मी उद्भव-स्थान वेद हैं, जो 'कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम्' की कविता है और जहाँ उपमा, उत्प्रेक्षा. समासोक्ति आदि अलंकार एवं लक्षणा व्यजना आदि काव्य-सामग्री विखरी पड़ी है। वेद-व्याख्याता यास्काचार्य ने वेदों में उपमा के कितने ही भेद गिना रखे हैं। सरल, प्राञ्जल माषा में लिखे इन्द्र-इन्द्राणी, श्रद्धा-मनु, उर्वशीपुरुरवा आदि के प्रणय स्नात, विस्तृत माख्यानों वाले वैदिक सूक्त क्या अपने भीतर काव्य के मूलतत्त्व छिपाये नहीं रखे हुए हैं ? हिन्दी के प्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद ने स्वयं स्वीकार किया है कि उन्होंने अपने महाकाव्य 'कामायनी' के लिए मूल-सूत्र प्रदा-मनुविषयक वैदिक आख्यान से ही बटोरे हैं। वैदिक ऋषियों से प्राप्त दाय की पृष्ठभूमि पर लौकिक संस्कृत के आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने अपना आदिमहाकाव्य रामायण रचा, जिसमें वेदों की-सी सरल-सुबोध, प्रसाद गुणगुम्फित, प्राजल, स्वाभाविक भाषा के दर्शन होते हैं और मानव-प्रकृति के साथ-साथ मानवेतर प्रकृति का भी वेदों का सा सूक्ष्म निरीक्षण मिलता है। काव्य के माव-पक्ष के प्रधान होने पर भी इसका कला पक्ष मी अपने स्वामाविक रूप में बाये हुए उपमा, उत्प्रेक्षा, समासोक्ति आदि सादृश्य-मूलक अर्थालंकारों की रमणीयता से खाली नहीं है। अमिप्राय यह कि नियाज, सरल स्वमाव की आश्रमकन्याओं की तरह काव्य-कन्या का जन्म मी आश्रम में प्रकृति माता की गोद में हुआ। रामायण के बाद धीरे धीरे काव्य का विकास होने लगा। पाणिनि के लिखे 'पाताल-विजय' और 'जाम्बवती विजय' काव्यों का हम नाम ही नाम सुनते हैं। कहते हैं कि प्रसिद्ध वातिककार कात्यायन मुनि ने मी महाभाष्य में पतब्बलि द्वारा उल्लिखित 'वारहवं काव्यम्' लिखा था। प्रसिद्ध नाटककार मास के सम्बन्ध में मी सुनते हैं कि उन्होंने भी 'विष्णुधर्म' नामक काव्य की रचना को थी। शाङ्गधर आदि सुभाषित-ग्रंथों में मास के कितने ही ऐसे श्लोक मिलते हैं जो उनके नाटकों में नहीं आते। वे भास के किन्हीं काव्य-ग्रन्थों से उद्धृत किए गये होंगे, लेकिन दुर्भाग्य से सब काल-कवलित हो गये हैं। इसलिए काव्य-विकास को इस मध्यवर्ती कड़ी के हमसे एकदम गायब हो जाने के कारण हम उसके तत्कालीन विकास-स्वरूप और प्रगति को नहीं जान सकते / १-स्वस्ति पापिनये तस्मै येन रुद्रप्रसादतः। आदी व्याकरणं प्रोक्तं ततो जाम्बवतीजयम् //
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________________ [ 18 ] बहुत समय बाद काव्य-कन्या को हम अपनी शैशवावस्था में से गुजर कर सहसा यौवनावस्था में पदार्पण किये पाते हैं। यह समय कालिदास, अश्वघोष और बाप्पमट्ट आदि कवियों का है / जयदेव कवि ने 'कविकुलगुरु कालिदास' को 'कविता-कामिनी का विलास', बाप को 'हृदय में वास किये पञ्चबाण' और हर्ष को 'हर्ष' कहा है। इससे पूर्व भास आदि प्राचीन कलाकारों के समय में अन्तर्जगत् की वृत्तियो-रति आदि माव-अपने यथास्थित, मौलिक बौद्धिक रूप में ही वर्णना के विषय होते थे, चर्वपा के नहीं। तब तक रस-सिद्धान्त की स्थापना नहीं हुई थी। यह तो भरत मुनि ही हुए, जिन्होंने बाद को अपने 'विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगात रस-निष्पत्तिः' वाले मूलसूत्र से साहित्य क्षेत्र में रसवाद की अवतारणा की। विभावादि सामग्री से विभावित अनुभावित और सञ्चारित हृद्-गन रत्यादि भावों को अलौकिक साधारणीकरण व्यापार द्वारा प्रेक्षकों, श्रोताओं अथवा पाठकों के साथ एकीकृत करके उन्हें 'ब्रह्मानन्द-सहोदर' आनन्द में विभार कर देने की प्रक्रिया कविलोगों को मरत मुनि ने ही बताई है। इसी को चर्वणा अथवा रस मी कहते हैं। यही काव्य की रागात्मक अनुभूति भी कही जाती है। फलतः इसने उक्त मामग्रो बटोरने हेतु कलाकारों में कल्पनाशक्ति को प्रोत्साहन दिया और उसे उभारा। इससे काव्य स्वरूप भी बदल गया अब रस ही काव्य का जोवातु अथवा आत्मा बना और इसी की अभिव्यक्ति काव्यकारों का लक्ष्य बनो। कला-पक्ष गौण रहा। कालिदास ने वाल्मीकि से प्रकृति की पृष्ठभूमि एवं भाषा का माधुर्य और प्रसाद गुण तथा भरत से नये रसवाद की दाय लेकर अपना कला-सृजन किया / कालिदास मुख्यतः शृङ्गारी कवि रहे, जिनके अपनी कला-तू लका से नाना रंगों में खींचे, अनोखे शृङ्गार-चित्र संस्कृत साहित्य की अमूल्य निधि बने हुए हैं। अश्वघोष ने भी अपने 'सौन्दरनन्द' काव्य के आरम्भ में अच्छे-अच्छे शृङ्गारिक चित्र खींच रखे हैं, लेकिन बाद में वे सिद्धान्त-प्रचार के चक्कर में फंस गये और अपनी सरसता खो बैठे। वे भूल गये कि काव्य संवेदन की चीज है, शुष्क प्रचार को नहीं। रसवाद काव्य-क्षेत्र में अपनी धाक जमाये चला आ रहा था। 'धानप्रतिष्ठापनाचार्य प्रानन्दवर्धन ने रस-तत्व को ध्वनि के भीतर समाहित करके उसका महत्त्व कम नहीं होने दिया। आचार्य मम्मट और विश्वनाथ आदि भी मुख्यतः रस-समर्थक ही रहे। किन्तु कुछ समय बाद सहसा रसवाद के विरुद्ध प्रतिक्रियावादी शक्तियों उमर उठी। मामह, दण्डो आदि द्वारा पूर्व प्रचालित अलंकारसम्प्रदाय, जिसका स्वर रसवाद ने दबा दिया था, एकदम मुखर हो गया / 'वक्रोक्तिः काव्य-जीवि. तम्' और 'रोतिरात्मा काव्यस्य' का डिडिम पीटने वाले कुन्तक और वामन इस आन्दोलन के नये नेता थे। काव्य-कला ने एकदम करवट बदल लो। फलतः रम अपना स्थान खो बैठा और अलंकारसम्प्रदाय काव्यक्षेत्र पर छा गया। कवि-कर्म की इतिकर्तव्यता अब काव्य के भाव-पक्ष अथवा रस. पक्ष के स्थान में अधिकतर उनके कला-पक्ष शरीर को सजाने-नवारने में समाप्त होने लगी अथवा यों समझ लीजिये कि कवियों की दृष्टि कविता-कामिनी के हृदय से हटकर उसके मस्तिष्क, शरीर, अवयव-गठन और वेष-भूषा पर जा टिकी। वैचित्र्य-मरा बाहरी बनाव-ठनाव और तड़क-भड़क सौन्दर्य बन गई, अनुभूति और संवेदन गौण हो चले। इसका परिणाम यह हुआ कि कलाकार हृदय खोकर मस्तिष्क-प्रधान हो गया। रसवादी कालिदास के बाद उमरी इन नवीन काव्यीय प्रवृत्तियों ओर
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________________ / 19 / मूल्यों को सबसे पहले अपनाने का श्रेय हम भारवि (600 ई० ) को देंगे, जिन्होंने अपना 'किरातार्जुनीय' महाकाव्य इसी नये कलावादी मान दंड से रचा। वे इस युग के आदि प्रतिनिधि-कवि हैं / कलावादी सरणि के उद्भावक हैं / बाद को माव ( 700 ई.) ने भी उनके ही बताथे मार्ग का अनुसरण करके अपने शिशुपालवध' महाकाव्य का प्रणयन किया, यद्यपि कला की दृष्टि से मारवि को अपेक्षा अपने कवि-कर्म में वे कितने ही आगे बढ़ गये और काव्य का कलापक्ष-स्तर काफी ऊँचा उठा गये। इसके अतिरिक्त, कालिदास आदि पूर्ववर्ती कवियों के काव्यों को आधार बनाकर साहित्यशास्त्रियों ने अब काव्य के लक्षण-ग्रन्य मी लिख डाले थे। काव्य का संविधान बन गया। जिसकी विभिन्न धाराओं ने काव्य को खुली स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगा दिये। काव्य अब ढाँचाबद्ध, रूढ़ वस्तु बन गया। इसके शिल्प का स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार हो गया-'महाकाव्य सगंबद्ध होना चाहिए. सर्ग न बहुत छोटे भीर न बहुत बडे हो: एक सर्ग में एक वृत्त चलना चाहिए लेकिन अन्त में वृत्त बदल दें; (सर्ग आठ से अधिक हों,) कथा-नायक कोई-धीरोदात्त क्षत्रिय हो, या बहुत सै कथा-नायक भी बन सकते हैं, शृंगार, वीर और शान्त-इन रसों में से कोई एक अङ्गी रस और शेष अङ्ग रस बनने चाहिए; रण, प्रयाण, विवाह आदि घटनाओं का वर्णन हो; बोच-बीच में नियम से प्रातःकाल सन्ध्या, रात्रि, वन, पर्वत, समुद्र आदि प्रकृति तत्वों का चित्रण चलता रहना चाहिए' इत्यादि. इत्यादि / भारवि, माघ आदि ने अपनी रचनायें इसी चारदीवारी के भीतर की हैं / यह था काव्य का पर्यावरण अथवा पश्चाद्भूमि अथवा विकसित रूप जब हमारे कवि श्रीहर्ष इस क्षेत्र में उतरे थे। श्रीहर्ष का कलावैशिष्टय-शिल्प की दृष्टि से श्रीहर्ष का 'नैषधीय चरित' महाकाव्यों के अन्त. गंत हाता है, जिसका स्वरूप हम पीछे बता आये हैं और जिसके पीछे भले हो वे अक्षरशः न मी चले हा। यह कलावादी सरषि की रचना है, जिसके उद्भावक भारवि थे। इस नवीन सराण में लिखे भारवि का 'किरातार्जुनीय', माष का 'शिशुपाल-वध' और श्रीहर्ष का 'नैषधीयचरित'-ये तीन प्रसिद्ध रचनायें आती हैं, जिन्हें साहित्य में 'वृहत्-त्रयो' नाम से पुकारा जाता है / इस सरणी की जहाँ भारवि ने उद्भावना की और इसे काव्य-क्षेत्र में उतारा, माघ ने इसका परिष्कार करके विकासोन्मुख किया, वहाँ श्रीहर्ष ने इसे विकास की चरम सीमा में पहुँचाया। इसीलिए संस्कृत-जगत् में लोकोक्ति ही चल पड़ी है 'तावद् मा मारवेर्माति यावन् माघस्य नोदयः। उदिते नैषधे काव्ये क्व माधः क्व च भारविः // वस्तुतः अलंकृत शैली को सबसे उत्कृष्ट, सबसे बड़ा और अन्तिम रचना नैषध ही है। हम देखते हैं कि कालिदास रघुवंश में एक राजा नहीं, प्रत्युत सारे हा रघुवंशीय राजाओं को भुगता गये / एक ये श्रीहर्ष है, जो इतना बड़ा महाकाव्य लिख गये और राजा नल के चरित के एकदेश का हो चित्रण कर पाये, बाकी छोड़ गये। वास्तविकता यह है कि अन्य कलावादियों की तरह श्रीहर्ष मी-जैसे कि कलावादी सरपि की यह अपनी निजो विशेषता है-वर्णनों के चक्कर में पद
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________________ [ 20 ] मये / हमें ऐसा लगता है कि जैसे इन्होंने इस विषय में गद्य-सबाट बाथमट्ट को अपना गुरु बनाया हो, जो किसी भी वस्तु के सूक्ष्म विश्लेषण के लिए अथवा उसके बाल की खाल उतारने के लिए संस्कृत जगत् में ख्यात हैं। वर्णन की यह प्रक्रिश व्यासात्मक अथवा विश्लेषणात्मक (Analytic) कहलाती है / इसके अनुसार कवि 'सर्जन'-जंसा बनकर वर्ण्य विषय का इस तरह 'आपरेशन' करके उसका कतरा-कतरा हमारे आगे रख देता है, जिससे कि उसका कुछ मी शातन्य शेष नहीं रहने पाता'। श्रीहर्ष ने भी यही किया है। प्रारम्भ में नल और दमयन्ती का चित्रण ही देख लीजिए / उनका कोई गुण अथवा अङ्ग-प्रत्यङ्ग अछता नहीं रहने पाया। आदि के श्लोक में कवि ने नल के कीतिमण्डल को उसका स्वामाविक श्वेत छत्र बनाया था, किन्तु छत्र बिना दंड के नहीं होता है। इस कमी को वह झट दूसरे श्लोक में राजा के ज्वलन्त प्रताप को वर्ष दंड का रूप देकर पूरा कर गया भले ही इसमें छत्र पुनरुक्त क्यों न हो गया हो। यही हाल नल के घोड़े, प्रमोदवन, सरोवर, कुण्डनपुरी भादि का भो समझ लीजिए। हमें ऐसा लगता है कि श्रीहर्ष ही नहीं, बल्कि कहासरणि के सभी कवि किसी मी वयं विषय के अन्तर्गत उसके छोटे-बड़े सभी तथ्यों को पहले अपने मस्तिष्क में एक सूची-जैसो तय्यार कर लेते हैं, फिर एक-एक करके उनको अपने हाथ में लेते रहते हैं ओर क्रमशः वर्णन करते रहते हैं मले हो उनके इन लम्बे-लम्बे वर्षनों के जंगलों में कथा-वस्तु अवरुद्ध-सी होकर जूं की चाल से मी कम क्यों न सरकती रहे। नैषध के पाठक देखेंगे कि जब मी कवि का हृदय अपने किसी वर्णन से नहीं अपाता, तो वह वयं को फिर पकड़ लेता है / दमयन्ती का ही वर्णन ले लें। वह पहले हम के मुख से ( सर्ग 2), फिर नल के मुख से ( सर्ग 7), फिर सीधे अपने ही श्रीमुख से ( सर्ग 15 ) और अन्त में फिर नल के मुख से कितनी ही बार उसका वर्णन कर चुका है। यही बात नल के सम्बन्ध में भी है। यह सब उसकी प्रतिमा और कल्पनाशक्ति की ही तो महिमा है। किन्तु यह देखकर आपको पाश्चर्य होगा कि दोबारा, तिबारा खाँचे हुए उसके सभी चित्र पहले से बिलकुल हो मिन और एकदम नये मिलेंगे, जिनमें बोरियत या उकनाहट का नाम नहीं, बल्कि उत्सुकता ही बढ़ती है। नल के एक चौथाई चरित को ही लेकर मब कवि उसे इतना लंबा खींचकर ले गया तो यदि वह सारा हो चरित लिखता तो वह महाभारत की तरह कितना महा-मारवान् बन जाता-स्वयं अटकल लगा लीजिये। हाँ, श्रोहर्ष के सम्बन्ध में कलावादी सरणि को ज्ञातव्य एक बात और है। पाश्चात्त्य साहित्यजगत् पर आजकल इटली के प्रसिद्ध सौन्दर्यशास्त्री क्रोचे का वह नया सिद्धान्त छाया हुआ है कि काव्याय सौन्दर्य का सम्बन्ध प्रत्यक्ष जगत् से नहीं, अन्तर्जगत् से रहता है अर्थात् लौकिक वस्तु अपने आप में सुन्दर नहीं होती, बल्कि कवि का अन्तर्ज्ञान अथवा स्वयंप्रकाश्य बोध ( Intuition ) कल्पना शक्ति द्वारा उसे सौन्दर्य का बाना पहना देता है / शम्दान्तर में, यह समझ ले कि सौन्दर्य कलाकार की वर्षना अथवा अमिन्यन्जना ( Expression ) में निहित होता है। वस्तु में नहीं। इसे 'अमिण्यम्जनावाद' कहते हैं। किन्तु मारतीय साहित्यिकों के लिए यह कोई नया वाद नहीं है। हमारी कलावादी सरणि का तो मूलाधार हो यह है / कुन्तक का वक्रोक्तिवाद शमानर में
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________________ [ 21 ] अमिव्यन्जनावाद नहीं, तो और क्या है ? नाममात्र का अन्तर है। वक्रोक्ति-कुन्तक के ही शब्दों में-"प्रसिदामिधानव्यतिरेकिणी विचित्रैवामिधा"-अर्थात् वर्ण्य का असाधारण प्रकार से वैचित्र्य अथवा सौन्दर्य-भरा अभिधान (Expression) या चित्रण। श्रीहर्ष ने अपने सरस्वती-प्रदत्त, स्वयं-प्रकाश्य बोध के आधार पर ही तो कल्पना-शक्ति द्वारा अपने बण्यों के सोन्दर्य-चित्र खीचे हैं मले हो वे वर्ण्य उतने सुन्दर हों, न हो। प्रसिद्ध पाश्रात्त्य कवि शैली के शब्दों में : "Poetry turns all things to Loveliness, it exalts the beauty of that Which is most beautiful, and it adds beauty to that which is most deformed" [ A Defence of poetry] ___ अर्थात् “कविता सभी वस्तुओं को सुन्दरता में परिपत कर देती है, यह सुन्दरतम को सुन्दरता को और ऊपर उठा देती है और यह मद्दे से मी मद्दे पर सुन्दरता मढ़ देती है" / श्रीहर्ष के कला-वैशिष्टय की दूसरी बात है उनमें अन्य कलावादी कवियों की तरह अपने पाण्डित्य-प्रदर्शन का अभिनिवेश / विद्याभिमानी वे थे ही। क्यों चुप रहते 1 मारवि और माय ने जहाँ प्रारम्भिक सों में राजनीति-शास्त्र की गुत्थियों सुलझाई, वहाँ श्रीहर्ष ने ऐसी कौन-सी विद्या अथवा शास्त्र है, जिसे अपने काव्य फलक पर न उतारा हो। शिक्षा-शास्त्र ही ले लीजिए, जिसका वेदाङ्गों में सबसे पहला स्थान है और उनके व्यवस्थित उच्चारणों से सम्बन्ध रखता है। नल की राजधानी में हजार शाखाओं वाले वेदों का पाठ करने में लगे हुए लोगों में प्रपवोच्चारपपूर्वक मन्त्रों के उदात्त, अनुदात्त और स्वरित स्वरों एवं क्रम-पाठ को क्या मजाल कि कलि कोई गलती निकाल सके। वेदांगों में दूसरा स्थान कल्प का है, जो यश तथा यश-विधिविधान-परक होता है। नगर में कहीं सोमयाग3, तो कहीं सामयाग; कही सर्वस्वार५ यश, तो कहीं महाव्रत यश; कहीं सर्वमेध, तो कहीं अश्वमेध–इत्यादि कई यश देखकर कलि दंग रह जाता है। पाठकों का भी पता चल जाता है कि कवि को वैदिक यशों तथा उनके विधि-विधानों का कितना गहरा शान है। ___ अब हम व्याकरण लेते हैं! इस विषय में तो कवि ने खूब रुचि दिखाई है। कहीं तो भाषा ही उसकी वैयाकरणो बनी हुई है, जैसे-'गमिकर्मीकृतनैकनीवृता' (2040) / 'अलम्' और 'खलु' अव्यय क्त्वा' प्रत्यय के साथ निषेधार्थक बन जाते हैं, इसके उदाहरण एक ही श्लोक में देथिरभलं विलय कृत्वापि"वाम्यम्'खल स्खलिखा "खेला' (3 / 04) / इसी तरह किसी वस्तु के दूसरे के अधीन कर देने में पाणिनि' के 'का' और 'सा' के उदाहरण हमें 'विबुधवजन्ना कृत्वा "श्रितश्रोत्रियसास्कृतश्री' ( 3 / 24 ) इस एक ही श्लोक में मिल जाते 4-17.194 / 8-17204 / 1-16 / 10 / 2-14164 / 3-17 / 196 / 5-17 / 202 / 6-17 / 203 / 7-17186 / 8-'अलं-खल्वोः प्रतिषेधयोः प्राची स्वा' ( 3 / 4 / 18) १०-'देये च त्राच' (5 / 4 / 55) / 'तदधोनवचने' (5 / 4 / 54 ) /
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________________ [ 22 ] हैं। व्याकरण का नियम है-'उपसर्गेण धात्वों बलादन्यत्र नीयते'। ऐसा लगता है कि इसी को मन में रखकर जैसे कवि ने निम्नलिखित श्लोक बनाया हो- 'भधित कापि मुखे सलिलं सखी, प्यधित कापि सरोजदलैः स्तनौ / ' व्यधित कापि हृदि व्यजनानिलं, ' न्यधित कापि हिमं सुतनोस्तनौ // ( 4 / 113) कहीं प्रस्तुत रूप में न सही तो अप्रस्तुत रूप में ही श्रीहर्ष अपना व्याकरण ध्वनित कर देते हैं, जैसे 'क्रियेत चेत् साधु-विमक्तिचिन्ता, व्यक्तिस्तदा सा प्रथमाऽभिधेया। या स्वौजसां साधयितुं विलास स्तावक्षमानामपदं बहु स्यात् // 3 // 23 ) यहाँ प्रस्तुत नल-वर्णन पर प्रथमा विभक्ति के सु, औ, जस ( एक ब०, द्वि ब०, बहु ब० ) प्रत्ययों के लोप-दीर्घ आदि विलासों से प्रत्येक प्रातिपादिक शब्द को पद में परिणत करने की क्षमता का अपस्तुत व्याकरण व्यवहार-समारोप हो रखा है। कहीं-कहीं श्रीहर्ष साम्य-विधान में उपना और उत्प्रेक्षा तक को व्याकरण के भीतर ढूँढ लेते हैं, जैसे सायुज्यमृच्छति भवस्य भवाब्धियाद स्तां पप्युरेत्य नगरी नगरोजपुत्र्याः / भूतामिधानपदुमद्यतनीमवाप्य, भीमोद्भवे भवतिभावमिवास्तिधातुः // 111117 // स्वयंवर में काशीनरेश का परिचय देते हुए सरस्वती उनको काशी के सम्बन्ध में कह रही है कि, यह वह नगरी है, जहाँ पहुँच कर संसार-सागर के प्राणी वहाँ स्थित शिव के साथ इस तरह शिव रूप बन जाते हैं जैसे कि 'मस् धातु अद्यतन भूतकाल के लुक में पहुँचकर वहाँ के भू से बने 'अभूत' के साथ अभूत् रूप' बन जाता है / बाली के स्थान में सुग्रीव के राज्याभिषेक पर कालिदास ने भी इसी तरह का वेयाकरण साम्य-विधान कर रखा है-'धातो: स्थानमिवादेशं सुग्रीवं संन्यवेशयत्' / अब एक उत्प्रेक्षा भी देखिये / उषा-काल है। पक्षियों बोलने लगी हैं। कौआ 'को 'को' और पिक 'तुहि', 'हि' कर रहे हैं। कवि को इन ध्वनियों में भी व्याकरण ही सूझ रहा है। प्रश्नवाचक 'किम्' शब्द के प्रथमा द्विवचन 'कौ' रूप में मानो कौआ पिक को पूछ रहा है कि दो कौन हैं, जिनके स्थान मे पाणिनीय नियम से तातङ् ( आदेश ) हो. है ? पिक झट उत्तर दे रहा है 'तु हि', 'तु हि' अर्थात् लोट् के प्रथम और मध्यम पुरुष के एक वचन में 'तु' और 'हि' को विकल्प से १-अस्तेभूः (2 / 4 / 52)
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________________ [ 23 ] आशीर्वाद अर्थ में तातङ् ( भवतात् , भवताम् ) होता है / यह बात इस श्लोक में कही गई है 'इह किमुषसि पृच्छाशंसिकिंशब्दरूप प्रतिनियमितवाचा वायसेनैष पृष्टः / 'मण पणिभवशास्त्रे तातडः स्थानिनौ का' विति विहिततुहीवागुत्तरः कोकिलोऽभूत् // ( 19660) चौथा अंग निरुक्त है, जो वेद-पुरुष का श्रोत्र-स्थानीय है और सभी शब्दों को अर्थानुसार निरुक्ति अथवा व्युत्पत्ति सुनना चाहता है। इसके भी श्रीहर्ष ने यत्र-तत्र संकेत दे रखे हैं। ढाक के पुष्प को 'पलाश' क्यों कहते हैं। उत्तर देते हैं-'स्फुटं पलाशेऽध्वजुषां पलाशनात्' (1184 ) अर्थात् वह विरहियों का पल = मांस खा जाता है, प्रियतमानों की कटुस्मृति में सुखाकर कौटा बना देता है / इसी तरह अशोक भी एक वृक्ष होता है जिसका फूल कामदेव के पाँच बाणों में प्राता है / कवि इस अव्युत्पन्न शब्द की निरुक्ति 'न शोको यत्रेति' करके इसका समन्वय इस प्रकार करता है कि अशोक वृक्ष बटोहियों के ऊपर काम द्वारा छोड़े जा रहे ( अपने ) फूलों के रूप में काम-बाणों को अपने सिर के ऊपर रोक लेता है और अपनी शरण में नीचे बैठे बटोहियों की रक्षा करके उन्हें अशोक= शोक-रहत कर देता है ( 11101 ), लेकिन कवि का यह निर्वचन हमारी समझ में नहीं आता, क्योंकि जो अशोक वियोगियों का भक्षक है काम का बाप है, वह रक्षक कैसे बन सकता है ? हमारे विचार से 'न शोको यस्य' यो व्युत्पत्ति ठोक बैठती हैं अर्थात् अशोक इसलिए अभोक है सैकड़ों बटोहियों के प्राण लेने पर भी उसे जरा भी शोक नहीं होता है उल्टी प्रसन्नता होती है / दम ऋषि के वरदान से राजा भीम के एक पुत्री और तीन पुत्र हुए। ऋषि के नाम की स्मृति बनाये रखने के लिए पिता ने सन्तानों के नाम क्रमशः दमयन्ती, दम, दान्त और दमन रखे। किन्तु दमयन्ती के सम्बन्ध में कवि को यह मान्य नहीं। बह इस नाम की व्युत्पत्ति 'भुवनत्रय सुध्रुवां कमनीयतामदं दमयतीति ( 2 / 18 ) करता है। इसी तरह एक शब्द 'अधर-बिम्ध' है जिसको व्युत्पत्ति प्रारम्भ से ही तत्पुरुष-प्रधान अर्थात् 'अधरो बिम्ब इव' की जाती आ रही है, किन्तु कवि को यह स्वीकार नहीं / वह दमयन्ती के अधर-बिम्ब को लेकर व्युत्पत्ति बहुव्रीहि-प्रधान अर्थात् 'अधरो निम्नः बिम्बो यस्मात्' कर गया है (2 / 24 ) / चन्द्रमा को द्विराज कहते हैं और वह इसलिए कि वह द्विजों-नक्षत्रों अथवा तारों का राजा ( नक्षत्रंशः ताराधिा) है परन्तु दमयन्ती के माध्यम से कवि इसका खण्डन कर देता है. वह द्विजसे दाँत अर्थ लेकर (क्योंकि दाँत दो-दो बार जमते हैं ) उससे दाँतों का राजा-दाढ लेते हैं। दाढ़ भो यमराज की। यदि चन्द्रमा सम-दाद नहीं, तो वह क्यों वियोगयों को चबा जाता है ? ( 4 / 72) / इस तरह अन्यत्र भी अर्थानुसार बहुत से शब्द-निर्वचन काव्य में आये हुए हैं। अब थोड़ा-पा कवि के छन्द और ज्योतिष शान को भी लीजिये। छन्द तो काव्य की गति होती है। उसके बिना काव्यशरीर खड़ा ही नहीं हो सकता। गिनती करने पर हमें नैषध में लगभग 20 १–'तुयोस्तातड्डाशिष्यन्यतरस्याम्' (71 / 35)
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________________ ( 24 ) छन्द मिले हैं जिनके नाम इस प्रकार है-वंशस्थ, वैतालीय, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, इनका सम्मि. श्रित रूप उपजाति, द्रुतविलम्बित, स्वागता, दोधक, तोटक, वसन्त-तिलका, मालती, हरिणी, शिखरिणी, रयोद्धता, पृथ्वी, शार्दूलविक्रीडित, स्रग्धरा, पुष्पिताया, मन्दाक्रान्ता और अनुष्टुप् / समी सगों में वैसे तो उपजाति, वैतालीय, वंशस्थ आदि छोटे-छोटे छन्दों का प्रयोग हुमा है, लेोकन सर्गान्तों में छन्द बदल देने के नियमानुसार शिखरिणी, स्रग्धरा, शार्दूलविक्रीडित-जैसे लम्बे लम्बे छन्दों को कवि खूब काम में लाया है / उन्नीसवा सर्ग तो प्रायः हरिपी में ही चलता है, जो लम्बे छन्दों में गिना जाता है। वैतालीय को छोड़कर ये सभी छन्द वर्ण-छन्द हैं, मात्रा-छन्द नहीं / इन छन्दों में श्रीहर्ष ने अच्छा कौशल दिखाया है यद्यपि कठिन और कठोर शब्दों के आ जाने से उनमें कही-कहीं सहज माधुर्य बोर लय की कमी अवश्य अनुभव हो जाती है। इसी प्रकार कविका ज्योतिष-शान भी यत्र-तत्र झलक जाता है, जैसे-प्रातःकाल सूर्य के साथ बुध और शुक्र का चलना (1 / 17), और विशाखा नक्षत्र का लोप हो जाना (1957), राहु द्वारा चन्द्रमा का ग्रास (4.64) अमावास्या को चन्द्रमा का सूर्य में विलय ( 2.58 ) झोण चन्द्रमा का पापग्रह होना, (4 / 42) सम्मुख सूर्य में यात्रानिषेध (31) मनुष्यों, देवताओं और ब्रह्मा के दिनों, वर्षों, तथा युगों का परिगणन (4 / 44), यात्रा के समय नलपूर्ण कलश और आम्रफल दर्शन का शुम होना (2 / 65-66) इत्यादि, इत्यादि / पुराणों और धर्मशास्त्र के सम्बन्ध में भी थोड़ा-सा देखिये। श्रीहर्ष प्रारम्म से हो पौराणिक कथाओं का यत्र-तत्र उल्लेख करते आ रहे हैं, जैसे-श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न के साथ अनिरुद्ध को छुड़ाने वाणासुर के शोणितपुर को जाना (1 / 32), काम द्वारा रति में अनिरुद्ध की उत्पत्ति (1954), विष्णु द्वारा वामनावतार धारण कर एक ही पग से आकाश माप लेना (1170,124), त्रिशंकु को देवताओं द्वारा सशरीर स्वर्ग न आने देने पर विश्वामित्र की नव सृष्टि-निर्माण को धमको (2 / 102), परोपकार हेतु दधीच द्वारा अस्थियों, शिवि द्वारा निज मांस और कर्ण द्वारा निज स्वचादान (385,3.129) अगस्य द्वारा समुद्र-पान (4 / 51,58) आदि कहाँ तक गिनाये ? स्वयम्बर में सरस्वती द्वारा राजाओं का परिचय देने के प्रसङ्ग में जगत् के समी समुद्रों, दीपों, वर्षों और देशों से सम्बद्ध मूगोल का चित्रण और विष्णु के दश अवतारों तथा सूर्यादि देवताओं का विस्तृत उल्लेख-यह सब कुछ पौराणिक तो है, यहाँ तक कि काव्य का कथानक भो स्वयं पौराणिक पृष्ठाधार पर ही खड़ा हुआ है / धर्मशास की बातों का मी हम काव्य में यत्र-तत्र उल्लेख पाते हैं, जैसे-अपकारक पशुओं के बध में धर्मशास्त्र की अनुमति (2 / 9), प्रवास में जा रहे मास्मीयजन को जल-सीमान्त तक छोड़ने जाने का विधान (1175, 31131), इष्ट और पूर्व अर्थात् यशानुष्ठान और परोपकार हेतु कुआँ, प्याऊ, धर्मशाला, वृक्षारोपण मादि का विधान (3 / 21), दानार्थियों को द्रव्यदान-विधि (5586) दत्त वचन का प्रतिपालन (5 / 135) इत्यादि बातें धर्मशास्त्र से सम्बन्ध रखती हैं। दर्शनों का तो ऐसा लगता है कि श्रीहर्ष ने जैसे समुद्र का-सा मन्थन कर रखा हो। पहले चार्वाक, बौद्ध और जैन-इन तीन नास्तिक दर्शनों को ले लीजिये। मात्मा-परमात्मा, स्वर्ग-नरक आदिको न मानने वाले शरीरात्मवादी चार्वाकों का दृष्टकोण कलि और उसके सहयोगियों के माध्यम से
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________________ कवि ने सविस्तर सत्रहवै सर्ग में स्पष्ट कर रखा है कि किस तरह वे ऐन्द्रिय मोग को ही जीवन का परम पुरुषार्थ मानते हैं। सरस्वती का ममी विद्याओं के अधिष्ठान रूप में वर्णन करते हुये बोहर्ष ने बौद्धों के सोमसिद्धान्त शून्यात्मवाद ('सर्व शून्यं शन्यम्'), विज्ञानसामस्त्य ("विशानमेवात्मा' ) और साकारता-सिद्धि ( विशनं साकारम्' ) का उल्लेख किया है (10 / 87) इसी प्रकार नल द्वारा दशावतारों की अर्चना के प्रसंग में भगवान् बुद्ध का 'चतुष्कोटि-विमुक्त 'षडमिश' आदि विशेषणों द्वारा संबोधन भी बौद्ध सिद्धान्त की ओर संकेत है (21188) / 'विहार देश' को प्राप्त होकर नल के घोड़ों के मण्डलाकार भ्रमणों की कवि द्वारा 'विहारदेश' को प्राप्त हो जैनियों के मण्डलाकार बैठने से उपमा जैनसिद्धान्त की ओर संकेत करती है (1971) / इसी तरह देवताओं में में किसी एक को वरने हेतु रखे नल के प्रस्ताव को ठुकराती हुई दमयन्ती के मुख से उल्लिखित 'रत्नत्रय' जैन (9.71) दर्शन के सम्यग् दर्शन, सम्यग शान और सम्यक चारित्र का प्रतिपादन करता है। मम्य चारित्र के भीतर जैनियों के अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये पाँच अणुव्रत आते हैं / अब आस्तिक दर्शन लें, दमयन्ती के कुचकुम्भ चित्रण में निमित्त कारण चक्र के 'भ्रमि' गुण का कार्य में आना (2 / 32), मन का अणु परिमाग होना (5 / 29), मुक्ति का सुखदुःखादि राहित्य रूप (1775) हत्यादि बातें जहाँ न्यायदर्शन के सिद्धान्तों से सम्बन्ध रखती हैं, वहाँ द्वयणुक से सृष्टि उत्पत्ति (31125) दशम द्रव्य तम (22:36) इत्यादि वैशेषिक दर्शन में आती हैं। सांख्य दर्शन का सत्कार्यवाद हमें 'नास्ति जन्य जनकव्यतिमेद:' में दीखता है (594) / यशों में पशु-हिंसा को पाप हेतु बताना (22.76) भी सांख्यों का ही दृष्टिकोण है। योगदर्शन के संकेत मी यत्र-तत्र मिल जाते हैं जैसे-तिवप्रावलि योगपट्टया' (2 / 78), 'समाधिशास्त्रश्रुतिपूर्णकर्णः' (3 / 44), योगिधीरपि न पश्यति यस्मात्' (5 / 28) 'संप्रज्ञात-वासिततमः समपादि' (21 / 119) इत्यादि, शान का स्वतः प्रामाण्य (2 / 61), देवताओं का शरीर न होकर मन्त्र रूप होना (5 / 32, 14 / 73) ईश्वरकी अस्वीकृति (21164) आदि बातें मीमांसादर्शन-सम्बन्धी हैं / वेदान्त दर्शन की ओर तो श्रीहर्ष का बहुत ही अधिक चाव रहा। कहीं वे यों ही अपने ब्रह्मवाद को ध्वनित कर जाते हैं भले ही प्रसंग हो,न हो, जैसे अधिगस्य जगत्यधीश्वरादथ मुक्ति पुरुषोत्तमात् ततः। वचसामपि गोचरो न यः स तमानन्दमविन्दत द्विजः // (21) कहीं उसे वे अप्रस्तुत-विधान के रूप में रख देते हैं, जैसे नेत्राणि वैदर्मसुतासखीनां विमुक्ततत्तद्विषयग्रहाणि / प्रापुस्तमेकं निरूपाख्यरूपं ब्रह्मव चेतांसि यतव्रतानाम् // (3 // 3) अन्य संकेतों के लिये 'श्रीहर्ष का व्यक्तित्व' स्तम्भ देखिये / इस तरह कवि ने अपनो रचनायें नल को तरह निज चतुर्दशविद्याभिशता बता रखी है। १-न सन्नासन्न सदसन्न चाप्यनुभयात्मकम् / ' चतुष्कोटि-विनिर्मुक्तं तत्त्वं माध्यमिका विदुः / २-'दृष्टवदानुभविकः स विशुद्धिक्षयातिशययुक्तः // (सt० का०)२
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________________ . [ 26 ] श्रीहर्ष के कला-वैशिष्टय में अब हम उनके प्रकृति-चित्रण को लेते हैं / यहाँ यह कहने की आवश्यकता नहीं कि महाकाव्य विषय प्रधान, बहिर्जगत्-परक अथवा वर्णनात्मक हुआ करता है, जिसके मोतर क्या मानव-प्रकृति और क्या मानवेतर प्रकृति-दोनों समाहित रहते हैं। काव्य के अरुणोदय. काल में प्रकृति को अपनो स्वतन्त्र सत्ता थी। वल्मीकि ने उसके कितने ही सौन्दर्यधरे मार्मिक चित्र खींच रखे हैं / कालिदास आदि के मी बहुत से स्वतन्त्र आलम्ब नात्मक प्रकृतिचित्र मिलते हैं। किन्तु काव्य-क्षेत्र में रसवाद आ जाने पर प्रकृति कुछ सीमा तक अपनी स्वतन्त्र सत्ता खो बैठो और अधिकतर रस के अन्यतम निर्मापक तत्व-उद्दोपन विभाव-के रूप में काम करने लगी। रसपरिपुष्टि द्वारा सहृदयों को आनन्द-प्रदान करना उसकी इतिकर्तव्यता हो गई। इसके अतिरिक्त, कभी-कभी ऐसा भी होने लगा कि कलाकार अपनी व्यक्तिगत अनुभूति को अभिव्यक्ति देने हेतु जड़ प्रकृति को अपना माध्यम बना देता है और उसका चेतीकरण ( Persorification ) करके उसे मानव-जीवन के समतल में रख देता है / इसे हम भावाशिप्त अथवा चेतनीकृत प्रकृति कहेंगे। श्रीहर्ष ने प्रकृति के उक्त तीनों रूपों के बहुत सारे चित्र खींच रखे हैं / म सग के सरोवर से लेकर ग्रन्थान्त में चन्द्रवर्णन तक प्रसङ्ग-प्राप्त प्रकृति के बहुत से पालम्बनात्मक, स्वतन्त्र चित्र आपको मिल जाएँगे / माष आदि कलावादियों की तरह काव्य-संविधान का अक्षर-अक्षर पकड़कर हर कहो, जहाँ जी चाहे प्रकृति को यो हो खोंच ले आना श्रीहर्ष को नहीं माता। इसके लिए वे उसका अवसर और स्थान देखते हैं। उद्यान-प्रसंग में कवि द्वारा खींचे सरोवर के स्वाभाविक चित्रों का एक उदाहरण देखिए 'महीयसः पङ्कज-मण्डलस्य य. श्छलेन गौरस्य च मेचकस्य च / / नलेन मेने सलिले निलीनयो स्त्विषं विमुञ्चन् विधु-कालकूटयोः (1 / 113) शृङ्गार-रस पधान होने के कारण नैषध में प्रकृति के उद्दोपन विभाव के रूप में खींचे चित्रों की तो भरमार ही समझिये। अन्धकार का एक कामोद्दीपक चित्र देखिये शची-सपरन्यां दिशि पश्य, भैमि ! शक्रेमदानद्रवनिर्झरस्य / पोप्लूयते वासरसेतुनाशादुच्छ खलः पूर इवान्धकारः // ( 22 / 27) ___ अब प्रकृति का भावाक्षिप्त रूप भी देखिये। नल के हृदय में प्रिया-मिलन की स्पृहा को कवि प्रकृति के माध्यम से इस तरह साकार कर रहा है नवा लता गन्धवहेन चुम्बिता, करम्बिताङ्गी मकरन्द-शीकरैः / दृशा नृपेण स्मितशोभि-कुडमला, दरादराभ्यां दरकम्पिनी पपे / (185) ऐसा हो एक दूसरा चित्र भी देखिये, जिसमें प्रियतम की स्मृति कौंधने पर रोमाञ्चित, और हृदय में कामशराहत नायिका का व्यवहार-समारोप कवि दाडिमी पर यों कर रहा है वियोगिनीमैक्षत दाडिमीमसौ, प्रियस्मृतेः स्पष्टमुदीतकण्टकाम् / फलस्तनस्थान-विदीर्ण-रागिहृद्विशच्छुकास्यस्मरकिंशुकाशुगाम् // (1183)
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________________ [ 27 ] जहाँ तक काव्य के भाव-पक्ष का सम्बन्ध है, वह कलावादी सरणि में होता ही नहीं, यह बात नहीं। वह तो काव्य का अभिन्न अङ्ग है। क्यों नहीं होगा ? किन्तु हाँ, कलावादी उसे प्रमुखता नहीं देते हैं / फिर भी श्रीहर्ष ने भावपक्ष को भी अपेक्षाकृत अच्छा उजागर किया है। उन्होंने हृदयगत रति-नामक स्थायी भाव को लेकर उसकी विभावादि-सामग्री के संयोग से शृंगाररस का पूरा परिपाक दिखा रखा है / लौकिक भाषा में जिसे हम प्रेम कहते हैं, वह साहित्यिकी भाषा में 'रति' और उसका परिपुष्ट आस्वाध रूप शृङ्गाररस कहलाता है। इसी शृङ्गार को साहित्यशास्त्री रसराजे नाम से पुकारते हैं, क्योंकि जीवन में जितनी व्यापकता प्रेम की है, उतनी दूसरे माव की नहीं। इसीलिए कवि ने इसे अङ्गी रस के रूप में अपना रखा है। 'प्रादौ वाच्यः स्त्रिया रागः पश्चात्पुं. सस्तदिङ्गितः' इस साहित्यिक रूदि के अनुसार पहले नायिका के हृदय में नायक के लिए प्रम का अंकुर उगता है जब वह पहले-पहल उसे देखता है राय वा उसके विषय में सुननी है। इसे 'चक्षगग' अथवा 'नयन पीति' ( आँखें चार होना ) कहते हैं, किन्तु 'पूर्वराग' को यह प्रथम अवस्था यहाँ कवि ने नायिका में नल के गुणश्रवण से बताई है। नल भी दमयन्ती के गुण सुनकर उसे चाहने लगता है। फिर तो कवि हाथ में सूची जैसे लेकर अपने विश्लेषणात्मक ढंग से नायक और नायिका को पूर्वराग की 'चक्षुराग, त्तिासंग, संकल्प, निद्राच्छेद, तनुता, विषनिवृत्ति, पानाश, उन्माद, मूर्छा और मृत्यु-इन दश काय-दशाओं के बीच में से क्रमशः गुजारता चला जाता है। मृत्यु से यहाँ मरणासन्नता अथवा मरण-प्रयत्न अभिप्रेत है, वास्तविक मृत्यु नहीं, क्योंकि वास्तविक मृत्यु में करुणरस हो जाता है। इस अन्तिम काम-दशा के सम्बन्ध में कवि नल के लिए 'लया नभः पुष्प्यतु कोरके।' (1 / 114 ) रूप में ईश्वर से उसके न होने हेतु प्रार्थना करता है जब कि दमयन्ती को वह नल के न मिलने पर 'ममाद्य तत्प्राप्तिरसुव्ययो वा' (3.82) अथवा 'हुताशनोबन्धनवारिकारितां निजायुषः तत् करवै स्ववैरिताम्' (135) के रूप में आत्मघात करने की स्थिति में ला देता है। इस तरह सभी दश कामदशाओं का अनिवार्य रूप से चित्रण, भले ही सभो नायकनायिकानों में वे सब हों न हो, इन कला-सरणि के कवियों में एक रूढ़ि ही समझिये। ___भारतीय प्रेम के सम्बन्ध में एक उल्लेखनीय बात सामान्यतः यह भी है-'न विना विप्रलम्भेन संयोगो याति पुष्टताम्' अर्थात् संभोग का पूरा आस्वाद लेने हेतु प्रेम को पहले विप्रलभ्भ-वियोग की विकट घाटी के बीच में से गुजरना होता है। वियोग काम की ऐसी अग्नि है, जिसकी भट्टी में पड़कर प्रेम के ऊपर लगी वामना-रूपी मैल को परत भस्म हो जाती है / 'चक्षराग' में ही युगल का संयोग तो वासना होती है, जो शाीरिक आकर्षण तक ही बनी रहती है और बाद को नष्ट हो जाया करती हैं। इसके विपरीत प्रेम हार्दिक, स्थायी तत्व होता है। विरहाग्नि में तपा, कुन्दन-जैसा उज्ज्वल और शुद्ध बना हुआ प्रेम ही हमारे साहित्य में संयोग के उचित माना जाता है / कालिदास, बाण आदि कवियों ने अपने शृङ्गारिक चित्रों में ऐसा हो प्रेम अपनाया है। नल-दमयन्ती का प्रेम मी ऐसा ही है। वह अपनी दिव्य अग्नि-परीक्षा में उत्तीर्ण हो मधुर मिलन की ओर जा ही रहा था कि सहसा श्रीहर्ष वरुणादि को साथ लिये इन्द्र और बाद में कलि को मी
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________________ [ 28 ] दमयन्ती का इच्छुक बनाकर प्रेय का त्रिकोष-नायक-नायिका खलनायक खड़ा कर बैठे। खलनायक इन्द्र ने कुटिल नीति अपनाकर नल की ही सहायता से अपने लिए रास्ता साफ कर हो लिया था, किन्तु यह दमयन्ती ही हो जो अपने सतीत्व एवं नल के प्रति अनुराग को अनन्य निष्ठा से प्रभावित करके इन्द्रादि को मार्ग से हटा पाये। पाणिग्रहण के बाद युगल के बीवन में जो मधु-मास आया, वह एक ऐन्द्रिय पर्व के रूप में चह पड़ा। इस मधुर मिलन अथवा संभोग शृङ्गार के जितने अधिक, मार्मिक, सूक्ष्म, वैविध्य भरे रंगीन चित्र श्रीहर्ष ने खींचे हैं, उतने अन्य कलाकार शायद क्या ही खींच सका होगा। सारा ही रति-रहस्य जैसे कवि ने हमारे आगे उघाड़कर रख दिया हो। इसी बीच स्वयम्बर में पिछड़ जाने वाले दूसरे खलनायक कलि का आ धमकना, युगल की रंगरलियों देख जलभुन जाना और बाद को बदला चुकाने के लिए उन दोनों का सुख-साम्राज्य ढाकर उन्हें बर्बाद कर देना। यह बताना हमारे काव्य का प्रतिपाहा नहीं। काव्य-विधानानुसार शृंगाररस को अङ्गा बनाकर कवि ने करुण, हास्य और वीर को अङ्ग रसों के रूप से यत्र-तत्र अभिव्यक्ति दे रखी है। करुण रस का मार्मिक चित्रण हमें नल द्वारा हंस को पकड़ने और बाद में छोड़ देने की घटना में मिलता है / अपने मारे माने की शंका में हंस का रहरहकर अपनी सद्यःप्रभूता प्रेयसी और बच्चों को याद करने और अपनी मृत्यु के बाद उनकी दयनीय दशा का चित्र खींचते हुए उसके हृदय-द्रावक विलाप में कितनी गहरी करुणा है, देखिये सुताः कमाहूय चिराय चुंकृत विधाय कम्प्राणि मुखानि के प्रति / कथानु शिष्यवमिति प्रमील्य स स्रुतस्य सेकाद् बुबुधे नृपाश्रुपाः // (1 / 142) सुनकर राजा नल मी शोक में दो आँसू बहाये बिना नहीं रह सके। श्रीहर्ष का यह करुणरसचित्र अपने में छोटा-सा होता हुआ मी करुष्परस के विख्यात चिदेरे मवमूति के चित्रों से क्या कोई कम है ? किन्तु करुण का शृङ्गार-विरोधी होने से अंग-रूप में उसका चित्रप यहाँ असंवैधानिक है। हास्य-रस के सम्बन्ध में हम पोछे देख आये हैं कि किस तरह कवि उसे यत्र-तत्र काफी लम्बा खींचता चला गया है। विवाह और युगल के मधुर मिलन के मधु-मास के समय पृष्ठभूमि बनकर किस तरह हास्य श्रृंगार को परिपुष्टि देता चला जा रहा है यह देखते ही बनता है। विस्तार के भय से हम एक-दो ही उदाहरण दे सकेंगे। दमयन्तो के स्वयंवर में इन्द्र के भी जाने की तय्यारी का समय है काऽपि कामपि बभाण बुभुस्सु, अण्वति निदश मर्तरि किश्चित् / एष कश्यपसुताममिगन्ता, पश्य कश्यप-सुतः शतमन्युः॥( 5 / 53) ___ अर्थात् कश्यप-सुत ( इन्द्र ) को दमयन्ती माहने कश्यप-मुता (प्रथिवी ) को जाता देख कोई देवागना इन्द्र पर कट व्यङ्ग्य कसती हुई अपनी किसी सखी से बोल उठी (जिसे कुछ-कुछ इन्द्र मी
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________________ [ 29 ] मुन रहा था)-'ठोक ही तो है बहन, शतमन्यु ( सैकड़ों पाप-कर्म करने वाला कश्य पमुत (शराबी का लड़का ) कश्यपसुता (शराबी की छोकरी) को ब्याहने जाये। साथ ही दूसरा व्यंग्य' यहाँ यह भी है 'देख बहन, कैसा अन्धेर है कि कश्यपमुत कश्यपसुता ( बहिन ) को व्याहने जा रहा है।' दोनों देवाङ्गनायें आपस में खूब हँसी। दूसरा उदाहरण वारातियों की विदाई के समय का है अमीषु तथ्यानृतरत्नजातयोर्विदर्भराट् चारु-नितान्तचारुणोः / स्वयं गृहाणैकमिहेत्युदोर्य ववयं ददौ शेषजिघृक्षवे हसन् // ( 16 / 111) विदर्भराज भीम एक चमकीले असली रत्नों की ढेरी और एक और अधिक चमकीले नकली रत्नों की ढेरी हाथ पर रखकर उन बारातियों में से प्रत्येक को भेंट देते हुए कह रहे थे-'दोनों ढेरियों में से एक चुन लीजिये। लेकिन जब कोई बाराती नकली रत्न लेना चाहता, तो वे उसकी रत्नों की अनभिशता पर खूब हँसते और उसे दोनों ही ढेरियाँ दे देते कि बेचारा घाटे में क्यों रहे। कवि का वीररस नल द्वारा शत्रुओं पर अभियान, उन पर 'प्रगल्भ बाण-वृष्टि' तथा 'महासिप्रहार उनके नगरों को भस्मसात् करने के शौर्य-कर्म एवं स्वयंवर के समय सरस्वती द्वारा तत्तत् राजाओं के वीरोचित कर्मजात के वर्णन में अभिव्यक्त होता है। श्रीहर्ष की भाषा-शैली-कुछ विद्वानों का कहना है कि दमयन्ती को प्रशंसा में श्रीहर्ष ने जो यह श्लोक कहा है धन्यासि वैदर्मि गुणरुदारैर्यया समाकृष्यत नैषधोऽपि / इतः स्तुतिः का खलु चन्द्रिकायाः यदब्धिमप्युत्तरलीकरोति // (3 / 116 ) उसमें वह वैदर्भी शब्द में श्लेष रखकर अपनी वैदर्भी शैली की ओर मो संकेत कर गये हैं अर्थात् उनको भाषा-शैली वैदर्भी है, जिसका स्वरूप साहित्यदर्पणकार ने इस तरह स्पष्ट किया है। माधुर्य-व्यञ्जकैर्वण रचना ललितास्मिका / अवृत्तिरल्पवृत्तिर्वा वैदर्भी रीतिरिष्यते // ( 9 / 3 ) अर्थात् ऐसी ललित पद-रचना जिसमें वर्ण माधुर्य उगल रहे. हों और वृत्ति ( समास ) न हों अथवा यदि हों भो, तो छोटे हों, वैदी रीति होती है। इसमें माषा की क्लिष्टता, प्रयास-साध्यता और कृत्रिमता सर्वथा वर्जनीय हैं / ऊपर उद्धृत श्लोक में कवि का अपना वैदर्भी-रीतिविषयक व्यक्तिगत संकेत हो, न हो, किन्तु हाँ सरस्वती जाते समय नल को जो यह निम्नलिखित आशीर्वाद दे गई: गुणानामास्थानी नृपतिलक, नारीतिविदितां, रसस्फीतामन्तस्तव च तव वृत्ते च कवितुः / मवित्री बैदर्भीमधिकमधिकण्ठं रचयितुं परीरम्मक्रीडाचरणधरणामन्वहमहम् // (1491) पघाडाप १-मदिरा कश्य-मधे च / ( अमरकोष 20 / 40 )
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________________ [ 30 ] इसमें श्रीहर्ष ने श्लेष-मुखेन सरस्वती द्वारा नल को यह स्पष्ट कहलवा दिया है कि "तुम्हाराचरित ( नैषध चरित ) लिखने वाले कवि के कण्ठ में मैं ऐसी वैदमी शैली की प्रेरणा भरती रहूँगी, जो (प्रसादादि ) गुणों की प्रास्थानी (आश्रय ), रीतियों में न अविदित अर्थात् प्रसिद्ध अपने भीतर (शृंगार बादि ) रसों से स्फीत ( समृद्ध ) तथा परोरम्भ और कोड़ा के आचरण ( प्रयोग ) से भरी होगी।" इसमें श्रीहर्ष ने अपने श्रीमुख से निज माषा-शैली बता दी है। नारायण ने परीरम्म से श्लेषालंकार और क्रीड़ा से वक्रोक्ति को लिया है / लेकिन हमारे विचार से क्रीड़ा शब्द यहाँ व्यापक अर्थ में है। वह अपने भीतर वक्रोक्ति ही नहीं प्रत्युत अनुपास, यमक आदि सारा ही वर्ण और शब्द. विलास समेटे हुये है / इस तरह श्रीहर्ष की वैदी शैली वाल्मीकि, कालिदास आदि द्वारा प्रयुक्त वैदों से बड़ी भारी विशेषता रखती है, कलावादी यह युग की वह अलंकृत शैली है, जिसमें वयं वस्तु की अपेक्षा वर्णन-प्रकार को महत्त्व दिया जाता है और काव्य का मुख्य अवलम्ब आत्मा नहीं प्रत्युत श्रोत्रेन्द्रिय बनी रहती है। इसमें शब्दालंकारों और अर्थालंकारों की भरमार रहती है / इसी कारण इसमें कृत्रिमता, प्रयास-साध्यता और मस्तिष्क-प्रधानता आई हुई रहती है। श्रीहर्ष ने शब्दालंकार और अर्थालंकार-दोनों का खुलकर प्रयोग किया है। अनुपास इनके व्यापक हैं कि बिरला ही कोई श्लोक होगा, जो इससे अछता रहा हो। वृत्त्यनुप्रास तो आप इनके हरेक श्लोक में आँख मीचकर बोल सकते हैं / निम्नलिखित श्लोक देखिये जगज्जयं तेन च कोशमक्षयं प्रणीतवाम्शेशवशेषवानयम् / सखा रतीशस्य ऋतुर्यथा वनं वपुस्तथालिङ्गदथास्य यौवनम् / / (1 / 19) यहाँ 'जगज्जयं में ज-ज का वृत्त्यनुप्रास 'जजयं शयं' में श्रत्यनुपास, 'शैश-शेष' में छेकानुप्रास, 'क्षयं, नयम्' 'वनं वनम्' में अन्त्यानुप्रास हैं / अन्तिम 'वनं वनम्' में अनम् , अन्त्यानुप्रास के साथ 'वनं वनं' में यमक का संकर भी बना हुआ है। अर्यालकार उपमा की संसृष्टि भी है / स्वतन्त्र यमक का भी एक उदाहरण लीजिये-. अवलम्ब्य दिदृक्षयाम्बरे क्षणमाचर्यरसालसंगतम् / , स विलासवनेऽवनीभृतः फनमैक्षिष्ट रसालसंगतम् // (2066) 'दिदृ' 'क्षक्ष' में वृत्त्यनुप्रास तथा 'वने वनी' में छेकानुप्राप्त की मी यमक के साथ संसृष्टि है। श्लेषालंकार में तो हर्ष का कहना ही क्या ? हमें ऐसा लगता है कि दमयन्ती को 'श्लेषकवेभवस्याः ' (2 / 69) कहता हुआ कवि व्यक्तिगत रूप से जैसे अपने को ही 'श्लेष कवि' बता गया हो। दमयन्ती के मुख से उस का नलविषयक अनुराग कवि ने श्लेष द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से किस तरह व्यक्त करवाया है-यह देखते ही बनता है। इनके श्लेष का महान् चमत्कार तो स्वयंवर के अवसर पर देखने को मिलता है जब दमयन्ती के आगे ‘पश्चनलो' आती है। श्लेष-मुखेन कवि ने सरस्वती द्वारा एक ही शब्दों में इन्द्रादि एक-एक देवता के साथ-साथ नल का भी अमिधान करवाया. तो दमयन्ती समझ ही न पा सकी कि सरस्वती देवता का परिचय दे रही है या नल का परिचय, इस श्लेष पर तुर्रा तो देखिए यह है
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________________ [ 31 ] देवः पतिर्विदुषि नैपधराजगत्या निर्णीयते न किमु न वियते भवस्या। नायं नलः खलु तवातिमहानकाभो योनमुज्झसि. वरः कतर परस्ते।। (16 // 34) इस श्लोक के पाँच अर्थ है, जो एक-एक करके चार देवताओं और नल की तरफ लगते हैं। इसकी रचना में कवि के मस्तिष्क ने कितना परिश्रम किया होगा-अनुमान लगा लीजिये / इतना ही गनीमत समझे कि हमारा कवि श्शेष का चमत्कार दिखाने तक ही सीमित रहा और अपने पूर्ववर्ती कलासरणि के कवि मारवि तथा माघ की तरह एक एक ही वर्ण का श्लोक लेकर शब्दों का 'मुरज' 'गोमूत्रिका' 'सर्वतोभद्र' 'चक्र 'समुद्र' आदि बनाकर शाब्दिक जादू का खेल दिखाने के चक्कर में नहीं पड़ा। अर्थालंकारों को भी भीहर्ष प्रचुर मात्रा में प्रयोग में लाए हैं। अर्थालंकारों में मुख्य स्थान उपमा का होता है, जो प्रस्तुत के समानान्तर अप्रस्तुत को रखकर साम्य-विधान द्वारा प्रस्तुत में प्रेषणीयता ला देती है और उसे हृदयङ्गम बना देती है / उपमाके लिये कालिदास प्रसिद्ध ही हैं लेकिन श्रीहर्ष भी कोई कम नहीं। श्लेष का पुट देकर ये उपमा को और सुन्दर बना देते हैं। साथ ही इनके उपमान घिसे-पिटे नहीं, प्रत्युत नये-नये मिलेंगे। दमयन्ती के हृदय में नलविषयक काम प्रवेश कर गयाइसके लिये कवि का श्लेष-गर्मित पौराणिक उपमान देखिये यथोद्यमानः खलु भोग-मोजिना प्रसह्य वैरोचनिजस्य पत्तनम् / विदर्भजाया मदनस्तथा मनोऽनलावरुद्धं वयसैव वेशितः / / (1 // 32) इनका व्याकरणीय उपमान 'सायुज्यमृच्छति' (11 / 117) और वेदान्तीय उपमान 'अधिगस्य' (3.3) में हम पीछे देख आये हैं। मीमांसाशास्त्रीय उपमान 2 / 61 में देखिये / उपमा ही नहीं, बल्कि उपमा-परिवार के अन्य सभी साम्य-मूलक अलंकारों की अप्रस्तुत-योजना में सर्वत्र कवि का नयापन ही दिखाई देता है। कल्पित सादृश्य वालो उत्प्रेक्षा में न्याय-शास्त्र की प्रस्तुत योजना देखिये . कलसे निजहेतुदण्डनः किमु चक्रभ्रमकारितागुणः / स तदुच्चकुचौ भवन् प्रमाक्षरचक्रमातनोति यत् / / (2 / 32) व्याकरणीय अप्रस्तुत-योजना हम पीछे 'इह किमुषति' (19 / 60) में देख आये हैं / सन्देह नहीं कि इन योजना मों में नयापन है, लेकिन शास्त्रशान-सापेक्ष होने के कारण इनमें दुरूहता आ गई है। हाँ इनकी लौकिक अप्रस्तुत योननायें अथवा कल्पनायें बड़ी चमत्कारी हैं। उदाहरण लीजिये -- विदर्भसुभ्रस्तनतुगताप्तये घटानिवापश्यदलं तपस्यतः / फलानि भूमस्य धयानधोमुखान् स दाडिमे दोहदधूपिनि द्रुमे // (182) यहाँ उर्वरक रूप में ओषधिविशेष का धूओं ग्रहण करते हुए अनार के फलों पर अगले जन्म में दमयन्ती के कुचों की उच्चता प्राप्ति हेतु धूमपान को तपस्या करते हुये कलशौकी कल्पना की गई है। ऐसी-जैसी ही कल्पना के लिये 'डरोभुवा' (1 / 48) वाला श्लोक मो देखिए। चन्द्रमा के काले चम्बे पर भी कवि की यह कैसी नयी और अनोखी कल्पना है
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________________ [ 32 ] हृतसारमिवेन्दुमण्डलं दमयन्तीवदनाय वेधसा / कृतमध्यबिलं विलोक्यते धृतगम्भीरखनीखनीलिमा // (2025) अर्थात् दमयन्ती के मुख के निर्माण हेतु स्रष्टा ने जैसे चन्द्रमा का सारभूत मध्य माग निकाल लिया हो, जिससे बीच में वनी खाई में से परली तरफ का काला नीला आकाश दीख पड़ रहा है। इसी प्रकार प्रतिवस्तूपमा, रूपक, दृष्टान्त, समासोति आदि साम्य-मूलक अलंकारों में भी कवि की अप्रस्तुत योजनाओं में सर्वत्र अनोखापन ही मिलेगा / अर्थान्तरन्यासों में तो कवि के सार्वमौम तथा प्रतिपादक कितने ही समानान्तर वाक्य आज लोगों के मुखों में आमाणक-जैसे बने हुये हैं, जैसे-'स्यजन्स्यसून् शर्म च मानिनो वरं, त्यजन्ति न वेकमयाचितव्रतम् / (१९५०),क्य मोगमाप्नोति न भाग्यभाग जनः (1 / 102) व वते हि फलेन साधवो, न तु कण्ठेन निजोपयोगिताम् (2040), आर्जवं हि कुटिलेषु न नीतिः (5 / 103) इत्यादि, इत्यादि / इस तरह हम देखते हैं कि नेषष में विरले ही ऐसे श्लोक मिलेंगे, जो कविकी नयी-नयी अप्रस्तुत-योजनाओं से खाली हो। वैवयं-मूलक अलंकारों में से भी कवि ने यत्र-तत्र विरोधामास, विषम, विभावना, विशेषोक्ति, असंगति आदि की उटा खुन दिखा रखी है। अभिप्राय यह कि नैषध में ऐसा कोई श्लोक नहीं, जिसमें तीन चार अलंकारों का संकर अथवा संसृष्टि न हुई हो। यही कलावादी सरणि को निज विशेषता मो है। हम पीछे संकेत कर आए हैं कि महाकाव्य इतिवृत्तात्मक होता है और उसकी पद एवं वाक्यरचना वर्षन-शैली में चलती है / जहाँ तक बहिर्जगत् के वर्णन का सम्बन्ध है, श्रीहर्ष की भाषा प्रायः कठिन समास-बहुल और शब्दाडम्बरी बन जाती है। नल, अश्व, सरोवर और कुण्डनपुरी आदि का वर्णन कवि ने ली ओजस्विनी भाषा में किया है / कुण्डनपुरी के दो-एक चित्र देखिये : बहुकम्बुमणिवराटिकागणनाटस्करकटोत्करः। हिमवालुकयाच्छवालुकः पटु दध्वान यदापणार्णवः / / (2 / 88) इसी प्रकार वैदर्भीकेलिशैले मरकतशिखरोदुस्थितरंशुदमैंब्रह्माण्डाघातमग्नस्यदलमदतया होतावाङ्मुखत्वैः / . कस्या नोत्तानगाया दिवि सुरसुरभैरास्यदेशं गतान यद्गोग्रासप्रदानव्रतसुकृतमविश्रान्तमुज्जम्भते स्म / / 2 / 108) इन वर्णनों में गौड़ी रोति ही मुखरित हो रही है। इतना ही नहीं, बल्कि नैषध में कितने ही ऐसे भी स्थल मिलेंगे, जिनका अर्थ समझना साधारण व्यक्ति के लिये बड़ा कठिन हो जाता है / कवि ने जानबूझकर ऐसी-ऐसी गुत्थयां मी धर रखी हैं, जो गुरु-मुख से अन्य पढ़े विना स्वयं नहीं सुलझ सकती। उसने स्वयं कह भी रखा है : ग्रन्थग्रन्थिरिह क्वचित् क्वचिदपि न्यासि प्रयत्नान्मया प्राशनन्यमना हरेन पठिती मास्मिन् खलः खेलतु / श्रद्धाराद्धगुरुश्लथीकृतदृढग्रन्थिः समासादय. स्वेतत्काग्यरसोर्मिमज्जनसुखण्यासज्जनं सज्जनः।। (22 // परिशिष्ट 3)
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________________ [ 33 ] किन्तु ऐसे गौडी-प्रधान स्थल अधिक नहीं है / कविका मोतरी कलाकार ज्यों ही बहिर्जगत् से हटकर अन्तर्जगत् में पैठता है, अथवा काव्य के भाव में उतरता है, उसकी भाषा कोमल मावों की तरह कोमल और प्रसाद-पूर्ण बन जाती है, समास हट जाते हैं और वह सरल-सुबोष हो जाती है / उदाहरणार्थ करुणा-सिक्त हंसकाण्ड की भाषा ही देखिये कि वह कितनी सरल है / इसी तरह शुद्ध वैदी में दमयन्ती की विरह-वेदना का चित्रण पीछे व्याकरण-स्तम्म के 'अधित कापि मुखे' (4 / 111) में, तथा काम-पीड़ित दमयन्ती द्वारा चन्द्र और कामदेव का विगर्हण चतुर्थ सर्ग में देखिये। प्रियतम के आगे पहले पहल दमयन्ती के लज्जा-माव का चित्र भी देखिये केवलं न खलु भीमनन्दिनी दरमन्त्रपत नैषषं प्रति / भीमजा हृदि जितः स्त्रिया हिया मन्मथोऽपि नियतं स लज्जितः // (18 / 36) इस तरह श्रीहर्ष की माषा-शैली वर्ण्य विषय के अनुसार बदलती रहती है यद्यपि स्वयं उन्होंने उसे वैदी का विशिष्ट रूप ही कहा है। गुण-दोष-हम पीछे देख आए हैं कि संस्कृत साहित्य के कला-सरपि के काव्यों में नैषधकायों का स्थान कला की दृष्टि से कितना ऊँचा और महत्वपूर्ण है। बहिर्जगत् के किसी भी वर्ण्य वस्तु का साङ्गोपाङ्ग, व्यापक वर्णन, प्रकृति का अनोखी कल्पनाभों से संवलित, वैविध्यपूर्ण, बिम्बग्राही चित्रण, मानव-हृदय का गहरा अध्ययन, मनोविज्ञान का सूक्ष्मातिसूक्ष्म विश्लेषण, शृंगाररस की अपने वियोग और संयोग-दोनों रूपों में तत्तद् दशाओं अन्तर्दशाओं का मार्मिक अभिव्यजन, वर्ण और शब्दों का नाद-सौन्दर्य मरा सर्वत्र श्रुतिसुखावह प्रतिध्वनन, और विविध अलंकार-शृंखलाओं का मधुर मुखरण आदि बातें जो हमें श्रीहर्ष के कवि-कर्म में मिलती हैं, वे गद्यकाव्य के सर्वश्रेष्ठ कवि बाणभट्ट को छोड़कर अन्य किसी कवि के पद्य-काव्य में दुर्लम हो समझिये। नैतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से देखा जाय, तो नैषधकाव्य की विशेषता श्रीहर्ष का नल और दमयन्ती के उदात्त चरित्र चित्रण द्वारा पाठकों के आगे भारत का एक उच्च उज्ज्वल आदर्श स्थापित करना भी है। जीवन के दो पुरुषार्थो-धर्म और काम अथवा कर्तव्य और भावना को लेकर नल में जो अन्तर्द्वन्द्र अथवा हृदयगत भाव-संघर्ष श्रीहर्ष ने पाँचवें और नौवें सर्ग में चित्रित किया है, वह मला अन्य काव्यों में कहाँ मिल सकता है / वास्तव में काव्य कला की असली रीढ़ तो अन्तर्भावों का संघर्ष ही है, जिस पर श्रीहर्ष को छोड़ संस्कृत कवियों का बहुत कम ध्यान गया है। इन्द्र छल करके नल से वचन ले बैठा कि दूत बनकर उसका काम करेंगे। वचन-बद्ध होकर टल जाना धर्म-विरुद्ध है-यह सोचकर दूतके वेष में सच्चे हृदय से अपनी हृदयेश्वरी से वे अनुरोध पर अनुरोध करते गये कि वह नल को छोड़ इन्द्र को वरे। अपने प्रति उसका अनन्य अनुराग देखकर उन्हें बीच-बीच में कामोद्रेक मी मले ही होता जाता था, परन्तु उसे दबाकर उन्होंने निज धर्म-दौत्य कर्म-में जरा भो आँच नहीं आने दी और कर्तव्यको मावना से ऊपर ही रखा। यह इन्द्र का विपरीत माग्य ही (1 / 126) समझिए कि जो सकी ओर से नल द्वारा दिये गये अनेक प्रलोमनों एवं विमोषिकाओं के बावजूद वे दमयन्ती को अपने (नक के) प्रति, उसके अटलप्रेम से डिगाने में बाधक बना / क्या समूचे विश्व के इतिहास में कहीं ऐसा आदर्श
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________________ [ 34 ] है कि कोई व्यक्ति अपनी अप्सरा-सी प्रेयसी को जो एक-दूसरे पर जान देते हैं, निज इच्छा के विरुद्ध केवल 'धर्म-संस्थापनार्थाय' खलनायक के हाथ सौपने को तय्यार हो गया हो? अथवा कोई ऐसी नारी है जो निज पावन प्रेम के लिये इन्द्र के ऐश्वर्य और स्वर्ग सुखों को लात मार दे। इतना ही नहीं। विवाह के बाद भी नल की दिनचर्या में धर्म को नित्य को सम्ध्या-पूजादि को-पहला स्थान मिलता था, काम को दूसरा। दमयन्ती पति के इस नियत धार्मिक कार्यक्रम से कमी कमार रूठ भी जाती थी, लेकिन वे गीताकार की 'धर्माविरुदो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षम' इस उक्ति का दृढ़ता से पालन करते थे। यही कारण था कि नल की अटूट धर्म-निष्ठा देख जहाँ पहला खलनायक इन्द्र उनपर रोझा, दूसरा खलनायक कलि उनपर कोई आक्रमण न कर पा रहा था। इसके अतिरिक्त, श्रीहर्ष का नेषध काव्य मध्ययुगीन भारत के एक धार्मिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक इतिहास का अन्य भी है। इसमें हमें उस समय की परम्परागत विद्याओं, विधासम्प्रदाया और सामाजिक रीति-रिवाजों का पता चलता है। शौर्य कर्म, परोपकार, गरीबों को दान, दत्त वचन का दृढ़ता से परिपालन, जनहित हेतु कूप, उद्यान आदि का निर्माण इस समय धर्म के अङ्ग बने हुए थे। विवाह में धूल्य, मधुपर्क आदि का विधि विधान, पति की तरह दमयन्ती का मी देवार्चन, पति के भोजन करने के बाद ही भोजन करना इत्पादि बातों में भारतीय संस्कृति बोल रही है। पतिगृह के लिये बिदाई के समय कालिदास द्वारा ऋषि कण्व के मुख से शकुन्तला को दिलाये हुए प्रसिद्ध 'सुश्रूषस्व' कले उदात्त उपदेश से भीहर्ष द्वारा राजा भीम के मुख से पुत्री दमयन्ती को दिलाया हुआ निम्न लिखित उपदेश से क्या कुछ कम है ? पितात्मनः पुण्यमनापदः क्षमा, धनं मनस्तुष्टिरथाखिलं नलः / अतः परं पुत्रि म कोऽपि तेऽहमित्युदररेष व्यसृजमिनौरसीम् // (13 / 118) अर्थात् पुण्य-धर्म हो तुम्हारा पिता है, क्षमा-पहिष्णुता-हो तुम्हारो आपत् मिटाने वाली ( मौ) है, मनःसन्तोष ही धन है और ना ही तुम्हारा सब कुछ है। पुत्री, अब मैं तुम्हारा कुछ नहीं। इस तरह कालिदास आदि के रघुवंश, कुमारसम्भव आदि काव्य-ग्रन्थों की तरह नैषध कान्य भी सुतराम् एक सांस्कृतिक काव्य हैं। जहाँ तक काव्य-गत दोषों का सम्बन्ध है, साहित्यिक लोगों में यह दन्तकथा प्रचलित है कि प्रसिद्ध साहित्य-शास्त्री आचार्य मम्मट श्रीहर्ष के मामा लगते थे। काश्मीर में जब इन्होंने मम्मट को अपना नैषध काव्य दिखाया, तो सहसा उनके आगे निम्नलिखित श्लोक वाला पृष्ठ उघड़ पड़ा तव वर्त्मनि वर्ततां शिवं पुनरस्तु स्वरितं समागमः / अयि साधय साधयेप्सितं स्मरणीयाः समये वयं वयः // (2062) ___ इतने ही मम्मट ने अन्त्रय, सन्धि तथा अर्थ भेदकर के कितने ही अमंगल-दोष निकाल दिये, जैसे-तब शिवं वर्म निवर्तताम्-तुम्हें मङ्गलमय मार्ग न मिले; पुनः सरितं स आगम: मा अस्तु+ तुम्हारा वह पुनर्मिलन न हो; अयि साधय, साधयेप्सितम् = अरे, मेरा मनोरथ समाप्त ( नष्ट) कर दो; स्मरणीयाः समये वयं वयः हे पक्षी! ( मेरे मर जाने पर ) कभी-कमो मेरो याद किया
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________________ [ 35 ] करन"। इसी तरह अन्य स्थलों में भी दोष देखकर मम्मट बोले-"तुमने यदि अपना यह काव्य मुझे पहले दिखा दिया होता, तो मुझे अपने 'काम्यप्रकाश' के दोष-उल्लास के लिए बाहर से दोष नहीं ढूँढ़ने पड़ते ? नैषध में ही सब मिल जाते"। कुछ ऐसे भी विद्वान् हैं, जो नैषध में कवि द्वारा अपने शृङ्गाररस के चित्रण को दूर तक खीचे और कहीं-कहीं कोकशास्त्र तक को मात किये हुए मानकर इसे अश्लील साहित्य करार दे देते हैं / कुछ और ऐसे मी हैं जो श्रीहर्ष की भाषा पर यह आक्षेप करते हैं कि वह सहज-सरल नहीं है; पाण्हित्य अथा मस्तिष्क की भाषा है, हृदय को नहीं, अंत: पाठकों के अन्तस् को नहीं छूती। इस कारण नैषध को दोष-दृष्टि से देखने वालों ने यह बात उड़ा रखी है-'दोषाकरो नैषधम्' अर्थात् नैषध दोषों की खान हैं। . राजशेखर द्वारा पीछे दिये हुए श्रीहर्ष की काश्मीर-यात्रा का विवरण पढ़कर आप इस दन्त-कथा पर कदापि विश्वास नहीं करेंगे कि मम्मट श्रीहर्ष के मामा थे। उनके मामा होते श्रीहर्ष को काश्मीरी पण्डित-समाज में वैसी दुगंति न होती। इसलिए यह कथा नैषध के दोषवादियों को बिलकुल मन-गढन्त है। किन्तु इससे हमारा यह अभिप्राय कदापि नहीं है कि नैषध दोषों से निर्मुक्त है। हमने अपनी टीका में इनके तत्तत् श्लोकों में यत्र-तत्र आये हुए दोषों का स्वयं विवेचन कर रखा हैं। कवि ने भी ग्रन्थारम्भ में हो 'मगिरमाविलामपि' लिखकर यह बात स्वयं स्वीकार भी कर रखी है। किन्तु प्रश्न यह है कि क्या दोष काव्यत्व का हनन कर सकता है ? 'भदोषौ शब्दार्थों ' कहकर दोषामाव को काव्यनिर्मापक तत्व मानने वाले मम्मट की आलोचकों ने खूब अच्छी खबर ले रखी है / दर्पणकार ने भी 'सर्वथा निर्दोषस्यैकान्तमसम्भवात्' कहकर इसका खण्डन कर रखा है। गीताकार के शब्दों में 'सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः'। कालिदास की कृतियों में मी क्या कम दोष हैं ? एक पालोचक ने तो इस सम्बन्ध में 'कालिदास की निरंकुशता'ग्रन्थ तक तक लिख दिया है। जगद्-विख्यात कविवर शेक्सपिअर के प्रसिद्ध आलोचक डॉ० जोनसन ने उनके नाटकों को खूब धज्जियाँ उड़ा रखी हैं। इससे क्या शेक्सपिअर महाकवि बनने से रह गये ? हमारे विचार से हिमालय के सम्बन्ध में कालिदास को कही यह उक्ति-'एको हि दोषो गुण-सशिपाते निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवाङ्कः' उपलक्षण है अरी व्यक्तिगत रूप से उनके अपने ही नहीं, प्रत्युत अन्य सभी काव्यकारों के कवि-कर्म पर भी लागू हो जाती है / जहाँ तक श्रीहर्ष द्वारा शृङ्गाररस के अनिमंत्रित चित्रण का प्रश्न है, हाँ वह तो निस्सन्देह है हो / इनके सारे काव्य में शृङ्गार का उद्दाम विलास हम प्रत्यक्ष देख ही रहे हैं / अङ्गी रस जो ठहरा। किन्तु अश्लील करार देकर उसका अवमूल्यन हमें उचित नहीं लगता। यदि श्रोहर्ष शृङ्गार को काव्य का मुख्य रस बनाकर उसके सारे विभाव अनुभाव और व्यमिचारी भावों को पूरी अभिव्यक्ति नहीं देते तो उसका चित्रण अधूरा ही रह जाता, बहुत सारा सत्य छिपा ही रह जाता / कालिदास ने मी तो कुमारसम्मव में ऐसा ही नग्न छित्रण कर रखा है। इसीलिए कार्लाईल का कहना ठीक हो है कि "सत्य और काव्य दोनों एक ही वस्तु है। काव्य की जीवन-धारा सत्य है / जो कवि है, वही सच्चा शिक्षक है, जो कवि है वही वीर है।" कालाईल के हो स्वर में स्वर मिलाकर प्रसिद्ध साहित्य शास्त्री रुद्रट ने मी यह तथ्य स्वीकार किया है:
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________________ नहि कविना परदारा एष्टम्या नापि चोपदेष्टम्याः / कर्तव्यतयाऽन्येषां न च तदुपायो विधातव्यः / किन्तु तदीयं वृत्तं काव्याङ्गतया स केवलं वक्ति / आराधयितु विदुषस्तेन न दोषो कवेरत्र / / ___ अर्थात् शृङ्गार रस का चित्रण करते हुए कवि का यह अभिप्राय नहीं रहता कि वह दूसरों को स्त्रियों को चाहे या उन्हें सिखावे अथवा लोगों को कहता फिरे कि तुम पर-नारियों को इस तरह फाँसो। वह तो केवल काव्याङ्ग होने के नाते उनका वर्णन करता है जिससे कि विद्वानों का मनोरञ्जन हो जाय। इसमें कवि का मला क्या दोष है ? 'गाथा सप्तशती' 'अमरुक-शतक', 'आर्या-सप्तशती' और 'गीत-गोविन्द' में भी तो ऐसा ही चित्र हैं। अकेले श्रीहर्ष ही क्यों बदनाम हो ? अब रही बात कवि की अस्वाभाविक, कृत्रिम, क्लिष्ट और अलंकार-प्रवाह में आकण्ठ-मग्न भाषा को जो बहुत कुछ हद तक सही है। किन्तु इसका मूल्यांकन करते समय हमें यह न भूल जाना चाहिये कि हरेक कलाकार अपने युग का प्रतिनिधि हुआ करता है। जैसा हम पीछे देख पाये हैं, श्रीहर्ष का युग कला-सरणि का वह युग था जब काव्यकला अपना एक ऐसा नया आयाम, एक ऐसी नयी दिशा अपनाये हुए थी, जिसमें कृत्रिमता आ गई थी और मस्तिष्क काम कर रहा था। सरलता के आधुनिक मानदण्ड से श्रीहर्ष को भाषा और काव्य-कला का मूल्यांकन करना हमारे विचार से उनके प्रति बालोचकों का सरासर साहित्यिक अन्याय है। वास्तव में श्रीहर्ष काव्य की कलावादी सरपि के सुतराम् सर्वोच्च कलाकार हैं। आलोचकों द्वारा 'दोषाकर' कहा जाने वाला उनका नैषध काम्य इस अर्थ में अवश्य 'दोषाकर' ही हैं कि वह कलावादी-सरणि के अन्य काव्यों के लिए दोषाम् = रात्रिम् करोतीति अर्थात् उनके लिए रात कर देता है, उन्हें अँधेरे में डाल देता है अथवा दोषाकर = चन्द्रमा है, जिसकी ज्योत्स्ना से काव्यजगत् आलोकित है। 'मोहनदेव पन्त
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________________ महाकविश्रीहर्षप्रणीतम् નૈષધીયરતે प्रथमः सर्ग: वाग्देवीं मनसा ध्यात्वा पादप गुरोस्तथा / टीका नैषधकाव्यस्य क्रियते 'छात्रतोषिणी' // 1 // निपीय यस्य क्षितिरक्षिणः कथां तथाद्रियन्ते न बुधाः सुधामपि / नल: सितच्छत्रितकीर्तिमण्डलः स राशिरासीन्महसां महोज्ज्वलः // 3 // अन्वयः-यस्य शिति-रक्षिणः कथा निपीय बुधाः सुधाम् अपि तथा न आद्रियन्ते, सित-च्छत्रितकीति मण्डलः, महसा राशिः, महोज्ज्वलः सः नलः आसीत् / टोका-यस्य क्षिति-रक्षिणः= भूपालस्य कथाम् = उपाख्यानम् निपीय-नितराम् आस्वाद बुधाः-देवताः सुधाम् =अमृतम् अपि तथा=तेन प्रकारेण न प्राद्रियन्ते संमानयन्ति यथा तस्य कथामित्यर्थः, अर्थात् अमृतात् अपि अधिकम् आदरं तस्याः कुर्वन्ति, सित० = सितं = श्वेतच तत् छत्रम् = आतपत्रं सितच्छत्रम् (कर्मधा० ) सितच्छत्रं कृतम् सितच्छत्रितम् (कर्मवा.) कीतैः = यशसः मण्डलम् = चक्रम् (10 तत्पु०) येन तथाभूतः ( ब० वी०), महसाम्=तेजसाम् प्रतापानामिति यावत् राशि.पुजः, महो०-महै:- उत्सवः (महस्तूरसव-तेजसोः-इत्यमरः) उजासःदेदीप्यमानः (तृ• तत्पु०) नित्य-महोत्सवशालीत्यर्थः स नल मासीवबभूव // 1 // __व्याकरण-क्षिति० =क्षिति रक्षतीति क्षिति+र+णित् तस्य (उपपद तत्पु०) / क्षितिः= क्षियन्ति प्राणिनोऽस्याम् इति/क्षि ( निवासे)+क्तिन् ( अधिकरण ) / कथा-कथ्यते इति। कथ् + अङ् ( कर्मणि)+टाप् / निपीय=नि+पीङ् (स्वादे) ल्यप् / /पा (पाने ) से निपीय नहीं बन सकता है, क्योंकि 'न ल्यपि' (पा० 6 / 4 / 61 ) से /पा को ईस निषेत्र हो जाता है। माद्रियन्ते - आ+/दृङ्+कट प्र० पु०, 20 / सित०-सितच्छत्रं करोतीति सितच्छत्रयति (पिच् नामधा०.) बनाकर निष्ठा में क्त (कमणि) / कोतिः-Vकृत+क्तिन् ( मावे ) उज्ज्वलउत् ( ऊर्ध्व ) जलतीति/ज्वल् + मच ( कर्तरि ) भासीद- अस् + लङ् प्र० पु. 50 / हिन्दो-जिस भूपति को कथा का आस्वाद लेकर देवता अमृत का मी वैसा आदर नहीं करते ( जैसे उसकी कथा का करते हैं), यश-मंडल को श्वेत छत्र बनाये, तेजों का पुज, ( और ) उत्सवों से देदीप्यमान वह (भूपति ) नक था // 1 //
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________________ नैषधीयचरिते टिप्पणी-नारायण ने 'बुधाः' का अर्थ विद्वान् किया है ( बुध-वृद्धौ पण्डितेऽपि' इत्यमरः) अर्थात् विद्वान् लोग नल को कथा सुनकर यशादि द्वारा साध्य अमृत को मो उपेक्षा कर देते हैं, क्योंकि वह अमृत से भी अधिक स्वादिष्ट है। श्लोक में 'क्ष' क्ष, 'ध' ध आदि अक्षरों को आवृत्ति होने से अनुप्रास शब्दालंकार है; कथा को अमृत से भी अधिक मनोहर बताया गया है, अतः व्यतिरेक है, 'सुधाम् अपि' यहाँ अपि शब्द से कैमुतिक-न्याय द्वारा शर्करा आदि की तो बात ही क्या-यह अर्थ निकल जाता है,अतः अर्थापत्ति है, कीत्ति-मंडल पर सितच्छत्रत्वं ओर नल पर महा राशिव का आरोप होने से रूपक है। इन सभी अलंकारों के परस्पर निरपेक्ष भाव से तिल-तण्डुल न्याय द्वारा एक हो श्लोक में इकट्ठे हो जाने से 'संसृष्टि' है / इस सर्ग में 142 श्लोकों तक वंशस्थ वृत्त है, जिसका लक्षण 'जतौ तु वंशस्यमुदीरितं बरौ' है, अर्थात् इसके प्रत्येक पाद में 12-12 वर्ण इस तरह होते हैं-जगण ( ISI ), तगण (ss.) जगण (ISI ) और रगण (sis ) जैसे: ISIS SIIS ISIS नि-पी-य य-स्य क्षि.-ति-र-क्षि, ण:-क-यां। रसैः कथा यस्य सुधावधीरणी नलः स भूजानिरभूद् गुणाद्भुतः / सुवर्णदण्डैकसितातपत्रित-ज्वलत्प्रतापावलि-कीर्तिमण्डलः // // अन्वयः-यस्य कथा रसैः सुधावधोरिणी ( अस्ति ), सुवर्ण मण्डलः, सः भूजानिः नलः गुणाद्भुतः अभूत् / टीका-यस्य कथा रसैः-आस्वादैः ( 'रसो गन्धो रस: स्वादः' इति विश्वः ) सुधा०सुधाम् अमृतम् अवधीरयति=तिरस्करोतीति तथोक्ता ( उपपद तत्पु० ) अमृतादपि अधिकस्वादिष्टेत्यर्थः अस्तीति शेषः, सुवर्ण-सुवर्णस्य हेम्नः दण्डः= यष्टिः (10 तत्पु०) च एकं च तत् सितम् = श्वेतम् प्रातपत्रम् = छत्रञ्च इति सुवर्ण...पत्रे ( इन्द्र ), . पत्रे कृते इति सुवर्ण...पत्रिते प्रतापस्य आवलिः प्रसापावलिः (10 तत्पु० ) ज्वलन्ती चासौ प्रतापावलिः ( कर्मधा० ) कीत्तः मण्डलं कीर्तिमण्डलम् ( 10 तत्पु० ) चलत् प्रतापावलिश्च कीत्ति-मण्डलञ्च ज्वलत्-मण्डले ( द्वन्द्व ), सुवर्ण...पत्रिते जलत्...मण्डले येन तथाभूतः ( ब० बो० ) अर्थात् येन यशोमण्डलं श्वेतछत्रम् , उज्ज्वलः प्रतापश्च सुवर्णदण्डः कृतः स भूजानिः= भूपतिः नलः गुणः अद्भुतः ( तृ० तत्पु०) शौर्याद्यद्भुतगुणशालीत्यर्थः अभूत् = अमवत् // 2 // __व्याकरण-० धीरिणी- अवधीर +णिन् ( ताच्छील्ये )+ ङोप / सुवर्ण-यहाँ मो पिछले श्लोक की तरह 'आतपत्र' शब्द से करोतीति अर्थ में णिच् करके आतपत्रयति नामधातु बना. कर निष्ठा में क्त प्रत्यय से 'आतपत्रित' रूप सिद्ध होता है। ज्वलत्-ज्वल से शन्। प्रतापःप्र+त+घञ् ( भावे ) / भूनानिः भूः जाया यस्य सः इस ब० वी० में जाया शब्द को निड़ आदेश हो जाता हैं ( 'जायाया निङ' पा० 5 / 4,134 ) / अभूत-VS+लुङ् / हिन्दी-जिसकी कथा ( अपने ) स्व.द से अमृत को नीचा दिखा देने वाली ( है ), उज्ज्वल
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________________ प्रथमः सर्गः प्रताप-पुंज एवं यश-मंडल को ( क्रमशः ) सुवर्ण-दंड और एक ( अनुपम ) श्वेत-छत्र बनाये हुए वह राजा नल गुषों में अद्भुत था // 2 // टिप्पणी-रसैः' का नारायण ने शृङ्गार आदि काव्यीय रस अर्थ किया है अर्थात् जो कथा शृङ्गार आदि रसों से अमृत को भी नीचा दिखा देती है / साहित्य दृष्टि से काम्यीय रस 'आनन्दमय'. होते हैं, जिनसे विमोर हो सहृदय अमृत को तुच्छ समझने लगते हैं / किन्तु कवि ने यह पुनरुति ही को है, क्योंकि पिछले श्लोक में हो वह 'तयाद्रियन्ते न बुधाः सुधामपि' यह बात शब्दान्तर में कह ही चुका था। सुवर्ण-यहाँ कवि ने राजा नल हेतु एक विचित्र छत्र को कल्पना कर रखी है। वसे राजों का सोने के दण्डवाला श्वेत रेशमी छत्र हुआ करता है, लेकिन कवि ने नल के प्रताप को ही सोने का दंड और कीर्ति को ही श्वेत-वसन इत्र बना दिया है। ध्यान रहे कि कवि जगत् में यश आदि गुण श्वेत माने गये हैं, और तेज अग्नि को तरह पीला / सोना मी पीला होता है, इस तरह गुणसाम्य से नल के प्रताप पर पीत स्वर्णदंड का और यश-मंडल पर श्वेतछत्र का आरोप कर दिया है। दोनों आरोपों का परस्पर अङ्गाङ्गिभाव होने से यह साङ्ग रूपक है। क्रमश: अन्वय होने से यथासंख्यालंकार भी है। कुछ आलोचकों का कहना है कि कवि ने यश पर छत्रत्वारोप पिछले श्लोक में कर ही रखा है, अतः पुनरुक्ति दोष है। इसका मल्लिनाथ 'इह कीत्त: सितातपत्रत्वरूपणं पूर्वोक्तमपि सुवर्णदण्डवैशिष्टयात् न पुनरुक्तिदोषः' यह कहकर और नारायण 'पूर्वश्लोके सुधासितच्छत्रे अविशेषेणेवोक्ते, अत्र तु विशेषेणेति न पौनरुक्त्यम्' कहकर समाधान कर रहे हैं अर्थात् पिछले छत्रत्वारोप में दंड नहीं बताया गया था, अतः वह अधूरा ही था। यहाँ उस पर दंड भी लगाकर कवि ने कमी परी कर दी है. इसलिए पुनरुक्ति दोष कोई नहीं है। हाँ. यहाँ समाप्त पनरात्तत्व दोष अवश्य है, क्योंकि 'भूजानिरभूद् गुणाद्भुतः' में वाक्य समाप्त हो जाने के बाद कवि ने सुवर्ण० यह विशेषण पीछे से और जोड़ कर समाप्त हुए वाक्य का पुनरादान किया है // 2 // पवित्रमत्रातनुते जगद्युगे स्मृता रसलालनयेव यत्कथा।। कथं न सा मगिरमाविलामपि स्वसेविनीमेव पवित्रयिष्यति // 3 // * अन्वयः- यत्कथा अत्र युगे स्मृता ( सती ) जगत् रस-भालनया व पवित्रम् आतनुते, सा आविलाम् अपि स्वसेविनीम् एव मद्-गिरं कथं न पवित्रयिष्यति / टीका-यस्य = नलस्य कथा ( 10 तत्पु०) अत्र युगे = अम्मिन् कलि-युगे स्मृता-स्मृतिविषयं नीता सती जगत् =संसारम् रस०-रसेन - जलेन ( देह-धात्वम्बु-पारदाः इति रसपर्याये विश्वः) चालना= प्रक्षालनम् तया ( तृ० तत्पु० ) इवेत्युत्प्रेक्षायाम् पवित्रम् = शुद्धम् भातनुते करोति अर्थात् कलौ नल-कथास्मरणेन लोकानां पापानि नश्यन्ति, सा=नल-कथा प्राविलाम् - मलिना सदोषामित्यर्थः अपि स्वं = नलं सेवते इति स्वसेविना ताम् ( उप० तत्पु० ) स्ववर्णनपराम् एव मम गिरम् मदगिरम् (10 तत्पु० ) मे वाचम् कथं न पवित्रयिष्यति = पवित्रा करिष्यति अपितु पवित्रा करिष्यत्येवेति काकुः // 3 //
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________________ नैषधीयचरिते व्याकरण-साखना-शाल+युच् (भारे) यु को अन् / सेविनीम्-सेव+ पिन् +ङीप् / पवित्रयिष्यति-पवित्रां करिष्यतीति 'पवित्रा' शब्द को पुंवद्राव करके पि मन्त नाम धातु है। हिन्दी-जिस ( नल ) को कथा इस ( कलि ) युग में स्मरण की जाती हुई जगत् को ऐसा पवित्र कर देती है मानो वह जल से धो दिया गया हो, दोष-पूर्ण होती हुई भी अपना ( नल का) ही वर्णन करनेवाली मेरी वाणी को वह क्यों न पवित्र करेगी ? // 3 // टिप्पणी--पवित्रमासनुते-नल का नाम स्मरण और कीर्तन कलियुग में पाप-नाशक बताया गया है, जैसे:-'कर्कोकटस्य नागस्य दमयन्त्या नलस्य च 1 ऋतुपर्णस्य राजर्षेः कीर्तनं कखिनाशनम्' // एवं 'पुण्यश्लोको नलो राजा पुण्यश्जाको युधिष्ठिरः। पुण्यश्लोकाच वैदेही पुण्यश्लोको जनार्दनः // भाविखामपि-कवि अपने काव्य में सर्वथा निर्दोष होने की डीग नहीं मारता है, उसमें दोषों का होना स्वामाविक है, किन्तु 'रस-क्षालना' शृङ्गारादि रसों को उत्कृष्टता-उन्हें नगण्य कर देवी है। इसीलिए साहित्यदर्पणकार ने रस को ही काव्य की 'आत्मा' मानकर दोषों के सम्बन्ध में 'सर्वया निदोषत्वस्यकान्तमसम्भवात्' लिखा है। उक्त श्लोक में श्रीहर्ष मी काव्य के सम्बन्ध में अपने इसी व्यक्तिगत विचार को ओर संकेत करते प्रतीत हो रहे हैं। ___ उक्त श्लोक में 'क्षालनयेव' में उत्प्रेक्षा और 'कयं न पवित्रयिष्यति' में काकु वक्रोक्ति होने से संसृष्टि अलंकार है / मल्लिनाथ के अनुसार 'जो कथा स्मृतिमात्र से पवित्र का देती है, वह वर्षन से मो करेगो-यह तो कहना हो क्या ? इस तरह अर्यापत्ति है। विद्याधर ने 'नल की कथा छोड़ मेरी वाणी अन्य का प्रतिपादन नहीं करती' इस तरह राजविषयक रतिमात्र माना है // 3 // अधीतिबोधाचरणप्रचारणर्दशाश्चतस्रः प्रणयन्नुपाधिमिः। चतुर्दशत्वं कृतवान् कुतः स्वयं न वेनि विद्यासु चतुर्दशस्वयम् // 4 // अन्वयः-अयं चतुर्दश विद्यासु अगीति...रणैः उपाधिभिः चतस्रः दशाः प्रणयन् स्वयं चतुरशत्वं कुतः कृतवान्-( इत्यहं ) न वेनि। टीका-अयम् एषः नलः चतुदंशसु = चतुर्भिः अधिकाः दश इति चतुर्दश तासु (मध्यमपदको० स०) विद्यासु अधीति० -अधीतिःअध्ययनम् , च बोधः-शानं च पाचरणम्कर्मानुष्ठानं क्रियान्वयनमिति यावत् च प्रचारणम् = अध्यापनं चेवि .चारणानि तैः (द्वन्दः ) उपाधिमिः =विशेषणैः ( 'उपाधिधर्मचिन्तायां कैनवेऽपि विशेषणे' इति विश्वः ) विशेषः प्रकारैः इति यावत् चतस्रः दशः= अवस्थाः प्रणयन् कुर्वन् स्वयम् = आत्मना चतुदंशस्वम् = चतुर्दशसंख्याकत्वम् कुतः = केन हेतुना कृतवान् = अकरोत् ( इति अहं करिः) न देधि = जानामि / अयं मानः विद्यासु चतुर्दशत्वं तु स्वतः एवास्ति नलेन का चतुर्दशत्वं कृतम् -इत्याश्चर्यम् // 4 // व्याकरण-प्रधीतिः-अधि++क्तिन् ( भावे ) बोधः-- बुध् +घञ् (मावे ), भाचरणम्, प्रचारणम्-/चर्+ल्युट् ( मावे ) उपाधि.-उस+प्रा+/ पा+कि ( मावे ) /
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________________ प्रथमः सर्गः वहाँ का हो सकती है कि अधीति शब्द की अपेक्षा बोध शब्द अल्पाच् होने के कारण दन्द्र में पहले आना चाहिए था, पीछे नहीं, किन्तु स्मरण रहे कि इसका अपवाद 'अभ्यहिंतं च' है अर्थात् मुख्य चीज अल्पाच से पहले आ जाती है, मुख्य तो अध्ययन ही है, शान तो बाद की बात है। प्रवन्--प्र-नी+शत् / हिन्दी-यह (न्ल ) 'चतुर्दश' ( चौदह ) विद्याओं में अध्ययन, शान, आचार और प्रचार(इन चार ) प्रकारों से चार अवस्थाएँ बनाता हुआ स्वयं 'चतुर्दशत्व' (चौदह संख्या कैसे कर बैठा-( यह बात मैं ) समझ नहीं पा रहा हूँ // 4 // टिप्पणी-चतुर्दशत्वम्-यहाँ कवि ने चतुर्दश शब्द में श्लेष रहकर एक पहेली-सी खड़ी कर दी है। विद्यार्य चतुर्दश चौदह होती हैं ("अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा-न्यायविस्तरः। पुराणं धर्मशास्त्रश्च विद्या घेताश्चतुर्दश // ") नो स्वयं ही 'चतुर्दश' हैं, उन्हें फिर 'चतुर्दश' करना पिष्टपेषण न्याय से विरुद्ध बात है। इस विरोध का परिहार 'चतुर्देश' शब्द का 'चतस्रः दशा यासा ता. इस तरह ब० बी० करके किया जा सकता है अर्थात् उसने चौदह विद्याओं को चौदह संख्या वाला नहीं, अपितु ( अधीति आदि ) चार अवस्थाओं वाला बनाया-स्वयं पढ़ा, समझा, आचरण में लाया और प्रचार भी किया। इस तरह यहाँ विरोधाभास अलंकार है। जहाँ विरोध-जैसा हो, वास्तविक विरोध न हो, वहाँ विरोधाभास होता है। यह हमेशा श्लेषगर्भित रहता है। किन्तु नरहरि एक नया ही विकल्प देकर यहाँ विरोधाभास की जड़ ही काट गये। उनका कहना है-"यद्वा चतुर्दशसु विद्यासु चतुर्दशत्वं कुतो न कृतवान् = कया युक्त्या न कृतवान् , अपि तु सर्वथापि कृतवान् इति वेनि" / वे "न शब्द का वेभ से अन्वय नहीं करते, काकु बना देते हैं अर्थात् क्या नल ने चौदह (चतुर्दश) विद्याओं की 'चतुर्दशता' चार अवस्थायें-नहीं बनाई ? अपि तु बनाई। इस तरह यह काकु वक्रोक्ति है। प्रथम पाद के 'चरप' 'चारणै' में छेकानुप्रास और तीसरे एवं चौथे पाद के 'स्वयं' 'स्वयम्' में यमक है // 4 // भगाहताष्टादशतां जिगीषया नवद्वयद्वीपपृथग्जयश्रियाम् // 5 // अन्वयः- रसनाय-नर्तको अमुष्य विद्या अङ्ग-गुणेन विस्तरं नीता त्रयी इत्र नव श्रियां जिगोषया अष्टादशताम् अगाहत। टीका-रसना०-रसनायाः अग्रम् ( 10 तत्पु० ) तस्मिन् नतंको ( 10 तत्पु० ) जिह्वाग्र-. मागे स्फुरन्तीत्यर्थः, अस्य = नलस्य विद्या = पूर्वोक्ता चतुर्दशश्कारा, अङ्ग-मनानाम् 'शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्द एव च। ज्यौतिषञ्च षडङ्गानि वेदस्याहुर्मनीषिणः” इत्यात्मकानाम् गुणेन = गुप्पनेन (10 तत्पु०) विस्तरम् विस्तारम् वृद्धिमिति यावत् नीता=प्रापिता प्रयी= वेदत्रयी व नव०-नवानां द्वयम् (10 तत्पु० ) अष्टादशेत्यर्थः च ते दीपाः ( कर्मधा० ) तेषां पृथग= मिन्नाः या जयश्रियः (10 तत्पु० ) जयसूचिकाः श्रियः जयश्रियः (मध्यमपदलो० स०) तासाम जिगीषया=जेतुमिच्छा जिगीषा तया जयेच्छयेत्यर्थः अष्टादशानां भावः अष्टादशता
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________________ नैषधीयचरिते बष्टादशसंख्याकता ताम् भगाहप्राप अर्थात् नलेन पूर्वोक्त-चतुर्दश-विद्यामिः सह 'आयुर्वेदो बनुवेदो गान्धर्वश्चार्थशास्त्रकम्' इत्युक्त-चतुर्विधानाम् अपि परिशीलनेन अष्टादश-विद्या-पारंगतत्वं कन्धमासीत् // 5 // म्याकरण-रसना-रस्यते अनयेति स्+युच् (करणे )+टाप् / नतंकी-नृत्यतीति नृत्+वुन् ( कर्तरि )+ङीप् / विस्तरम्-वि+/स्तृ+अप् (मावे ) / यी-त्रयोऽयवा अत्रेति त्रि+अयच्+डीप् / जिगीषा=जेतुमिच्छेति जि+सन्+म+टाप् / द्वयम् -द्वौ अवयवो अति द्वि+अपच् / जयः-/जि+अच् ( मावे ) / हिन्दी-जिह्वा की नोक पर नाचनेवाली उस ( नल ) की विद्या बङ्गों के गुणने से विस्तार को प्राप्त हुई वेद-त्रयी की तरह अठारह द्वोपों को पृथक्-पृथक् विजयलक्ष्मियों को जीतने की इच्छा से (मानो ) अट्ठारह हो गई // 5 // . टिप्पणी-पूर्वोक्त श्लोक में बताई हुई 14 विद्याओं में आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्व और अर्थशान-इन चारों को जोड़कर विद्याओं की संख्या 18 हो जाती है जो नल की जिला की नोक पर बी। इसकी तुलना त्रयी से की गई। त्रयी तीन वेदों को कहते हैं। उनमें प्रत्येक के अपने-अपने पृथक् छ:-छ; अङ्ग-शिक्षा, कल्प, व्याकरण निरुक्त छन्द और ज्योतिष-होते हैं। इस तरह' त्रयी मो छः से गुणा करके अठारह है। यहाँ मल्लिनाथ ने यह शंका उठाई है कि वेद तो चार होते हैं, भापर्वण चौथा वेद है। इसलिए-"अङ्गानि वेदाश्चरवार इत्याथर्वणस्य पृथग्वेदत्वे त्रयीत्व-हानि:, अव्यनन्तर्भावे नाष्टाद शवसिद्धिरिति चिन्त्यम्" अर्थात् त्रयी में आथर्वण जुड़ जाने से उसके भी छः अङ्गों के साथ त्रयो 24 हो जायेगो, अट्ठारह नहीं / इसे मल्लि० ने 'चिन्त्यम्' कहकर छोड़ दिया है, समाधान कोई नहीं किया / वस्तुतः देखा जाय, तो वेद चार हो हैं, त्रयी के साथ उसका कोई विरोध नहीं। कारण यह है कि संहिताओं की दृष्टि से विचारें, तो वेद की संहितायें चार हैं, किन्तु यदि चारों का वाक्य-निर्माण देखा जाय, तो वह पद्य, गध और पद्य-गद्योभयात्मक-तीन प्रकार का मिलेगा। ऋक् और साम पद्यात्मक हैं, यजुः गद्यात्मक है तथा आथर्वण उमयात्मक है, इसलिए वाक्य-निर्माण की दृष्टि से चार वेदों को 'त्रयो कह देते हैं। प्रकृत में त्रयी के भीतर आथर्वण स्वतः आया हुआ ही है, अतएव कवि का 18 कहना कोई 'चिन्त्य' नहीं। नारायण ने 'रसना' शब्द के आधार पर विद्या से पाक-विद्या का मो ग्रहण किया है जिसमें नल पारंगत थे और उसके 18 भेद बताये, किन्तु यह खींचातानी है। नवद्वयद्वीप०-वैसे यदि बड़े-बड़े दीपों को ले तो पृथिवी को 'सप्त-दोपा वसुन्धरा' कह रखा है। पुराणानुसार सात द्वीप हैं-जम्बू, लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्रौत्र, शाक और पुष्कर / इनमें से सब से बड़ा जम्बूदोष ( एशिया ) है, जिसमें भारतवर्ष स्थित है। लेकिन छोटे-मोटे 11 दीप और मिलाकर अट्ठारह हो जाते हैं / वे 11 १-कुरु, चन्द्र, वरुण, सौम्य, कुमारिक, गभस्तिमान् , रुममान, ताम्रपर्ण, कशेरू और इन्द्र। ___ इस श्लोक में नल की विद्या का प्रयी से सादृश्य बताया गया है, इसलिए उपमा और जिगीषवा में गम्योत्प्रेक्षा होने से दोनों की संसृष्टि है / / 5 / /
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________________ प्रथमः सर्गः दिगीशवृन्दांश विभूतिरीशिता दिशां स कामप्रसरावरोधिनीम् / बमार शास्त्राणि दृशं द्वयाधिका निजत्रिनेत्रावतरत्वबोधिकाम् // 6 // अन्वयः-दिगो...विभूतिः दिशाम् ईशिता सः शास्त्राणि काम...नीम् निज...धिकाम् दयाधिकाम् दृशम् बभार / टीका-दिगी. दिशाम् ईशाः (10 तत्पु० ) इन्द्रादयोऽष्टदिक्पालाः तेषां वृन्दम् (10 तत्पु०) समूहः तस्य अंशः (10 तत्पु० ) मात्राभिः विभूतिः ( तृ० तत्पु०) उत्पत्तिः यस्य तथा भूतः (ब० वी०) दिशाम् = आशानाम् ईशिता=ईश्वरः शासितेत्यर्थः, सः नलः शास्त्राणि - निगमागमात्मकानि काम-कामस्य इच्छायाः स्वेच्छाचारस्येति यावत् , मदनस्य च यः प्रसर:विस्तारः प्राबल्यमित्यर्थः (प० तत्पु० ) तम् अवरुणद्धि निवारयति अन्यत्र समापयति दहतीत्यर्थः इति तथोक्ताम् ( उप० तत्पु०) निज०-त्रीणि नेत्रापि यस्य सः (ब० वी० ) त्रिनेत्रः शिवः तस्य अवतर:=अवतारः (10 तत्पु०) निजश्चासौ त्रिनेत्रावतरः ( कर्मधा० ) तस्य भावः तत्त्वम् तस्य बोधिकाम् (10 तत्पु० ) ज्ञापिक'म् अर्थात् स साक्षात् शिवावतारः इत्यस्य सूचिकाम् द्वयात प्रधिका अतिरिक्ता ताम् तृतीयामित्यर्थः ( पं० तत्पु० ) हशम् = चक्षुः बभारदधौ / शिवी त्रिनेत्रः अस्यापि तृतीयं नेत्रं शास्त्रमिति मावः // 6 // व्याकरण-ईशः-ईष्टे इति श्+क ( कर्तरि ) विभूतिः-वि+Vs+क्तिन् (मावे)। ईशिता = ईश्+तृच ( कर्तरि ) / प्रसरः-प्र+V+अप ( भावे ) / रोधिनीम्-Vs+ पिन् ( ताच्छील्ये ) / अवतरस्व-यहाँ अव पूर्वक तृ धातु से 'अवे -बोर्षम्' ( पा० 3 / 3 / 120) से घञ् का विधान होने से 'अवतारः' बनेगा, 'अवतरः' नहीं, अतः यहाँ तृ धातु से ऋदोरम् (पा० 2 / 3 / 57 ) से भाव में अप् प्रत्यय करने के बाद 'अ' उपसर्ग का 'तरः' से 'सुप्सुग' से समाल करके 'अवतरः' बनाइये। हिन्दी-दिक्-पालों के समूह के अंशों से उत्पन्न, दिशाओं के स्वामी उस ( नल ) ने अपने को महादेव का अवतार बनाने वाली दो से अधिक ( अर्थात् तीसरी) आँख शास्त्रों के रूप में धारण कर रखी थो // 6 // टिप्पणी-दिगीश०-नारायण ने यहाँ 'दिगीशवृन्दे अंशेन विभूतिः ( ऐश्वर्यम् ) यस्य सः 'ऐसा विग्रह करके यह विकल्पार्थ सिद्ध किया है कि नल तो 'दिशाम् ईशिता' था जब कि दिक्पाल एक-एक दिशा के ईशिता थे, उनमें नल का आंशिक ऐश्वर्य ही था। इस तरह नल में अधिकता बताने के कारण यहाँ व्यतिरेकालंकार है। विद्याधर ने 'अत्रोपमालङ्कारः' कहा है, क्योंकि नल की महादेव से तुलना को गई / महादेव त्रिनेत्र हैं, नल मी शास्त्ररूपी ने रखकर त्रिनेत्र है, महादेव कान ( मदन ) का प्रसर उसे भस्म करके रोक देते हैं, नल भी काम (इच्छा ) अर्थात् शास्त्र-शन के कारण अपना और लोगों का भी स्वेच्छाचार रोक देता है। शास्त्रों पर नेत्रत्वारोप होने से रूपक है / लोकरालों का अंश लेकर उत्पन्न होने वाले राजा के सम्बन्ध में देखिये मनुस्मृति:-'यस्मादेषां सुरेन्द्राणां मात्राभ्यो निर्मितो नृपः' / अपि च-'अष्टानां लोकपालानां वपुर्षारयते नृपः // 6 //
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________________ नैषधीयचरिते पदैश्चतुर्मिः सुकृते स्थिरीकृते कृतेऽमुना के न तपः प्रपेदिरे / भुवं यदेकाविकनिष्ठया स्पृशन् दधावधर्मोऽपि कृशस्तपस्विताम् // 7 // अन्वयः-अमुना कृते सुकृते चतुभिः पदैः स्थिरीकृत ( सति ) के तप: न प्रपेदिरे ? यत् कृशः अधर्मः अपि एकाधिकनिष्ठया भुवम् स्पृशन् तपस्विता दधौ // ____टीका-अमुना=अनेन नलेनेत्यर्थः कृते सत्ययुगे ( युग-पर्याप्तयोः कृतम्' इत्यमरः ) सुकृते = धर्मे ( 'स्याद् धर्ममस्त्रियां पुण्यश्रेयसी सुकृतं वृषः' इत्यमरः) चतुर्मिः = चतुःसंख्यकैः पदैः= पादैः स्थिरीकृते = निश्चलीकृते इति यावत् ( सति ) के जनाः तपः= तपस्या न प्रपेदिरे - प्रापुः अपि सर्वे एव तपश्चरन्तो धर्मपरा बभूवुः, यत् यतः कृशः = दुर्बलः क्षोण इति यावत् अधर्मः अपि एका०-एकः अधिः पादः ( द्विगु ) यस्या तथाभूता (ब० वी० ) या निष्ठा= स्थितिः तया एकचरणस्थित्या इति यावत् भुवम् = पृथिवीम् स्पृशन् = स्पर्शविषयोकुर्वन् तपस्विताम् = तापसस्वम् अथ दीनत्वम् ('मुनि-दोनौ तपस्विनौ' इति विश्वः ) दधौ = दधार / अधर्मोऽपि तपस्यति स्म अन्येषां तु वातव का इति मावः // 7 // व्याकरण-स्थिरीकृते = अस्थिरे स्थिरे सम्पद्यमाने कृते इति स्थिर+च्चि+/+क्त ( कर्मणि ) / प्रपेदिरे=+/पद् +लिट् ब० व० / निष्ठा-नि+ स्था+अ+टाप् / तपस्विताम् तपः अस्यास्तीति तपस् +विन् (मतुबर्थ )+तल् ( मावे ) / हिन्दी-उस ( नल ) के द्वारा सत्य युग में धर्म के चारों पैरों पर स्थिर कर दिये जाने पर कौन तप नहीं करने लगे थे ? क्योंकि दुर्बल हुआ पड़ा अधर्म भी एक पैर से खड़ा है। पृथिवी को छूता हुआ तपस्त्री ( तापस, दोन ) बन बैठा था // 7 // टिप्पणी-सत्युग में धर्म के चार पैर होते हैं, जिन्हें नारायण ने इस तरह गिनाया है :सत्य, अस्तेय, शम और दम अथवा तप, दान, यश और ज्ञान / अधर्म का एक ही पैर होने से उसका दुर्वल पड़ना स्वाभाविक ही है। उसपर कवि की कल्पना है कि वह भी एक पैर से खड़ा हो तप कर रहा था जैसे कि उस समय सभी किया करते थे। यहाँ मल्लि० ने 'एकाधि-कनिष्ठया' का एका : कनिष्ठया = कनिष्ठिकया ( छिगुनी से ) अर्थ किया है। यहाँ 'कृते' 'कृते' में यमक है। विद्याधर के अनुसार यहाँ 'अधोऽपि तपस्वितां दधौ' यह विरोधाभास है, जिसका परिहार 'तपस्विताम्' का 'दीनताम्' अर्थ करके हो जाता है अर्थात् कृश बना हुमा अधर्म लाचार बन गया / मल्लि० ने 'अधर्म मो जब तप करने लग गया तो औरों को तो बात हो क्या। इस तरह कैमुत्य-न्याय से अर्थापत्ति अलंकार माना है // 7 // यदस्य यात्रासु बलोद्भुतं रजः स्फुरत्प्रतापानलधूममझिम / तदेव गत्वा पतितं सुधाम्बुधो दधाति पङ्कीमवदकतां विधौ // 8 // अन्वयः-अस्य यात्रासु स्फुर...जिम बलोद्धतम् यत् रजः ( आर्स त् ) तत् एव गत्वा सुधाम्बुधौ पतितम् पङ्कीभवत् विधौ अङ्कताम् दधाति / टोका-भस्य = नलस्य यात्रासु= दिग्विजयामियानेषु इत्यर्थः / स्फुर०-स्फुरन् प्रकाशमानः
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________________ प्रथमः सर्गः प्रतापः तेजः एव अननः= वह्निः (कर्मधा० ) तस्य यः धूमः (10 तत्पु. ) तस्य मञ्जिमा सोन्दर्टम् (10 तत्पु० ) इव मञ्जिमा यस्य तथाभूतम् (ब० बी० ) बलेन=सेनया उद्धतम् - उत्क्षिप्तम् यत् रजा-धूलिः (आसीत् ) तत् एव गरवा = प्रसृत्य सुधायाः- अमृतस्य भम्बुधिः= समुद्रः क्षीरसागरः तस्मिन् ( 10 तत्पु० ) पतितम्=च्युतम् पतोमवत्-कर्दमरूपे परिणममानम् विधी- चन्द्रे अङ्कस्य भावः अकृता ताम् चिह्नत्वमिति यावत् दधाति = धारयति अर्थात् क्षीरसागरात उदयमानो विधुः कर्दमचिहितो भूत्वेव निस्सरति // 8 // व्याकरण-स्फुरत- स्फुर+शत / मञ्जिमा = मोः भाव इति मन्जुइमनिच / ध्यान रहे कि इमनिच से बने महिमा मन्जिमा आदि सभी शब्द पुल्लिङ्ग होते हैं, न कि स्त्रीलिंग / अम्बुधिः-अम्बु ( जलम् ) धीयते भत्रेति अम्बु+/धा+कि ( अधिकरणे ) / पवीभवत् = अपङ्कः पङ्कः सम्पद्यमानं भवत् इति पक+च्चि+/भू+शत। हिन्दी-इस ( नल ) की विजय-यात्राओं में चमकते हुए प्रताप-रूपी अग्नि के धुएँ की तरह मनोहर, सेना द्वारा उड़ाई हुई जो धूलि ( थी ) वहीं जाकर क्षीर-सागर में पड़ी ( और / कोचर बनती हुई चन्द्रमा में कलंक का रूप धारण कर रही है // 8 // हिप्पणी--प्रकृताम्-वैसे चन्द्रमा में काला धब्बा स्वभावतः रहता है, लेकिन कवि की अनोखी कल्पना देखिये कि मानो नल की सेना के चलने से उठी और समुद्र में गिरी धूलि से बना कीचड़ चन्द्रमा पर लग गया हो / सूर्य और चन्द्रमा अस्त-समय समुद्र में डूब जाते हैं और फिर समुद्र से ही उदय होते है-यह मारतीयों की धारणा है। किन्तु यहाँ कल्पना-उरप्रेक्षाका वाचक व आदि शब्द कोई नहीं है, अतः यह गम्योत्प्रेक्षा है। प्रताप पर अनलव का आरोप होने से रूपक है। परस्पर निरपेक्ष होने से दोनों की हम यहाँ तिल तंडुल न्याय से संसृष्टि कहेंगे // 4 // स्फुरद्धनुर्निस्वनतद्धनाशुगप्रगल्मवृष्टिव्ययितस्य सगरे / निजस्य तेज:शिखिनः परशता वितेनुरिङ्गालमिवायशः परे // 9 // अन्वयः-सङ्गरे परःशता: परे स्फुरद्...व्ययितस्य निजस्य तेजः-शिखिनः इङ्गालम् इव अयशः वितेनुः। टीका-सगरे=संग्रामे ('प्रतिशाजि-संविदापरसु सङ्गरः' इत्यमरः) पर:०शतात् परे इति पर:शताः ( पं० तत्पु०) शतशः इत्यर्थः परेशत्रवः स्फुरद् धनुश्च निस्वनश्चेति धनुर्निस्वनीचापः तहकारश्च (द्वन्द ) अन्यत्र इन्द्रचापः, गजितश्च स्फुरन्तौ प्रकाशमानौ धनुनिस्वनी (कर्मधा०) यस्य अब च यत्र तयाभूतः ( ब० वो०) चासौ सः नलः ( कर्मधा० ) एव धनः- मेघः (कर्मधा०) तस्य भाशुगानाम्-वाणानाम् (10 तत्पु०) प्रगहमा-महतो वृष्टिः अन्यत्र आशु गच्छतीति आशुगाशीघ्रगामिनी चासौ प्रगल्मा वृष्टिः (कर्मधा०) तया व्ययितस्य-निर्वापितस्य निजस्य= स्वकीयस्य तेजः= प्रतापः एव शिखी= अग्निः ( कर्मधा० ) तस्य इसालम उल्मुकम् अयशः= अपकीर्तिम् वितेनुः = विस्तारयामासः, अर्थात यथा मेषः गर्जन् धारासारेणाग्निमुपशमयति, तथैव नलोऽपि स्ववाणपरम्पराभिः शर्मा शौर्यामिमानम् अमन // 9 //
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________________ नैषधीयचरिते __ व्याकरण-परःशताः-'शतात् परे' में 'राजदन्तादिषु परम्' (पा० 2 / 2 / 31) से पर शब्द का पूर्व निपात तथा पारस्करादित्वात् सुडागम / निस्वनः-नि+Vवन् + अप् ( मावे ) व्यथितस्य-वि+/अय्+क्त (कमणि) हिन्दी-युद्ध में सैकड़ों शत्र चमकते हुए धनुष ( चाप, इन्द्रधनुष ) एवं निस्वन ( टंकार, गड़गड़ाहट ) वाले नल-रूपी मेघ के आशुगों ( बाणों, जोर ) की बड़ी मारी वर्षा से बुझे हुऐ अपने तेज-रूपी अग्नि के अंगारे-जैसे अपयश को फैला देते थे // 9 // टिप्पणी-स्फुरत्-यहाँ कवि शब्दों में श्लेष रखकर नल को मेघ और शत्रओं के तेज को आग बना रहा है। चमकते हुए इन्द्र धनुष और गर्जन को साथ लेकर मेव बोर की वृष्टि से आग को बुझा देता है / नल भी चमकते हुए अपने चाप और उसको टंकार-ध्वनि के साथ बाणों की बौछार से शत्रुओं का सारा तेज (शौर्य) ठंडा कर देता था। अग्नि के बुझ जाने पर जैसे काला कोयला शेष रह जाता है, वैसे ही नल द्वारा पराजित हो जाने पर शत्रुओं का तेज उनके अपयश ( बदनामी ) के रूप में परिणत हो जाता था। कवि-जगत में यश श्वेत और अपयश काला बताया गया है। यहाँ नल पर मेघरब के आरोप का और शत्रओं के तेज पर अग्नित्व आरोप का परस्पर अङ्गाङ्गिमाव है, अतः यह साङ्गरूपक है और वह भी श्लेषगर्भित / 'इङ्गालमिव' में उत्प्रेक्षा होने से रूपक और उत्प्रेक्षा नीर-क्षीरन्याय से अङ्गाङ्गिभाव संकर है / / 6 / / अनरूपदग्धारिपुरानलोज्ज्वलैनिजप्रतापैवलयम्ज्वलगुवः / प्रदक्षिणीकृत्य जयाय सृष्टया रराज नीराजनया स राजधः // 10 // अन्वयः:-राजघः सः अनल्प...ज्ज्वलै: निज-प्रतापैः ज्वलद् भुवः वलवम् प्रदक्षिणीकृत्य जयाय सृष्टया नीराजनया रराज / टीका-राजधः=राशा हन्ता नतु भद्रायामित्यर्थः सः= नलः अनरूप०-अनल्पानि बहूनि दग्धानि = प्लुष्टानि च तानि भरिपुराणि = शत्रु नगराणि (कर्मषा० ) शत्रूषां पुराणि ( 10 तत्पु० ) यः तथाभूतैः (20 नो०) अथ च अनलवत् अग्निवत् उज्वले. (उरमान तत्पु० ) निजा:=स्वीयाः प्रतापाः- प्रभावाः तैः (कर्मधा० ) चलत् =दीप्यमानम् भुवः पृथिव्याः वलयम् = मण्डलम् प्रदक्षिणीकुस्य = परिक्रम्य भ्रमित्वेत्यर्थः ( गृहागमने ) जयाय = कृतसर्वभू. विजयनिमित्तमित्यर्थः सृष्टया= कृतया पुरजनैः पुरोहितैर्वा नीराजनया = आरात्रिकया रराजशुशुमे / दिग्विजये शत्रुनगराणि प्रज्वाल्य मुशतरमुज्ज्वलो नलप्रतापो नीराजनाकार्य करोति स्मेति मावः // 10 // व्याकरख-राजधः-राशो हन्तीति राजन्+ हन् 'राजघ उपसंख्यानम्' इति निपातनात साधु / प्रदक्षिणीकृत्य = अप्रदक्षिणं प्रदक्षिणं सम्पधमानं कृत्वेति प्रदक्षिण+चि+ ल्यप् | हिन्दी--राजाओं का बध करने वाला वह ( नल ) बहुत से शत्रु-नगरों को जला देने वाले एवं अग्नि-जैसे उज्ज्वल अपने प्रतापों के रूप में, देदीप्यमान भू-मण्डल का ( विजय हेतु) चारों ओर चक्कर काटकर विजयोपलक्ष्य में ( पुरोहितों एवं प्रजाजनों के द्वारा ) की हुई आरती से शोमित होता था // 10 //
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________________ प्रथमः सर्गः टिप्पणी-अनक-अनल्पदग्धारिपुराश्चते अनलाः (कर्मचा० ) : उम्मलेः ऐसा विग्रह भी किया जा सकता है अर्थात शत्रु-नगरों को जला देने से नल का प्रताप और भी बढ़ गया जिससे सारा भूमण्डल दोप्त हो उठा। यहां प्रताप पर नोराजनात्व का आरोप होने से व्यस्त रूपक किसी ने माना है। लेकिन हमारे विचार से यहाँ गम्योरप्रेक्षा मानना अधिक अच्छा रहेगा। कवि की कल्पना यह है कि अपने देदीप्यमान प्रताप से नल ऐसा लग रहा था मानो उसकी आरती की जा रहो हो। अनलोज्ज्वले: में लुप्तोपमा है। नीराजना-विजय, विवाह बादि करके लौट आने पर पुरोहित अथवा कहीं महिलाजन मांगलिक क्रिया के रूप में विजेता अथवा वर-वधू आदि की आरती उतारा करते हैं। यह प्रथा देश में सर्वत्र प्रचलित है। शब्दालंकारों में 'राज' 'राज' 'राज' में बमक, 'उ' और 'न' की आवृत्ति में वृत्त्यनुपास है // 10 // . निवारितास्तेन महीतलेऽखिले निरीतिभावं गमितेऽतिवृष्टयः। न तस्यजुनमनन्यविश्रमाः प्रतीपभूपालमृगीदृशां दृशः // 11 // अन्वयः-तेन अखिले महीतले निरीतिमा गमिते (सति ) निवारिताः अतिवृष्टयः अनन्यसंश्रयाः ( सत्यः ) प्रतीपभूपाल-मृगीदृशा दृशः न तस्यजुः नूनम् // टीका-तेननलेन अखिले सकले महीतले = मनाः तले (10 तत्पु.) निरी०-निर्गता ईसयः= अतिवृष्टयादयो विपत्तयः यस्मात् तथाभूतस्य (पादिव०बी०) मावः तत्सम् निरी. तित्वमिति यावत् (10 तत्पु० ) तम् गमिते- प्राप्तेि सति निवारिताः= प्रतिषिद्धाः अतिवृष्टयः= ईतिविशेषाः अनन्य०-न अन्यः संश्रयः= आश्रयः यासा ताः (ब० बी०) सत्यः प्रतीप०प्रतीपा:-विरुद्धाः शत्रब इत्यर्थः च ते भूपालाः राजानः ( कर्मधा० ) तेषाम् मृगीरशाम् - मृगोप्पा दृशौ श्व दृशौ यास ताः (ब० वी० ) तासाम् मृगनयनीना खोपामित्यर्थः दशः= नयनानि न तस्याः - अत्यजन् नलेन शत्रवो हताः तासां खियश्च सततं रुरुदुरित्यर्थः // 11 // ___ ग्याकरण-गमिते-गम् +पिच्+क्त कर्मणि निवारिता:-नि/+पिच्+क्त ( कर्मणि) प्रतीप-प्रतिगताः आपो यति ( प्रादि ब० बी०) प्रति+अप् +अच् अप् को ईप् / भूपालभुवं पालयतीतिभू+/पाल् + अच् ( कर्तरि ) / हिन्दी-उस (नल ) के द्वारा सारे भूमण्डल के ईति-रहित कर दिये जाने पर, रोक दो गई अतिवृष्टियो अन्यत्र आश्रय न पाये हुए मानो शत्रु राजाओं की मृगनयनियों को आँखों को नहीं छोड़ती थो ( अर्थात् वहाँ जा बस गई ) // 11 // टिप्पणी-ईति-ईति विपत्ति को कहते हैं। वे छः होती है-अतिवृष्टिरनावृष्टिमूषकाः शबमाः शुकाः। प्रत्यासज्ञाश्च राजानः षडेता ईतयः स्मृताः / / अर्थात् अतिवृष्टि, सूखा, चूहे, टिड्डीदल, तोते और पड़ोसी (शत्रु ) राजे। नल के राजत्व-काल में उसके पुण्य और प्रताप के कारण राज्य में कहीं भी किसी प्रकार की विपत्ति नहीं पड़ती थी। अतिवृष्टि को शत्रु-राजाओं की रानियों के नेत्रों में रहना पड़ा अर्थात् नल ने शत्रु मार दिए जिसके कारण उनकी विधवा रानियों रात-दिन आँखों से आँसुओं की बाढ़ बहाती रहती थीं। वह मानो अतिवृष्टि थी। इस श्लोक में
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________________ नैषधीयचरिते 'नूनम्' उत्प्रेक्षा-वाचक है। इस सम्बन्ध में देखिये साहित्य-दर्पण-मन्ये शके ध्रुवं प्रायो नूनमिस्येवमादयः। उत्प्रेक्षा-व्यञ्जकाः शम्दा इव शब्दोऽपि तादृशः // ' 'मृगीदृशाम्' में लुप्तोपमा रानियों के दिन-रात रोते रहने के रूप में घुमा-फिराकर (भंग्यन्तरेण ) नल ने "राजाओं को मार दिवा"-यह गम्य बात कह दी गई है, अतः पर्यायोक्त ('गम्यस्यापि मङ्गयन्तरेणाख्यानं पर्यायोक्तम्') मी है। 'रिता' 'रोति 'दृशो दंशः' में छेकानुप्रास है / यह इन सबको संसृष्टि है // 11 // सितांशुवर्णैर्वयति स्म तद्गुणैर्महासिवेम्नः सहकृत्वरी बहुम् / दिगणनाङ्गावरणं रणाङ्गणे यशःपटं. तद्भटचातुरीतुरी // 12 // अन्वयः-महासि-वेम्नः सह-कृत्वरी तद्भटचातुरी-तुरी रपाङ्गये सितांशु-वण: तद्-गुणः दिगङ्गनाङ्गाऽऽवरणं बहु यशःपटं वयति स्म // टीका-महा.-महान् चासौ असिः खगः महासिः / कर्मधा० ) स एव वेमा वयनदण्डः ( 'पुंसि वेमा वाय-दण्डः' इत्यमरः) (कर्मधा० ) तस्य सहकृत्वरी= सहकारिणी तबट०तस्य = नलस्य भटाः = सैनिकाः तेषां चातुरीचतुरता युद्धनैपुण्यमित्यर्थः (प० तत्पु० ) एव तुरीनिष्पन्न वस्त्र-वेष्टन दण्डः रणः- युद्धम् एव प्राणम् = चत्वरम् ( कमेधा० ) तस्मिन् सिता. सिताः श्वेताः अंशषः=किरपाः (कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः चन्द्र इत्यर्थः (ब० वी० ) तदव वर्णः ( उपमान तत्पु.) येषां तैः शुभैरित्यर्थः ( ब० बी० ) तस्य =नलस्य गुणैः= शौर्यादिमिः एव गुणः = तन्तुभिः दिग०-दिशः एष भङ्गनाः ( कर्मधा० ) तासाम् अङ्गानाम् = अवयवानाम् बावरणम् - आच्छादकम् (10 तत्पु०) बहु-विशालम् यशः कीतिः एव पट:वस्त्रम् (प. तरपु० ) वयतिस्मततान / नल-शौर्य विनैव तटैः शत्रुन् विजित्य तद्-यशश्चतुर्दिक्षु विस्तारितमिति मावः // 12 // व्याकरण-सहकृस्वरी-सह करोतीति सह+V+किनप् + ङोप् / चातुरी-चतुरस्य माव इति चतुर+अ - डीप / प्रावरणम्-आवृणोतीति आ+/a+ल्यु ( कर्तरि ) / हिन्दी-विशाल खहरूपी करघे की सहयोगिनी उस (नल ) के सैनिकों की चतुरतारूपी तुरी ( माकु, डरकी ) रणाङ्गण में चन्द्रमा जेसे ( श्वेत ) उस ( नक) के गुणों ( शौर्यादि ) रूपी गुपों (तन्तुओं ) से दिशा-रूपी अंगनाओं के अङ्गों को ढकने वाला विशाल यश-रूपी पट बुनती थी॥१२।। टिप्पणी नल के सैनिक हो इतने शूरवीर थे कि वे स्वयं ही शत्रुओं का नाश करके उसके यश पर चार चाँद लगा देते थे। कुछ टीकाकार यहाँ 'तद्-मट', में 'सः= नलश्चासौ भटः' यों (कर्मधा० ) विग्रह करके तत् शब्द से नल को ही लेते हैं, क्योंकि प्रकरण नल के शौर्य का चल रहा है, न कि उसके सैनिकों का अर्थात् स्वयं वह योधा नल अपने शौर्य कर्म से यश-अर्जन करता था। यहाँ, पर वेमा, चातुरी पर असितुरी, दिशाओं पर अङ्गनाओं, स्वगुणों पर गुणों (सूत्रों) और यश पर पट का आरोप है। उनमें मुख्य यश-पट है, शेष उसके अङ्ग हैं इसलिए यह साङ्ग-रूपक है, गुणशम्द में श्लेष है। 'तुरी' 'तुरी' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है / / 12 / / प्रतीपभूपैरिव किं ततो मिया विरुद्धधमैरपि भेत्ततोज्झिता / अमित्रजिन्मित्रजिदोजसा स यद्विचारक्चारगप्यवर्तत // 16 //
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________________ प्रयमः सर्ग: अन्वयः-प्रतीप-भूपैः इव विरुद्ध-धर्मः अपि यतः मिया मेत्तता उज्झिता किम् ? यत् सः बोजसा अमित्रजित ( अपि ) मित्रजित् , (अथ च ) विचार-दृक् अएि चार-दृक् अवर्तत / टीका-प्रतीपाः विरुद्धाश्च ते भूपाः नृपाः तः ( कर्मपा० ) व विरुद्धाच ते धर्माः = स्वमावाः तैः ( कर्मधा० ) अपि ततः तस्मात् ( नलात् ) भिया = मयेन भेत्तृता= मेदकत्वम् , उपजापः नल-प्रजासु अन्तभेद इति यावत् उज्मितात्यक्ता किमिति प्रश्ने उत्प्रेक्षायां वा, यदयतः सः=नलः श्रोजसा तेजसा भ्रमित्रान् = शत्रून् जयतीति तथोक्तः ( उप० तत्पु० ) अपि मित्रजित् = सुहृत्-जित् , यः खलु अमित्रजित् स कथ मित्रजित् इति विरोधः, तत्परिहारश्च ओजसा मित्रम् = सूर्य जयतीति तथोक्तः, अर्थात् नलः स्व-प्रतापेन शत्रनपि जयति स्म, सूर्यमपि च जयति स्म / विचार-विगताः चारा:=गुढ-पुरुषाः ( 'चारश्च गूढपुरुषः' इत्यमरः ) एव दृग् यस्य तथामूतः (ब० ब्रो० ) अपि चारदृग् यः खलु विचार-दृग् स कथं चारदृग् इति विरोधः तत्परिहारश्च विचार:= विवेकः शास्त्रमिति वा दृग् यस्य सः अर्थात् स शास्त्र-चक्षुषा, चार-चक्षुषा च पश्यति स्म, ययोक्तम्"वारैः पश्यन्ति राजानः"अवतंत= आसीत् / व्याकरण-ततःभिया-यहाँ भय हेतु में पञ्चमी है। भेत्तता=भिनत्तीति /भिद्+तृ+ तल +टाप् / उज्झिता-Vउज् झ् +क्त ( कर्मणि) अमित्रजित- जि+क्विप् ( कर्तरि) चारः चरतीति/ वर+अच् ( कर्तरि ) चर एवं चारः ( अण् स्वार्थे ) / हिन्दी-विरोधी राजाओं की तरह नल की डर से विरुद्ध धर्मों ने भी विरोधिता छोड़ दी है क्या ? क्योंकि वह ( नल ) तेज से अमित्र-विजेता ( शत्र-विजेता ) भी था और मित्र विजेता (1) मुहत्-विजेता (2) (सूर्य-विजेता) भी था) एव विचार-दृक् / (1) विना चारों-गुप्त चरों-के देखने वाला (2) विचार=विवेक-से देखने वाला) भी था, और चार-दृक् [चारों से देखने वाला ) भी था // 13 // टिप्पणो-यहाँ कवि ने अमित्र, मित्र एवं विचार, चार शब्दों में श्लेष र वकर विरोधाभास की अनोखी छटा दिखा रखी है। जो व्यक्ति अमित्र-शत्रु-को जीतता है, वह भला मित्र-मुहत्-को क्यों जीतेगा ? वह तो उसका स्नेह-प.त्र होता है। अतः यह बिलकुल विरुद्ध बात है, लेकिन मित्र शब्द का सूर्य अर्य करके विरोध-परिहार हो जाता है अर्थात् ना अपने तेज से सर्य को जीतने वाला था। इसी तरह विचार-दृक्-बिना-चारों-गुप्तचरों-के देखने वाला होता हुआ मी चार-दृक्चारों से देखने वाला था। यह भी विरुद्ध बात है। किन्तु विचार का अर्थ विवेक करके समाधान हो जाता है। इस बात की तुलना विरोधी राजाओं से की गई है, जिन्होंने नल से भय खाकर उसकी प्रजा में भेत्तृता-उसके विरुद्ध प्रजा में फूट डालना-छोड़ दिया था। यहाँ उपमा है जी 'किम्' शब्द द्वारा वाच्य उत्प्रेक्षा की भूमि बना रही है, उत्प्रेक्षा भी विरोधाभास का अङ्ग बनी हुई हैइस तरह यहाँ इन सभी का अङ्गाङ्गिभाव-संकर है। उसका भी 'मित्र' 'मित्र' 'चार' 'चार' से बने यमक के साथ एकवाचकानुप्रवेश संकर है // 13 // तदोजसस्तधशसः स्थिताविमौ वृथेति चित्ते कुरुते यदा यदा / तनोति मानोः परिवेषकैतवात्तदा विधिः कुण्डलनां विधोरपि // 14 //
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________________ 1 नैवधीयचरिते अन्वयः-विधिः यदा यदा पदोमसः तद्-यमसः ( च ) स्थितो इमो च्या-इति चित्ते कुरुते, तदा ( तदा ) मानः विधोः अपि परिवेष-कैतकात कुण्डलनाम् तनोति / . टोका-विधिः- ब्रह्मा यदा-पदा- यस्मिन् यस्मिन् समये तस्य = नलस्य भोजसः-तेजसः (50 तत्पु० ) तस्य = नलस्य यशसः कोः (10 तत्पु०) (च) स्थिती-विद्यमानत्वे सत्तायामिति यावत् इमौसूर्य-चन्द्रो वृथा-म्पयौँ इति चिचे कुरुते-विचारयतीत्यर्थः तदा तदा तस्मिन् तस्मिन् समये मानोः सूर्यस्य विधोःचन्द्राय भपिच परि० परिवेषः परिधिः (परिवेषस्तु परिधिरुपसूर्यक-मण्डले' इत्यमरः ) एव कैतवम् = व्याजः तस्मात् (कर्मधा० ) 'कपटोsखो ब्याज-दम्भोपधयश्छद्म-कैतवे' इत्यमरः) कुरडलनाम् = वैयर्थ्य-सूचकं रेखा-मण्डलमित्यर्थः तनोति =करोति अर्थात् यत् कार्य सूर्य-चन्द्रौ कुरुतः तत् नलस्य तेजो यशश्चैत्र कुरुतः तस्मात् तौ ग्यवेव / नलस्य प्रतापः यशश्च सूर्य चन्द्रमपि च विजयेते इति मावः // 14 // व्याकरण-परिवेषः परि+/विष् +घञ् कैतवम्=कितवस्य भावः इति कितव = अण् / कुरा उलना= कुण्डलं करोतीति कुण्डल+णिच् कुण्डलयति ( नाम धा० ) बनाकर/कुण्डल+ युच ( मावे+टाप ) / हिन्दी-ब्रह्मा जब-जब यह सोचते हैं कि उस ( नल ) के तेज और यश के रहते-रहते सूर्य और चन्द्रमा बेकार हैं, तब-तब वह परिवेश के बहाने उनके इर्द गिर्द गोल घेरा बना देते हैं // 14 // टिप्पणी-परिवेष (१)-हम देखते हैं कि कमी-कमी सूर्य और चन्द्रमा के इर्द-गिर्द दीप्तिरेखा ( halo ) बनी रहती है, जो कि एक प्राकृतिक दृश्य ( Phenomenon ) होता है / इस पर कवि की कल्पना है कि मानो वह व्यर्थता-सूचक गोल रेखाचिह्न है, क्योंकि सूर्य का काम नल का तेज और चन्द्र का कार्य उसका यश ही कर देते हैं, फिर उनकी क्या आवश्यकता है। लिखते समय जब हम किसी अझर को दो बार लिख बैठते हैं, तो एक पर आज-कल तो कस (x)का चिह बना देते हैं, लेकिन अतीत में उसके इर्द-गिर्द गोल रेखा-चिह्न बनाने की प्रथा यो / इससे यह धनि निकली कि नल का तेज सूर्य की तरह उज्ज्वल और यश चन्द्रमा की तरह धवल है। यहाँ परिवेष पर कुण्डलना की कल्पना करने से उत्प्रेक्षा है जो वाचक पद के न होने के कारण गम्य है, वह मी परिवेष के अपहन करने से हुई है, इसलिए यह कैनवापहुन्युत्यापित उत्प्रेक्षा कहलाई। 'विधि:' 'विधोः' आदि में अनुपास है // 14 // अयं दरिद्रो भवितेति वैधसी लिपि ललाटेऽर्थिजनस्य जाग्रतीम् / मृषा न चक्रेऽल्पितकल्पपादपः प्रणीय दारिद्रयदरिद्रता नलः // 15 // अन्वयः-प्रल्पित-कल्पपादपः नृपः दारिद्रय-दरिद्रता प्रषीय 'अयम् दरिद्रः मविता'. इति अधिजनस्य ललाटे जाग्रतीम् वैषप्तीम् लिपिम् मृषा न चक्रे / टीका-अक्षिप०-अल्पितः= अल्पीकृतः अधःकृत इति यावत् चासौ करूप-पादपः कल्पवृक्षः ( कर्मधा० ) येन तथाभूतः (ब० बो०) नृपः - राजा नला दारिदयस्प-निर्धनतायाः दरिद्रताम् = अमावमित्यर्थः प्रणीय-कस्वा अर्थात् अथिंजनाय धनं. दवा वस्य धनामावं निराकृत्य'
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________________ प्रथमः सर्गः भयम् एषः= अजिनः दरिद्रः= धन-रहितो मविता- भविष्यति" इति भर्थिजनस्य याचकजनस्य सबाटे - मस्तके जग्रतीम् - प्रकाशमानामित्यर्थः वैधसीम् = वेधस्सम्बन्धिनीम् ब्रह्मण इति यावत् लिपिम् = लेखम् मृषा= मिथ्या न चक्रे = कृतवान् अर्थात् दरिद्राणां ललाटे ब्रह्मलिखिता दारिद्रयरेखा नापाकृता अपि तु दरिद्रताया दारिद्रय कृत्वा सा रक्षितैव / नलराज्ये कोऽपि दरिद्रो नासीदिति मावः // 15 // व्याकरण-प्रविरत प्रल्पं करोतोति अल्प+णिच् ( नामधा० ) अल्पयति बनाकर निष्ठामें क्त (कर्मणि) दारिद्रयम्-दरिद्रस्य मावः इति दरिद्र+व्यञ् / दरिद्रता दरिद्रस्य भाव इति दरिद्र+ तल+टाप् / प्रणीय%प्र+नी+ल्यप् / जाग्रतीम् - जागृ+शत+कोप् / वेधसीम् - वेषस इयम् इति वेधस्+अ+ डोप् / टिप्पणी-अल्पित०-दान में नल ने कल्प वृक्ष को भी नीचा दिखा दिया था क्योंकि कल्पवृक्ष तो माँगने पर ही देता है, किन्तु नरू विना माँगे ही दे देता था। यहाँ उपमान कल्पवृक्ष का तिरस्कार किया गया है, अतः प्रतीपालंकार है। दारिद्रय-नल ने दरिद्रों के माथे पर ब्रह्मा द्वारा लिखी दरिद्रता की रेखा नहीं मिटाई, उसे बनाये ही रखा, लेकिन वह दरिद्रता दारिद्रय की थी, धन की नहीं अर्थात् उसने कहीं भी धनामाव नहीं रहने दिया, सबको संपन्न बना दिया। अल्पिा -कल्पपादप, दारिद्रय-दरिद्रता आदि में अनुपास है / 15 / / विभज्य मेरुन यदर्थिसास्कृतो न सिन्धुरुस्सगंजलव्ययैमरुः / अमानि तत्तेन निजायशोयुगं द्विफालबद्धाश्चिकुराः शिरःस्थितम् // 16 // अन्वयः यत् (मया) मेरुः विमज्य न अर्थिसारकृतः, सिन्धुः उत्सर्ग-जल-व्ययैः मरुः (न कृतः), तत् तेन द्वि-फाल-बद्धाः, चिकुराः शिरः-स्थितम् निजायशो-युगम् अमानि / टीका--यत्य स्मात् कारणात् ( मया ) मेरु:-सुमेरुः हेमाद्रिरिति यावत् विभज्य= मक्त्वा खण्डशः कृत्वेत्यर्थः न' प्रथि०-प्रथिना-याचकानाम् अधीनीकृतः अर्थात याचकेभ्यो न दत्तः, सिन्धुः समुद्रः हरसगांथ जलम् उत्सर्ग-जलम् (च० तत्पु०) तस्य ज्ययैः-प्रक्षेपैः (प० तत्पु०) मरुः मरुस्थलं निर्जलदेश ति यावत् च न कृतः=दानं हि जलोत्सर्गपूर्वकमुच्यते, तत्-तस्मात् कारणात् तेन =नलेन द्वयोः फालयोः मागयोः बदाः रक्षिता इति यावत् चिकुराः केशाः ( 'चिकुरः कुन्तलो बारूः' इत्यमरः) शिरसि= मूर्धनि स्थितम् = आसीनम् निज०-अयशसः = अपकोतः युगलमद्वयम् (10 तत्पु०) निजं च तत् अयशोयुगम् ( कर्मधा०) प्रमानि मेने अर्थात् "सुमेरु-पर्वतं खण्डशः कृत्वा सुवर्ण याचकेभ्यो न दत्तम्, दान-समये च संकल्पार्थ जरुमुद्धृत्य समुद्रो न शोषितः" इति केशफालद्वयरूपे मे मूनि अपकीर्तिद्वयं तिष्ठति / / 16 // व्याकरण-अर्थि०-अधिनाम् अधीनीकरोतीति अथिसात्करोति इति अथिन्+सात+V, निष्ठा में क्त ( कर्मणि ) ( तदधोनवचने पा० 5 / 4.52 ) / उत्सर्गः उत्+/सृज्+घञ् (भावे)। व्ययः-वि+ अच् (मावे) प्रमानि मन्+लुङ् प्र० पु० ए० / हिन्दी-"क्योंकि (मैं) सुमेरु-पर्वत के टुकड़े-टुकड़े करके ( उसका सारा सोना ) याचक
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________________ 16 नैषधीयचरिते समूह के अधीन नहीं कर पाया ( और ) दान ( के संकल्प ) में जल छोड़कर समुद्र को ( खाली करके ) मरुस्थल नहीं बना पाया"-इस कारण उस ( नल ) ने दो भागों ( पट्टियों ) में बँधे बाल सिर पर स्थित अपने दो अपयश समझे // 16 // टिप्पणी-निजायशोयुगम् -संस्कृत में लोकोक्ति है-'अकौतिः शिरसि स्थिता' अर्थात् कलंक सिर पर लगता है। अपयश कलंक ही होता है जिसका कविजगत में काला रूप माना जाता है-'मालिन्यं व्योम्नि पापे / नल के सिर के बाल काले और दो मागों में विभक्त थे। नल समझ रहा था मानो मेरे सिर पर ये दो कलंक हैं। हम पीछे बता आए हैं कि 'मन्ये, ध्रुवम्' आदि शब्द उत्प्रेक्षा-वाचक होते हैं, अतः यहाँ उत्प्रेक्षा है, साथ ही निन्दा के व्याज से यहाँ नल की स्तुति हो रही है कि वह बड़ा मारी दानी था, अतः व्याज-स्तुति का उत्प्रेक्षा के साथ संकर है। किन्तु विद्याधर का कहना है कि यहाँ द्विफाल-बद्ध-केशों का प्रतिषेध करके उनपर अयशोयुगत्व की स्थापना से अपह्न ति है जबकि मल्लिनाथ ने केशों पर कार्य-साम्य से अयश का आरोप होने के कारण रूपक माना है // 16 / / . अजस्रमभ्यासमुपेयुषा समं मुदैव देवः कविना बुधेन च / दधौ पटीयान् समयं नयायं दिनेश्वरश्रीरुदयं दिने दिने // 17 // अन्वयः-पटीयान् दिनेश्वर-श्रीः अयम् देवः अजस्रम् अभ्यासम् उपेयुषा कविना बुधेन च समम् मुदा एव समयम् नयन् दिने दिने उदयं दधौ। टीका-पटी०-प्रतिशयेन पटुः= निपुणः कवित्वाद्यभ्यासवान् इत्यर्थः, अन्यत्र अन्धकारनिवारणसमर्थः तेजस्वीत्यर्थः / दिने-दिनस्य ईश्वरः (10 तत्पुः ) सूर्यः तस्य या श्रोः= कान्तिः तेज इति यावत् तद्वत् श्रोः यस्य तथाभूतः (ब० ब्रो० ) अयम् देवः राजा नल इत्यर्थः अन्यत्र देवः= भगवान् अजस्रम् =निरन्तरम् अभ्यासम् = काव्य:निर्माण-व्यसनम् शास्त्रमननव्यसनञ्च अन्यत्र सान्निध्यम् ( अभ्यासो व्यसनेऽन्तिके इत्यमरः) उपेयुषा=प्राप्तवता, कविनाकाव्यकर्ता, अन्यत्र शुकेण, बुधेन विदुषा अन्यत्र चन्द्रपुत्रेण ग्रहविशेषेणेति यावत् समम् = सह मुदा एव = प्रसन्नतया एव समयम् = कालम् नयन् -पापयन् अन्यत्र कुर्वन् दिने दिने= प्रति. दिनम् उदयम् = अभ्युदयम् अन्यत्र गगने उद्गमनम् दधौ = धारयामास // 17 // ब्याकरण-पटीयान्-अतिशय अर्थ में पटु शब्द से ईयसुन् प्रत्यय है। उपयुवा-उप+ Vण से उपेयिवाननाश्वाननूचानञ्च' (पा० 3.2.109 ) सत्र द्वारा भूतकाल के अर्थ में उपेयिवान् निपात-गनियमित रूप--से बनता है। उसका यह तृतीयान्त रूप है। मुद्/मुद्+ क्विप् ( भावे ) / हिन्दी-जिस तरह अतिपटु (तेजस्वी ) सूर्यदेव निरन्तर ( अपने ) समीप में रह रहे कवि (शुक / ओर बुध ( ग्रह-विशेष ) के साथ प्रसन्नता पूर्वक समय का निर्माण करते हुए प्रतिदिन उदय होते हैं, उसी तरह सूर्य की सी कान्तिवाला ( काव्यादि में ) भति पटु यह राजा नल भी निरन्तर ( काव्य और शास्त्र के ) अभ्यास में लगे हुए कवियों ( काव्यकारों ) तथा बुधों ( विद्वानों ) के साथ प्रसन्नता-पूर्वक समय काटता हुआ प्रतिदिन उदय ( अभ्युदय ) रख रहा था // 17 //
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________________ प्रथमः सगः टिप्पणी-इस श्लोक में कवि ने श्लेषालकार का चमत्कार भर रखा है / पटीयान् कवि,बुध आदि सारे शब्द द्वयर्थक हैं। नल के पक्ष में कवि और बुध शब्द को 'जातावेकवचनम्' समझकर बहथंक लेना है जबकि सूर्य की तरफ वे एक-एक ही ग्रह हैं / ज्योतिष-शास्त्र के अनुसार 'बुध-शुको सदा पूर्वोत्तरराशिस्थितौ' होते हैं और सूर्य के समीप रहते हैं / नल के समीप मो कवियों और विद्वानों का जमघट लगा रहता था। तेज में नल का सूर्य के साथ आर्थिक सादृश्य रहते हुए भा अन्यत्र शाब्दिक सादृश्य हो है अतः यह श्लिष्टोपमा कहलाती है। 'दिनेश्वरश्रीः' में लुप्तोपमा मी है // 17 // अधोविधानात् कमलप्रवालयोः शिरःसु दानादखिलक्षमाभुजाम् / पुरेदमूव भवतीति वेधसा पदं किमस्याङ्कितमूर्ध्वरेखया // 18 // अन्धयः-कमल-प्रवालयोः अधोविधानात् अखिल-क्षमाभुजाम् शिरस्सु दानात् ( च ) 'इदम् पुरा ऊर्च मवति' इति ( कारणात् ) वेसा अस्य पदम् ऊर्ध्व-रेखया अङ्कितम् किम् ? __टीका-कमल-कमलं च प्रवालं चेति कमल-प्रबाले (इन्द्र ) तयोः= अधोविधानात् = नीचैः करणात् अरुणत्व-स्निग्धत्वयोः निर्मितत्वात् इत्यर्थः तथा अखि०-अखिलाच ते समाभुजः =राजानः ( कर्मधा० ) तेषाम् शिरस्सु मूर्धसु दानात् = विधानात् स्थापनादित्यर्थः= 'इदम् नल-पदम् पुरा-अग्रे भविष्यत्काले इति यावत् ऊर्ध्वम् - उत्कृष्टम् उरि च भवतिभविष्यति' इति कारणात् वेधसा=ब्रह्मणा प्रस्य = नलस्य पदम् =पादम् ऊचर्चा =उपरि गता रेखा=पंक्तिः तया ( कर्मधा० ) अङ्कितम् चिहितम् किम् इत्युत्प्रेक्षायाम् // 17 // व्याकरण-क्षमाभुजाम्-क्षमाम् (पृथिवीम् / भुम्जन्ति इति क्षमा+भुज+क्विप् ( कर्तरि ) पुरा ऊर्ध्व भवात' यहाँ 'यावत्-पुरा-निपातयोर्लट' (पा० 3 / 3.4 ) से 'पुरा' के योग में भविष्यदर्थ में लट् हुआ है। हिन्दी-कमल और किसलय को नीचे कर देने ( तथा ) सभी राजाओं के सिरों पर रखने से 'यह ( पैर ) आगे ऊपर ( ही ) होगा' इस कारण ब्रह्मा ने इस / नल) का पैर ऊर्ध्व रेखा से चिह्नित कर दिया था क्या?॥१८॥ टिप्पणी--सामुद्रिक शास्त्रानुसार 'ऊर्ध्वरेखादिनपदः सवोत्कर्ष मजेत् पुमान् / अर्थात् जिस व्यक्ति के पैर पर ऊपर को रेखा जाती है, वह बड़ा उत्कर्षशाली हाता है। इसी तथ्य पर कवि ने कल्पना की है / नल का पैर कमल और किसलय को नीचे किये हुए अर्थात् उनसे ऊपर ( उत्कृष्ट ) था, साथ ही राजाओं के सिरों के भी कार था। यहाँ 'किम्' शब्द के उत्प्रक्षा-वाचक होने से उत्प्रेक्षा है उपमान कमल और प्रवाल का तिरस्कार करने से साथ में प्रतीप भी है। जगज्जयं तेन च कोशमक्षयं प्रणीतवाशैशवशेषवानयम् / सखा रतीशस्य ऋतुर्यथा वनं वपुस्तथालिङ्गदथास्य यौवनम् // 19 // अन्वयः-शैशवशेषवान् अयम् जगज्जयम् तेन च कोशम् अक्षयम् प्रपीतवान् / अथ यथा रतीशस्य सखा ऋतुः वनम् ( आलिङ्गति ) तथा यौवनम् अस्य वपुः आलिङ्गत् / / टीका-शैश० शिशोः भावः शैशवम् तस्य शेषः (10 तत्पु०) मस्मिन् अस्तीति तथोक्तः
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________________ नैषधीयचरिते ईषदवशिष्टशैशव इत्यर्थः प्रयम्= नलः जगतः जयम् = विजयम् ( 10 तत्पु०) तेन= जयेनेत्यर्थः कोशम् = निधिम् अक्षयम् = परिपूर्णमित्यर्थः प्रणीतवान् = कृतवान् अथ = एतदनन्तरम् यथा रत्याः ईशः - पतिः कामदेव इति यावत् (10 तत्पु० ) सखा=मित्रम् ऋतुः = वसन्तः धनम् तया यौवनम् = तारुण्यम् अस्य- नलस्य वपुः शरीरम् प्रालिङ्गत् = आश्लिष्यत् असमाप्त-शैशव एव नलो दिग्विजयं कृत्वा यौवनमारूढ इत्यर्थः। ____ व्याकरण-शंशवम्-शिशोः माव इति शिशु+अण् / रतीशस्य ऋतु:-यहाँ गुण प्राप्त था किन्तु 'ऋत्यकः' (पा० 6 / 1 / 128 ) से विकल्प में प्रकृतिभाव हो गया है। हिन्दी-शैशव शेष रहते-रहते उस ( नल ) ने जगत्-विजय ( कर लिया ) और उससे कोश अक्षय कर दिया। तदनन्तर यौवन ने उसके शरीर का इस तरह आलिंगन किया जैसे कामदेव का मित्र वसन्त वन का आलिंगन किया करता है // 16 // टिप्पणी-यहाँ वसन्त से उपमा देकर कवि की यह वस्तुध्वनि है कि वसन्तागमन से जैसे वन सौन्दर्य से जगमगा जाता है, वैसे ही यौवन आने से नल के शरीर का सौन्दर्य प्रस्फुटित हो उठा। शत्रुओं का सफाया हो गया है; कोष भी अक्षय हो गया है। अब दमयन्तीलाम शेष है। यहाँ उपमालंकार है / पहले-दूसरे पादों के अन्त में 'अयम् 'अयम्' में अन्त्यानुप्रास, तीसरे चौथे पादों के अन्त में 'वनम्' 'बनम्' में यमक है / / 16 / / अधारि पद्धेषु तदघ्रिणा घृणा क्व तच्छयच्छायलवोऽपि पल्लवे / तदास्यदास्येऽपि गतोऽधिकारितां न शारदः पार्विक शर्वरीश्वरः // 20 // अन्वयः-तदधिणा पद्मषु घृपा अधारि, पल्लवे तच्छय-च्छाय-लवः = अपि क्व? शारदः पाविक-शर्वरीश्वरः तदास्य-दास्ये अपि अधिकारिताम् न गतः / टीका-तस्य = नलस्य अघ्रिणा=पादेन ( 10 तत्पु० ) पद्मषु = कमलेषु घृणा= जुगुप्सा अधारि= अकारि पादस्य पद्मापेक्षया अधिकमुन्दरत्वात् / पल्लवे नव-किसलये तस्य = नलस्य शयः= हस्तः ( 'पञ्चशाखः शयः पाणिः'-इत्यमरः ) तस्य या छाया = कान्तिः तस्य लवः=लेशः ( सर्वत्र प० तत्पु० ) क्व ? लेशोऽपि नास्त्येवेत्यर्थः। शारदः= शरत्कालीनः शर्वर्या-राज्या ईश्वरः स्वामी ( 10 तत्पु० ) शर्वरीश्वरः पार्विकः = पर्वणि भवः पौर्णमासीय इत्यर्थः पाविकश्चासौ शर्वरीश्वरः शति पावि० (कर्मधा०) पूर्णिमा-चन्द्रः तस्य =नलस्य यत् भास्यम् - मुखम् तस्य दास्यम् भृत्यत्वम् तस्मिन् ( 10 तत्पु.) अधिकारिताम् = योग्यतामित्यर्थः न गतः = प्राप्तः अर्थात् दास्ययोग्योऽपि नासीत् / नलस्य पाद-पाणि-मुखम् निरुपममिति मावः // 20 // __ व्याकरण-तच्छय०-यहाँ शयस्य छाया इति विभाषा सेना० (पा० 2 / 4 / 25) से छाया शब्द को विकल्प से नपुंसक हो गया है। शारदः शरदि भव इति शरद् +अण् / पाविकः= पर्वणि भव इति पर्वन् - ठञ् / दास्यम् = दासस्य माव इति दास+व्यञ् / अधिकारिता=अधिकारोऽस्यास्तीति अधिकार+इन् अधिकारी तस्य भाव इति अधिकारिन् +तल् +याप्। हिन्दी-उस ( नल ) के पैर ने कमकों से घृणा रखी; नव किसलय में उस ( नल ) के हाथ १-पार्वण।
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________________ प्रथमः सर्गः की कान्ति का लेश भी कहाँ ? शरद् की पौर्णमासी का चाँद उस ( नल ) के मुख की दासता कामी अधिकारी नहीं था // 20 // टिप्पणी-यहाँ नल के पैर, हाथ और मुख के सामने क्रमशः पद्म, पल्ला एवं शरच्चन्द्र का तिरस्कार किया गया है, अतः प्रतीर है, किन्तु मल्लिनाथ के अनुसार यहाँ अधेि आदि में या भादि का असम्बन्ध होने पर भी सम्बन्ध प्रतिपादित किया गया है, इसलिए यह असम्बन्धे सम्बयाति शयोक्ति है 'च्छय' 'चछय' 'दास्य' 'दास्ये' में छे कानुपास है // 20 / किमस्य लोम्नां कपटेन कोटिमिर्विधिन लेखामिरजीगणद् गुणान् / न रोमकपौघमिषाज्जगत्कृता कृताश्च किं दूषणशून्यबिन्दवः // 21 // अन्वयः-विधिः रोम्याम् कपटेन कोटिमिः रेखाभिः अस्य गुणान् न अजीगण किम् ? जगत्कृतां रोम' पात् दूषण 'वः ( च ) न कृताः किम् ? ____टीका-विधिः = ब्रह्मा रोग्णाम् =लोम्नाम् कपटेन=व्याजेन कोटिभिः = कोटि-संस्थानिक सार्धनिकोटिमिरित्यर्थः यथोक्तम्-'तिस्रः कोटयोऽर्धकोटी च यानि रोमाणि मानुषे'। रेखामिःलेखामिः अस्य = नलस्य गुणान् = शौयौदार्यादीन् न अजीगणत् = गपितवान् किम् अपितु गणितवान् एव / जगत्कृता=जगत्करोति = सन्जतीति तथोक्तः तेन (उपपद तत्पु०) ब्रह्मणेत्यर्थः रोम-= रोग्णाम् = लोम्नाम् ये कूपाः= विवराणि तेषां यः पोषः = समूहः तस्य मिषात् = व्याजात ( सर्वत्र 10 तत्पु०) दूषण-दूषखानाम् =दोषाणाम् यानि शून्यानि = अमावाः तेषां बिन्दवः तज्यापका वर्तुलरेखा इत्यर्थः न कृताः किम् अपि तु कता एव / नलः सर्वगुणसम्पन्नः सर्वदोषरहितश्चासीदिति भावः। व्याकरण-विधिः-विदधाति सनति इति वि+Vधा+कि (कर्तरि ) अजीगणवगिण (चरा० ) लुङ् जगत्कृता=जगत् F/+क्विप् ( कर्तरि ) / हिन्दी-ब्रह्मा ने रोमों के बहाने करोड़ों रेखाओं से इस ( नल ) के गुण नहीं गिने क्या! जगत् स्रष्टा रोम-कूपों के समूह के बहाने दोषों के अभाव-सूचक बिन्दु-गोल-रेखायें-नही बना गया क्या? टिप्पणी-इस श्लोक में कवि नल के रोमों और रोम-कूपों में उसके गुणों एवं दोषामान को गिनती की कल्पना कर बैठा है / उसमें करोड़ों गुण है और दोष सर्वथा शून्य है। “कम्' शरद कहाँ उत्प्रेक्षा का वाचक है साथ ही काकु वक्रोक्ति भी बना रहा है। उत्प्रेक्षायें दो हैं, काकु मी दो हैं। इनका एकवाचकानुपवेश-संकर कह सकते हैं। उसके साथ दो अपहुतियों की संसृष्टि भी है जो कपट और मिष शन्दों द्वारा अभिहित है। 'गण' 'गुणा' में छेक और 'कृता' 'कृता' में यमक भी है। अमुष्य दोामरिदुर्गलुण्ठने ध्रुवं गृहोतार्गलदीर्घपीनता / उरः श्रिया तत्र च गोपुरस्फुरस्कपाटदुर्धर्षतिःप्रसारिता // 22 // अन्वयः-अमुष्य दोाम् अरि-दुर्ग-लुण्ठने अर्गलदीर्घपीनता, तत्र उरःभिया च गोपुर...रिता गृहीता ध्रुवम् /
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________________ नैषधीयचरिते टीकाः-अमुष्य = नलस्य दोभ्या॑म् = भुजाभ्याम् अरि०-अरोरखाम् = शत्रणाम् दुर्गाणाम् = कोटानाम् लुएठने = अपहरणे (10 तत्पु०) अर्गल. अगंजम् = विष्कम्भः कमाटरोधककाष्ठदण्डविशेष इति यावत् ( तद्विष्कम्भोऽर्गलं न ना' इत्यमरः ) तत् इव दीर्घम् ( उपमान तत्पु०) च पीनं च ( कर्मधा० ) तस्य भावः तत्ता तद्वत् दीर्घता पीवरता चेत्यर्थः, तत्र = लुण्ठने उरसः= बक्षसः श्रिया= कान्त्या ( 10 तत्पु.) च गोपुर०-गोपुरेषु = पुरद्वारेषु ( 'पुरद्वारं तु गोपुरम्' इत्यमरः) स्फु न्तिदीप्यमानानि ( स० तत्पु० ) यानि कपाटानि = अरराणि द्वारावरक: काष्टफटकानीत्यर्थः ( कर्मधा० ) दुर्धर्षाणि = अप्रधृष्याणि कठिनानीति यावत् च तिरःप्रसारीणि = विशालानीत्यर्थः च ( कर्मधा० ) तेषां भावः तत्ता गृहीता= अपहृता, अवलम्बिता ध्रुवम् = ननु / नकस्य भुजौ अर्गलवत् दौर्षों पीनी च वक्षःस्थलं च काटवत् दुर्धर्ष विशालचासीदिति भावः // 22 // __ब्याकरण-दुधंष = दुःखेन धषितुं योग्यम् इति दुर् + धृष् +खल् / तिरःप्रसारिता निरस्+:+/स+णिन् +तल +टाप् / हिन्दी-उस (ल) की भुजाओं ने शत्रुओं के किलों को लूट में आगल की लंबाई-मोटाई और वक्षःस्थल की कान्ति ने पुरद्वार के देदीप्यमान किवाड़ों की दृढ़ता-विशालता-ले ली हो जैसे। टिप्पणी-शत्र-नगर को जीतने पर विजेता सेना लूट-मार पर उतारू हो जाती है-यह आम बात है। नल के अंग भी क्यों पीछे रहते। उसकी भुजाओं ने अर्गल से लम्बाई मोटाई छीन ली जबकि उसको छाती ने पुरद्वार के किवाड़ों की मजबूती और चौड़ाई ले लो। जड़ अगों ने भला क्या लूट करनी है। यह तो कवि को कल्पना-मात्र है, इसलिए यहाँ दो उत्प्रेक्षाओं की संसृष्टि है। ध्रुव शब्द उत्प्रेक्षावाचक होता है. इसके लिए देखिए साहित्यदर्पण-'मन्ये शङ्के ध्रुवं प्रायो नूनमित्येवमादयः / उत्प्रेक्षा-व्यजकाः शब्दा इव शब्दोऽपि तादृशः // ' भावार्थ यह निकला कि नल 'माजानुबाहुः' और 'ब्यूढोरस्क' था। स्वकेनिलेशस्मितनिन्दितेन्दुनो निजांशदृक्तर्जितपद्मसम्पदः / अतद्द्वयोजिरवरसुन्दरान्तरे न तन्मुखस्य प्रतिमा चराचरे // 23 // अन्धयः-स्वकेलि...न्दुनः निजांश... सम्पदः, तन्मुखस्य अतद्...न्तरे चराचरे प्रतिमा न (आसोत् ) / टोका-स्वकेलि०-स्वा= स्वीया लिः क्रीडा ( कर्मधा० ) तस्याः लेशः= लवः (प. तत्पु० ) यत् स्मितम् = मृदुहासः ( कर्मधा० ) तेन निन्दितः = तिरस्कृतः ( तृ० तत्पु० ) इन्दुःचन्द्रः ( कर्मधा० ) येन तथाभूतस्य ( ब० वी०) निजांश० -निजः= स्वकीयः अंशः भागः माग-रूपे इत्यर्थः ( कर्मधा० ) ये शौ- नयने ( कर्मधा० ) ताभ्याम् तर्जिता=मसिता ( तृ० तत्पु०) पद्म-सम्पत् = कमल-सौन्दर्यम् (कर्मधा० ) (पद्यानाम् सम्पत् प० तत्पु० ) येन तथामूतस्य (ब० वी०) तस्यनलस्य मुखस्य = आननस्य (प० तत्पु० ) अतद्-तयोः द्वयीयुगम् तस्याः जिरवरम् (10 तत्पु० ) सुन्दरान्तरम् = अन्यत् सुन्दरं ( वस्तु ) (कर्मधा० ) यस्मिन् तथाभूते ( ब० वी० ) न तवयी० इति अतद्वयी० ( न तत्पु०) चराचरे = स्थावर-जङ्गमात्मकसंसारे प्रतिमा-उपमानम् नासीदिति शेषः / नलस्य मुखं निरुपममिति भावः // 23 // .
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________________ 21 प्रथमः सर्गः व्याकरण-द्वयीद्वौ अवयवौ अत्रेति दि+अयच् +डीप् ) / जिस्वर-जयती+ति/जिक्वरप् (कर्तरि ) सुन्दरान्तरम् =न अन्यत् सुन्दरम् इति सुन्द० यह अस्वपद-विग्रही समास मयूरव्यंसकादयश्च (पा० 2 / 1 / 72 ) इस सूत्र से निपातित है। हिन्दी-अपने ही विलास के एक लघु अंश (भूत ) मन्दहास से चन्द्रमा को तिरस्कृत किये ( तथा ) अपने ही अंश (-रूप ) नयनों द्वारा कमलों के सौन्दर्य को नीचा दिखाये हुए उस ( नल) के मुख की बराबरी करनेवाला, उन दोनों ( चन्द्र और कमल) को जीतने वाले दूसरे सुन्दर (पदार्थ ) से रहित चराचरात्मक संसार मे ( कोई ) था ही नहीं / / 23 // टिप्पणी-साधारणतः कवि-जगत् में मुख का उपमान या तो चन्द्रमा बनता है या फिर कमल किन्तु नल के मुख के एक छोटे से अंश मुसकान ने चन्द्र को दुत्कार दिया तो दूसरे अंश नयन ने कमल को पछाड़ दिया, ऐसी स्थिति में सारे मुख की बराबरी का संसार में कोई रहा ही नहीं। यहाँ उपमान-भूत चन्द्र और कमल का तिरस्कार कर दिया गया है, इसलिर दो प्रतीपों की संसृष्टि है किन्तु मल्लिनाथ ने मुख के निरौपम्य का चन्द्र और कमल-विजय कारण बताने से यहाँ काव्यलिंग माना है / / 23 / / सरोरुहं तस्य दशैव निर्जितं जिताः स्मितेनैव विधोरपि श्रियः। कुतः परं भव्यमहो महीयसी तदाननस्योपमितौ दरिद्रता // 24 // अन्धयः-तस्य दृशा एव सरोरुहम् निर्जितम् ; ( तस्थ ) स्मितेन एव विधोः अपि श्रियः जिताः परं भव्यम् कुतः ? ( अतः) तदाननस्य उपमिती महती दरिद्रता-अहो / / 24 / / टीका-तस्य = नलस्य दशा=नयनेन एव सरोरुहम् = कमलं निर्जितम् =परास्तम , 'तर्जित पाठे धिक्कतम् , ( तस्य ) स्मितेन =म्मयेन एव विथोः= चन्द्रस्य अपि श्रियः= कान्तयः जिता, परम् = सरोरुह-विध्वतिरिक्तम् मव्यम् = सुन्दरम् ( वस्तु) कुतः= कुत्र न कुत्रापीत्यर्थः, ( अब एवं ) तस्य =नलस्य भाननस्थ- मुखस्य उपमिती-उपमाने तुलनायामिति यावत् महीयसीप्रतिमहती दरिद्रता = अमावः अत्यन्तामाव इत्यर्थः इति अहो आश्चर्यम् / / 24 / / ग्याकरण-सरोरुहम = सरसि रोहतोति सरस्+/रुह् +अच् ( कर्तरि / स्मितम् 1 स्मि+क्त ( भावे)। भव्यम् = भव्य-गेय. (पा० 3 / 4 / 68 ) से निपातित * अर्थात् अनियमित रूप। उपमितिः= उप+मा+क्तिन् (भावे)। हिन्दी-उस ( नल ) की आँख ने ही इन्दीवर को परास्त कर दिया; ( उसके ) स्मित ने ही चन्द्रमा की कान्ति जीत ली; (इन दोनों से ) परे सुन्दर कहाँ है ? ( अतः ) उस (नल ) के मुख की तुलना में बड़ी भारी दरिद्रता हो गई है-यह आश्चर्य है / / 24 // टिप्पणी-यहाँ कवि ने शब्दान्तर में यही बात कही जो पिछले श्लोक में आई हुई है। इसे हम स्पष्टतः पुनरुक्ति ही कहेंगे। अलंकार पहले-जैसे ही हैं // 24 // स्ववालमारस्य तदुत्तमाङ्गजैः समं चमर्येव तुलामिलाषिणः / अनागसे शंसति बालचापलं पुनः पुनः पुच्छविलोलनच्छनात् // 25 // १-तजितं /
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________________ 22 नैषधीयचरिते - अन्वयः-चमरी एव तदुत्तमाङ्गजैः समं स्वयं तुलाभिलाषिणः स्व-वाल-मारस्य अनागसे पुनः पुनः पुषक-विलोलन-च्छलात् बाल-चापलम् शंसति / टोका-चमरी= मृगीविशेषः एव-अपि 'एवशब्दोप्यर्थः' इति नारायणः, तदु० = तस्य-नलस्य इतनाजैः= शिरोरुहैः समम् = सह स्वयम् = आत्मना तुलाम् = तुलनाम् अभिलषति - च्छतीति तथोक्तस्य ( उप० तत्पु० ) बालानाम् मार : ( 10 तत्पु०) स्वःस्वीय: चासौ बालमार:- केशनिचयः ( कर्मधा० ) अनागसेन भागः=अपराधः तस्मै ( नञ् तत्पु० अत्र अभावपरकः) अर्थात् अपराधाभावे पुनः पुनः पुच्छ० =पुच्छस्य म्लाङ्गलस्य विलोलनम्-चालनम् (10 तत्पु० ) तस्य छलात्-(प० तत्पु०) बाल-बालानाम् =केशानाम् अथ च बालस्य= पाठकस्य चापलम्चाञ्चल्यम् अथ च चपलताम् शंसति=कथयति, अर्थात् स्वचपलबालकम् स्वयं महतां साम्यं कर्तुमिन्छन्तं दृष्ट्वा उन्माता यथा हस्तचालनेन 'बालोऽयम् , नास्त्यस्यापराधः' सम्वतामयम्' इति ब्रूते तद्वत् चमरी अपि // 25 // बाकरण-उत्तमाङ्गजैः-उत्तमं च तत् अङ्गम् शिर इत्यर्थः वस्मिन् जायन्ते इति उत्तमाज+ Vबन्+ड ( सप्तम्यर्थे ) / विलोलनम्-वि+Vलुल्+णिच् + ल्युट् ( मावे ) चापलम् = चपछस्व भाव इति+चपल+अण् / हिन्दी-चमरी गाय भी उस ( नल ) के केशों से स्वयं बराबरी चाहनेवाले अपने बाल-समूह के अपराधामाव हेतु बार-बार पूँछ हिलाने के बहाने बाल-चपलता ( (1) बालों की चञ्चलता (2) पाक का मनचलापन ) कह रही है // 25 // टिप्पणी-यहाँ कवि ने बाल शब्द में श्लेष रखकर बड़ा चमत्कार दिखाया है / वैसे किसी के पने वालों को तुलना चमरी-गाय के पुच्छ से दी जाती है किन्तु नल के बाल उससे कहीं अधिक घने ये। फिर भो पुच्छ के बाल समानता करने की ढिठाई कर ही बैठे तो इस पर चमरी गाय पुच्छ हिलाने लगी मानो क्षमा मांग रही हो कि यह बाल (बच्चे ) की चञ्चलता है, अपराध नहीं, क्शन-वश बाल ऐसा किया हो करते हैं। यहाँ उत्प्रेक्षा-वाचक शब्द न होने से गम्योत्प्रेक्षा है, साथ ही दो भिन्न-भिन्न बालों ( केश, बालक ) में अभेद दिखाकर मेरे अमेदातिशयोक्ति, और पुच्छचालन काण्ठ बताकर अपहृति भी मिलकर संकर बना रहे हैं / शब्दालङ्कार यहाँ वृत्त्यनुपास है / / 25 / / महीभृतस्तस्य च मन्मथश्रिया निजस्य चित्तस्य च तं प्रतीच्छया / द्विधा नृपे तत्र जगत्त्रयीभुवां नतभ्रुवां मन्मथविभ्रमोऽभवत् // 26 // अन्वयः-तस्य महीभृतः मन्मथः-श्रिया च तम् प्रति निजस्य चित्तस्य इच्छया च तत्र नृपे बमत्-त्रयोभुवाम् नत-ध्रुवां द्विधा मन्मथ-विभ्रमः अभवत् // टीका-तस्य महीभृतः= राशः नलस्येत्यर्थः मन्मथः कामः तस्य श्रीः- कान्तिः (10 सत्पु०) व श्रोः तया च तमुलं प्रति निजस्य स्वकीयस्य चित्तत्य=मनसः इच्छयाअमिठाषेण तत्र तस्मिन् नृपे=राशि नले जग०-त्रयोऽवयवा अत्रेति त्रि+अयच् +डोप = त्रयो जगतः संसारस्य त्रयी-त्रित्वसंख्या स्वर्ग-मयं पातालानीत्यर्थः (10 तत्पु०) भूः = उत्पत्ति.
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________________ प्रथमः सर्गः स्थानं यासा तासाम् (20 बी० ) त्रिलोकवर्तिनीनामिति यावत् नते = नम्र भ्रवी यासा तासाम् (ब० वी०) सुन्दरीयामित्यर्थः द्विधा=द्वि-प्रकारेण मन्मथस्य-कामदेवस्य अथ च कामविकारस्य विभ्रमः-विशिष्टो भ्रमः भ्रान्तिरित्ययः अथ च विलासः, कामचेष्टा ( चेष्टालबारे भ्रान्तीच विभ्रमः' इत्यमरः) नलं दृष्ट्वा त्रिलोकसुन्दरीणां 'अयं कामदेवः' इति भ्रान्तिः अथ च कामावेशचेष्टाऽभूदित्यर्थः // 26 // व्याकरण-महीभृत् = महीं बिभर्तीति मही+/मृञ् +क्विप् कर्तरि / मन्मथः-मननम् = मत् शास्त्राद्यभ्यासशानम् तस्य मथः= मथ्नातीति /मथ+क ( मूलविभुजादिभ्यः कः) (10 तत्पु.) त्रयीत्रयोऽवयवा अत्रेति त्रि+अयच् +ङीप् / विवृण्वते-वि-/+लट् प्र० ब० / हिन्दी-उस राजा (नल ) को कामदेव की-सी कान्ति के कारण तथा उसके प्रति अपनी अभिलाषा होने के कारण तीनों लोकों की सुन्दरियों को दो प्रकार का विभ्रम ( भ्रान्ति, कामावेशचेष्टा ) हो उठा // 26 // टिप्पणी-यहाँ भी कवि ने मन्मथ और विभ्रम शब्दों में श्लेष रखा है / मन्मथ का एक अर्थ है कामदेव और दूसरा कामविकार; विभ्रम का मी एक अर्थ है बड़ी भारी भ्रान्ति और दूसरों कामचेष्टा / क्योंकि नल कामदेव-जैसा अतिसुन्दर था इसलिए स्त्रियों उसे कामदेक ही समझ बैठी, इस कारण उन्हें उसकी चाह हो गई और वे काम-चेष्टायें करने लगीं / मन्मथश्रिया में लुप्तोपमा है / पहले कामदेव का भ्रम तब काम-चेष्टा-इस तरह क्रमिक अन्वय से यथासंख्यालंकार है। विभ्रम शब्द में श्लेष होने से उसका यथासंख्य से संकर है, किन्तु लुप्तोपमा से संसृष्टि ही रहेगी // 26 // निमीलनभ्रंशजुषा हशा भृशं निपीय तं यस्त्रिदशीमिरर्जितः / अमूस्तमभ्यासमरं विवृण्वते निमेषनिःस्वैरधुनापि लोचनैः // 27 // अन्वय.. त्रिदशीमिः निमोलन-भ्रंशजुषा दृशा तम् भृशम् निपीय यः ( अभ्यास-मरः ) अजिंतः, अमूह अधुना अपि निमेष-निःस्वैः लोचनैः तम् अभ्यास-मरम् विवृण्वते / टीका-विरशीमिः= सुराङ्गनाभिः ( अमरा निर्जरा देवा त्रिदशाः' इत्यमरः) निमीन०निमीलनम् = निमेषः तस्य नंशः=अभावः इत्यर्थः (10 तत्पु० ) तम् जुषन्ते सेवन्ते इति तथोक्तया ( उप० तत्पु० ) निमेष-रहितयेत्यर्थः दृशा=नयनेन तम् नलम् भृशम् =अतिमात्रम् यथा स्यात्तथा निपीय= सतृष्णं दृष्ट्वत्यर्थः यः= अभ्यासभरः भर्जितः कृतः अमूः इमाः त्रिदश्यः अधुना भपि साम्प्रतम् अपि निमेष निर्गतं स्वम् धनम् येषां तानि निःस्वानि (प्रादि ब० वी०) दरिद्राणीत्यर्थः निमेषस्य निःस्वानि (10 तत्पु० ) निमेषरहितानीत्यर्थः तैः लोचनैः = नयनैः समं अभ्यासस्य भरम् = अतिशयम् विवृण्वतेप्रकटयन्ति, पुरा सुराङ्गनाजनेन नलं द्रष्टुं यो निनिमेषत्वाभ्यासः कृतः सोऽद्यापि तस्मिन् तिष्ठतीति मावः // 27 // ध्याकरण-त्रिदशीभि:-यहाँ त्रिशब्द पूरणार्थ में लेकर तृतीया दशा यास ताः (ब० वी०) इस तरह विग्रह करना चाहिए / अन्य प्राणियों की बाल्य शैशव तारुण्य और वार्धक्य ये चार दशाये हुआ करती हैं, लेकिन देवताओं को तीसरी दशा अर्थात् तारुण्य ही होती है। वे सदा युवा ही
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________________ 24 नैषधीयचरिते रहते हैं। भ्रंशजुषा = भ्रंशं जुषते इति भ्रंश+/जुष् + विप् कर्तरि निपीय इसके लिए प्रारम्भ का श्लोक देखिए। हिन्दी-देवागनायें निमेष रहित नयनों से उस ( नल ) को अच्छी तरह देखने का जो ( अभ्यास ) कर बैठी थीं, वे आज भी निमेष-रहित नयनों द्वारा उस अभ्यास के अतिशय को प्रकट करती जा रही हैं ( भूलो नहीं हैं ) // 27 // टिप्पखो-देवताओं के सम्बन्ध में यह प्रसिद्ध है कि एक तो वे सदा युवा रहते हैं, दूसरे, उनकी आँखें स्वमावतः कमी नहीं झपकती। यहाँ स्वभावत: निमेष-रहित दृष्टि वाली देवाङ्गनाओं के विषय में कवि की यह बोल्पना है कि उन्होंने पहले नल को जो एक-टक निगाह से कमो देखा था, उसका संस्कार उनमें अभी तक बना हुआ है, इसलिए वे आँखें नहीं झपकाती हैं / यहाँ उत्प्रेक्षावाचक शब्द काई नहीं है, अतः यह प्रतीयमानोत्प्रेक्षा है // 27. / अदस्तदाकर्णि फलान्यजीवित दृशोर्द्वयं नस्तदवीक्षि चाफलम् / इति स्म चक्षुःश्रवसां प्रिया नले स्तुवन्ति निन्दन्ति हृदा तदात्मनः // 28 // अन्वयः-“भदः नः दृशोः द्वयम् तदाकणि ( अतः ) फलाढय जीवितम् ( अस्ति ), तदवीक्षि ( अतः ) अफलम् च"-इति चक्षुःअवसाम् मियाः नले आत्मनः तत् हृदा स्तुवन्ति, निन्दन्ति (च) / टीका-भदः= इदम् नः- अस्माकम् दृशोः= नयनयोः द्वयम् = युगलम् तम् = नलम् आकर्णयतीति तदाकणि ( उप० तत्पु० ) अर्थात् नलगुषान् शृणोति सर्पाणाम् चक्षुःश्रवत्वात , अतएव फला०-फलेन प्रात्यम् = सम्पन्नम् ( तृ० तत्पु०) जीवितम् = जीवनम् ( कर्मधा० ) यस्य तत् (ब० वी० ) अर्थात् सफलजीवितम् अस्ति, तद० = तम् न वीक्षितुं शीलमस्येति ( उप० तत्पु०) तथोक्तम् अतएव अफलम् -न फलं यस्य तत् (ब० वी० ) निष्फलजीवितमित्यर्थः पातालस्थितानां तासां नल प्रत्यक्षीकरणासम्भवात् इति हेतोः चक्षुःश्रवसाम-नागानां प्रियाः= सुन्दर्यः नले= नलविषये प्रारमनः = स्वस्य तत्-दृशोः इयम् हृदा=मनसा स्तुवन्ति = प्रशंसन्ति निन्दन्ति: कुत्सयन्ति च // 28 // व्याकरण-जीवितम्-/जीव् +क्त मावे / तदाकणिं तदवीक्षि दोनों में ताच्छील्यार्थ में णिन् प्रत्यय / चक्षुःश्रवसाम्-चक्षुर्गा शृण्वन्तीति पृषोदरादित्वात् साधुः / हिन्दी-"हमारी दोनों आँखें उस ( नल ) को सुननेवाली हैं ( अतः वे ) सफल-जीवन हैं, उस (नल ) को देखने वाली नहीं, ( अतः ) निष्फल हैं" इस तरह नागों की स्त्रियों नल के विषय में अपनी उन ( आँखों ) को प्रशंसा करती हैं और निदा ( भी ) करती हैं // 28 // टिप्पणी नल का यश त्रिभुवनों में व्याप्त हो रहा था। पातालवासी नाग-सुन्दरियों ने अपनी आँखों से उसके गुण तो सुन लिए थे, किन्तु मर्त्यलोक में होने से वे उसे देख नहीं पा रही थी। सर्प को चक्षुःश्रता इसलिए कहते हैं कि उसके काम नहीं होते, माँखों से हो वह सुनने का काम मी हे देता है। यहाँ चक्षःश्रव शब्द साभिप्राय है, इसलिए विशेष्य पद के सामिप्राय होने से 'कुवलयानन्दकार के अनुसार यहाँ परिकराकर अलंकार है। इसके अतिरिक्त, इस तरह प्रशंसा और निन्दा
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________________ प्रथमः सर्ग: का सम्बन्ध न होने पर भी सम्बन्ध प्रतिपादन से असम्बन्धे सम्बन्धातिशयोक्ति मी होने से दोनों की संसृष्टि है। किन्तु विद्याधर ने यहाँ सफलत्व और विफलत्व गुणों तथा स्तुति-निन्दा क्रियाओं का विरोध होने से गुण-क्रियाविरोधालंकार माना है। तदवीक्षि-यहाँ 'तं न वीक्षते इति' में प्रतिषेध की प्रधानता है. अत: 'नम्'प्रसज्यप्रतिषेध है, किन्तु समास कर देने से वह 'पयुदास'-गौणबन गया है, विधेय नहीं रहा / इस कारण यह विधेयाविमर्श दोष है // 28 // विलोकयन्तीभिरजसमावनाबलादमुं नेत्र निमीलनेष्वपि / अलम्भि माभिरमुष्य दर्शने न विघ्नलेशोऽपि निमेषनिर्मितः // 29 // अन्वयः--अजस्र-भावना-बलात् अमुम् नेत्रनिमीलनेषु अपि विलोकयन्तीभिः मामिः अमुष्य दर्शने निमेष-निर्मित: विघ्नलेशः अपि न अलम्भि / टीका-अज०-अजस्रा= निरन्तरा या भावना=यानं चिन्तनं वा (कर्मधा० ) तस्याः बलात् = वशात् ( 10 तत्पु० ) अमुमनलम् नेत्रयोः= नयनयोः निमीलनेषु= संकोचेषु (10 तत्पु० ) अपि विलोकयन्तीमिः पश्यन्तीभिः मामिः=मानुषीभिः प्रमुष्यनलस्य दर्शने विलोकनव्यापारे निमेषैः = नेत्रसंकोचैः निर्मितः= कृतः ( तृ० तत्पु०) विघ्नस्य = बाधाया लेशः = लयः ( 10 तत्पु० ) अपि न अलम्भि-प्राप्तः। यो हि यं ध्यायति स्मरति वा स तद्भावना-भावितः सन् नेत्र-निमीलनेऽपि तमेव पश्यतोति भावः // 29 // व्याकरण-भावना-/भू+'णच्+युच+टाप् / निमीलनम् = नि+मील+ल्युट् भावे। विलोकयन्ती= वि+Vलोक् +पिच् + शतृ + ङोप् / निमेषः-नि+/मिष + क भावे / दिनः-विहन्तीति वि+/हन्+क / अत्तम्भिVलम् +लुङ् ( कर्मणि ), विकल्प से नुमागम / हिन्दी-निरन्तर ध्यान-वश उस ( नल ) को आँख झपकने पर भी देखती रहती हुई भानुषियों ने उस ( नल ) के देखने में आँख झपकने से हुआ विघ्न का लेश भी नहीं पाया / / 29 / / हिप्पणी-देवताओं के ठीक विपरोत मनुष्यों की आँखें झपकती रहती हैं। नल को देखकर मानव-लोक की स्त्रियाँ बराबर उसकी भावना करती रहती थी, इसलिए आँखें झपकने का व्यवधान होने पर भी नल उनके आगे दिखाई देता ही रहता था, आँखे झपके तो क्या, और न झपके तो क्या / इसी को तन्मयता कहते हैं / यहाँ नेत्र निमीलन रूप न देखने का कारण होते हुए न देखनारूप कार्य नहीं हो रहा है, इसलिए विशेषोक्ति अलंकार है / विशेषोक्ति उसे कहते हैं जहाँ कारण होते हुए भी कार्य की उत्पत्ति न हो। किन्तु मल्लिनाथ का कहना है कि मयों में सभी अवस्थाओं में देखने का असम्बन्ध होते हुए भो यहाँ सम्बन्ध बताया गया है, जतः यह असम्बन्धे-सम्बन्धातिशयोक्ति है / / 29 / न का निशि स्वप्नगतं ददर्श तं जगाद गोत्रस्खलिते च का न तम् / तदात्मताध्यातधवा रते च का चकार वा न स्वमनोमवोद्भवम् // 30 // . अन्वयः-का निशि स्वप्न-गतम् तम् न ददर्श ? का च गोत्र स्खलिते तं न जगाद ? का च वा रते तदा...धवा स्त्र-मनोभवोद्भवम् न चकार ? / / 30 / / १-तत्र /
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________________ नैषधीयचरिते . टीका-का-स्त्री निशि-रात्रौ स्वप्ने गतम् ( स० तत्पु० ) स्वप्न-प्राप्तम् न ददश = दृष्टवती मपितु सर्वाऽपि / का च गोत्रम् = नाम ( 'गोनं तु नाम्नि च' इत्यमरः ) तस्य स्खलितेव्यत्यये नाम भ्रान्ती इत्यर्थः, तम् = नलम् न जगाद कथयामास अर्थात् मर्तुः नाम्नि उच्चरितव्ये नलस्य नाम नोच्चारितवती ? अपि तु सर्वापि, का च वा रते-सुरते तदा०--सः-नलः प्रात्मास्वरूपं यस्य स तदात्मा (ब० वी० ) तस्य भावः तत्ता नलस्वरूपवत्तेत्यर्थः तया ध्यातः= 'चिन्तितः (तृ० तरपु० ) धवः पतिः ('पति-शाखि नरा धवाः' इत्यमरः) (कर्मधा० ) यया तथाभूता (ब० वी०) पति नक रूपेण ध्यात्वेत्यर्थः स्वस्य = आत्मन: मनोमवः= कामः तस्य उद्भवम् = उतिम् ( उमयत्र प० तत्पु० ) न चकार = कवतो रमणं न चक्र इत्यर्थः / अपि तु सर्वापि / / 30 / / __ व्याकरण-स्वप्नः=/स्वप् +जक ( भावे)। स्खलितम् =Vवल्+क्त (मावे ) / रतम्/रम् + (भावे ) / उद्भवः = उत् +Vs+अप ( भावे ) / हिन्दी--कौन स्त्री रात को स्वप्न में आये नल को नहीं देखती थो ? कौन स्त्री नाम की गलती में उस ( नल के नाम ) को नहीं बोल पड़ती थी ' उस ( नल ) के रूप में पति का ध्यान लगाये कौन स्त्री संभोग में अपना कामावेश व्यक्त नहीं करती थी 1 // 30 // टिप्पणी-नारायण के अनुसार यहाँ मुग्धा मध्यमा और प्रौढा-इन तीन प्रकार की नायिकाओं की ओर संकेत है। मुग्धा वेचारी प्रियतम का स्वप्न ही देखा करती है; मध्या के मुख में प्रतिक्षण उसका नाम चढ़ा रहता है और प्रौढा संमोग-रत रहा करती है। यहाँ तीनों वाक्यों में तीन काकु-वक्रोक्तियां है जिनकी परस्पर संसृष्टि है। 'भवो' 'भवम्' में छेकानुप्रास है। किन्तु मल्लिनाथ 'यहाँ भी स्वप्न में नल को देखने भादि का सभी स्त्रियों के साथ सम्बन्ध न होने पर भी सम्बन्ध बनाया गया है, इसलिए यह असम्बन्धे सम्बम्धातिशयोक्ति है' ऐसा कहते हैं // 30 // श्रियास्य योग्याहमिति स्वमीक्षितुं करे तमालोक्य सुरूपया धृतः / विहाय भैमीमपदर्पया कया न दर्पण: श्वासमलीमसः कृतः // 31 // अन्वयः-तम् आलोक्य 'श्रिया अहम् अस्य योग्या ( किम् ? )' इति स्वम् ईक्षितुम् करे धृतः दर्पण: भैमीम् विहाय कया सुरूपया अपदर्पया ( सत्या ) श्वास-मलीमसः न कृतः ? टीका--तम-नलम् भालोक्य(चित्रादौ) दृष्ट्रा श्रिया कान्स्या सौन्दर्येणेत्यर्थ; अहम् भस्य-नलस्य योग्या=सदृशी अस्मि किम् इति शेषः इति हेतोः स्वम् = प्रात्मानम् ईक्षितुम् - द्रष्टुम् करे = हस्ते धृतः- स्थापितः दर्पणः = आदर्शः भैमीम् =मीमपुत्रोम् दमयन्तीम् विहाय%3D विनेस्यर्थः कया सुसुष्ठु रूपं यस्याः तया ( प्रादि ब० वी० ) अप० = अपगतः दर्पः = सौन्दर्यामिमानो यस्याः तथामूतया (प्रादि ब० ब्रो०) सत्या श्वासैः=दीर्घ निःश्वासैः मलीमसः मलिनः (तु. तत्पु०) न कतः अपि तु सर्वया कृत इत्यर्थः / अयं भावः मम सौन्दर्य नलसौन्दर्य-सदृशम् अस्ति न वेति यावत् वा कापि स्त्री स्वमुखं दर्पणे पश्यति तावत् तदसदृशं तत् दृष्ट्वा विषादे दीर्घनि: श्वासान् मुश्चन्ती स्वसौन्दर्यामिमानमपि जहाति / / 31 // . म्याकरण-विहाय-यह ल्यबन्त-जैसा रूप विना के अर्थ में प्रयुक्त निपात है। इसके योग में
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________________ प्रथमः सर्गः 27 'ततोऽन्यत्रापि दृश्यते' से द्वितीया हो गई है। मलीमसः-मलम् अस्मिन् अस्तीति भतुवर्थ में 'ज्योत्स्ना-तमिस्रा० ( पा० 5 / 2 / 14 ) से निपातित किया जाता है। हिन्दी-उस ( नल ) को देखकर--'सौन्दर्य में मैं उस ( नल ) के योग्य हूँ ?' इस विचार से अपने (मुख ) को दर्पण पर देखने हेतु हाथ में रखा दर्पण भैमी (दमयन्ती) को छोड़कर कौन सुन्दरी, ( सौन्दर्य का ) अभिमान खोये, श्वासों द्वारा मैला नहीं कर देती थी ? // 31 // टिप्पणी-नल के साथ सौन्दर्य की प्रतियोगिता में सभी सुरूपाओं का अभिमान चकनाचूर करके कवि रूप में सर्वातिशायी दमयन्ती की अवतारणा कर रहा है। यहाँ काकु-वक्रोक्ति है, जिसकी ‘पया' 'पया', 'दर्प', 'दर्प' में यमक के साथ संसृष्टि है। यहाँ भी मल्लिनाथ के अनुसार सभी स्त्रियों का ऐसी क्रिया के साथ सम्बन्ध न होने पर भी सम्बन्ध प्रतिपादन से असम्बन्धे सम्बन्धातिशयोक्ति है। यथोह्यमानः खलु भोगमोजिना प्रसह्य वैरोचनिजस्य पत्तनम् / विदर्भजाया मदनस्तथा मनो नलावरुद्धं वयसैव वेशितः // 32 // अन्धयः-यथा खलु मोग-मोजिना वयसा उद्यमानः मदनः वैरोचनिजस्य अनलावरुद्धं पत्तनं प्रसह्य वेशितः, तथा ( भोगमोजिना वयसा एव ऊद्यमानः मदनः ) विदर्भजायाः (नलावरुद्धम् ) मनः (प्रसह्य वेशितः)॥ टीका-यथा-येन प्रकारेण खलु प्रसिद्धौ भोग-सर्प-शरीरं भुक्ते = मझयतीति तथोक्तेन ( उप० तत्पु०) (भोगः सुखे स्यादिभूतावहेश्च फण-काययोः' इत्यमरः ) धयसा=पक्षिणा / 'खग बाल्यादिनोवयः' इत्यमरः) गरुडेनेत्यर्थः, उद्यमानः = नीयमानः मदनः कामः प्रद्युम्न इति यावत् वैरो०-विरोचनस्य अपत्यं पुमान् वैरोचनिः=बलिः तस्मात् जायते इति तज्जः तत्पुत्र; बाणासुरस्येति यावत् अनलेन= अग्निना अवरुद्धम् = परिवेष्टितम् पत्तनम् नगरम् शोणितपुरमित्यर्थः प्रसह्य = बलात् वेशितः = प्रवेशितः, तथा भोगम् =सुखम् भुङ्क्ते मोजयतीति वा तथोक्तेन वयसा युवावस्थयेत्यर्थः एव उद्यमानः- तक्यमापः अनुमीयमान इति यावत् मदनः = कामविकारः नलेन अवरुद्धम् = आक्रान्तम् नलासक्तमित्यर्थः ( तृ० तत्पु०) मनः प्रसध-वेशितः चित्रादौ दृष्टम् लोक-मुखाच्च श्रुतं नलं मनसि निधाय दमयन्ती कामपीडिता बभूवेत्यर्थः / / 32 // __ व्याकरण-भोगमोजी -ताच्छील्य में णिन् है। उद्यमानः-Vबह+शानच् कर्मवाच्य / वैरोचनिः-विरोचनस्य अपत्यं पुमान् इति विरोच+इञ् ( अपत्याएं ) / वेशितः- विश+ पिच्+क्त (कर्मणि) / उह्यमानः ऊह +शानच् ( कर्मणि) / विदर्भजा= विदर्भ+/अन् + ड+टाप् / प्रसह्म=+/सह +ल्यप् , अव्यय-रूप में प्रयुक्त / हिन्दी-ज़िप्त तरह भोग-भोजी ( सोपों का शरीर खाने वाले ) वय ( पक्षो गरुड़) द्वारा हे नाया जाता हुआ मदन ( प्रद्युम्न ) अनल (भाग ) से अवरुर (घिरे ) बाणासुर के नगर (शोणितपुर ) में बलात् प्रविष्ट कराया गया था, उसी तरह मोग-मोजी (विषय-मुख-मोग कराने वाले ) वय ( यौवन ) द्वारा (और लोगों से ) जाना जाता हुआ मदन ( काम-विकार ) नल से अवरुद्ध (आसक ) दमयन्ती के मन में प्रविष्ट कराया गया / / 32 / /
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________________ 28 नैषधीयचरिते टिप्पणी-यहाँ कवि ने श्लेषानुपाणित अपस्तुत-विधान कर रखा है। 'नल' और 'अनल' तथा 'यथा उद्यमानः' 'यथा ऊह्यमान्ः' में सभंग श्लेष है, जहाँ शब्दों का भंग अर्थात् तोड़-मरोड़ करना पड़ता है जब कि अन्यत्र अभंग श्लेष है। इसलिए यह श्लिष्टोपमा है। माव यह है चित्र आदि में देखकर एवं चारणों के मुख से नल के विषय में सुनकर दमयन्ती नल पर आसक्त हो उठी और उसके युवा मन में कामविकार भड़क उठा। मदन-विष्णुपुराण के अनुसार महादेव द्वारा कामदेव के भस्म कर दिए जाने पर जब उसकी पत्नी रति उनके आगे बहुत रोई-पोटो, तो उन्होंने आशासन दे दिया कि उसका पति फिर उत्पन्न हो जायेगा / तदनुसार कामदेव फिर भगवान् कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में अवतीर्ण हुआ। उसका पुत्र अनिरुद्ध हुआ, जो अत्यन्त सुन्दर था। एक दिन बाणासुर को पुत्री उषा स्वप्न में एक सुन्दर युवक देख बैठी, और तत्क्षण उस पर मोहित हों उसके हेतु तड़पने लगी। उसकी सखी चित्र. लेखा ने जगत् के सारे सुन्दर युवकों के चित्र उसके आगे रख दिए कि बता तेरा मन-हर वह कौनसा युवक है / उषा ने उसे बता दिया। वह अनिरुद्ध ही था। फिर चित्रलेखा आसुरी माया रचकर उसी रात द्वारिका में सोये पड़े अनिरुद्ध को उड़ा ले गई और उषा से मिला दिया। बाणासुर को इस बात का पता चल गया। उसने तत्काल शत्रु-पुत्र को बंदी बना दिया और नगर के चारों ओर आग लगा दी जिससे वह भाग न सके अथवा बाहर से आकर कोई उसे छुड़ा न ले जा सके। इधर नारद से श्रीकृष्ण को इस बात का पता चल गया। वे अपने भाई बलराम और पुत्र प्रद्यम्न को साथ लिये, गरुड़ पर सवार होकर शोणितपुर ना पहुँचे और युद्ध में बाणासुर को मारकर उषा सहित अपने पौत्र अनिरुद्ध को घर ले आये / / 32 / / नृपेऽनुरूपे निजरूपसंपदा दिदेश तस्मिन् बहुशः श्रुतिं गते / विशिष्य सा भीमनरेन्द्रनन्दना मनोमवाशकवशंवदं मनः // 33 // अन्वयः-सा भीम-नरेन्द्र-नन्दना बहुश: श्रुति गते निज-रूप-सम्पदाम् अनुरूपे तस्मिन् नृप मनोभवाशैकवशंवदम् मनः विशिष्य दिदेश / टीका-सा भीमश्चासौ नरेन्द्रः (कर्मधा०) तस्य नन्दना पुत्री (प०तत्पु०) दमयन्तीत्यर्थ. बहुशः = बहुवारम् अति =श्रवणं गते प्राप्ते = श्रवणेन्द्रिय-गोचरोभूते इत्यर्थः निजम् = स्वकीयम् यत् रूपम = सौन्दर्यम् (कर्मधा०) तस्य सम्पदाम् अतिशयानाम् ( 10 तत्पु० ) अनुरूपे = योग्ये तास्मन् नृपे नले इत्यर्थः मनो०-मनोमवः = कामः तस्या प्राज्ञायाः=प्रादेशस्य (प० तत्पु० ) एकम् = मुख्य वशं वदं = वशवति ( कर्मधा० ) मन:= स्वान्तम् विशिष्य राजान्तरेभ्य आकृष्येत्यर्थः दिदेश, निदधौ दमयन्त्याः कामाधीनं मनो नले श्रासक्तमभवदित्यर्थः // 33 // व्याकरण-नन्दना नन्दयतीति /नन्द +ल्यु+टाप। बहुशः बहु+शस् / श्रुतिः श्रय अनयेति श्रु+क्तिन् ( करणे ) / अनुरूपम् रूपम् अनु इति / मनोभवः भवतीति मव इति भू+अच् ( कर्तरि ) मनसिभव इति / वशंवदः-वश+Vवद् +खच् + मुम् / विशिल्य विका शिष् + ल्यप् /
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________________ प्रथमः सर्गः 29 हिन्दी-वह भीम राजा की पुत्री ( दमयन्ती ) बार-बार सुनने में आये, और अपनी रूपसम्पत्ति के योग्य उस नृप ( नल ) में कामदेव की आशा के अधीन बना हुमा ( अपना). मन विशेष. रूप से लगा बैठी / / 33 // पहले स्त्री का प्रेम बताना होता है, उसके पीछे पुरुष का। इसलिए दमयन्तो का नलविषयक अनुराग कव ने पहले बताया है। प्रेम की भी क्रमशः दश दशायें कही गई हैं जिनमें सर्व प्रथम है 'चक्षर गः' अर्थात् 'मोखें लड़ना।' यह उपलक्षणमात्र है, क्योंकि इसके भीतर प्रेमी के गुपनवणादि भी आ जाते हैं / यहाँ नल 'बहुशः अतिगत:' है। दूसरी अवस्था मन के लगाव-मासक्तिको है, वह 'मनः दिदेश' में बता दी गई है। यह अवप्पानुराग आगे के चार श्लोकों में चल रहा है / अलंकार यहाँ छेकानुप्रास और वृत्त्यनुप्रास है / / 33 / / उपासनामेत्य पितुः स्म रज्यते दिने दिने सावसरेषु वन्दिनाम् / पठत्सु तेषु प्रति भूपतीनलं विनिद्ररोमाजनि शृण्वतो ननम् // 3 // अन्वयः-सा दिने-दिने पितुः उपासनाम् एत्य वन्दिनाम् अवसरेषुरज्यते स्म; वेषु भूपतोन् प्रति पठत्सु ( सत्सु ) नलं शृण्वती ( सा ) अलं विनिद्र-रोमा अजनि। टोका-सा=दमयन्ती दिने-दिने - प्रतिदिनम् वीप्सायां द्विस्वम् पितुः-अनकस्य उपासना सेवाम् एत्य = आगत्य बन्दिनाम् - स्तुति-पाठकानाम् अवसरेषु = सरयेषु रज्यते स्म प्रसीदति स्म बन्दिकृतस्तुतिषु एव नलगुणश्रवणसंमवात; तेषु बन्दिषु भूपतोन् = अन्यनृपान् प्रति उद्दिश्य पठसु= स्तुतिपाठ 'कुर्वत्सु सत्सु नलं भूपवती सती मल्लम् =अत्यधिक विनित रोमा विगता निद्रा येषां तथाभूतानि ( प्रादि 20 बी० ) रोमाणि शरीरकामानि ( कर्मधा० ) बस्याः सा (ब० बी०) भनि-जाता, बन्दिमुखात् नलगुणाकर्णनात् सा रोमानिताऽभूदिति भावः // 34 // व्याकरण-उपासना-उप+Vास्+युच् / दिने दिने इति वीप्तायां दित्वम् / एत्यमा+Vs+ल्यप् / वन्दिन् = वन्दते इति। व-द्+इन् / पठसुप +शत ( सत्सप्तमी) एवती/श्रु+शत+ो / मजनि-Vअन्+लुङ। हिन्दी-वह ( दमयन्ती) प्रतिदिन पिता की सेवा में आकर स्तुतिपाठकों के समयों से लगाव रखा करती; और ) राजाओं के विषय में उनके स्तुति-पाठ करने पर नल के सम्बन्ध में सुनती हुई अत्यधिक रोमान्चित हो उठती // 34 // टिप्पणी-इस श्लोक में नायिका का श्रवण-काल बताया गया है जैसे रुट ने मी कहा है•देशे का मङ्गयो साधु तदाकर्षनं च स्यात्'। यहाँ भवण में औरमुक्य और श्रवणानन्तर रोमाञ्च नामका सात्विक माव प्रतिपादित होने से माव-शवकता अलंकार कह सकते है। तीसरे-चौथे पादों के नलं, नलं में यमक है // 34 // कथाप्रसजेषु मिथः सखीमुखात् तृणेऽपि तन्म्या नलनामनि श्रुते / द्रुतं विभूयान्यदभूयतानया मुदा वदाकर्णनसजकर्णया // 35 //
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________________ नैषधीयचरिते अन्वयः-मिथः कया प्रसङ्गेषु सखी-मुखात् नल-नामनि तृणे अपि अते ( सति ) अनया तन्व्या अन्यत् द्रुतम् विधूय मुदा तदाकर्णन-सज्जकर्षया अभूयत / टीका-मिथः = परस्परम् कथायाः वार्तालापस्य प्रसङ्गेषु = अवसरेपु सखीनाम् = आलीनाम् मुखात् = वक्त्रात् ( ष. तत्पु० ) 'नल:' नाम यस्य तथाभूते ( ब० वी० ) अर्थात् नलाख्ये तृणेघासे अपि श्रुते=आकर्षिते (प्रियतमे) सति अनया तन्व्या=कृशाझ्या दमयन्त्या अन्यत् = कयान्तरं कार्यान्तरं वा द्रुतम् = झटिति विधूय = अपाकृत्य परित्यज्येति यावत् एताः सख्यः मम प्रियतमस्य राशो नलस्य सम्बन्धे एव वार्तालापं कुर्वन्तीति बुद्धयेति भावः, मुदा हप तस्यनलनाम्नः प्राकर्णनेश्रवणे ( 10 तत्पु० ) सज्जौ = लग्नौ ( स० तत्पु०) कणों =श्रोत्रे ( कर्मधा० ) यस्यास्तथाभूतया (ब० वी०) भभूयत - भूतम् / सा तच्छ्रवण-संलग्ना जावेत्यर्थः // 35 // व्याकरण-प्रसङ्ग-+ सञ्ज +घञ् भावे / विधूय-वि+vधूञ् + ल्यप् / भाकणनम्-आ+/कण्+ल्युट भावे / सज्जः-सज्जतीति सस् +अच कर्तरि / अभूयत-/ भू+लङ् ( माववाच्य ) / हिन्दी-परस्पर बातचीत के प्रसंगों में सखियों के मुख से तृण के विषय में भी 'नल' नाम सुन लेने पर वह कृशाङ्गी (दमयन्ती ) झट अन्य ( काम अथवा बात ) छोड़कर हर्ष में उसे सुनने हेतु कान खड़े किये रहती थी॥ 35 // टिप्पणी-नल नाम का एक घास भी होता है जिसे नरकुल या नरसल भी कहते हैं / दमयन्ती का नल राजा पर इतना अधिक अनुराग हो उठा कि यदि उसकी सखियाँ घास अर्थ में भी नल शब्द का प्रयोग करती; ती वह झट यह समझ बैठती कि उसके प्रियतम के सम्बन्ध में बात ले रही हैं। यह औत्सुक्य माव कहलाता है, इसके साथ ही हर्ष- भाव ही है, इसलिए भाव-संमिश्रण होने से यहाँ भाव-शबलता अलंकार है। 'तृणेऽपि' में अपि शब्द से कैमुतिक-न्याय से 'और बातों से तो कहना ही क्या ?' इस अर्थान्तर की प्रतीति होने से अर्थापत्ति अलंकार भी है। 'कर्ष', 'कर्ण' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास शब्दालंकार है // 35 // स्मरात्परासोरनिमेषलोचनाद् बिभेमि तद्भिामुदाहरेति सा। जनेन यनः स्तुवता तदास्पदे निदर्शनं नैषधमभ्यषेचयत् // 36 // अन्वयः--"परासोः अनिमेष-लोचनात् स्मरात् ( अहम् ) विमेमि, तत् भिन्नम् उदाहर इति सा यूनः स्तुवता जनेन तदास्पदे नैषधम् निदर्शनम् अभ्यषेचयत् / / टीका--परा=परागता प्रसवः प्राणा यस्य तथाभूतात् (प्रादि ब० वी०) अर्थात् मृतात् अत एव न निमेषः= निमीलनम् ययोः तथोक्ते (ब० वी०) लोचने=नयने ( कर्मधा० ) यस्य तस्मात् (ब० वी० ) स्मरात् = कामात् बिभेमि = अहं भीता मवामि, तत्=तस्मात् कारणात् मित्रम् अन्यम् निदर्शनम् = दृष्टान्तम् उदाहर = कथय इति एवं प्रकारेण सा दमयन्ती यूनः= युवकान् स्तुवता= प्रशंसता जनेन सखीभिः तस्य = स्मरस्य प्रास्पदे स्थाने (प० तत्पु०) नैषधम् निषधानां राजानं नलमित्यर्थः अभ्यषेचयत् -- स्थापयामासेत्यर्थः / अयं भावः-'अमुकोऽमुको युवा मदनसदृशः' इति समुदाहरन्तीः सखीः निषिध्य 'नल-सदृशं' इति सा तामिः प्रत्यपीपदत् // 36 /
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________________ प्रथमः सर्गः ग्याकरण-निमेष:-नि+/मिष् +घञ् मावे / स्तुवता--/स्तु+शतृ+तृ०। स्मरात् यहाँ मीत्यर्थ में पञ्चमी है। नैषधम्-यहाँ मल्लिनाथ 'निषधानां राजानं नलं 'जनपदशम्हात् क्षत्रियादञ् (4 / 1 / 168)" इस तरह जनपदवाचक निषध शब्द से अञ् प्रत्यय लाकर सिद्ध कर रहे हैं, किन्तु यह गलत है, क्योंकि निषध शब्द के आदि में नकार होने से अञ् का 'कुरु-नादिभ्यो प्यः' ( 4 / 1 / 172 ) यह सूत्र बाधकर ण्य कर देता है जिससे नैषध्यः' बनेगा। इसीलिए भट्टोजी दीक्षित ने ‘स नैषधस्यार्थपतेः' इत्यादौ तु शैषिकोऽण' समाधान किया है। इस तरह निषधानाम् अयम् इति निषध+अण् से ही व्युत्पत्ति ठीक है। निषध-देशवाप्ती सामान्य शब्द प्रकरणवश अथवा स्वस्वामिभाव सम्बन्ध से राजा नल का बोधक हो जाता है। निदर्शनम्-निदर्श्यते अनेनेति नि+ Vश्+णि+ल्युट् ( करणे)। अभ्यषेचयत्-अभि+Viसच्+णिच् + लट् , उपप्तर्ग आदि में होने से 'स' का 'ष'। हिन्दी--"मरे हुए ( अतएव ) बिना झपके (खुली) आँखों वाले कामदेव से मैं डरती हूँ, इस कारण दूसरा उदाहरण रखो" इस तरह वह ( दमयन्ती ) युवकों की प्रशंसा करती हुई सखियों दारा उस ( कामदेव ) के स्थान पर नल को उदाहरण रूप में रखवाती थी।। 36 / / टिप्पणी-परासोः-कामदेव जगत में सौन्दर्य का सर्वोच्च प्रतिमान माना जाता है। यही कारण है कि सखियों जिस वि.सी सुन्दर युवक की तुलना करती, तो उपमान कामदेव को बनाती थीं। दमयन्ती को यह अच्छा नहीं लगता, क्योंकि कामदेव को महादेव ने फूक डाला था अतः मरे हुए तथा खुली पड़ी आँखों वाले से वह अब उरतो थी। इसलिए सर्वोच्च प्रतिमान वह अपने प्रियतम नल को हो बनवाती थी। 'अभ्यषेचयत् शब्द से यह भी ध्वनित होता है कि जब सौन्दर्यराज्य का एकच्छत्र सम्राट-कामदेव-मर गया, तो उसके खाली पड़े स्थान में दूसरा सम्राट् गद्दी पर बैठेगा ही और वह नया सौन्दर्य-सम्राट् बना नल / विद्याधर के अनुसार 'अत्र गुणसंकीर्तनलक्षणा स्मरदशोक्ता' अर्थात् प्रियतम के गुणवर्णन नाम की कामदशा बताई गई है // 36 // नलस्य पृष्टा निषधागता गुणान् मिषेण दूतद्विजवन्दिचारणाः / निपीय तत्कीर्तिकथामथानया चिराय तस्थे विमनायमानया // 37 // अन्वयः-निषधागताः दूत-द्विज-बन्दि-चारणाः मिषेण नलस्य गुणान् पृष्टाः अथ तत्-कोतिकथाम् निपीय प्रनया चिराय विमनायमानया तस्थे / टीका-निषधेभ्यः = निषधदेशात् भागताः=आयाताः (पं० तत्पु०) दूताः= चाराश्चद्विजाः= ब्राह्मणाश्च वन्दिनः स्तुति -पाठकाश्च चारखाः = देशभ्रमणजीविनश्चेति ( द्वन्द्व ) मिषेख%=(केनापि ) व्याजेन नलस्य गुणान् =सौ दर्यादीन् पृष्टाः=अनुयुक्ता अर्थात् भवतां देशे को राना के च तस्य गुणा इति व्याजेन दमयन्त्या नलविषये पृष्टा अथ प्रश्नानन्तरम् तस्य नलस्य या कीर्तिः = यशः तस्य कथाम् =वर्णनमित्यर्थः (10 तत्पु०) निपीय त्वेत्यर्थः अनया = दमयन्त्या चिराय चिरकालं =विगतं मनो यस्याः सा विमनाः (पादि ब० ब्रो०) तदत् आचरन्त्या = विमनीमवन्त्या व्याकुलचित्तयेति यावत् तस्ये =स्थितम् / एतादृशो गुणी राजा कथं मया लम्बव्य इति तद्-विमनस्कतायाः कारणम् / / 37 //
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________________ नैषधीयचरिते . व्याकरण-गुणान् पृष्टाः- पच्छ धातु द्विकर्मक है। क्त प्रत्यय गौण कर्म में होने से * चारपाः प्रथमान्त हो गया और गुणान् द्वितीयान्त ही रहा। निपीय-नि+/पोङ् + ल्यप् , विशेष के लिए इसी सर्ग का प्रथम श्लोक देखिये। विमनायमानया-विमना इव आचरतीति विमना+क्यङ्, स लोप, शानच् +टाप् ( नामधातु)। हिन्दी-निषध देश से आये दूत, ब्राह्मण, स्तुतिपाठक और भाट ( किसी) बहाने नल के गुषों के सम्बन्ध में ( दमयन्तो द्वारा ) पूछे जाते थे; बाद को उस ( नल ) के यश की कया सुनकर वह देर तक अनमनी-सी खड़ी रह जाती थी / / 37 // टिप्पणी-विमनाय०-दमयन्ती नल के गुणों को सुनकर सोच में पड़ जाती थी कि मला मैं उसे प्राप्त भी कर सकूँगी। इस तरह यहाँ चिन्ता नाम का व्यभिचारी माव उदय हो रहा, अतः भावोदयालंकार है। तीसरे, चौथे चरण में 'नया' 'नया' में यमक है और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास / ___ उक्त पाँच श्लोकों में कवि ने दमयन्तीगत नल-विषयक श्रवणानुराग के चित्र खींचे हैं। अब भागे चित्र और स्वप्न आदि में दर्शनानुराग का चित्र खींचना है / / 37 // . प्रिय प्रियां च त्रिजगज्जयश्रियौ लिखाधिलोलागृहमित्ति कावपि / इति स्म सा कारुवरेण लेखितं नलस्य च स्वस्य च सख्यमीक्षते // 38 // अन्वयः-"(हे कारुवर !) अधिलीलागृहभित्ति त्रिनगज्जयिश्रियो को अपि प्रियम् प्रियाम् च लिख" इति सा कावरेण लेखितम् नलस्य स्वस्य च सख्यम् ईक्षते स्म / टोका-लीलार्थ गृहम् लीलागृहम् ( च० तत्पु० ) = क्रीडागृहम् तस्य या भित्ति. = कुड्यम् तस्याम् इति अधिलीला० ( अव्ययी भावः ) लीलागृहभित्ती इत्यथः, त्रयाणां जगतां समाहार इति त्रिजगत् ( समाहार-द्विगुः ) तत् जति = प्रतिशेते इति जयिनी (उपद तत्पु० ) श्रीः शोमा ( कर्मधा० ) ययोः तथाभूतयोः (ब० वी०) को अपि = अनिर्दिष्टनामानौ प्रियम् = नायकम् प्रियाम् = नायिकाश्च लिख = चित्रय इति एवं सा दमयन्ती कारुषु शिल्पिषु वरःश्रेष्ठः निपुष इत यावत् तेन ( स० तत्पु०) लेखितं नित्रगतं कारित नलस्य स्वस्था- आत्मनश्च सख्यम् रूप-साम्यमित्यर्थः ईक्षते स्म = पश्यति स्म अर्थात् रूपे यथा नठा मम समः तथाऽहमपि तेन सभा / / 3 / / म्याकरण- भधिलीला०-यहाँ सप्तम्यर्थ में 'अधि' के साथ अव्ययीभाव समास है अर्थात् (मित्ति पर ) लेखितम्/लेख + पिच्+क्त कर्मणि लिखाया अर्थात् चित्रित कराया हुआ। सख्यम् सखि+ध्यञ् मावे। हिन्दी-("ओ कुशल कलाकार ! ) क्रीडा-गृह की दीवार पर तीनों लोकों को परास्त कर देने वाले सौन्दर्य को रखे हुए किन्हीं दो प्रिय और प्रेयसी का चित्र बना दो' इस तरह (आशा देकर ) वह चतुर कलाकार द्वारा चित्रित करवाया अपना और नल का साम्य देखती थी / / 38 // टिपणी-इस श्लोक में दर्शनानुराग आरम्म करता हुआ कवि पहले प्रतिकृति अर्थात् चित्र में मियतमा को प्रियतम का दर्शन करवा रहा है। रूप-साम्य देखकर दमयन्ती को निश्चय हो जाता है कि वह उसके सर्वथा योग्य है / 'सख्यम्' में सखि शम्द यद्यपि मित्र का काचक है, तथापि साहित्य
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________________ प्रथमः सर्गः में अपने सादृश्य-रूप लाक्षणिक अर्थ में उसका नाम प्रयोग मिलता है। यहां सम का सम के साथ योग बताया गया है, अतः समालंकार है। मनोरथेन स्वपतीकृतं नलं निशि क्व सा न स्वपती स्म पश्यति / अदृष्टमप्यर्थमदृष्टवैमवात् करोति सुप्तिर्जनदर्शनातिथिम् // 39 // भन्वयः--स्वपती सा मनोरथेन स्वपतीकृतम् नलम् क्व निशि न पश्यति स्म ? सुप्तिः अदृष्टम् अपि अर्थम् अदृष्ट-वैभवात् जन-दर्शनातिथिम् करोति / टीका-स्वपती शयाना सा दमयन्ती मनोरथेन इच्छया स्वस्याः पतिः स्वपतिः (10 तत्पु०) अस्वपतिः स्वपतिः सम्पद्यमानः कृत इति स्वपतीकृतः तम् स्व-मर्तृत्वेन स्वीकृतमित्यर्थः नलम् क्व कस्यां निशि रात्रौं न पश्यति स्म अवलोकयति स्म अपितु सर्वस्यामपि रात्रौ पश्यति स्मेति काकुः। सुप्तिः स्वप्नः अदृष्टम् पूर्व कदापि नानुभूतमित्यर्थः अर्थ वस्तु अदृष्टस्य पूर्वजन्मीय-कर्मणः धर्मा धर्म-रूपस्य वैभवात् सामर्थ्यात् जनस्य लोकस्य दर्शनस्य दृष्टः अतिथिम गोचरं करोति, दर्शयतीत्यर्थः पूर्वजन्मसंस्कारैः अदृष्टोऽप्यर्थः स्वप्ने दृश्यते इति मावः / / 39 // व्याकरण-स्वपती- स्वप् +शत+डोप / स्वपतीकृतम् अभूत-तद्भाव में स्वपति+ चि+ +क्त कर्मणि / सुप्तिः- स्वप्+क्तिन् मावे / हिन्दी सोती हुई वह ( दमयन्ती ) इच्छा से अपना पति बनाये हुए नल को कौन-सो रात में नहीं देखा करती थी ? स्वप्न अदृष्ट अर्थात् पूर्व नन्म के कर्मों के प्रमाव से न देखी हुई भी वस्तु को लोगों के दृष्टि-गोचर कर देता है // 36 / / टिप्पणी--दर्शनानुराग में नायक-दर्शन के "साक्षात् चित्रे तथा स्वप्ने तस्य स्याद् दर्शनं विधा" ये तीन प्रकार बताये गये हैं। इनमें से पहला अर्थात् साक्षाद् दर्शन तो नल का दमयन्ती को कोई नहीं हुआ है, केवल चित्र और स्वप्न-दर्शन शेष है। चित्र दर्शन पिछले लोक में बताकर कवि इस श्लोक में स्वप्न दर्शन बता रहा है / किन्तु स्वप्न-दर्शन में 'यद् दृष्टं दृश्यते स्वप्नेऽननुभूतं कदापि न' इस नियम के अनुसार आपत्ति यह आ रही है कि जब दमयन्ती ने नल को साक्षात् देखा ही नहीं, तो स्वप्न में कैसे देख सकती है, क्योंकि अनुभूत पदार्थ ही स्वप्न में आता है, अननुभूत नहीं। इसका उत्तर कवि के पास सिवा पूर्व जन्म के संस्कार के और कोई नहीं है / स्वप्न की तरह जीवन की अन्य मी कितनी ही ऐसी गुत्थियाँ हैं, जो पूर्व जन्म माने विना हल ही नहीं हो सकतीं। दर्शनशाखों में इनका विस्तृत विवेचन मिलता है / यहाँ पूर्वार्ध-गत वाक्यार्थ का उत्तरार्धगत वाक्य से समयंन किया गया है, अतः अर्थान्तर-न्यास अलंकार है। पूर्वार्ध के 'पत्ती', 'पत्ती', और उत्तरार्ध के 'दृष्ट', 'दृष्ट में यमक है // 39 // निमीलितादक्षियुगाच निद्रया हृदोऽपि बाह्येन्द्रियमौनमुद्रितात् / . अदर्शि संगोप्य कदाप्यवीक्षितो रहस्यमस्याः स महन्महीपतिः // 40 //
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________________ 34 नैषधीयचरिते अन्धयः-निद्रया निमीलितात् पक्षियुगात् बाह्येन्द्रिय-मौन-मुद्रितात् हृदः अपि च सङ्गोप्य कदा अपि अवीक्षितः महत् रहस्यम् सः महीपतिः अस्याः पदशिं / टीका-निद्रया निमीलितात् मुद्रितात् निजव्यापार-विरतादित्यर्थः अषणोः युगम् दयम् / इत्यक्षि-युगम् (10 तत्पु०) तस्मात् बाझे०-बाह्यानि बहिर्भवानि इन्द्रियाणि चक्षुरादानि अथवा बान्द्रियम् अत्र निमीलितं चक्षुरेव ग्राचं दर्शने इन्द्रियान्तराणामसम्बन्धात् (कर्मधा० ) तस्य मौनम् वृत्त्यमावः स्वविषयग्रहणाभावः इति यावत् ( 10 तत्पु० ) तेन मुद्रितात् पिहितात् ( तृ० तत्पु०) हृदः मनसः अपि सङ्गोप्य गोपयित्वा अर्थात् अक्षियुग-मनसोरपि द्रष्टुम् अदत्वा कदाऽपि अधो. क्षितः न अवलोकितः महत रहस्यम् अतिगोपनीयम् वस्तु स महीपतिः राजा नलः अस्या दमयन्त्या भदर्शिदर्शितः / अस्या इति सम्बन्ध-विवक्षायां षष्ठी / / 40 / / - व्याकरण-निनोलितात् नि+/मोल्+क्त कर्मणि / मौनम् मुने व इति मुनि + अण् / मुद्रितात् मुद्रा मुद्रायुक्तमिति यावत् ( 'सुखादयो वृत्तिविषये तदति वर्तन्ते' ) करोतीति मुद्रयति (नामधातु ) बनाकर निष्ठा में क्त / सङ्गोप्य-सम् +/गुप् + ल्यप् / प्रदर्शि-दृश् + पिच्+ लुङ् प्र० पु०। हिन्दी-बन्द हुई पड़ी दोनों आँखों और बाहरी इन्द्रियों के मौन हो जाने से बन्द हुए पड़े मन से भी छिपाकर निद्रा ने उस ( दमयन्ती ) को पहले कभी देखने में न आया हुआ वह ( नल) / राजा-रूप महारहस्य दिखा दिया / / 4 / / टिप्पणी-इस श्लोक में 'निद्रया' शब्द संशयास्पद है। इसका यदि स्वप्न अर्थ ले, तो यह पुनरुक्ति-सी हो जाती है, क्योंकि पूर्व श्लोक में स्वप्न-दर्शन बता ही रखा है। दूसरी आपत्ति यह है कि स्वप्न में मन काम करता ही रहता है, इसलिए मुद्रितात् हृदोऽपि' संगोप्य वाली बात नहीं बनती है। इसका समाधान भल्लिनाथ ने यह दिया है-'अदर्शन चात्र मन्सो बायेन्द्रियमौनमुद्रितादिति विशेषण सामादिन्द्रियार्थसंप्रयोगजन्यज्ञानविरह एवेति शायते, स्वप्नशानं तु मनोजन्यमेव' अर्थात् मन के 'बाह्य०' विशेषण के आधार पर यहाँ उस मन से भभिप्राय है, जो अर्थ से सन्निकर्ष ( 'संप्रयोग' ) रखने वाली बाह्येन्द्रियों से सन्निकृष्ट होकर देखा करता है। प्रकृत में चक्षु का नल रूप अर्थ से सनिकर्ष ही नहीं; तो मन का भी चक्षु से सन्निकर्ष नहीं; फिर वह मन देखे तो कैसे देखे ? हाँ, इन्द्रियार्थ-सन्निकर्ष-निरपेक्ष स्वतन्त्र मन स्वप्न में देखा ही करता है और उसने नल को दिखा ही दिया है। किन्तु यह समाधान कुछ अँचता नहीं। यही कारण है कि नारायण और नरहरि यहाँ निद्रा से सुषुप्ति लेते हैं। दर्शनशास्त्रों में जीवन को तीन अवस्थायें-जाग्रत् , स्वप्न और सुषुप्ति-मानी गई हैं। जायदवस्था में बाह्यन्द्रियों के साथ मन काम करता है, स्वप्नावस्था में बाह्यद्रियाँ 'मुद्रित' हो जाती हैं और केवल मन हो काम करता है, सुषुप्त्यवस्था गहरी नींद (Sound sleep) की होती है। जब स्वप्न भी नहीं होते हैं। जैसे माण्डूक्य उपनिषद् में लिखा है-'यत्र सुप्तो न कश्चन कामं कामयते, न कश्चन स्वप्नं पश्यति तत् सुषुप्तम्'। इसका कारण है सुषुप्ति में मन का पुरीतति नाम की नाड़ी में चला जाना। इसलिये
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________________ प्रथमः सर्गः कोई शान नहीं होता। यहाँ भो प्रश्न उठता है कि जब सुषुप्ति में शान ही नहीं, तो सुषुप्ति ने दम यन्ती को नल कैसे दिखा दिया ? इसका उत्तर हमारे पास यही है कि जब हम नींद से जाम का हैं, तो 'सुखमहम् अस्वाप्सम्, न किञ्चिदवेदिषम्' अर्थात् 'खूप आनन्द से सोया, कुछ भी पता न चला यह प्रतीति सभी को हुआ करती है। इसका 'न किञ्चिदवेदिषम्' वाला अंश सुषुप्ति में बाह्य पर और स्वप्न-जगत् के ज्ञान का प्रत्याख्यान कर रहा है किन्तु 'सुखमहम् अस्वाप्सम्' इस अंश में सपुति में अहं पद वाच्य आत्मा और उसके सुख-आनन्द-स्वरूप का शान सर्वथा अप्रत्याख्येव है। शब्दान्तर में, सुषुप्स्यवस्था में आनन्द स्वरूप आत्मा का मान बना रहता है, देखिए माण्डूक्म'सुषुप्तस्थान एकीभूतः प्रशाधन एवानन्दमयो ह्यानन्दभुक् चेतोमुख, प्राशः'। इसे हम अस्थायी मुखवस्था या क्षणिक मुक्ति कह सकते हैं। प्रकृत में दमयन्तो का नल के प्रति अनुराग इतनी ऊँनो स्थिति में पहुँच चुका था कि जहाँ उसकी और नल की आत्मा परस्पर घुल-मिलकर एकीभूत हो बैठो हो। अर्धनारीश्वर की तरह प्रिय और प्रेयसी का यह ऐकात्म्यमाव अथवा अद्वैत ही सच्चे प्रेम को कसोटये है। दमयन्तो ने सुषुप्ति में नल को स्त्रात्म-रूप में देखा। इस तरह सुषुप्ति में दमयन्ती द्वारा नलदर्शन में कोई अनुपपत्ति नहीं आती। इसीलिए नरहरि का यह कहना ठीक है-'अत्र नलस्य स्वात्ममावेन प्रतिमासनात् न सुषुप्त्यवस्थात्वहानिः। पृथक्त्वेन प्रतिभासे तु स्वप्नत्वमेव स्यान्न सुषुप्तित्वमिति। या श्लोक में नल पर महत्-रहस्यत्वारोप होने से रूपकालंकार है और 'महन्महीपत्तिः' में छेकानुप्रास / 'कदाप्यवीक्षितः' में प्रतिषेध की प्रधानता होने से नञ् को पृथक् रखकर कदापिस वीक्षित:' इस रूप में रखना चाहिए था, किन्तु यहाँ समास कर देने से उसकी विधेयता चली गई है, इसलिए विधेयाविमर्श दोष बन रहा है // 40 // अहो अहोमिर्महिमा हिमागमेऽप्यमिप्रपेदे प्रति तां स्मरार्दिताम् / तपर्तुपूर्तावपि मेदसां मरा विमावरीमिर्बिमरावभूविरे // 41 // अन्वयः-अहोभिः हिमागमे अपि स्मरादिताम् ताम प्रति महिमा अमिप्रपेदे; विमावरोशित ( च ) तपर्तुपूतौ अपि मेदसा भरा बिभरांबमूविरे ( इति ) अहो ! टीका-अहोमिः दिवसैः हिमस्य भागमः आगमनम् तस्मिन् ( 10 तत्पु० ) अर्थात् हेमन्तत अपि स्मरेण मदनेन अर्दिताम् पीडिताम् ताम् दमयन्तीम् प्रति लक्ष्यीकृत्य महिमा दैर्घ्यम मि प्रपेदे प्राप्तः, विभावरीभिः रात्रिभिः ( च ) तप: ग्रीष्मः चासौ ऋतुः ( कर्मधा० ) तस्य पूट. पूर्णतायाम् ( 10 तत्पु०) ग्रीष्मस्य पूर्णावस्थायामित्यर्थः अपि मेदसाम्-मज्जानाम् भराः राशकः बिमरांबभूविरे धृताः, रात्रयो दीव भूता इत्यर्थः इस्यहो आश्चर्यम् / / 41 // ____ ग्याकरण-महिमा महतो भाव इति महत्+इमनिच् / ध्यान रहे कि इमनिच् प्रत्यय से से महिमन् , लघिमन् , गरिमन् , ढिमन् आदि शब्द पुल्लिग रहते हैं। आगमे आ+/मम् + घा भावे, वृद्धयमाव / अर्दिताम् / अर्द+क्त+टाप् / अभिप्रपेदे लिट् ++ पद्+अनि पुतौं- पूर+क्तित् भावे। बिभरांबभूविरे-/भृ + आम् भू+लिट कर्मणि-('मोझे भृ०' ( 6 / 11192 ) से आम् द्वित्व ) /
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________________ नैषधीयचरिते हिन्दी-अाश्चर्य की बात है कि हेमन्त ऋतु में भी काम-पीडित उस ( दमयन्ती ) के लिए दिन लम्बाई अपना बैठे (और) भर-पूर ग्रीष्म ऋतु में भी रात्रियों ने ढेरों चर्बी धारण कर ली / / 4 / / __टिप्पणी-मेदसांभराः-रात्रि अमूर्त पदार्थ है, उस पर चों चढ़ाने का सम्बन्ध बाधित है, त्यतः यहाँ लक्षणा करनी पड़ती है अर्थात् जिस तरह चर्बी चढ़ने से किसी व्यक्ति का शरीर फूलकर बढ़ जाया करता है, उसी तरह रात्रि भी बहुत बढ़ गई। यह सादृश्य-सम्बन्ध वाली लक्षणा है। कामवेदना के कारण विरही कामी-कामिनियों के शीतकाल के दिन छोटे हुए भी लम्बे हो जाते हैं और ग्रीष्म काल की छोटी राते भी लंबी बन जाती है-यह स्वाभाविक है। यहाँ हिमागम-रूप कारण के होते हुए भी दिन का लघुत्व रूप कार्य और ग्रीष्य-रूप कारण होते हुए भी रात को लघुता रूप कार्य नहीं बताया गया है, अतः विशेगोक्ति अलंकार है। 'अहो' 'अहो' और 'हिमा' हिमा' में यमक, 'भाव' भुवि' में छेक तथा अन्यत्र वृत्त्यनुपास है // 41 // स्वकान्तिकीर्तिव्रजमौक्तिकस्रजः श्रयन्तमन्तर्घटनागुणश्रियम् / कदाचिदस्या युवधैर्यलोपिनं नलोऽपि लोकादशृणोद् गुणोत्करम् // 42 // भन्वयः-कदाचित् नलः अपि युप-वैर्यलोपिनम् स्वकान्ति...सजः अन्तः घटनागुण...श्रियम् भयन्तम् अस्याः गुषोत्करम् अषोत् / टोका-कदाचित् कमिश्चित् समये नलः अपि यूना तरुणानाम् धैर्यम् धीरतामावम् ( 50 तत्पु.) लुम्पति विनाशयतीत्येवंशीलम् ( उपपद तत्पु० ) स्वकान्ति-स्वस्याः आत्मनः भैम्या इत्यर्थः या कान्तिः सौन्दर्यम् तस्याः कीर्तेः यशसः यो व्रजः समूहः ( सर्वत्र प० तत्पु० ) स एव मौक्तिकस्न / कर्मधा० ) मौक्तिकानाम् सक् (प. तत्पु० ) शुभ्रत्वात् मुक्ताहारः तस्या: अन्तःअभ्यन्तरे या घटना संयोजनम् गुम्फनेति यावत् तस्य यो गुणः सूत्रम् ( च० तत्पु० ) तस्य श्रियम् उध्मोम् शोभामिति यावत् (10 तत्पु०) श्रयन्तम् मनन्तम् अस्याः दमयन्त्याः गुणानाम् सौन्दर्यादीनाम् उत्करम् समूहम् ( प० तत्पु० ) अशृणोत् कर्णगोचरोकृतवान् , नलो लोकमुखेभ्यः दमयन्त्याः सौन्दर्य-कोति-राशिना सहान्यान् गुणांश्चापि श्रुतवान् इति भावः / 42 / / व्याकरण-कान्तिः कम् +क्तिन् मावे / कीर्तिः कृत्+क्तिन् मावे। मौक्तिकम् मुक्ता एवेति मुक्ता+ठक स्वार्थे / ०लोपिनम्-Vलु+णिन् शोलार्थे / उत्करः-उत् +Vs+अण् भावे / - हिन्दी-किसी समय नल भी युवकों का धैर्य तोड़ देने वाला, तथा अपनी कान्ति के यश-समूह के रूप में मौक्तिक-माला गूंथने हेतु भोतरी सूत की शोभा रखे ( अर्थात् सूत का काम देने वाला) दमयन्ती का गुप-समूह सुन बैठा / / 42 / / टिप्पणी-श्लोक का भावार्थ यह है कि नल दमयन्ती के सौन्दर्य-यश के साथ-साथ जुड़े उसके बहुत सारे अन्य गुण सुन बैठा / कवि-जगत् में यश श्वेत होता है, इसीलिए उसपर श्वेत मौक्तिकहार का तादात्म्य किया गया है। हमारे विचार से मूल में 'स्व' शब्द का सम्बन्ध दमयन्ती से न करके नक से करने में अधिक स्वारस्य रहेगा / अर्थ यह होगा कि नल के अपने सौन्दर्य-यश-रूपी मोत्तिकहार के मोतर दमयन्ती का सौन्दर्य सूत का काम दे रहा है अर्थात् दोनों का सौन्दर्य आप से मेल
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________________ प्रथमः सर्गः खा जाता है। शब्दान्तर में यो समझ लीजिये कि दमयन्ती का सौन्दर्य नल के सौन्दर्य के अनुरूप ही है / यहाँ कीर्ति व्रज पर मौक्तिक-नक्स्व और गुणोत्कर पर गुम्फन-सूत्रस्व का प्रारोप होने से रूपक है और साङ्ग है / 'गुण' 'गुणो' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है // 42 // तमेव लब्ध्वावसरं ततः स्मरः शरीरशोमाजयजातमत्सरः / अमोघशक्त्या निजयेव मूर्तया तया विनिर्जेतुमियेष नैषधम् // 43 // अन्वयः-ततः शरीर...मत्सरः स्मरः तम् एवावसरम् लब्ध्वा मूर्तया निजया अमोघ-शक्त्या इस तया नैषधम् विनिजेतुम् इयेष। टीका-ततः दमयन्तीगुणवणानन्तरम् शरीर०-शरीरस्य देहस्य शोमया कान्त्या सौन्दर्ययेत्यर्थः (10 तत्पु० ) जयेन पराभवेन जातः समुत्पन्नः ( उभयत्र तृ० तत्पु० ) मत्सरः द्वेषः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० बी० ) स्मरः-कामदेवः तम् एव अवसरम् अवकाशम् समयमिति यावत् लम्चा प्राप्य मूर्तया मूर्तिमस्या सशरीरयेति यावत् निजया स्वकोयया अमोघा अविफला या शक्तिः सामर्थ्यम् ( कर्मधा० ) तया इव नैषधम् नलम् विनिर्जेतुम् परामवितुम् इयेष ऐच्छत् ; 'जात-क्रोधो वैरी कमप्यवसरं प्राप्य शक्त्यायुधः सन् वैरिणं पराजेतुं प्रक्रमते' // 44 // व्याकरण-शोभा/शुभ +अ+टाप् / जयः /जि+अच् / मूर्तया-/मूर्छ+क्त+ 'टाप / विनिर्जेतुम् वि+निर्+/जि+तुम् / इयेष- इष् +लिट् / नैषधम् इसके लिए श्लोक 36 देखिए। हिन्दी-तदनन्तर ( नल ) के शरीर की शोभा द्वारा पराजय से ईर्ष्या-भरे मदन ने वही अवसर पाकर अपनी साकार अमोघ शक्ति-जैसी उस ( दमयन्ती ) के द्वारा नल को जीतना चाहा / / 43 / / टिप्पणी-यहाँ कवि दमयन्ती पर कामदेव की साकार शक्ति की कल्पना कर रहा है, इसलिए उत्प्रेक्षालङ्कार है। हार खाकर कोई भी व्यक्ति उचित समय पर बदला लेना चाहता ही है। वही कामदेव भी कर रहा है / / 43 // अकारि तेन श्रवणातिथिर्गुणः क्षमाभुजा भीमनृपात्मजालयः / तदुच्चधैर्यव्ययसंहितेषुणा स्मरेण च स्वात्मशरासनाश्रयः // 44 // अन्वयः-तेन क्षमा-भुजा मीम-नृपात्मजालयः गुणः, तदुच्च...पुणा स्मरेण च स्वात्म-शरासनाश्रयः ( गुणः ) श्रवणातिथिः अकारि / ____टीका-तेन चमां पृथिवीम् भुनक्ति शास्तीति तथोक्तंन भूपालेन नलेनेत्यर्थः ( उपपद तत्पु०) भीमश्चासो नृपः राजा ( कर्मधा० ) तस्य श्रात्मजा पुत्री ( 10 तत्पु० ) भैमी दमयन्तीति यावत् श्रालयः स्थानम् , आश्रयः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० वी० ) दमयन्ती-सम्ब-धीत्यर्थः गुणः सौन्दर्यादिः श्रवणयोः कर्णयोः अतिथिः प्राधुणिकः अकारि कृतः आकर्णित इत्यर्थः तदुच्च०तस्य नलस्य उच्चम् उत्कृष्टम् ( कर्मधा० ) यत् धैर्यम् तस्य व्ययः विनाशः ( उभयत्र प० तत्पु०) तस्मै संहितः धनुषि आरोपितः ( च० तत्पु० ) इषः बाणः ( कर्मधा० ) येन तथाभूतेन स्मरेण कामदेवेन सु शोभनम् आत्मनः स्वस्य यत् शरासनं धनुः (10 तत्पु० ) तत् प्राश्रयः आधारः, स्थानम्
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________________ नैषधीयचरिते कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० वो ) गुणः प्रत्यचा स्वधनुषो मौर्वात्यर्थः श्रवणयोः अतिथि: पी प्रकारि कर्णपर्यन्तमाकृष्ट इति यावत् / यदैव दमयन्ती-सौन्दर्यादिगुपः नलस्य कर्णगतः तदैव कामदेवस्य धनुर्गुणोऽपि ( प्रत्यञ्चाऽपि ) आकृष्टः सन् तत्कणं गतः इत्यर्थः, दमयन्ती-सौन्दर्यमाकर्ण्य कामपीडितोऽभवदिति भावः / / 44 // व्याकरण-समाभुज क्षमा+Vभुज+विप् कर्तरि / प्रात्मजा भात्मनो जायते इति जामन्+/जन् +3+टाप् / श्रवणम् श्रयतेऽनेनेति/श्रु+ल्युट करण / व्ययः वि+Vs+ नाच मावे / संहित-सम् + धा+क्त कर्मणि / आश्रयः आ+/भि+अच अधिकरणे / हिन्दी-उस महिपाल ( नल) ने भीम नृप को पुत्री ( दमयन्ती) में पर किया हुआ गुण {सौन्दर्यादि ) कान का अतिथि बनाया (=सुना), और उसके उच्च धैर्य के विनाश हेतु बाण बदाये कामदेव ने ( भो ) अपने सुन्दर धनुष पर आश्रित गुण (डोरो) को कान का अतिथि बनाया कान तक खींचा ) / / 44 / टिप्पणी-इस श्लोक में 'श्रवणातिथि' तथा 'गुण' शब्द श्लिष्ट है / नल-पक्ष में 'श्रवणातिथिः अबारि' का अर्थ है 'सुना' और कामदेव-पक्ष में अर्थ है 'कान तक खींचा। इसी तरह पहले पक्ष में गुष' का अर्थ 'सौन्दर्यादि' है और दूसरे पक्ष में 'प्रत्यञ्चा' ( धनुष की डोरी)। यहाँ नल का दमकती का गुण ( सौन्दर्य ) सुनना और कामदेव का गुण ( धनुष की डोरी) खींचना दोनों प्रस्तुत है। दोनों गुणों का एक ही धर्म अर्थात् श्रवणातिथि-करण से सम्बन्ध बताया गया है, इसलिए तुल्यबोगिता अलंकार है। तुल्ययोगिता वहाँ होती है, जहाँ दो प्रस्तुत-प्रस्तुतों अथवा अप्रस्तुत-अप्रस्तुतों का एक धर्म से सम्बन्ध हो। इसके अतिरिक्त नल ने दमयन्ती का सौन्दर्य पहले सुना, उसके बाद फल-स्वरूप कामदेव ने प्रत्यञ्चा खींची, किन्तु यहाँ कवि ने दोनों का एक ही साथ होना बताया है, इसलिए कारण को पहले और कार्य को पीछे न बताकर दोनों को युगपत् बताने से कार्य-कारण पौर्वापर्य विपर्ययातिशयोक्ति भी है / इस तरह यहाँ दोनों का संकर है। किन्तु मल्लिनाथ ने उत्तरार्धक्त वाक्यार्थ का पूर्वार्धगत वाक्यार्थ कारण बताने से काव्यलिंग माना है / 'स्वात्मशरा०' में 'स्व' बौर 'आत्म' शब्दों का आपाततः एक ही अर्थ प्रतीत होकर बाद में 'मु+आत्म' ऐसा सन्धि-च्छेद बरने से भिन्न-भिन्न अर्थ होता है, अतः पुनरुक्तवदामास शब्दालंकार है / / 44 // अमुष्य धीरस्य जयाय साहसी तदा खलु ज्यां विशिखैः सनाथयन् निमजयामास यशांसि संशये स्मरस्त्रिलोकोविजयार्जितान्यपि // 45 // अन्वयः–तदा साहसी स्मरः समुन्य धीरस्य जयाय खलु ज्या विशिखैः सनाथयन् त्रिलोकीमिजवाजितानि अपि ( निज-) यशांसि संशये निमज्जयामास / रोका-तदा तस्मिन् समये साहसम्-हिताहितानपेक्षं कर्म अस्यास्तीति साहसी असमीक्ष्यकापर्वः स्मरः कामदेवः अमुष्य अस्य धीरस्य धैर्यगुणसम्पन्नस्य नकस्य जयाय विजयार्थ खलु निश्चबेन ज्याम् प्रत्यञ्चाम् विशिखैः बाणः सनाथयन् सनया कुर्वन् संयोजयन्नित्यर्थः त्रयाणां लोकानां माहारः त्रिलोकी (सपाहारदिगुः ) तस्या विजयेन पराजयेन ( 10 तत्पु०) अर्जितानि सम्पा.
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________________ प्रथमः सर्गः दितानि ( तृ. तत्पु० ) अपि यांसि कीतीः संशये सन्देहे निमज्जयामास पातयामास अर्थात् मया त्रिलोको खलु जितास्ति, इदानीम् एतं धीरं नलमपि जेतुं शक्ष्ये न वा, तस्याअये सर्व जगज्जयाजिता में कीत्तिः नक्ष्यतीति स्मरो द्वैधीभावे पतितः / / 45 / / / ___ व्याकरण-साहसी साहस+इन् (मतुबथें ) सनाथयन् नाथेन सहितः सनाथः तं करोतीति सनाथ+णिच् +शत (नामधातु ) त्रिलोकी 'अकारान्तोत्तरपदो द्विगु: ख्यिामिटः' इस नियम से त्रिलोक+कोप ( द्विगोः' 4 / 1 / 21) / संशयः सम् +/शी+च भावे / निमज्जयामासनि+/मस्ज +पिच् +लिट् / / हिन्दी-तब माहसी कामदेव इस धीर ( नल ) के जय हेतु धनुष की डोरी पर बाप्पों को चढ़ाता हुआ, तीनों लोकों के विजय से अर्जित किये हुए भी ( अपने ) यशों को संशय में डाल बैठा // 45 // टिप्पणी-धैर्य के धनी नल पर बाण छोड़ने को तय्यार हुआ कामदेव मन में डगमगा रहा था कि भला मैं इसे जीत सी पाऊँगा या नहीं। न जीतकर जीवन भर का कमाया हुआ यश कहीं मिट्टी में न मिल जाय / सूद के लोम से कहीं मूलधन को भी न गँवा बैलूं। कामदेव का यह संदेह वास्तविक है, विच्छित्ति-पूर्ण नहीं, अतः यह संदेहालंकार का विषय नहीं बन सकता। हाँ, जैसे मल्लिनाथ ने भी मान रखा है, कामदेव के मन में ऐसे संशय का सम्बन्ध न होने पर भी सम्बन्ध बता दिया गया है, इसलिए यहाँ असम्बन्धे सम्बन्धातिशयोक्ति हो सकती है / / 45 / / अनेन भैमी घटयिष्यतस्तथा विधेरवन्ध्यच्छतया व्यलासि तत् / __ अभेदि तत्तादृगनङ्गमार्गणैर्यदस्य पौष्पैरपि धैर्यकन्चकम् // 46 / / अन्वयः-यत् पौष्पैः अपि तादृगनङ्ग-मार्गणैः अस्य धैर्य-कञ्चकम् अमेदि, तत् अनेन भैनीम् घटयिष्यतः विधेः अवन्ध्येच्छतया तथा व्यलासि। ____टीका-यत् यस्मात् पौष्पैः पुष्परूपैः अपि ताशः अतिमृदव इत्यर्थः ये अनङ्गमार्गणाः सरा: ( कर्मधा० ) ( 'कलम्ब-मार्गण शराः' इत्यमरः ) अनङ्गस्य मागंणाः (10 तत्पु० ) न अङ्गम् शरीरम् यस्य तथाभूनः अननः कामः तच्छरीस्य महादेवेन मस्मीकृतत्वात् ; अस्य नलस्य धैर्यम् एव कञ्चकम् कवचम् ( कमधा० ) अभेदि-भिन्नम् तत् तस्मात् अनेन नलेन भैमीम् भीमपुत्री दमयन्तीमित्यर्थः घटयिष्यतः संयोजयिष्यतः संयोजयितुमिच्छोरिति यावत् विधेः विधातुः न वनध्या मोषा इत्यवन्ध्या ( नञ् तत्पु० ) अवन्ध्या इच्छा ( कर्मधा० ) यस्य तयाभूत; ( अवन्ध्येच्छः ) (ब० ब्रो०) तस्य भावः तत्ता तया तथा तेन प्रकारेण व्यलासि बिसितम् चेष्टितमित्यर्थः अर्थात् अमूर्तस्यापि कामदेवस्य तादृशैः अतिकोमले: पुष्प-रूप-बाणेरपि यत् नलस्य धैर्य-रूपं लौह-कञ्चकं भिन्नम् तेनानुमीयते विधाता इन्द्रादि-देवान् परित्यज्य तेनैव सह दमयन्त्या विब हं कर्तुमिच्छति / / 46 // ___ व्याकरण --भैमी भीमस्य अपत्यं स्त्री इति मीम-अण् + / घटयिष्यतः घट+ पिच् +भविष्य रथे शतृ ( 'ल: सदा 3 / 3 / 14 ) / व्यलासि वि+/लस् +लुङ भावे / अमेदि /मिद् +लुङ् कर्मणि पौष्पैः भेद-विवक्षा में पुष्पाणाम् इमे इति पुष्प+अण् अथवा पुष्प.णि एव पौष्पाः स्वार्थ में अण् / धैर्यम् धीर+व्यञ् मावे।
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________________ नैषधीयचरिते हिन्दी-कामदेव के वैसे ( अतिमृदु ) फूलों के बाण भी जो इस ( नल ) के धैर्य-रूपी कवच का मेटन कर गये, तो ( यह ) इस ( नल) के साथ दमयन्ती का सम्बन्ध जोड़ना चाहने वाले विधाता की कमी विफल न जाने वाली इच्छा का (ही) काम है // 46 // टिप्पणी-यहाँ धैर्य पर कञ्चकत्वारोप होने से रूपकालंकार है, उसके साथ साथ कचक के पौष्प बाणों द्वारा भेदन में विरोध है जिसका परिहार विधि वेलास' से हो जाता है अर्थात् विधाता चाहे लोहा ही क्या पुष्पों से वज्र का भी मेदन सम्मव हो जाता है।' जैसे कालिदास ने भी कहा है'विषमप्यमृतं भवेत् क्वचित् अमृतं वा विषमीश्वरेच्छया।' इस तरह रूपक और विरोधाभास का अङ्गाङ्गि भाव-संकर है। यहाँ अनङ्ग शब्द भी कवि का साभिप्राय है अर्थात् पहले तो बाण ही फूलों के है और वे भी जिसके हैं वह देखो तो अनङ्ग-बिना शरीर का अमूर्त है। इस तरह विशेष्य साभिप्राय होने से कुवलयानन्दानुसार परिकरांकुर अलंकार है // 46 // अनझमागणैः-अनङ्ग के धनुष और बाष फूल होते हैं। उसके पाँच प्रसिद्ध बाण ये हैं"अरविन्दमशोकञ्च चूतच नवमल्लिका। नीलोत्पलश्च पश्चैते पञ्चबाणस्य सायकाः' / मतलब यह है कि विशेषतः इन फूलों के रूप और सौरम से काम-वासना भड़क उठती है। यह काव्य-जगत् की मान्यता है / / 46 / / किमन्यदद्यापि यदस्तापितः पितामहो वारिजमाश्रयस्यहो। स्मरं तनुच्छायतया तमात्मनः शशाक शङ्के स न लयितुं नलः // 47 // अन्वयः-अन्यत् किम् , यदस्त्र-तापितः पितामहः अद्य अपि वारिजम् आश्रयति ( इति ) अहो ! तम् स्मरम् सः नलः आत्मनः तनु-च्छायतया लङ्घितुम् न शशाक ( इति ) शङ्के। ____टोका-अन्यतकिम् अन्यत् कामस्य किं वर्णनम् , अन्यस्य वातव केति यावत् यस्य ( कामस्य अस्त्रैः पौष्पैः वाणरित्यर्थः ( प० तत्पु० ) तापितः तापं प्रापितः ( तृ० तत्पु० ) पितामहः पितुः पिता ब्रह्मेत्यर्थः अद्य अपि अधुना अपि वारिजम्-कमलम् आश्रयति मजति (व ) अहो ! आश्चर्यम् अर्थात् कामानल-दग्धो महावृद्धो ब्रह्मा अपि तापनिवारणाय शीतलं वारिजम् अधितिष्ठति, कामानल-दग्धस्य अन्यस्य तु वातव का, तम् स्मरम् कामदेवम् स नलः श्रात्मनः स्वस्य तन्वी कृशा म्लानेत्यर्थः छाया कान्तिः ( शरीरस्येति शेषः ) ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० वी० ) तनुच्छायः तस्य भावः तत्ता तया कामसन्तापकारणात् नलस्य सौन्दर्य-च्छटा म्लानिंगता तस्मात् इति भावः लङ्घयितुं पराजेतुम् न शशाक पारयामास, शङ्क-मन्ये / कामेन नलो विजित इति भावः / / 4 / / ___व्याकरण-तापितः तप् +पिच् +क्त कर्मणि। पितामहः पितुः पितेति पितृ+डामहच् . ( 'मातृ-पितृभ्यां पितरि ढामहच्' वा० ) वारिजम् वारिणि जायते इति वारि+/जन्+ड / लचितुं शशाक अत्र शक्-योगे तुमुन् / हिन्दी-और तो क्या, बाप रे / जिसके अस्त्रों से सन्तापित ( दादा, बूढ़ा ) ब्रह्मा आज तक भी ( मानो ) कमल का आश्रय ले रहा है, उस कामदेव को वह नल अपनी ( शारीरिक ) कान्ति खल्प ( फोकी) पड़ जाने के कारण जीत नहीं सका-ऐसा मैं मानता हूँ // 47 / /
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________________ 40 प्रथमः सर्गः टिप्पणी-वैसे स्वमावतः ही ब्रह्मा का आसन कमल हुआ करता है, इसलिए ब्रह्मा का नाम हो कमलासन है किन्तु यहाँ कवि की यह अनूठी कल्पना है कि वह काम का ताप मिटाने हेतु मानो ठंडे कमल पर जा बैठा है / ताप के कारण लोग शोतल वस्तुओं को अपनाते ही हैं। यहाँ काव्य के तृतीय सर्ग के तीसवें श्लोक में उल्लिखित ब्रह्मा का अपनी ही पुत्री सरस्वती पर कामासक्त होने की घटना की ओर सकेत है। तनुशयतया-'छाया त्वनातपे कान्तो' ( वैजयन्ती) के अनुसार छाया के छाँह और शोमा दो अर्थ होते हैं। कुछ टीकाकारों ने छाया का परछाई अर्थ लिया है और तनोः शरीरस्य छाया तनुच्छायम् तस्य भावः तत्ता-तया, यों विग्रह करके यह अर्थ किया है-सौन्दर्य में कामदेव नल की क्या बराबरी कर सकता है, वह तो उसकी छाया-परिछाई-है, इसलिए नक कामदेव का लंघन-अतिक्रमण नहीं कर सका। अपनी परिछाई मला कौन लौंप सकता है ? यहाँ सन्तप्त-हुआ मानो ब्रह्मा कमल की शरण ले रहा है-यह उत्प्रेक्षा है, किन्तु वाचक शम न होने से वह प्रतीयमाना है। वृद्ध ब्रह्मा तक भी काम संतप्त हो उठते हैं, औरों को तो बात ही क्या, यह भर्थ प्राप्त हो जाने से अर्थापत्ति है / तनुच्छायता के कारण मानो नहीं लौंप सका-यह हेतूत्प्रेक्षा है जिसका वाचक शब्द 'शक' है। वारिजम् के साभिमाय होने से परिकरांकुर है / इस तरह इन सबका संकरालंकार है। पितः' 'पिता' और 'न ल (चितुम्)' 'नलः' में छेकानुपास है। उरोभुवा कुम्मयुगेन जम्भितं नवोपहारेण वयस्कृतेन किम् / अपासरिद् दुर्गमपि प्रतीर्म सा नलस्य तन्वी हृदयं विवेश यत् // 48 // अन्वयः यत् सा तन्वी त्रपा-सरिद् दुर्गम् अपि प्रतीर्य नलस्य हृदयम् विवेश, (तत् ) किम् वयस्कृतेन नवोपहारेण उरोभुवा कुम्भ-युनेन जृम्भितम् ? टीका-यत् सा तन्वी कृशाङ्गी दमयन्तीत्यर्थः पा लज्जा एव सरिद नदी ( कर्मधा० ) तस्या दुर्गम् दुर्गस्थानम् दुस्तर-प्रवाहमिति यावत् ( 10 तत्पु०) प्रतीय तीर्वा नलस्य हृदयम् स्वान्तम् विवेश प्राविशत् ( तत् ) किम् वयसा अवस्थया यौवनेनेत्यर्थः कृतेन जनितेन ( 80 तत्पु०) नव नूतनश्वासौ उपहारः उपायनम् तेन उरः वक्षःस्थलम् भूः उत्पत्ति-स्थानम् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतेन (ब० वी० ) कुम्मयोः कलशयोः युगेन दयेन जम्भितम् विलसितम् चेष्टितमिति यावत् / यथा खलु काचित् नायिका। वक्षसि कुम्भवयं निधाय नदी तरति प्रियसंकेतस्थलं च तथैव दमयन्यपि / वक्षोगत-कुचदय-रूप-कुम्भ-दयेन लज्जा-नदी प्रतीर्य नल-हृदयं प्राविशत् ; सा लज्जा विहाय नलं चकमे; नलोऽपि तद्-यौवनाकृष्टस्तां निजहृदये प्रतिष्ठापयामासेति मावः / / 47 / / व्याकरण-त्रपा-Vत्रप् +अङ् ( मावे )+टाप् / दुर्गम् दुःखेन गन्तुं शक्यम् इति दुर+ गम् +ड / प्रतीयं +/+ल्यप् / विवेश/विश्+लिट् / उपहारः उपहियते इति उप+ Ve+घञ् कर्मणि / जृम्भितम् जम्म+क्त ( भाव वाच्य ) / हिन्दी-वह कृशाङ्गी ( दमयन्ती) लज्जारूपी दुर्गम नदी को पार करके जो नल के हृदय में जा पहुँची, उससे ऐसा लगता है मानो यौवन द्वारा ( उसे ) नये उपहार के रूप में दिये गये, वक्ष:स्थल पर उभरे कलश-युगल ने ( यह ) काम किया हो॥ 48 / /
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________________ . . नैषधीयचरिते टिप्पणी-त्रपासरिदुर्गम्-मल्लिनाथ तथा अन्य टीकाकार यहाँ 'पा एव सरित्सा एव दुर्गम्' इस तरह विग्रह करके सपा पर सरित् का आरोप और फिर सरित् पर भी दुर्गव का आरोप करके दुर्ग का अर्थ किला ( प्राकार ) बता रहे हैं, किन्तु हमारे विचार से नदी पर भी दुर्गत्व के मारोप में कई स्वारस्य नहीं है, किला तरा नहीं जाता है, नदी तरी जाती है / कवि का अभिप्राय 'दुर्ग' से दुर्गमस्थल अर्थात् दुर्गम-दुस्तर-नदी है। यहाँ 'कुम्भ-युग' पर नवोपहारत्व का और त्रपा पर नदोष का आरोप होने से रूपक है; स्तन-युग पर कुम्भ-युगत्व का अमेदाध्यवसाय होने से मेदे अमेदारिशयोक्ति है, 'किम्' शब्द उत्प्रेक्षावाचक होने से उत्प्रेक्षा है; इस तरह वहाँ इन समी का संकर है / इसी तरह के माव के लिए सर्ग 2, श्लोक 31 भी देखिये / / 48 // अपहवानस्य जनाय यन्निजामधीरतामस्य कृतं मनोभुवा / अयोधि तजागरदुःखसाक्षिणी निशा च शय्या च शशारकोमला // 49 // अन्वयः-निजाम् अधोरताम् जनाय अपहृवानस्य अस्य मनोमुवा यत् कृतम् , तत् जागरदुःख-साक्षिणी शशाङ्क-कोमला शय्या च ( शशाङ्क कोमला ) निशा च अबोधि / टीका-निजाम् स्वकोयाम् अधीरताम् धैर्याभावं चञ्चलतामित्यर्थः जनाय लोकेभ्यः अपहवानस्य गोगयतः अपलपत इति यावत् अस्य नलस्य सम्बन्धे षष्ठी (उपरि ) मनोभुवा कामदेवेन यत् कृतम् जनितम् तत् जागरस्य निद्रा-क्षयस्येत्यर्थः दुःखम् कष्टम् (10 तत्पु० ) तस्य साक्षिणी प्रत्यक्षदर्शिनी शशः मृगविशेषः भकः चिन्हं यस्मिन् तथाभूतः (ब० वी०) चन्द्र इत्यर्थः तद्वत् कोमला मृदुः, अथवा शशः-मृगविशेषः तस्य अङ्कः उत्साः तद्वत् कोमला ( उपमान तत्पु० ) शय्या तल्पम् , अथ च शशाङ्कः चन्द्रः तेन कोमला रम्या (त. तत्पु०) निशा रात्रिः प्रबोधिशानवती अर्थात् कामदेवेन रात्रौ नलोपरि यावान् क्लेशातिशय आपातितः तम् शय्या रात्रिरेव च जानाति, राचौ काम-वेदनया शय्यायामसौ विलुठतिस्म निद्रां च न लमते स्मेति भावः / / 46 / / व्याकरण-अपहृवानस्य अप+/ह +शानच् इसके योग में श्लाघह ङ० [पा० 114.34 से जन शब्द से पञ्चमी के स्थान में चतुर्थी / जागर/जागृ+घञ् भावे, गुणः साक्षिणी सह+ अक्ष+इन् +डीप् ('साक्षाद् द्रष्टर संशायाम्' पा० 5 / 221 ) शय्या शय्यतेऽत्रति शी+क्यप् अयङ् +टाप् अबोधिV बुध् + लुङ् [अत्र कर्तरि चिप्प] / विनी-लोगों से अपनी अधीरत्ता छिपाते हुए नल पर कामदेव ने जो ( कुछ ) किया उसे (रातभर उसके) जागते रहने के दुःख की साक्षी शश [ खरगोश ] के अङ्क ( गोद के रोम ) की तरह कोमल शय्या एवं शशाङ्क [ चन्द्रमा ] से कोमल ( रमणीय ) बनी रात जानती थो।।४९।। टिप्पा -यहाँ नल में लज्जा नाम का व्यभिचारी भाव तथा वियोग की जागर-अवस्या बताई गई है। निशा और शय्या दोनों प्रस्तुतों का शशाङ्क कोमलत्व-रूप एक धर्म से सम्पन्ध बताने से तुल्य. योगिता अलंकार है और वह भी श्लेष-गर्भित // 49 // स्मरोपतप्तोऽपि भृशं न स प्रभुर्विदर्भराज तनयामयाचत / त्यजन्त्यसून् शर्म च मानिनो बरं त्यजन्ति न त्वेकमयाचिरावतम् // 50 //
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________________ प्रथमः सर्गः 43 भन्वयः-भृशम् स्मरोपतप्तः अपि सः प्रभुः विदर्भराजम् तनयाम् न अयाचत / मानिनः असून् शर्म च वरम् त्यजन्ति, एकम् अयाचित-व्रतम् न त्यनन्ति / रोका-भृशम् अत्यधिकं यथा स्यात्तथा स्मरेण कन्दपेंण उपतप्तः तापं प्रापितः पीडित इति यावत् (तृ तत्पु० ) अपि स प्रभुः समर्थः नलः विदर्भाणां राजा इति विदर्भराजः तम् [ष० तत्पु.] मोममित्यर्थः तनयाम पुत्रीम् दमयन्तीम् न अयाचत याचितवान् / मानिनः आत्माभिमानिनः उच्च-मनस्का इति यावत् असून् प्राणान् शर्म सुखं च परम् मनाक पियं यथा स्यात् तथा [वरः श्रेष्ठः त्रिषु क्लवं मनाक-प्रिये" इत्यमरः] त्यजन्ति मुन्नन्ति एकम् अदितीयम् मुख्यमितियावत् अयाचितम् न याचितम् याचना एवं व्रतम् नियमम् तु न त्यजन्ति अर्थात् आत्माभिमानिनः पुरुषाः याचना न कुर्वन्ति, तेषां प्राणाः यदि गच्छन्ति, गच्छन्तु नाम // 50 // व्याकरण-विदर्भ राजम् राजन् शब्द समास में अकारान्त होकर राम की तरह चलता है ( राजाहःसखिभ्यष्टच' पा० 5 / 4 / 81 ) / विदर्भराजम्, तनयाम् ये दो कर्म इसलिए हुए कि वाच् धातु द्विकर्मक होता है / अयाचितम् न याचितम्/ याच्+क्त मावे। हिन्दी-काम द्वारा अत्यधिक पीड़ित होते हुए भी उस राजा नल ने विदर्भराज से ( उसकी) कन्या के लिए याचना नहीं की। आत्माभिमानी ( लोग ) भले ही प्राप्य और सुख को छोड़ दें, किन्तु न माँगना रूप एक व्रत को नहीं छोड़ते / / 50 // टिप्पणी-इस श्लोक में राजा नल द्वारा दमयन्ती को न मांगने की बात का समर्थन उत्तरार्धगत सामान्य बात से किया गया है, इसलिए अर्थान्तरन्यास अलंकार है। असून् शम च-यहाँ शम शब्द को असून् से पूर्व आना चाहिये था, क्योंकि लोग पहले सुख को और तब प्राणों को छोड़ते हैं। पहले यदि प्राण ही छोड़ दिये तो, बाद में सुख छोड़ने का प्रश्न हो नहीं उठता, इसलिए यह अक्रमता दोष है / / 50 / / मृषाविषादामिनयादयं क्वचिज्जुगोप निःश्वासतति वियोगजाम् / विलेपनस्याधिकचन्द्रमागताविभावनाचापजलाप पाण्डुताम् // 51 // अन्वय-अयम् क्वचित् मृषा-विषादाभिनयात् वियोगजाम् निःश्वासततिम् जुगोप विलेपनस्य अधिक-चन्द्र-मागता-विभावनात् च पाण्डुताम् अपललाप / टीका-अयं नलः क्वचित् कस्मिंश्चिद् वस्तुनि मृषा मिथ्या यः विषादः खेदः तस्य अभिनयात प्रदर्शनात् ( 10 तत्पु०) वियोगात् जायते इति वियोगजा ताम् [ उपपद तत्पु.] निःश्वासानाम् दीर्घश्वासानामित्यर्थः त तिम् परम्पराम् (10 तत्पु० ) जुगोप तिरोदधे भयंभावः-मोहात् कारणात् नलेन कल्पित-दमयन्तो दृष्टा दीर्घ-निःश्वासांश्च स मुमोच किन्तु लोकेभ्यो नितमसो गतं किमपि वस्त्वधिकृत्य प्रकाशं मृषैव एवमाह-'तद् वस्तु गतम् / मम महान् खेदो जायत' इति / विलेपनस्य चन्दनलेपस्य अधिकः चन्द्रस्य कर्पूरस्य [ 'घनसारश्चन्द्रसंशः सिताभ्रो हिमबालुका' इत्यमरः ] मागः अंशः [ 10 तत्पु.] यस्मिन् तथाभूतस्य (40 बी० ) भावः तत्ता तस्या विभावनात् ज्ञापनात् (10 तत्पु० ) पाण्डताम् ईषत् पीतवर्णत्वम् अपललाप निहतवान् अर्थात् वियोग-जनित-श्वेत
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________________ नैषधीयचरिते वर्षस्व-सन्बन्धे 'एतत् तु चन्दन-पे कर्पूरस्थाषिक-मागसंमिश्रणेन जातम्' इति कथयन् अपललाप // 51 // व्याकरण-विषादः वि+/सद्+पत्र मावे / अमिनयः अभि +/नी+अच् मावे / निःश्वासः निस् +/श्वस् पञ् मावे / ततिः तन्+क्तिन मावे। वियोगजाम् त्रियोग+/जन्+ +टाप् / विमावनम् वि+/भ्र+पिच +ल्युट मावे / अपवलापः अप+Vलप्+लिट् / हिन्दी- यह ( नल ) ( खोई हुई ) किसी ( वस्तु ) पर झूठ मूठ का खेद प्रदर्शन से वियोगबनित ( अपनी ) आहों का सिलसिला छिपा देता था; चन्दन-लेप में कपूर का अधिक भाग ( मिला ) बताने से ( चेहरे की ) सफेदी झुठला देता था / / 51 // _ टिप्पणी-यहाँ विरह-जनित श्वासों तथा शरीर की सफेदी को मृषा-विषाद और कपूर की सफेदी द्वारा छिपाया गया है, इसलिए मोलित अलंकार है। यह वहाँ होता है, जहाँ दो समान धर्म वाळे पदार्थों में से एक के द्वारा दूसरे का तिरोधान होता है। किन्तु विद्याधर का कहना है कि यहाँ व्याजोक्ति अलंकार है / व्याजोक्ति वहाँ होती है, जहाँ प्रकट हुई किसी बात को किसी छल से छिपा : दिया जाय। यहाँ विरह-जनित खेद तथा सफेदी मृषा-विषाद और कपूर से छिपाये गये हैं। हमारे विचार से यहाँ इन दोनों का सन्देहसंकर है।। 51 / / शशाक निह्वोतुमयेन' तस्प्रियामयं बभाषे यदलीकवीक्षिताम् / समाज एवानपितासु बैणिकैर्मुमूर्छ यत्पञ्चममूर्च्छनासु च // 52 // अन्वयः-अयम् ( नलः ) यत् अलीक-वीक्षिताम् प्रियाम् बमाणे, ( यच्च ) वैणिकः पञ्चममूर्छनासु आलपिताम् ( सतीषु ) समाजे एव मुमूर्छ, तत् अयेन निहोतुं शशाक। टोका-अयम् नलः यत् अलीकम् मिथ्यैव यथा स्यात् तथा वीक्षिताम् दृष्टाम् ( सुप्सुपेति समासः ) अर्थात् भ्रम-वशात् दृष्टिगोचरीमूताम् प्रियाम् दमयन्तीम् बभाषे लपितवान् भ्रमदृष्टदमयन्त्या सह वार्तालापं कृतवान् इति भावः, यत् च वैखिकः वीणावादिभिः पञ्चमस्य पञ्चमस्वरस्य मूर्छनासु आरोहाबरोहेषु (प. तत्पु० ] मालपितासु उच्चारितासु गीतास्वित्यर्थः सतीषु समाजे सभायाम् एव मुमूर्छ मूर्छा गतः तत् भयेन भाग्येन ( 'अयः सुखावहो विधिः' इत्यमरः ) निह्नोतुम् शशाक अशक्नोत् / नकः पञ्चम-स्वरेण गीते गीयमाने मूर्छितोऽभवत्, यतः कोकिल-पश्चम-स्वरवत् गोतस्य पञ्चम स्वरोऽपि कामोद्दीपको भवतीति भावः / / 52 / / व्याकरण-बभाषे भाष् +लिट् / वैणिकैः वीणा शिल्पमेषामिति वीणा+ठञ् / समाजः सम् +अ+घञ् , मनुष्यभिन्न पशु-समुदाय में अप होकर समजः बनता है। हिन्दी-यह ( नल) जो झूठमूठ ही देखी गई प्रिया ( दमयन्ती ) से बात करता था तथा वीणावादियों द्वारा (गीत के ) पञ्चम स्वर के स्वरारोहावरोहों में आलाप भरे जाने पर जो सभा में हो मूर्छित हो उठता था, उसे ( वह ) माग्य से ही छिपा सकता था / / 52 / / टिप्पणी-निह्वोतुमयेन--इस शब्द पर टीकाकारों की अपनी भिन्न-भिन्न व्याख्यायें हैं / नरहरि का कहना है-'अयं नलो मिथ्यादृष्टां प्रियां यद् बमाणे, तन्निहोतुं न शशाक / अये इति विषादे / " 1. अये नः अनेन /
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________________ प्रथमः सर्गः / 15 पञ्चमस्य मूर्छनासु यन्मुमूर्छ तदयेन दैवेन कथञ्चित् निहोतुं शशाक, रागमूर्छना-जनित-सुखानुमव-पारवश्य-त्र्याजेन निहतवानित्यर्थः" / चाण्डपण्डित की व्याख्या इस प्रकार है-"अयं नलः अलीकेन भ्रान्स्या वीक्षितां प्रियां अये इति सम्बोध्य वभाषे तत् सभामध्ये निहोतुं न शाक . यत् पञ्चम. रागस्य मूर्छनासु आलपिताम् मुमूर्छ तदपलपितुं न शशाक / तत्र प्रत्यक्षे उत्तरं किमपि न शक्यते कम्"। नारायण एक और ही विकल्प दे रहे हैं-'यदा यरिकश्चिद् बमाणे, तद् अये= कामाय निहोतुं न शशाक समाजाय स्वपलपितुं समर्थोऽभूत् यतः समाज एव मुमूर्छ। :-कामः तस्मै : कामे परुषोक्तौ च' इति विश्वः / यहाँ कवि ने वियोग की लज्जा त्याग, प्रलाप, उन्माद और मूर्जा की भवस्थायें बताई हैं। 'मू 'मूर्छ' में यमकालं कार है / / 52 // अवाप सापत्रपतां स भूपतिर्जितेन्द्रियाणां धुरि कीर्तितस्थितिः / भसंवरे शम्बरवैरिविक्रमे क्रमेण तत्र स्फुटतामुपेयुषि // 53 // अन्वय-जितेन्द्रियाणाम् धुरि कीतितस्थितिः स भूपतिः तत्र असंवरे शंबर-वैरि-विक्रमे क्रमेण स्फुटताम् उपेयुषि ( सति ) सापत्रपताम् अवाप। टीका-जितानि-नियन्त्रितानीत्यर्थः इन्द्रियाणि यः तथाभूतानाम् (ब. वी० ) धुरि भने प्रथमपंक्तावित्यर्थः कीत्तिता स्तुता स्थितिः स्थानं यस्य तथाभूतः (ब० ब्रो० ) स भूपतिः राजा नलः तत्र समाजे असंवरेन संवर; निवः रोध इत्यर्थः यस्य तस्मिन् ( ब० वी० ) संवरितुमशक्ये इति यावत् शंबर असुरविशेषः तस्य वैरी शत्रुः कामः तस्य विक्रमे प्रमावे विकारे इत्ययः क्रमेण क्रमशः स्फुटताम् व्यक्तताम् उपेयुषि प्राप्ते सति प्रपत्र गलज्जा तेन सहितः इति सापत्रपः ( 30 जी०) तस्य भावः तत्ता ताम् अवाप प्राप्तवान् लज्जितोऽमवदित्यर्थः / / 5 / / __व्याकरण-अपनपा अप+Vत्रप् + अ (भावे )+टाप् / संवरः सम् +/g+अप् मावे। उपेयुषि-उप /+वसु (मूताथें ) सप्तमी। हिन्दी-जितेन्द्रियों में जिसका स्थान सब से आगे कहा जाता है, ऐसा वह राजा नल वहाँ / सभा में ) न छिपाये जा सकने वाले काम के प्रभाव के क्रमशः स्फुट हो जाने पर, लज्जा को प्राप्त हो बैठा / 53 // टिप्पणी-शंबर बैरी-शंबर एक राक्षस था, जिसे भगवान् कृष्ण के पुत्र प्रद्यम्न ने मारा था। जैसा हम पीछे कह पाये हैं, प्रद्युम्न कामदेव का अवतार था। यहाँ 'क्रमे' 'क्रमे' ये यमक और 'परे' 'वैरि' में छेकानुपास है किन्तु अनुपास में 'श' 'स', 'व' 'ब' तथा 'र' 'ल' में अमेद-नियम मानकर शंबर के '' को भी ले ले तो छेक नहीं रहेगा, क्योंकि छेक में व्यजनों को एक ही बार आवृत्ति का नियम है, अधिक बार आवृत्ति में वृत्त्यनुप्रास ही होता है / / 53 / / / अलं नलं रो ममी किलामवन्गुणा विवेकप्रमुखा न चापलम् / स्मरः स रस्यामनिरुखमेव सुजस्ययं सर्गनिसर्ग ईशः // 5 //
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________________ नैषधीयचरिते अन्वय-अमी विवेकपमुखाः गुणाः नलम् चापलम् रोद्धुम् अलम् न अभवन् किल, यत् सः स्मरः रत्याम् अनिरुद्धम् सृजति एव अयम् ईदृशः सर्ग-निसर्गः (अस्ति ) / टीका-अमी एते विवेकः उचितानुचितविचारः प्रमुखः येषु तथाभूताः (ब० बी० ) विवेकादयो गुणाः नलम् चापलम् चन्च उताम् रोद्धम् निग्रहीतुम् अत्तम् समर्थाः न अभवन् किल खलु, यत् यतः सः प्रसिद्धः स्मरः कामः रस्याम् अनुरागे, सम्मोगे वा अनिरुद्धम् अनियन्त्रितम् चपलम् अवशभिति यावत् जनम् सृजति करोति-अयम् एष ईरशः एतादृक् सर्गस्य सृष्टेः निसर्गः स्वभावः ( 10 तत्पु० ) अस्तीति शेषः / दुनिरोधो हि प्रेम-मार्ग इति भावः / / 54 / / व्याकरण-नलम् , चापलम्-ये दो कर्म इसलिए आये हैं कि रुध् धातु द्विकर्मक है 'रोद्धम् अलम्' में पर्याप्ति वचनेष्वलमर्थेषु ( पा० 3 / 4 / 66) से तुमुन् प्रत्यय हुआ है। चापलम् चपलस्य मावः चपल+अण् / रस्याम् रम् +क्तिन् भावे / हिन्दी--ये विवेक आदि गुण वास्तव में नल की चपलता रोकने में समर्थ नहीं हुए। कारण यह है कि अनुराग होने पर काम ( मनुष्य को ) चश्चल बना हो देता है-यह ऐसा सृष्टि का स्वभाव है / / 54 / / टिप्पणी-रत्यामनिरुद्धम्-यहाँ कवि ने श्लेष का प्रयोग किया है / रति अ. राग और काम की पत्नी, एवं अनिरुद्ध चपल और अनिरुद्ध नामक कामदेव का पुत्र कहलाता है / अपनी पत्नी रति में प्रद्यम्न रूप कामदेव अनिरुद्ध पुत्र को पैदा करता है- यह दूसरा अर्थ मी यहाँ निकल जाता है। साहित्यिक भाषा में इसे हम शब्दशक्त्युद्भव वस्तु ध्वनि कहेंगे। यहाँ श्लोक में पूर्वार्धगत सामान्य बात का उत्तरार्ध को विशेष बात द्वारा समर्थन किया गया है, इसलिए अर्थान्तरन्यास अलंकार है। 'सर्ग' 'सर्ग' में यमक और अलं नलं में वृत्त्यनुपास शब्दालंकार है / / 54 / / अनङ्गचिईस बिना शशाक नो यदासितुं संसदि यनवानपि / क्षणं तदारामविहारकैतवासिषेवितु देशमियेष निर्जनम् // 55 // अन्वयः-सः यदा यत्नवान् ( सन् ) अपि संसदि अनङ्ग चिह्नम् विना क्षणम् ( अपि ) आसितुम् न शश.क, तदा आराम-विहार-केतवान् निर्जनम् देशम् निषेवितुम् श्येष। टीका-सः नलः यदा यस्मिन् समये यत्नवान् मपि यत्नं कुर्वन्नपि संसदि सभायाम् अनङ्गस्य तिम् प्रलापमूर्छादिकम् (10 तत्पु० ) विना अन्तरेण चणम् क्षणकालपर्यन्तमपि प्रासितुम स्थातुम् न शंशाक पारितवान् , तदा वस्मिन् समये भारामे-उपवने विहारः विचरणम् (10 तत्पु० ) तस्य कैतवाद व्या जात् (10 तत्पु० ) निर्जनम् निर्गता जनाः यस्मात् तथाभूतम् (प्रादि ब० ब्री०) देशम् स्थानम् निषेवितुम् सेवितुम् इयेष अकामयत समां परित्यज्य देशान्तरं गन्तु., मैच्छदित्यर्थः / / 55 // ____ म्याकरण-चिहम् यहाँ विना के योग में द्वितीया है / क्षणम् में 'कालावनोरत्यन्तसंयोगे' (पा० 2 / 6 / 5) से काल के अत्यन्त संयोग होने के कारण द्वितीया हुई है। भासितुम् /मास्+ तुम् / शशाक-शिक+लिट् / विहारः वि+/ह+घञ् मावे / कैतवात् कितवस्य माव इति कितव+अण् मारे / निषेवितुम् नि उपसर्ग होने से सेव के स कोष हो जाता है /
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________________ प्रथमः सर्गः हिन्दी-वह नल प्रयत्न करता हुआ भी जब सभा में काम-विकार के चिह्नों ( प्रलाप-मूर्जा बादि ) के बिना बैठ न सका तब उद्यान में विचरण करने के बहाने निर्जन स्थान सेवन करना चाहा // 55 // टिपखी--यहाँ भ्रमण का बहाना बनाने से कैतवापति अलंकार है। शब्दालंकार वृत्त्यनुपात है। क्षणम्-क्षण शब्द का अन्वय श्लोक के पूर्वार्ध से हो रहा है, इसलिए एक पद के श्लोक के दूसरे अर्थ में जाने से अर्धान्तरैकपदता दोष बन रहा है / / 55 // अथ श्रिया भसितमत्स्यलाम्छनः समं वयस्यैः स्वरहस्यवेदिभिः / पुरोपकण्ठोपवनं किलेक्षिता दिदेश यानाय निदेशकारिणः // 56 // अन्वयः-अथ भिया मरिसतमत्स्यलान्छनः ( नल ) स्व-रहस्य-वेदिभिः वयस्यैः समम् पुरोपकण्ठोपवनम् ईक्षिता किल निदेशकारिणः यानाय दिदेश। टीका-अथ अनन्तरम् श्रिया कान्त्या सौन्दयेणेति यावत् मसितः तिरस्कृतः ( कर्मधा०) मत्स्यलान्छनः कामदेवः येन सः ( व० वी०) मत्स्यः लान्छनं चिहं यस्य सः (ब० वी०) मत्स्यो हि कामदेवस्य ध्वजो मवति अतएवासौ. मकर-धजो मीन केतनश्चापि कथ्यते, परम-सुन्दरो नलः काम-पीडितोऽपि सन् सौन्दयें कामदेव जितवान् इति भावः, स्वं स्वकोयं रहस्यम् मर्म (कर्मधा० ) विदन्तीत्येवंशोलमेषां तथोक्तः अर्थात् नलस्य दमयन्त्यामनुरागोऽस्तीतिरहस्यज्ञः वयस्यैः सखिभिः समम् सह पुरस्य नगरस्य यत् उपकण्ठम् सामीप्यम् (10 तत्पु०) 'उपकण्ठान्ति. काभ्याभ्यग्रा अप्यभितोऽव्ययम्' इत्यमरः ) तस्मिन् यत् उपवनम् उद्यानम् तत् ईतिता द्रष्टा किल भलोकम् अनङ्गचिह्नगोपनाभिप्रायेणेति भावः निदेशं कुर्वन्तीतिशीलमेषां तथोक्तान् आशा-पालकान् भृत्यानिति यावत् यानाय वाहनाय वाहनमानेतुमित्यर्थः दिदेश आशापयामास / / 56 / / व्याकरण-खान्छनम् लान्छयते चियते अनेनेति लाग्छ+ल्युट करणे। वयस्यः वयसा तुल्य इति (वयस्+यत् ) वयस्यः समम् समम् के योग में तृतीया हुई है / ईक्षितां यह ईक्ष से तृन् प्रत्यय हुआ है, तृच नहीं, इसीलिए षष्ठी न होकर द्वितीया हुई है। यानाय यानम् आनेतुम् इस तरह तुमुन्नर्थ में चतुर्थी हुई है / यानम् यान्त्यनेनेतिया+ल्युट करण / दिदेश / दिक्ष् + लिट् / हिन्दी--तदनन्तर सौन्दर्य में कामदेव को फटकारे हुए नल ने अपना रहस्य जानने बाले मित्रों के साथ झूठमूठ हो नगर के पास उद्यान देखने हेतु वाहन लाने को भृत्यों को आदेश दिया / .56 / / टिप्पणी--विद्याधर ने 'मरिंसत०' में उपमा मानी है, किन्तु हमारे विचार में यह उपमा का विषय नहीं है, क्योंकि यहाँ उपमानभूत कामदेव से तुलना करके उसकी भर्त्सना-तिरस्कार किया गया * है इसलिए यहाँ प्रतीपालंकार है। उपमान का तिरस्कार भी प्रताप का एक अन्यतम मेद है / इसके अतिरिक्त विद्याधर ने यहाँ 'समम्' पद होने से सहोक्ति मी मानी है किन्तु यहाँ सहोक्ति भी नहीं है, कोकि सहोक्ति हमेशा कार्य-कारणपोवोपर्य-विपर्ययातिशयोक्ति को साथ लिये रहती है, जो यहाँ है ही नहीं / 'देश' 'देश' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है / / 56 / / 1. पृ० 48 पंक्ति 2 क्षोदित का फुट नोट समझे /
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________________ नैषधीयचरिते अमी ततस्तस्य विभूषितं सितं जवेऽपि मानेऽपि च पौरुषाधिकम् / उपाहरमश्वमजस्वचञ्चलः खुराञ्चलैः क्षोदितमन्दुरोदरम् // 57 / / - अन्वयः--ततः अमी 'तस्य' विभूषितम् , सितम् , जत्रे अपि माने अपि च पौरुषाधिकम् , अजस्त्रचञ्चलैः खुराश्चले; क्षोदित-मन्दुरोदरम् अश्वम् उपाहरन् / टीका--ततः आशानन्तरम् अमी ते भृत्याः विभूषितम् अलंकृतम् सज्जितमिति यावत् , सितम् श्वेतवर्णम् जवे वेगे अपि पौरुषेण = बलेन अधिकम् वेगे पुरुषात् अधिक बलशालिनमित्यर्थः (तृ० तत्पु०) माने परिमाणे अपि पौरुषेख पुरुष-परिमाणेन अधिकम् ऊर्ध्वबाहुपुरुषादप्युच्चमित्यर्थः भजनम् निरन्तरम् यथा स्यात्तथा चश्चलैः चटुलैः खुराणाम् शफानाम् अञ्चलैः अप्रैः (१०तत्पु०) सोदितम् चूों कृतम् मन्दुरायाः अश्वशालायाः ( 'वाजिशाला तु मन्दुरा' इत्यमरः) अदरम् मध्यम् (10 तत्पु० ) येन तम् (ब० वी० ) अश्वम् उपाहरन् आनीतवन्तः / 57. / / __व्याकरण--पौरुषाधिका--यहाँ 'पौरुष' शब्द श्लिष्ट है, जिसका 'जव' और 'मान' दोनों से सम्बन्ध है। 'जव' के साथ लगता हुआ यह 'पुरुषस्य भाव इति+अण' इस व्युत्पत्ति से बनकर विशेष्य-शब्द है अर्थात् जब में जो पौरुष-बल-से अधिक है, किन्तु 'मान के साथ लगता हुआ यह विशेषण-शब्द है अर्थात् पुरुषः = ऊवों कृत-बहुनुय प्रमाणमस्येति पुरुष+अण ('पुरुष हस्तिभ्यामण् च' पा० 5 / 2 / 38 ) दोनों हाथों को खड़ा किये हुए पुरुष को ऊँचाई वाले (परिमाण से अधिक), इसके लिए देखिए अमरकोश–'ऊर्ध्वविस्तृतदोःपाणिनृमाने पौरुषं त्रिषु'। चोदित-क्षोदं = चूर्ण चूर्णवदित्यर्थः करोतीति क्षोद+णिच् लट् क्षोदयति ( 'सुखादयो वृत्ति-विषये तद्वति वर्तन्ते ) नाम धातु बनाकर निष्ठा में क्त प्रत्यय / हिन्दी-तदनन्तर वे मृत्य नल का वह श्वेत घोड़ा ले आये, जो अच्छी तरह सजा हुआ था। वेग में मा ( पुरुष से भी ) बड़ा बलवान् तथा कद में भी दोनों हाथ खड़े किये पुरुष को ऊँचाई से (भी) ऊँचा था और निरन्तर चञ्चल बने खुरों के अग्र मागों से घुड़साल के मीतरी माग को खोदे हुए था / / 57 / - टिप्पणी-क्षोदित०-खुर से जमीन खोदने वाला घोड़ा उत्तम कहा जाता है, देखिए शालिहोत्र-'खुरैः खनन् यः पृथिवीमश्वो लोकोत्तरः स्मृतः' / 'क्षोदित' का 'क्षोभित' पाठान्तर मिलता है किन्तु 'खुर से पृथिवी हिला देने वाला' अर्थ ठीक नहीं जंचता है। यहाँ 'चलैः' 'चलैः' में तथा 'प' और 'स' को ऐक्य मानकर 'षितं' सितं' में यमक और 'दुरो' 'दर' में छेकानुपास है / उपाहरन् अश्वम्' में वाक्य समाप्त हो जाने पर भी फिर 'अजस्र दरम्' विशेषण जोड़ने के लिए वाक्य का आदान करने से यहाँ समाप्तपुनरात्तत्व है / / 57 // भथान्तरेणावटुगामिनाध्वना निशीथिनीनाथमहः सहोदरैः / निगालगाहेवमणेरिवोत्थितैर्विराजितं केसरकेशरश्मिमिः // 50 // अन्वयः-अथ अवटुगानिना आन्तरेण अध्वना निगालगात् देवमणः उत्थितः इव निशीथिनीनाथ-महः सहोदरैः केसर-केशः रश्मिभिः विराजितम् ( हयम् स नल: आरुरोह ) /
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________________ प्रथमः सर्गः 49 टीका-अथ-तत्पश्चात् अवटुः कृकाटिका गलनिम्नप्रदेश इति यावत् ( 'अवटुर्षाटा कृकाटिका' इत्यमरः ) तस्मात् गच्छत्तीति तथोक्तेन (उपपद तत्पु०) प्रान्तरेख-मध्यवत्तिना प्रध्वना मागंण निगालः गलप्रदेशः तत्र गच्छतीति तस्मात् ( उपपद तत्पु० ) गलस्थितादित्यर्थः देवमणिः कण्ठावर्तरोमभ्रमर इति यावत् एव देवमणिः कौस्तुभः समुद्रमन्थने समुद्रादुद्गतो मणिविशेषः ( यो विष्णुना धृतः ) ( देवमणिः शिवेऽश्वस्य कण्ठाबतें च कौस्तुमे इति विश्वः ) तस्मात् अस्थितैः उद्गतैः श्वेत्युस्प्रेक्षायाम् निशीथिनी निशा तस्याः नाथः पतिः चन्द्र इत्यर्थः ( 10 तत्पु० ) तस्य यानि महांसि तेजांसि ( 'महस्तूत्सव-तेजसोः' इत्यमरः ) किरणा इत्यर्थः (प० तत्पु०) तेषां सहोदरः सदृशः (10 तत्पु० ) केसराः सटा एव केशा बालाः केसर-रूपकेशा इति यावत् एव रश्मयः किरणाः ( कर्मधा० ) तैः विराजितम् शोभितम् 'हयम्' स नल आरुरोहेति सप्तमश्लोकेन सम्बन्धः / 58 // व्याकरण-गामिन् गम् =इन् ( शीलाथें ) प्रान्तरेण अन्तरस्य मध्यभागस्येदमिति अन्तर+प्रण। सस्थितैः उत्+/स्था+क्त कर्तरि / ०सहोदरैः यहाँ ( 'पोपसर्जनस्य' पा० 6 / 6 / 82 ) विकल्प से सह को 'स' आदेश नहीं हुआ। हिन्दी-तत्पश्चात् (नल घोड़े पर चढ़ गया)-जो घुघु वी ( अवटु ) से लेकर ( ऊपर जाने वाले ) मीतरी मार्ग से गले पर के रोमावर्त रूपी कौस्तुभ माण से निकलो, चन्द्रमा की किरणों के समान केसर ( अयाल ) के बालों-रूपी किरणों से जैसे शोभित प्रतीत हो रहा था / / 58 // टिप्पणी-यहाँ तथ्य तो यह है कि घोड़े के गले के नीचे घुघुवी के पास रोमावर्त ( बालों का मौरा ) था ( यह एक बड़ा शुभ लक्षण माना जाता है) और गले के ऊपर केसर ( अयाल ) चमक रहे थे। इस पर कवि-कल्पना यह है कि रामावर्त रामावर्त नहीं बल्कि गले में धारण किया कौस्तुभ मणि है। इसी तरह कसर के बाल वाल नहीं बल्कि नीचे की कौस्तुभ मणि से फूट रही किरणे गले के भीतरी मार्ग से ऊपर आई हुई हैं। इस कल्पना में 'देवमणि' शब्द का बड़ा योग है, क्योंकि वह रामावर्त और कौस्तुभ-दोनों का वाचक है। इसलिए रोमावर्त पर कौस्तुमत्वारोप केसरों पर रश्मित्वारोप का कारण होकर यहाँ परम्परित रूपक बना रहा है और वह भी श्लिष्ट / श्व शन्द उत्प्रेक्षा का वाचक होने से उसका परम्परित रूपक के साथ अङ्गाङ्गिभाव संकर है। उसके साथ सहोदर-शब्द-वाच्य उपमा संसृष्ट हो रही है। सहोदर शब्द सादृश्य-वाचन में लाक्षणिक है। जैसे सहादर भाई परस्पर समान होते हैं, वैसे ही चन्द्रमा और कौस्तुभ की श्वेत किरणें मी समान थीं। सहोदर शब्द को लाक्षणिक न मानकर यदि वाचक ही माने तो उपमा नहीं बनेगी, क्योंकि कौस्तुम को किरणे और चन्द्रमा की किरणें सहोदर ही हैं। चन्द्रपा और कौस्तुम दोनों मन्थन के समय समुद्र में से निकलने के कारण सहोदर भाई हैं हो। 'केसर' 'केशर' ( रश्मिभिः ) में यमक भोर अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास शब्दालंकार है। * इस श्लोक से लेकर सातवें श्लोक तक घोड़े के विशेषण चल पड़े हैं / जहाँ एक ही वाक्य पाँच से लेकर पन्द्रह तक चला जाता है उसे 'कुलक' कहा करते हैं // 58 / / /
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________________ 5 . नैषधीयचरिते अजनभूमीतटकुटनोस्थितै'रुपास्यमानं तरणेषु रेणुमिः / रयप्रकर्षाध्ययनार्थमागतैर्जनस्य चेतोभिरिवाणिमाकितैः // 59 // अन्वयः-अजम्न...त्यतै; रेणुभिः रय-प्रकर्षाध्ययनार्थम् आगतैः अणिमाङ्कितैः जनस्य चेतोमिः इव . चरणेषु उपास्यमानम् / 59 // टीका-अजस्त्रम् निरन्तरम् तथा स्यात्तथा भूम्या; पृथिव्याः तटस्य तलस्येत्यर्थः कुट्टनेन शोदनेन ( उभयत्र 10 तत्पु० ) उस्थितैः उद्गतः ( तृ तत्पु० ) रेणुभिः धूलिमिः रयस्य वेगस्य प्रकर्षः अतिशय: तस्य अध्ययनार्थम् पठनार्थम् ( उभयत्र प० तत्पु० ) भागतेः आयातेः अणुनो मावः अणिमा अणुत्वम् अत्यन्तलधुपरिमाणमिति यावत् तेन अङ्कितः विशिष्टः युक्तरित्यर्थः अणुपरिमाणे रिति यावत् ( तृ० तत्पु० ) जनस्य लोकानाम् चेतोमिः मनोभिः इवेत्युत्प्रेक्षायाम् चरणेष पादेषु उपास्यमानम् सेव्यमानम् ( हयम् ) // 59 / / __ व्याकरण-उत्थितः उत् +/स्था+क्त कर्तरि / प्रकर्षः प्र+/कृष् +पञ् / अध्ययनार्थम अध्ययनायेति चतुर्थ्यर्थ में अर्थ के साथ नित्य समास / अणिमा अयोः अणुनो वा भाव इति भणु+ इमनिच् / ध्यान रहे कि भाव अर्थ में इमनिच् प्रत्यय से बनने वाले अणिमा, महिमा, गरिमा आदि शब्द पुल्लिङ्ग होते हैं। उपास्यमानम् उप+/आस् +शानच् कर्मवाच्य / हिन्दी-जो ( घोका ) लगातार ( पैर से ) मृतल को कूटते रहने के कारण उठी हुई धूलियों के अतिसूक्ष्म कणों से ऐसा लग रहा था मानो वेग की अधिकता सीखने हेतु आये हुए लोगों के अणु परिमाण वाले मन ( उसके ) चरणों की सेवा कर रहे हों / / 59 / / टिप्पणी-यहाँ गी तथ्य यह है कि जमीन खोदते रहने से सूक्ष्म धूलि-कण उसके पैरों पर चिपके रहते थे, इस पर कवि की कल्पना यह है कि वे धूलिकण नहीं हैं, प्रत्युत मानो घोड़े से अधिक वेग सोखने हेतु आये हुए मन हों। मन का वेग बड़ा तेज होता है। वह क्षण में कहीं का कहीं पहुँच जाता है। किन्तु नल का घोड़ा वेग में मन को भी परास्त किये हुए था। तभी तो मन उसके चेले बने,। इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षालंकार से व्यतिरेकालंकार की ध्वनि निकल रही है / साथ ही यहाँ स्वभावोक्ति भी है किन्तु दार्शनिक दृष्टि से कवि यहाँ एक त्रुटि कर बैठा है और वह यह कि उसने सूक्ष्म धूलि कण के लिए मन का अप्रस्तुत विधान कर दिया है। 'अयोगपद्यात् शानाना तस्थाणुत्वमिहेष्यते' इस तर्क से मन अणु माना गया है। अणु परिमाण परमाणु और द्वयणुक में ही रहा करता है और साथ ही अणु परिभाष वाले पदार्थ इन्द्रियातीत होते हैं, देखने में नहीं आते। घोड़े के पैरों पर लगे धूलि-कण दीख रहे हैं, अतः वे व्यणुक है, जो महत्परिमाय वाले होते हैं। दीखने वाले महत्परिमाण के धूलिकणरूपी त्र्यणुकों पर न दोखने वाले अणु परिमाण वाले मनों की कल्पना में सामजस्य नहीं बैठ रहा है // 59 // चलाचलप्रोथतया महीभृते स्ववेगदर्यानिव वक्तमुत्सुकम् / भलं गिरा वेद किलायमाशयं स्वयं हयस्येति च मौनमास्थितम् // 6 // 1. नोद्गतै
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________________ प्रथमः सर्गः अन्वयः-चलाचल-प्रोथतया महीभृते स्ववैग-दर्पान् वत्तुम् उत्सुकम् इव "गिरा अलम् , बार स्वयम् हयस्य आशयम् वेद" इति च मौनम् आस्थितम् / टीका-चल्लाक्लः अतिशयेन चञ्चलः प्रोथः घोणा, नासापुटम् ( कर्मघा० ) यस्य तथा मूल भावः तत्ता तया ( ब० वी० ) 1'घोणा तु प्रोथमस्त्रियाम्' इत्यमरः) महीभृते नृपाय नठाव कर प्रतीत्यर्थः स्वस्य आत्मनः वेगः रयः तस्य दर्पान्। अहंभावान् ( उभयत्र 50 तत्पु०) वर ४त्सकम उत्कण्ठितम् इवेत्युत्प्रेक्षायाम् 'गिरावाण्या वचनेनेत्यर्थः अलं वाचा कथनस्व नाकवश्यकतेति भावः, अयम् राजा नल: हयस्य ( जातावेकवचनम् ) अश्वानामित्यर्थः प्राशयर अभिप्रायम् वेद जानाति किज निश्वयेन' इति एतत्कारणात् एनद् वि वार्य वा मौनम् तृष्पीमा भास्थितम् आश्रितम् प्राप्तमिति यावत् / / 60 / / . व्याकरण-चलाचलः अतिशयेन चल इति 'चरि-चलि पति वदीनां दिर्व वनमाक् चाभ्यास इससे 'चल' को दित्व और पूर्व 'चल' को आक् / महीं 'विमर्तु' शोलभस्येति मही+Vy+स्विर कर्तरि / गिरा अलम् वारणार्थ में तृतीया। वेदमविद् + लट् ( 'विदो लटो वा' (पा० 3454) लट को जल् / प्रास्थितम् 'आ' उपसर्ग लगने से/स्था धातु सकर्मक बना हुआ है। हिन्दी-जो (घोड़ा ) नथुनों के खूब हिलते रहने से राजा को अपने वेग के दो को बहले हेतु उत्सुक जैसा लग रहा था, ( किन्तु ) “यह निश्चय हो घोड़ों के मन का मात्र स्वयं जालन्दे हैं"-यह सोचकर चुप रह जाता था // 6 // टिप्पणी-यहाँ नथुनों की चञ्चलता पर बोलने की उत्सुकता की कल्पना करने से उत्पेक्षा है चुप रह जाने के हेतु की कल्पना 'स्वयं वेद' में है, किन्तु वाचक पद न होने से वह गम्म ही रह गई है / चलाचल में छेक है। ___ 'स्वयं वेद'-राजा नल अश्वशाल के बड़े वेत्ता थे और अश्वों का भाशव समान लेते स सम्बन्ध में कवि ने सर्ग 5 श्लोक 60 में इसीलिए उन्हें 'भाव-बोध चतुरं तुरगाणाम्' कहा है // 6 // महारथस्याध्वनि चक्रवर्तिनः परानपेक्षोद्वहनाधशः सितम् / रदावदातांशुमिषादनीदृशां हसन्तमन्तर्बजमर्वतां रवेः // 6 // अन्धयः-महारयस्य चक्रवर्तिनः अध्वनि परानपेक्षोदहनात् यशःसितम् (अतएवा) रदा शिश महारथस्य चक्रवर्तिनः रवेः अध्वनि अनीशाम् अर्वताम् बलम् अन्तः हसन्तम् ( हयम् ) / टोका-महारथः एकाकी दश-सहस्रबनुर्धारिभिः सह युद्धयमानो वीरः यथोक्तम् -'एको दक्षसहस्राणि योषयेद यस्तु धन्विनाम् / शस्त्रशास्त्र-प्रवीणश्व विशेयः स महारथ.' / / तस्य. चक्रवर्तिनः पक्रम राष्टम वर्तयति संचालयति शास्ति वेति तथोक्तस्य सार्वभौमस्येत्यर्थः नलस्य अध्वनि मान परेषाम अन्येषाम् ( अश्वानाम् ) न अपेक्षा आवश्यकता यस्मिन् कर्मणि (20 व्र०) यथा स्थानमा उद्वहनान् धारणात् ( कारणात् ) यशसा कोत्या सितम् श्वेतम् ( हयम् ), (अतएव ) रदानाम् दन्तानाम् अवदाताः स्वच्छा ये अंशवः किरणाः (कर्मधा० ) तेषाम् मिषात् व्याजात् (प.रा.) महारथस्य महान् विशालः रथो यस्य तस्य ( ब० वी०) चक्रवर्तिनः चक्रेण एकेन बन रथाङ्गेन वतितुं शीलमस्येति तथोक्तस्य रवेः सूर्यस्य अध्वनि आकाशे इत्यर्थः अनीदशाम नाईक
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________________ मैषधीयचरिते नाम् अर्थात् परापेक्षोदहनात् ईदृशयशोरहितानाम् असितानाम् हरितामित्यर्थः भवंताम् अश्वानाम् बलम् शक्तिम् अन्तः मुखमध्ये हसन्तम् हासविषयीकुर्वन्तम् ( हयम् ) / केवलम् आत्मना महारथिनं बसमुदहन् हयः सप्तमिलित्वा रविम् उदहतां तदश्वानामुपरि हसति स्मेति भावः / / 21 / / व्याकरण- चक्रवर्तिनः चक्र+Vवृत् +णिन् ताच्छील्ये। ईदृशाम् अयम् इव दृश्यते इति दम् +/दृश् + क्विन् कर्मणि / न्दिी -जो ( घोड़ा ) महारथ ( महारथी ), चक्रवतों ( सार्वभौम ) नल के मार्ग में बिना अन्य ( घोड़ों ) को आवश्यकता के ( उसे ) ले जाने के कारण ( अजित ) यश से सफेद बना हुआ पा (और इसीलिए ) जो महारथ ( विशाल रथ वाले ) चक्रवर्ती ( एक चक्र से काम लेने वाले ) सूर्य के मार्ग (आकाश ) में ( उसे ) उसी तरह न ले जाने के कारण वैसे-जैसे ( सफेद ) न बने हुए बोड़ों के बल पर ( अपने ) दांतों की निर्मल किरणों के बहाने भीतर ही भीतर हँस रहा था / / 6 / / टिप्पणी-श्रध्वनि चक्र० -चाण्डू पण्डित ने सूर्य-पक्ष में अध्वनि शब्द को पृथक् न रखकर बज्यनिचक्र. एक समस्त पद बनाया है और अर्थ किया है-'अध्वनि ध्वनिरहिते चक्रे वर्तते श्त्येवंशोकस्य' अर्थात् जिसका रथ-चक्र शब्द नहीं करता है। सूर्य के रथ के सात घोड़ों और एकही चक्र के लिए देखिये ऋ० ०-'सप्त युआन्ति रथमेकचक्रम्'। घोड़े भी हरे रंग के होते हैं / जिससे सूर्य का नाम हो हरिदश्व पड़ा हुआ है। इस श्लोक में नल के अश्व की सूर्य के अश्वों से तुलना करता हुआ कवि पहले तो साम्य बताता है कि सूर्य के घोड़े यदि महारय और चक्रवती को ले जाते है, तो नल का घोड़ा भी महारथ और चक्रवतों को ले जाता है, किन्तु ध्यान रखिये कि :यह साम्य केवल शाब्दिक ही है, आर्थ नहीं। बैसे सूर्य का महारथत्व और चक्रवर्तित्व और ही है लेकिन कवि ने निपुणता के साथ दो मिन्न भिन्न बों का समान शब्दों द्वारा अमेदाध्यवसाय कर रखा है, इसलिए इस अंश में यहाँ मेदे अमेदातिभयोक्ति है और वह मी श्लेष गर्भित / साम्य के बाद कवि बैषम्य बताता है कि नल का घोडा जहाँ अकेले ही उन्हें ले जाता है जिसके कारण वह यश से धलित बना हुआ है, बहीं दूसरी मोर सूर्य को एक नहीं, बल्कि मिलकर सात घोड़े ले जाते हैं, जिससे बे कुछ भी यश अजिंत न कर पाते और बाल होने के स्थान में हरे के हरे ही रह जाते हैं। इस तरह नल के घोड़े में आधिक्य बताने से व्यतिरेकालंकार है / नल का घोरा सफेद तो स्वभाव से ही था, किन्तु कवि की कल्पना है कि मानो बश से सफेद हो गया हो, इस तरह यह उत्प्रेक्षा बन रही है जो वाचक शब्द न होने से गम्य ही है, वाच्य नहीं होने पाई। अपने विजयाभिमान में नल का घोड़ा सूर्य के घोड़ों की दुर्बलता पर हँस बैठता है / परन्तु घोड़े ने क्या हँसना है; हंसना तो केवल मनुष्य-मात्र की विशेषता है, अन्य कोई चीव नहीं हँसता / इस तरह घोड़े का हँसना केवल कवि कल्पना है, जो यहाँ मी उत्प्रेक्षा बना रही है और वह भी गम्य, वाच्य नहीं। हंसने की कल्पना के पीछे जो तत्त्र काम कर रहा है वह है घोड़े के दांतों की सफेद छटा। इस प्रस्तुत तथ्य का अपह्नव-प्रतिषेध-करके ही कवि ने हासत्व की स्थापना की है, इसलिए यह अपह्नति है और वह भी कैतवापह्नुति / इस तरह इन सभी अलं. कारों का संकर बनाकर कवि ने अपनी अलंकृत शैली का यहाँ अच्छा प्रदर्शन किया है। किन्तु फिर
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________________ प्रथमः सर्गः भी फूलों में कोटे की तरह एक दोष घुस ही बैठा और वह है विधेयाविमर्श / 'अनोदृशाम्स अर्थ है 'जो ( घोड़े ) रेसे नहीं है। उनकी नल के घोड़े ने खिल्ली उड़ाई / यहाँ प्रतिषेध की प्रधानता है, इसलिए प्रतिषेध-वाचक नञ् का समास नहीं होना चाहिए था। समास होने से प्रतिषेधी प्रधानता अथवा विधेयता नष्ट हो रही है। इस तरह विधेय का विमर्श न होने के कारण बहा विधेयाविमर्श दोष है // 6 // . सितविषश्चञ्चलतामुपेयुषो मिषेण पुच्छस्य च केसरस्य च / स्फुट' चलचामरयुग्मचिह्न रनिह्ववानं निजवाजिराजताम् // 62 // अन्वयः-सित-विष: चञ्चलताम् उपेयुषः पुच्छस्य च केसरस्य च मिषेण चलच्चामर-युग्मचिह्नः निज वाजि-राजताम् अनिढुवानम् इति स्फुटम् / / टीका-सिता-शुभ्रा स्विट =कान्तिः (कर्मधा०) यस्य तथा भूतस्य ब० वी०) चञ्चलताम् = चञ्चलस्य मावम् उपेयुष = प्राप्तस्य पुग्छस्य-लाङ्गलस्य केसरस्य= स्कन्धगतकेशसमूहस्य सटाबा इति यावत् मिषेण = व्याजेन चामरयोः युग्मम् =द्वयम् (10 तत्पु० ) चामर-युग्मम् चल इतस्ततः प्रचलद चामरयुग्मम् ( कर्मध० ) तस्य चिह्नः लक्षणः ( 10 तत्पु०) ताजिनां राजाइति वाजिराजः ( 10 तत्पु० ) वाजिराजस्य भावः वाजिराजता निजा=चासौ बाजि० ( कर्मधा) ताम् अनिझुवानम् = प्रकटयन्तम् इति स्फुटम् उत्प्रेक्षे / कस्यापि राशो वीज्यमानं चामर द्वयं चिदं भवति, नलस्य वाजिराजोऽपि केसर-पुच्छच्छलेन तद् राजचिहूं धारयति स्मेति भावः // 6 // व्याकरण-कान्तिः कम्+क्तिन् भावे। उपेयुषः उप+Vs+वसुः ( लिडर्थ ) चिह: चिह्न करोतीति चिह्न + णिच् ( नामधा० )+ल्युट भावे / वीजन क्रिया बार-बार होती रहने से चिहः यह बहुवचन हुआ। अन्यत्र चिह्नकैः पाठ मिलता है। वहाँ चिह्नानि एव चिह्नकानि इस पानम् न नि+/हु = शानच् कर्तरि / हिन्दी-जो (घोड़ा ) सफेद छटा वाले एवं हिलते हुए पूंछ और केसर ( अयाल ) के बहाने ( आगे-पीछे ) डुलाये जा रहे दो चामरों के चिह्नों से मानो अपना वाजिराजत्व प्रकट कर रहा था // 62 / / टिप्पणी-यहाँ भी पूंछ और केसर के बहाने राज-चिह्न-रूप दो चामरों की कल्पना करने से अपह्नति और उत्प्रेक्षा का संकर है / 'स्फुट' शब्द उत्प्रेक्षा का वाचक है। अनिवानम् में भी नम् को विधेयता बनाये रखने के लिए उसे समास में नहीं लाना चाहिए था। विधेयता नष्ट होने से वहां भी विधेयाविमर्श दोष है / / 6 / / अपि द्विजिह्वाभ्यवहारपौरुषे मुखानुषक्तायतवल्गुवल्गया। उपेयिवांसं प्रतिमल्लतां रयस्मये जितस्य प्रसमं गरुत्मतः // 63 // अन्वयः-रय-स्मये प्रसभम् जितस्य गरुत्मतः मुखा."या द्विजिह्व..रुषे अपि प्रतिमल्लवार उपेयिवासम् ( हयम् ) / 1. स्फुटा, 2. चिह्नकैः /
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________________ नैषधीयचरिते टीका-रयस्य = वेगस्य स्मये - अभिमाने | 10 तत्पु० ) प्रसमम् = बलात् यथा स्यात, तथा वितस्य = पूर्वमेव पराभूतस्य गरुत्मतः= रुडस्य मुखा. मुखे वक्त्रे अनुषकारग्ना ( स० तरपु.) आयतादीर्घा वक्षगुः मनोहरा च या वलगा प्रग्रहः मुखरज्जुरित्यर्थः ( सर्वत्र कर्मधा० ) द्विजिह्व-वे जिह्वे येषां ते ( बं० वी० ) द्विजिह्वाः सा तेषाम् अभ्यवहारः भक्षणम् (ष० तत्पु०) अस्मिन् यत् पौरुषं पुरुषकारः विक्रम इति यावत् तस्मिन् / स० तत्पु०) अपि प्रतिगतो मल्लः प्रतिमत्तः ( प्रादि तत्पु० ) तस्य मावः तत्ता ताम् प्रतिस्पर्षिताम् अपेयिवांसम् प्राप्तवन्तम् ( हयम् ) / ' पूर्व वेगामिमाने बलात् गरुडं पराभूयेदानी समक्षण-कायेंऽपि हयरतं जितवानिति भावः / / 63 / / .. व्याकरण-स्मयः स्मि+अच् मावे। गरुन्मतः गरतः पक्षः अस्य सन्तीति गरुत् + मतुप् इति गरुन्मान् तस्य, अपदान्त होने के कारण 'त्' को 'द्' नहीं हुआ। अनुषक्त अनु+ सं+क्त कर्तरि, अनु उपसर्ग पूर्व में होने से 'स्' को '' / प्रायन आ+/यम् + क्त कर्तरि / साम्यवहारः अभि+ +VE+घञ् भावे / ध्यान रहे कि./ह धातु से अभि और अब इन दो सस के लगने से 'खाना' अर्थ हो जाता है। पौरुषम् पुरुषस्य भाव इति पुरुष+मण भावे / पेयिवासम्-उप+Vs+बसु (लिट् के अर्थ में उपेयिवान् तम् ) / हिन्दी-जो (घोडा) वेग के अभिमान में ( पहले ही ) परास्त किये हुए गरुड़ के सोपों को माने की बहादुरी में मो ( अब ) मुख में लगी हुई लम्बी और सुन्दर लगाम ( के व्याज ) से (मानो) पतिस्पर्धा कर रहा था // 63 / / टिप्पणी=स श्लोक में यद्यपि न अपह्नुति का और न उत्प्रेक्षा का वाचक शब्द है, तथापि मन्वोत्प्रेक्षा के साथ गम्य ( आर्थ ) अपह्नति का संकर है। 'वल्गु' 'वल्ग' में छेकानुपास है // 63 // स सिन्धुजं शीतमहसहोदरं हरन्तमुच्चैःश्रवसः श्रियं हयम् / जिताखिलक्ष्माभृदनल्पलोचनस्तमारोह क्षितिपाकशासनः // 14 // अन्वय-जिताखिल-क्ष्माभृत् अनल्प-लोचनः स क्षिति-पाकशासनः सिन्धुजम् शीतमहस्सहोदरम् उच्चैः अवसः श्रियम् हरन्तम् तम् हयम् आरुरोह / टीका-जिताः परास्ताः अखिलाः सर्वे क्ष्माभृतः- राजानः ( कर्मधा०) येन तयाभूतः 1.बी.) अथ च जिता अखिलाः धमाभृतः पर्वता येन सः इन्द्रप्प हि स्व-वज्रेण पर्वतानां साः छिन्ना आप्तन् इति पुराण वार्ता, अनरूपे = आयते लोचने = नेत्रे अन्यत्र अनल्पानि पनि सहस्रमिति यावत् लोचनानि यस्य सः (ब० वी० ) स नलः क्षितेः पृथिव्याः= पाकशासनः इन्द्रः ( इन्द्रो मरुत्वान् मघवा विडोजाः पाकशासनः, इत्यमरः ) सिन्धुषु जायते इति सिन्धुजम् = ( उपपद तत्पु०) सिन्धुदेशोद्भवमित्यर्थ: अथ च सिन्धोः = समुद्रात जायते इति उच्चैःश्रवा हि मन्थनसमये समुद्रादुर्भूतः शीत० = शीतं महः तेजो रश्मय इति यावत् यस्य तथा मूतस्य ( व० वी० ) चन्द्रस्य सहोदरम् = सदृशम् अथ च सोदरभ्रातरम् उच्चैःश्रवसः = इन्द्रास्वरूप श्रियम् कान्तिम् हरन्तम् चोरयन्तम् तत्समानमित्यर्थः तम् भृत्यः मानीतम् हयम् = अश्वम् बालरोह %आरूढवान् / / 64 / /
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________________ प्रथमः सर्गः ज्याकरण-चमाभूत-हमा पृथिवीं विमर्तीति मा+/भृ+ क्षिप् कर्तरि। पाक-शासनः पाकस्य = एतन्नाम्नो राक्षसविशेषस्य शासनः- शासिता पराजेवेत्यर्थः शास्त्रीति /स् + ल्यु वर्तरि / सिन्धुजम् - सिन्धु +/जन्+8 / प्राररोह आ+/रुह् + लिट् / / हिन्दी-सभो महीमृतों ( राजाओं) को जाते हुये एवं अनल्प (विशाल) आँखों वाला वह नल जो पृथिवी का समी महीभृतों ( पर्वतों) को नीते और अनल्प ( अनेक ) आँखों वाला इन्द्र था सिन्धु ( देश ) में उत्पन्न तथा चन्द्रमा के सहोदर ( समान ) उस घोड़े पर चढ़ गया जो सिन्धु (समुद्र ) में उत्पन्न तथा चन्द्रमा के सहोदर (माई) उच्चैःश्रवा की कान्ति चुरा रहा था। टिप्पणी-यहाँ नारायण ने नल के घोड़े और उच्चैःभवा के सादृश्य के मापार पर नल को 'पाकशासन इन्द्र इव' लिखकर इन्द्र का उपमेय बनाया है। किन्तु मल्लिनाथ 'क्षितिपाकशासन इत्यतिशयोक्तिः' कह रहे हैं। अतिशयोक्ति इसलिये नहीं हो सकती कि आरोप का विषय नल यहाँ 'सः' शब्द से अनिगोणं अर्थात् शब्दोपात्त हो है, भमेदाध्यवसाय नहीं होने पाया है। नारायण की उपमा भो नहीं हो सकती, क्योंकि औपम्य-वाचक शब्द यहाँ मूल में कोई नहीं है, इसलिये यह स्पष्टतः रूपक का विषय है, नल पर इन्द्रत्व का आरोप है। वह 'क्ष्माभृद्' और 'अनल्प' में शिकष्ट है। 'उच्चैः श्रवसः श्रियं हरन्तम्' में उपमा स्पष्ट है, क्योंकि दण्डी ने 'कान्ति चुराता है' 'टक्कर या लोहा लेता है' 'सामना करता है' 'एकसाथ तराजू पर बैठा है' 'उसका सहोदर है।' इत्यादि समी लाक्षणिक प्रयोगों का सादृश्य में ही पर्यवसान माना है, इसलिये इस अंश में उपमा है, जो 'सिन्धुज' और 'सहोदर' में श्लिष्ट है। ___ पुराणानुसार समुद्र-मन्थन से जो चौदह रत्न निकले उनमें चन्द्रमा और उच्चैःश्रवा भी है जिसे इन्द्र ने रख लिया था / इन्द्र के 'सहस्र लोवन' होने के सम्बन्ध में यह कथा आती है कि एक बार इन्द्र गौतम ऋषि की अनुपस्थिति में उनकी पत्नी अहल्या के साथ व्यभिचार कर बैठा। गौतम को पता चल गया / उन्होंने जहाँ अपनी पत्नी को शाप द्वारा पत्थर बना दिया वहाँ इन्द्र को मी शाप दिया-'सहस्र-भगों भव'। पीछे अनुनय-विनय करके इन्द्र ने ऋषि द्वारा 'भगों' को लोचनों में परिवर्तित करवा दिया // 64 // निजा मयूखा इव तीक्ष्ण'दीधिति स्फुटारविन्दाक्तिपाणिपङ्कजम् / __ तमश्ववारा जवनाश्वयायिनं प्रकाशरूपा मनुजेशमन्वयुः // 65 // अन्वय-निजाः प्रकाश-रूपा अश्ववारा स्फुटा...जम् जवनाश्वयायिनम् तम् मनुजेशम् ( निजाः प्रकाश-रूपाः ) मयूखाः ( स्फुटा...जम् नवनाश्व० ) तीक्ष्यदीधितिम् व अन्वयुः / टीका-निजाः= स्वकीया: प्रकाशम् = उज्ज्वलम् रूपम् = आकारो येषां ते (ब० वी०) परिहित-श्वेतवसना इत्यर्थः अश्वधारा:=अश्वारोहिणः स्फुटा०-स्फुटम् स्पष्टम् यथा स्यात्तया अरविन्दैः कमले: रेखारूपैरित्यर्थः अक्षितम् =चिह्नितम् ( तृ० तत्पु० ) पाखिः हस्तः ( कर्मधा०) पहजम् = इव ( उपमित तत्पु० ) यस्य तथाभूतम् ( ब० प्रा० ) अर्थात् यस्य हस्ते पद्माना रेखा: चिह्नानि आसन् जवनः = अतिवेगवान् ( 'जवनस्तु जवाधिकः' इत्यमरः ) योऽश्वः हयः ( कमधा० ) 1. तिग्म /
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________________ नैषधीयचरिते तेम यातुं-गन्तुं शीलमस्येति तथोक्तम् ) ( उपपद तत्पु० ) तम् मनुजानाम् ईशम् ( 10 तत्पु०) राजानं नलम् निजः प्रकाशः= तेजः रूपम् स्वरूपं ( कर्मधा० ) येषां ते प्रकाशात्मका इति यावत् मयूखाः=किर पाः स्फुटा-स्फुटम=विकसितम् अरविन्दं तेन प्रक्षितम् - सनाथं युक्तमिति यावत् 'कमलपाणिः सूर्यः' इत्यागमवचनात् / जवनैः अश्वैः सहसंख्यकैः यातोति तथोक्तम् तीचणाः = कठोरा रश्मयः= किरणाः यस्य तम् (ब० बी० ) तीक्ष्णदोधितिम् सूर्यम् इव अन्वयुः= अनुगमनं चक्रुः / यथा मयूखाः सदैव सूर्यस्य सहचारिणस्तथैवं अश्वारोहिणोऽपि नलस्येति मावः / / 65 / / व्याकरण-अश्ववाराः अश्वान् वारयन्ति वृण्वते वेति अश्व+/g+अण कर्तरि / मयूखाः मीनन्ति= हिंसन्ति तम इति / मी+ख (ओपादिक ) / जवनः जवतीति /जु+ युच् कर्तरि / यायिनम् / या +णिन् कर्तरि ( शालायें ) / अन्वयुः अनु+या+लङ् / हिन्दी-(राजा के ) प्रकाश-रूप ( उज्ज्वल आकार के निजो अश्वारोही स्पष्टतः कमलों ( की रेखाओं ) से चिह्नित कमल-सदृश हाथ वाले तथा तेज घोड़े से चलने वाले उस नरेन्द्र ( नल ) के पीछे-पीछे इस तरह चल दिये जैसे प्रकाश-रूप ( तेजस्वरूप ) किरणे खिले हुये कमल से चिह्नित (युक्त ) हाथ वाले हाथ वाले तथा तेज घोड़ों से चलने वाले सूर्य के पीछे-पीछे ( उसकी ) निजी किर चला करती हैं / 65 / / टिप्पणी-यहाँ राजा नल की सूर्य से तुलना होने से उपमा है, किन्तु दोनों का सादृश्य स्वामाविक नहीं, शाब्दिक है, अतः इसे हम श्लेषानुप्राणित उपमा कहेंगे // 65 / / चलनलंकृत्य महारयं' हयं स'वाहवाहोचितवेषपेशलः / प्रमोदनिःस्पन्दतराक्षिपक्ष्मभिर व्यलोकि लोकैनंगरालयैर्नलः / / 66 // अन्वय-वाह...पेशलः स नल: महारयम् हयम् अलंकृत्य चलन् प्रमोद...भिः नगरालयः लोकैः व्यलोकि। टीका-वाहवाहः = अश्वारोही तस्य उचितः- योग्यः (ष 0 तत्पु० ) यो वेषः नेपथ्यम् परिधानादिकमित्यर्थः ( कर्मधा० ) तेन पेशलः सुन्दरः ('चारौ दक्षे च पेशतः' इत्यमरः ) स नलः महान् रयो वेगः यस्य तम् (ब० बी०) हयम् भरवम् अलंकृत्य = सुशोभितं कृत्वा स्वयमश्वस्य भूषणं भूत्वेतियावत् चलन् = गच्छन् प्रमोदः प्रकृष्टो मोदः प्रमोदः ( प्रादि तत्पु०) आनन्दातिशयः तेम् निस्पन्दतराणि ( तृ. तत्पु०) निर्गतः स्पन्दः क्रिया येभ्यः इति (प्रादि ब० वी० ) निश्चलानी. त्यर्थः अतिशयेन निस्पन्दानि इति ०तरापि अक्षिपक्ष्माणि ( कर्मधा० ) अचणाम् नेत्राणाम् पक्षमाणि (प० तत्पु० ) रोमाणि येषां तथाभूतैः (ब० वी०) निनिमेषरित्यर्थः नगरम् आलयः = स्थानं (कर्मधा० ) येषां तैः ( ब० बी० ) नगर-वासिभिः लोकैजनैः व्यलोकि दृष्टः // 66 // म्याकरण-वाह-वाह; वहति पुरुषम् इति वाह:वह +घञ् ( कर्तरि ) अश्वः, तस्य वाहः = वाहयति सचालयतीति वह +णिच् +घञ् कर्तरि / अर्थात् अश्वारोही अथवा वाहनं = वाहः सञ्चालनम् अश्वस्य वाहे सञ्चालने उचित० / अलंकृत्य अलम् /+ल्यप् / नगरम नगाः सन्त्यरिमनिति नग+र: / म्यलोकि वि+/eोक् +लुङ् ( कर्मवाच्य ) / 1. खवाह.
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________________ प्रथमः सर्गः हिन्दी-अश्वारोही-योग्य वेष से सुन्दर बना हुआ वह नल बड़े वेग वाले घोड़े को सुशोभित करके जाता हुआ नगर के लोगों ने आनन्दातिशय के कारण बिना जरा भी पलक झपकाए आँखों से देखा / / 66 // टिप्पणी-यहाँ 'वाह' 'वाहो', 'लोकि' 'लोकैः' में छेकानुपास और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। 'रयं' 'हयं में 'अयं' का तुक होने से अन्त्यानुप्रास भी है। यद्यपि अन्त्यानुमास पादान्त में हुआ करता है, तथापि साहित्यदर्पणकार के 'अयं पदान्तेऽपि भवति यथा 'मन्दं हसन्तः पुलकं वहन्तः' इस उक्ति के अनुसार यह पदान्त-गत मी हो नाता है / .66 // क्षणादथैष क्षणदापतिप्रमः प्रमानाध्येयजवेन वाजिना। सहैव तामिर्जनदृष्टिवृष्टिभिर बहिः पुरोऽभूत्पुरुहूतपौरुषः // 67 // अन्वयः-अथ क्षणदा-पति-प्रभः पुरुहूत-पौरुषः एषः प्रमजनाध्येय-जवेन वाजिना क्षणात तामिः जनदृष्टि-वृष्टिभिः सह एव पुरः बहिः अभूत् / ____टीका-अथ = एतदनन्तरम् क्षणदा-रात्रिः ['रात्रिखियामा रणदा क्षपा' इत्यमरः] तस्याः पतिः= स्वामी चन्द्र इत्यर्थः ( 10 तत्पु०) तस्य प्रभा इव प्रभा कान्तिः ( उपमान तत्पु०) यस्य तथाभूतः (ब० वी०) पुरुहूतः इन्द्रः तस्य पौरुषम् बलं ( 10 तत्पु० ) इव पौरुषम् ( उपमान तत्पु० ) यस्य सः (ब० वी० ) एषः नलः प्रमजनो वायुः तन अध्येयः अध्येतुं योग्यः (तृ० तत्पु०) जवः वेगः ( कर्मधा० ) यस्मात् तथाभूतेन (ब० वी० ) वाजिना अश्वेन ( करप. भूतेन ) क्षातक्षणे एव तामिः दृष्टीनाम् = नेत्र, पाम् वृष्टिभिः = पातः इत्यर्थः सह =समम् एव पुरः = नगरात् वहिः= अभूत् अभवत् / नलः सहैव नगरतः लोकदृष्टितश्चापिदूरममव दित्यर्थः / / 67 / / व्याकरण:-अणदा क्षणम् उत्सवम् आनन्दमिति यावत् ददाति ( रात्रिश्चरेभ्यः ) इति क्षण+/दा+कः / यास्क ने रात्रि को भी रात्रि इसीलिये कहा है कि वह 'रमयति = आनन्दयति (नक्तंचराणि भूतानि ) / पुरुहूतः पुरुमिः= बहुभिः अथवा पुरु बहु यथा स्यात्तथा इतः स्तुतः इति पुरु+/ह+क्तः कर्मणि। प्रभम्जन-प्रमनक्ति त्रोटयति वृक्षादोन् इति प्र+/भञ्ज + ल्युः कर्तरि / अध्येयः अध्येतुं योग्य इति अधि+:+यत्। दृष्टिः, वृष्टिः दृश् , वृष् +क्तिन् मावे / पुरो बहिः के योग में पञ्चमी। हिन्दी-तदनन्तर चन्द्रमा की सी कान्ति तथा इन्द्र का-सा बल वाला यह नह जायु को (मी) शिक्षा देने वाले घोड़े से लोगों के उन दृष्टि पातों के साथ ही नगर से बाहर हो गया।। 67 // टिप्पणी-यहाँ राजा की उपमा सौन्दर्य में चन्द्रमा से एवं पौरुष में इन्द्र से दी जाने के कारण उपमा है। लोगों की आँखों से और नगर से एक साथ ही ओझल होना सम्भव नहीं। पहले नल नगर से बाहर हुमा, तब लोगों की आँखों से बाहर हुआ, अर्थात् लोगों की आँखों से बाहर होने का करण है, उसका नगर से बाहर हो जाना, किन्तु कारण को पहले और कार्य को पीछे न बताकर यहाँ दोनों एक साथ बताये गये हैं, इसलिए यह कार्यकारण-पौर्वापर्य-विपर्ययातिशयोक्ति है और
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________________ नैषधीयचरिते इसके साथ 'सह'-शब्द वाच्य सहोक्ति है। प्रमज०-न घोड़े ने शिक्षक बनना है न वायु ने शिष्य, इसलिए यह लाक्षणिक प्रयोग है जिसका अभिप्राय यह है कि घोड़ा वायु से भी तेज दौड़ने वाला था। 'क्षणा' क्षणे' में छेकानुप्रास है। 'पुरो' 'पुरु' 'पौरु' में व्यजनों की आवृत्ति एक से अधिक बार होने से यहां छेक न होकर वृत्त्यनुपास ही है। 'दृष्टि' 'वृष्टि' में 'ऋष्टि'-'ऋष्ट' की तुक बनने से पदान्त-गत अन्त्यानुप्रास है // 67 // ततः प्रतीच्छ प्रहरेतिमाषिणी परस्परोल्लासितशल्यपल्लवैः / मृषामृधं सादिबले कुतूहलानलस्य नासीरगते वितेनतुः // 18 // अन्धयः-ततः 'प्रतोच्छ, प्रहर' इति भाषिणो परस्पर वैः नासीर-गते नलस्य सादि-बले कुतू. हलात् मृषा मृधम् वितेनतुः। - टीका-ततः = तत्पश्चात् 'प्रतीछ=गृहाण, प्रहर=प्रहारं कुरु' इति भाषिणी = वदन्ती परस्परम् = अन्योन्यम् यथा स्यात्तथा उस्लासितानि = उत्थापितानि शल्यपल्लवानि तोमराग्राणि (कर्मधा० ) शल्यानाम् पल्लवानि (प० तत्पु० ) याभ्यां तथाभूते ( ब० वी० ) नासीरम् = सेनामुखम् गते- प्राप्त ( 'सेनामुखं तु नासीरम्' इत्यमरः) सादिनाम् = अश्वारोहिणाम् बले- सेना. द्वयम् (10 तत्पु० ) कुतूहखान-कौतुकात् मृषा= मिथ्या मृधम् = युद्धम् ('मृधमास्कन्दनं संख्यम्' इत्यमरः ) वितेनतुः चक्रतुः / अश्वारोहिणां सेनाद्वयं परस्परं कृत्रिम युद्धमकरोदिति मावः // 68 // ___व्याकरण-प्रतीच्छ = प्रति+Vs+लोट (मध्य० पु. ) भाषिणी-भाषेते इति /माष् पिन कतीर, ध्यान रहे कि माषिणी शब्द यहाँ नपुंसक प्रथमा द्विवचन है। परस्परम् परं परम् इति कस्कादि होने से सकार हो गया है उल्लासित= उत् +/लस्+पिच्+क्तः कर्मणि / वितेनतुः= वि+/तन+लिट् (प्र० पु० दि०)। हिन्दी-तदनन्तर-'लो ग्रहण करो' 'प्रहार करो'- इस तरह कहती हुई और परस्पर (प्रहार करने हेतु ) मालों के किनारों को उठाये, सेना के अग्र-माग में स्थित नरू की दो घुड़सवार सेनायें कौतूहल-वश नकली लड़ाई लड़ने लगीं / / 68 / / टिप्पणी-विद्याधर ने यहाँ अतुपासोपमालंकार लिखा है। अनुप्रास तो 'पर' 'परो' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है ही किन्तु उपमा किस स्थल में है-यह हमारी समझ में नहीं आ रहा है। प्रयातुमस्माकमियं कियत्पदं धरा तदम्मोधिरपि स्थलायताम् / इतीव वाहैर्निजवेगदर्पितैः पयोधिरोधक्षममुद्धतं रजः // 69 // अन्वयः-इयम् धरा अस्माकम् प्रयातुम् कियत् पदम् ? तत् अम्भोधिः अपि स्थलायताम् इति श्व निज-वेग-दर्पितैः वाहै: पयोधि-रोध क्षमम् रज: उद्धतम् / टीका-इयम् धरा= पृथिवी अस्माकम् प्रयातुम् = गन्तुम् कियत् पदम् = पाद-विक्षेपः ? न किमरीति काकुः न पर्याप्तमिति भावः पद शब्दोऽत्र जातावेकवचनम् द्वित्राणि पदान्येवभविष्यन्ति तत् तस्मात् कारणात् आभोधेिः समुद्रः अपि स्थलायताम् = स्थानम् इव आचरतु गमनार्थ स्थली.
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________________ प्रयमः सर्ग: मस्वित्यर्थः इति विचायेंत्यर्थः / श्वेत्युत्प्रेक्षायाम् निजः = स्वीयः यो वेगः रयः (कर्मधा०) तेन दतिः दपंप्रापितः ( तृ० तत्पु०) वाह:- अश्वैः पयोधेः-समुद्रस्व रोधः= वारणं पूरणमिति यावत् (प० तत्पु० ) तत्र समम्स मर्थम् ( स० तत्पु०) रजः धूलि: उखुतम् = उत्यापितम् ! समुदं धूलिनिः प्रपर्य स्थलीकृस्य च वयं सुखेन संचरिष्याम इति मावः / / 69 / / - व्याकरण-अम्मोधिः अम्मांसि जलानि धीयन्तेऽत्रेति अम्मस् + धा+किः अधिकरणे / इसी तरह ‘पयोधि' मी समझिये ! स्थलायताम् स्थलम् इव पाचरतीति स्वरू+क्यङ् लोट् ( नामधातुः ) दक्ति /दृप् +पिच्+क्तः बिना णिच् के दृप्तः बनेगा। उद्धतम्-उत् + हन् +क्तः कर्मणि)। हिन्दी-“यह पृथिवो हमारे लाँघने हेतु कितने कदम है ? ( बहुत कम ] इसलिये समुद्र भी स्थल बन जाय-यह विचार कर मानो अपने वेग के अभिमान में चूर घोड़ों ने समुद्र पाट देने योग्य धूलि उड़ाई / / 69 // टिप्पणी-स्थलायताम् आचारार्थ में बना हुआ यह नाम-धातु सादृश्य-वाचक है, अतः उपमा है / धूलि उड़ाना स्वाभाविक है किन्तु कवि ने उसमें समुद्र को पाट देने की कल्पना की है इसलिए उत्प्रेक्षा भी है / 'धर।' 'धिर० ०"धिरो' में व्यन्जनों का एक से अधिक वार साम्य होने से छेक न होकर वृत्त्यनुप्रास है // 66 // हरेर्य'दक्रामि पदैककेन खं पदैश्चतुर्भिः क्रमणेऽपि तस्य नः / त्रपा हरीणामि त ननिताननैयवर्ति तैरर्धनमःकृतक्रमैः // 70 // अन्वयः- "यत् खम् हरेः एकोन पदा अक्राभि, तस्य चतुभिः पदैः क्रमणे ( सति ) अपि नः हरीणाम् त्रपा" इति ननिताननै: अर्धनमःकृतक्रमैः तैः न्यवति / टीका-यत् खम् = आकाशम् हरेः-विष्णोः विष्णुरूपस्य वामनस्येत्यर्थः एककेन = एकाकिना पदाचरणेन अक्रामि आक्रान्तम्, लघतमिति यावत् तस्य प्राकाशस्य चतुर्मिः=चतुःसंख्यकैः पदैः= वरणैः क्रमणे-लंघने सत्यपि नः= अस्माकम् हरीणाम् = अश्वानाम अथ च विष्णूनाम् पालज्जा वर्तते इति शेषः / एकेनैव हरिणा एकेनैव पदेन गगनं लंबितम् अस्मामिः बहुमिः पदैश्च तहलंध्यते इति महती लज्जाऽस्माकमिति भावः इति हेतोः विचार्य नम्रितम्लज्जाकारणात नीचैः कृतम् माननम् = मुखम् येस्तैः [ ब० वी० ] अर्ध च तत् नमः आकाशम् [कर्म धा० ] तस्मिन् कृतः= विहितः ( स० तत्पु० ) क्रमः = पाइविक्षेपः [ कर्म धा०] यस्तै: [20 बी० ) तैः = हरिभिः अश्वैरित्यर्थः ग्यवर्ति निवृत्तम् / अर्धाकाशे चरणौ कृत्वा पुनस्ते निवतितवन्त इति भावः // 70 // ___ व्याकरण-एकक एक एवेति एक+कन् ( असहाये ] अर्थात् एकाकी। पदा पाद शब्द को पदादेश। अक्रामि क्रम+लङ् / कर्म वाच्य ) क्रम् धातु के मान्त होने के कारण यहाँ व्याकरणानुसार अक्रमि रूप होना चाहिये। 'नोदात्तोपदेशस्य मान्तस्यानाच में पा. 7 3 / 34 यह सूत्र बृद्धि निषेष कर देता है / इसीलिए अपनी बाल-मनोरमा टीका में मट्टोजीदीक्षित ने लिखा है -
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________________ 6. नैषधीयचरिते कथं तहि "हरेयदक्रामि पदैककेन खम्" इति श्रीहर्षः 1 प्रमाद एवायम्" पा-Vत्रप+अङ् (मावे) +टाप् / ननित-नमतीति नम्+र: (कर्तरि ) नम्रः ननं करोतीति नम्र+पिच नम्रयति (नाम धातु बनाकर ) निष्ठा में त / न्यति-नि+ वृत+लुङ् [ कर्मवाच्य ] / हिन्दी-जिस आकाश को हरि (विष्णु ) का अकेला एक ही पैर लांघ गया था, उसे चार पैरों से लौंप देने पर भी हम हरियों ( घोड़ों, विष्णुओं) को लज्जा भा रही है यह सोचकर (मानो) मुँह नीचे किये और आधे आकाश में पैरे रखे वे ( घोड़े ) लोट पड़े // 70 // टिप्पखो-यहाँ हरि शब्द में श्लेष रखकर कवि बड़ी विच्छित्ति दिखा गया है। हरि विष्णु और घड़ा दोनों को कहते हैं [ यमानिलेन्द्र चन्द्रार्क-विष्णु-सिंहाशु-वाजिषु। शुकाहि-कपिअकेपु हरिनां कपिले त्रिषु / इत्यमरः ] / हरि ( विष्णु ) ने वामनावतार धारण करके मिखारी का वेश बनाकर राजा बलि से अपनी कुटिया बनाने हेतु तीन पैर नापकी धरती माँगी। बलि दानो तो थाही। उसने यह छोटी-सो प्रार्थना स्वीकार करलो, किन्तु बादको वामन ने तत्काल विशाल रूप अपना लिया और एक पग से सारी धरती और दूसरे पग से सारा आकाश माप लिया। तीसरे पग के लिये वे जब बलिको पूछने लगे कि कहाँ रखू , तो बलि ने अपना सिर पसार दिया। भगवान ने अपना पैर राक्षसरोज के सिर पर रखा और जोर से दबाकर उसे पाताल भेज दिया / हेतु रूपमें कल्पना करने से उत्प्रेक्षालंकार है वह वाचक पद न होने से गम्य है। 'कामि' 'क्रम' और 'क्रमैः' में अनेक व्यजनों की एक से अधिक बार भावृत्ति से बृत्यनुप्रास है / 'अक्रामि' में च्युतसंस्कृति दोष है / / / 70 // चमूचरास्तस्य नृपस्य सादिनो जिनोनिषु श्राद्धतयेव सैन्धवाः। विहारदेशं तमवाप्य मण्डलीमकारयन्भूरितुरङ्गमानपि / 71 / अन्वयः-तस्य नृपस्य चमूचराः सादिनः तम् विहार-देशम् अवाप्य जिनोतिषु प्राद्धतया सैन्धवाः इव भूरि तुरङ्गमान् अपि मण्डलीम् अकारयन् / टीका-तस्य नृपस्य =राशो नलस्य चमूचराः = सेनाचराः सादिनः= अश्ववाहा अश्वारोहिसैनिका इत्यर्थः तम् विहारस्य = वाधक्रीडायाः देशम् =स्थानम् [ 10 तत्पु० ] अथ च सुगतालयम् ['विहारो भ्रमणे स्कन्धे लीलायां सुगतालये' इति विश्वः ] अवाप्य प्राप्य जिनः बुद्धः [ 'सर्वशः श्रद्धालुस्वेन सैन्धवाः - सिन्धुदेशोद्भवाः पौद्धा इव भूरयश्च ते तुरङ्गमाः= अश्वाः तान् ( कर्म पा० ) अपि मण्डलीम् = मण्डलाकारेण गतिम् अथ च मण्डलाकारेण आसनम् प्रकारयन् - कारितवन्तः / यथा बौद्धा बौद्ध मठमागत्य मण्डलाकारेणावतिष्ठन्ते तथेतिमावः // 31 // व्याकरण-चमुचराः चमूषु चरन्तीति चमू+/चर+टः / श्राद्धतया-श्रद्धाऽस्यास्तीति श्रद्धा+ण: ( मतुबथें श्राद्धः तस्य भावः तत्ता तया। सैधन्वाः सिन्धुषु मवा इति सिन्धु+अण् / मण्डलीम् मण्डल+डोष् [ गौरादित्वात् ] अकारयन् /क+णिच् +ठङ् विकल्प से पिजन्त में द्विकर्मकता।
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________________ प्रथमः सर्गः हिन्दी-बिस तरह बुद्ध के उपदेशों में श्रद्धा रखने के कारण सिन्धु के बौख लोग विहार देश सुगतालय ] में जाकर किया करते हैं उसी तरह उस राजा नल की सेना के अश्वारोही सैनिकों ने विहार देश ( विहारोवान ) में जाकर ( अपने ) बहु संख्यक घोड़ों से भी मण्डलाकार गति करवाई // 71 // टिप्पणी-मण्डलीम् =सिन्ध के बौद्धों में यह प्रथा है कि वे अपने मिानों को मठ में मंडलाकार विठाते हैं / शिष्ट उपमालंकार है, किन्तु यहां मल्लिनाथ सैन्धव शम्मको 'सादिनः' के साथ जोड़ते हैं। सैन्धव शब्द को सिन्धु से 'तत्रभवः' अर्थ में अण करके सैन्धव बनाते हैं, फिर 'सैन्धवानाम् इमे' अर्थ में 'तस्येदम्' से अण् करके सिन्धु देश के घोड़ों वाले, सादिनः' इस तरह अन्वय करके उपमान नहीं बनने देते हैं, जिससे यहाँ उपमान बनकर उत्प्रेक्षा बन जाती है अर्थात् सिन्धु देश के घोड़ों वाले सवार मानों बुद्धोरदेशों पर श्रद्धालु होने के कारण घोड़ों को गति में मण्डलाकार बना रहे थे / 'अपि' शब्द में यह अर्थ निकलता है कि धोड़ों के मण्डलाकार में होने से वे उनपर सवार होने के कारण स्वयं भी मण्डलाकार बना रहे थे। विद्याधर ने भी यहाँ उत्प्रेक्षा ही मानी है। द्विषद्भिरेवास्य विलचिता दिशो यशोमिरेवाधिरकारि गोष्पदम् / इतीव धारामवधीर्य मण्डली क्रियाश्रियामण्डि तुरङ्गमैः स्थली / / 72 // अन्वयः-दिशः अस्य द्विद्भिः एव विहिताः, अब्धिः यशोभिः एव गाष्पदम् अकारि-इति इव तुरङ्गमैः धाराम् अवधीर्य मण्डलो-क्रिया श्रियः स्थली अमण्डि / टीका-दिशः=आशाः अस्य = नलस्य द्विषद्भिः=शत्रुभिः एव विविताः = क्रान्ताः, भन्धिः =समुद्रः ( अस्य ) यशोभिः कीर्तिभिः एव गोष्पदम् = गोखुरप्रमाणप्रदेशः मुखेन लङ्घय इति यावत् अकारि= कृतः इति हेतोः अथवा मनसि कृत्वा तुरङ्गभैः =अश्वः धाराम् = ( जातावेकवचनम् ) धाराः पञ्चविधा: गतीरित्यर्थः [ 'आस्कन्दितं धोरितकं रेचितं वल्गितं घुतम् / गतयोऽमूः पञ्च धाराः' इत्यमरः] अवधीय = अनादृत्य परित्यज्येत्यर्थः मएडल्याः=क्रियामण्डलीकर व्यापारः मण्डलाकारगतिरिति यावतू [10 तत्पु.] तस्याः श्रिया=कान्त्या [10 तत्पु० ] स्थलीअकृत्रिमा भूमः प्रमण्डि-अभूषि अर्थात् मण्डलाकार गत्या ते विहार-स्थलीमलमकुर्वन् / / 72 / / व्याकरण-द्विषभिः +शतृ+त। भब्धिः भापो धीयन्तेऽत्रति अप + धा+किः अधिकरणे / गोष्पदम् गोष्पदमात्रम्' गोष्पद सेवितासेवितप्रमाणेषु / पा० 61145 से परिमाण अर्थ में सुद् और षत्व / अकारि=V8+ लुङ् कर्म वाच्य / अवधीयं = यह प्रयोग / अवधीर (अवशायाम् ) इस चौरादिक धातु से तो बन नही सकता है, क्योंकि "ल्यए' उपसर्गादि पूर्व में होने पर ही होता है बिना उपसर्गादि के नहीं। इसलिए-जैसे कि नारायण ने माना है-यह अब+अधि+Vईर् से ही हम बना सकते हैं / 'अवधी' में शकन्ध्वादि होने से पररूप हो जाता है / भमण्डि/मड्+लुङ् कर्मवाच्य / हिन्दी-( दिशायें तो ) इस ( नल ) के शत्रु ही लाँघ गये ( ओर ) समुद्र को ( इसके ) यशों
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________________ वैषधीयचरिते ने हो जो-खुर परिमाण नितना ( छोटा ) बना दिया-इस कारण मानों घोड़े विविध चालों को छोड़. कर गोल चक्कर काटने को क्रिया को रमणीयता से ( विहार ) स्थली को शोभित कर रहे थे // 72 / / टिप्पणी-वैसे तो घोड़े स्वभावत: मण्डलाकार दौड़ रहे थे लेकिन कवि-कल्पना यह है वे सीधा दौड़े तो कहाँ दौडे, दिशाओं में शत्र दौड़ गये थे और समुद्र तक यश चला गया। नया अक्षुण्ण प्रदेश जब रहा ही नहीं; तो बेचारों को चक्कर, ही लगाना पड़ रहा है / इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षा है / 'मण्ड' 'मण्डि' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। तीसरे और चोथे पाद के अन्त में 'अहो' 'मली' का तुक मिलने से अन्त्यानुपास है / / 72 / / भचीकरच्चारु हयेन या भ्रमीनिजातपत्रस्य तलस्थले नलः / मरुस्किमद्यापि न तासु शिक्षते वितत्य वास्यामयचकमक्रमान् / / 73 // अन्वय-नलः निजातपत्रस्य तल स्थले हयेन या भ्रमीः चारु अचीकरत् , तासु मरुत् वात्यामय. चक्र-चनमान् वितत्य अद्य अपि न शिक्षते (किम् ) / टीका-नखः निजम् = स्वीयम् यत् प्रातपत्रम् - छत्रम् ( कर्मधा० ) तस्य तलस्य स्थले अधोभागे ( 10 तत्पु. ) हयेन = अश्वेन याः भ्रमीः = मण्डलाकारभ्रमपनि चारु रमणीयतया यथा स्यात्तथा अधीकरत् = कारितवान् , तासु-भ्रभीषु भ्रमणविषये इत्यर्थः महत्-वायुः वाल्या बातसमूहा एव वास्यामया-चक्रेण मण्डलाकारेण चक्रमाः=चक्रमणानि नुहुर्मुहुः भ्रमणानीति यावत् (तृ० तत्पु०) तान् वितत्य- कृत्वा अद्यापि = अस्मिन् दिने अपि शिचेतअभ्यस्यति ( किम् ? ) अपि तु शिक्षते एवेति काकुः / वायुः अद्यापि यत् मण्डलाकर भ्रमपानि करोति तत् नलाश्व-मण्डलाकारभ्रमणविषयकम् 'अभ्यास' करोतीति भावः / / 72 / / व्याकरण-भ्रमि/भ्रन्+( कृष्यादित्वात् ) इक् / अचीकरत् + णिच् +लुङ कर्तरि, विकल्प से द्विकर्मकता नहीं हुई। वास्यामयाः वात्या एवेति वात्या+मयट् स्वरूपाथें / पात्या वातानां समूह इति वात् +यत् (पाशादित्वात् +टाप् ) चक्रमान्-पुनः पुनः क्रमति इति चक्रम्यते ( यडन्त ) इति चकम् +छत्र् मावे / वितत्य वि+/तन ल्यप् / अघ गब्द को यास्क ने अस्मिन् पवि का सक्षिप्त रूप माना है। हिन्दी-नल अपने छत्र के नीचे घोड़े द्वारा अच्छी तरह जो चक्कर कटवाता था, उनकी वायु आज भी बार-बार औधी के बवडरों को खड़ा करके क्या शिक्षा नहीं ले रही है ? टिप्पणी-चारु-नारायण ने इस शब्द को 'भ्रमि' का विशेषण बनाकर सम्यक् (मनोशार ) अर्थ किया है किन्तु विशेषण होनेपर 'चारू: या चावोः रूप बनना चाहिये था, अतः हमने क्रियाविशेषण ही बनाया है। आजकल स्वभावतः वायु-द्वारा उठाये जा रहे बवंडरों पर शिक्षा लेनेकी कल्पना की गई है, अतः उत्प्रेक्षा है, वाचक शब्द के न होने से वह गम्य है, वाच्य नहीं / 'वितस्य' 'वात्या' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्राप्त है / / 7 / / विवेश गत्वा स विलासकाननं ततः क्षणाक्षोणिपतिर्धतीच्छया। प्रवालरागच्छुरितं सुषुप्सया हरिर्धनच्छायमिवाम्मसा' निधिम् // 7 // 1. मिवार्यता
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________________ प्रथमः सर्गः 63 अन्धयः-ततः सः क्षोणिपतिः क्षणात् गत्वा धृतीच्छया प्रवाह-राग-च्छुरितम् धनच्छायम् विलास-काननम् हरिः सुपुप्सया प्रबाल-राग-च्छुरितम् घन-च्छायम् अम्मसा निधिम् व विवेश। टोका-ततः= तदनन्तरम् स क्षोण्याः = पृथ्व्याः पतिः = स्वामी (10 तत्पु० ) नल इत्यर्थः क्षणात्-क्षणे एव गरवा= चलित्वा धृतिः- धर्यम् तस्य इच्छया= अभिलाषेण विलासकानने फल-पुष्पादिकं दृष्ट्वा मम सन्तापो निवतिष्यते धैर्यञ्च भविष्यतीति विचारणेत्यर्थः प्रबाला: नवपल्लव: तेषां यो रागः= लालिमा ( 10 तत्पु०) वेन छुरितम् =लिप्तम् ( तृ० तत्पु०) घना-निविदा छाया वृक्षकृतोऽनातपः ( कर्मधा० ) यस्मिन् तथाभूतम् (ब० वी० ) विलासस्य काननम् - इति ( च० तत्पु० ) विलास-काननन् = क्रीडोद्यानम् हरिः = विष्णुः सुषसयास्वप्तुमिच्छया प्रबालाः विद्रुमाः ( 'मुक्ताऽथ विद्रमः पुंसि प्रवालं पुनपुसकम्', 'प्रवालमडरेऽप्यस्त्रो' इत्यमरः) तेषां रागेण छुरितन, प्रवालाहि समुद्रे जायन्ते, धनस्यमेषस्य छाया=कान्तिः (10 तत्पु० ) छाया ( उपमान तत्पु० ) यस्य तम् (20 बी० ) जलस्य श्यामत्वात् मेधेनोपमा अम्मसा= जलानाम् निधिम् समुद्र मित्यर्थः इवेत्युपमायाम् विवेश-प्राविशत् , यथा विष्णुः समुद्रे प्रविशति तथा नलः विलासबने प्रविष्ट इति मावः / / 74 / / व्याकरण-छुरित/छुर्+क्त कर्मणि / सुषुप्सा स्वप्तुमिच्छेति स्वप् /सन्+अ+टाप् / विवेश/विश +लिट् / हिन्दी-तदनन्तर राजा नल क्षणभर में जाकर धैर्य को चाह से नये कोपलों को लाली से किये घनो छाया वाले विलासकानन में इस तरह प्रवेश कर गया जैसे विष्णु भगवान् सोने की चाह से मूंगों की काली से लिये, धन ( मेघ ) की-सी छाया ( कान्ति ) वाळे समुद्र में प्रवेश किया करते टिप्पणी-यहाँ राजा नल की हरि से और विलास-कानन की समुद्र से तुलना की गई है, अतः उपमालकार है; विशेषणों के शिकष्ट होने से वह श्लेष गभित है। मल्लिनाथ ने 'विलास-काननम्' शब्द को भी श्लिष्ट मानकर उसको समुद्र का इस तरह विशेषण माना है-('बवयोरमेदार ) विलासकानाम् विलेशयानां सर्पाणाम् प्राननं प्राणनम्' किन्तु हमारे विचार से उपमेय को श्लिष्ट बनाकर उपमान का भी विशेषण बनाने में कोई औचित्य नहीं दिखाई देता। 'क्षणा' 'क्षोणि' और 'च्छया', 'छाय' में छेकानुप्रास है / / 74 / / वनान्तपर्यन्तमुपेत्य सस्पृहं क्रमेण तस्मिन्नवतीर्णदृक्पथे। न्यवर्ति दृष्टिप्रकरैः पुरौकसामनुब्रजबन्धुसमाजबन्धुभिः // 75 // अन्वयः-अनुव्रज' बन्धुभिः पुरौकसाम् दृष्टिप्रकरैः वनान्त-पर्यन्तम् सस्पृहम् उपेत्य क्रमेण तस्मिन् अवतोणं-दृक्-पथे ( सति ) न्यवति / / टीका-अनु०अनुवजन् = अनुगच्छन् यः बन्धु-समाजः= बान्धव-वर्गः (कर्मधा० ) बन्धूनां सम जः (10 तत्पु० ) तस्य बन्धुभिः- समानैः (10 तत्पु० ) पुरौकसाम् = पुरम् मोक:निवासस्थानं येषां तेषाम् (ब० बी० ) नगरवासिनामित्यर्थः दृष्टिः= नयनं तस्य प्रकरैः समूहै।
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________________ 64 नैषधीयचरिते (10 तत्पु० ) वनस्य विलासकाननस्य अथ च जलस्य ( 'वने सलिल-कानने' इत्यमरः) अन्तः= प्रदेशः (10 तत्पु०) पर्यन्तः = सीमा ( कर्मधा० ) यस्मिन् ( ब० वी० ) कर्मणि यया स्यात्तथा, सस्पृहम् स्पृहया= अभिलाषेण सह वर्तमानम् ( ब० वी०) यथा स्यात् तथा उपेप्य = गत्वा तस्मिन् = नृपे नले प्रवीण = प्रतिक्रान्त इत्यर्थः दृष्टः = दर्शनस्य पन्थाः- मार्ग: ( 10 तत्पु०) येन तथ भूते (ब० वी० ) अर्थात् दृङमार्गागो वरे सति न्यवर्ति निवृत्तम् / यथा जलप्रदेशसीमां प्राप्य प्रवसति बन्धौ दृष्टद्यतीते सति स्वजना निवर्तन्ते, तथैव लोक-लोचनान्यपि वनसीमां गते नले दृष्टयनीते सति निवृतानीति भावः / / 75 / / व्याकरण-उपेत्य उप+Vs+ल्यष / इक् पश्यतीति/दृश् +क्विप् कर्तरि / 'राजन्' शब्द की तरह पथिन्' शब्द भी समास में अकारान्त हो जाता है / दृष्टिः दृश्यतेऽनयेति / दृश्+क्तिन् करणे / न्यवर्ति = नि+/वृत् वुङ् माववाच्य / हिन्दी-निस प्रकार ( प्रवासी के ) पीछे-पीछे जा रहे बान्धव-गण वन-( जल )-प्रदेश की सीमा तक उत्सुकमाव के साथ जाकर क्रमशः ( उसके) दृष्टि से ओझल हो जाने पर वापस लौट आते हैं, उसी प्रकार नगरवासी लोगों की ऑखे ( विलास ) वन ( कानन ) के प्रदेश की सीमा तक चाव से नाकर उस (नम ) के दृष्टि से ओझल हो जाने पर वापस मुड़ गई / 75 / / टिप्पणी-यहाँ लोगों को आँखों की तुलना प्रवास में जा रहे मित्र को छोड़ने जाने वाले बन्धुगण से की गई है। पीछ पीछे जाना और 'वनान्त-पर्यन्त' जाकर लौट आना दोनों में समान धर्म है / वन शब्द में श्लेष है / जल प्रदेश तक छोड़ने जाने की प्रथा का कालिदास ने मी उल्लेख किया है-'ओदकान्तात् स्निग्धो जनोऽनुगन्तव्यः ( शकु० अक 4)', शास्त्रों में भी लिखा हुआ है-'उदकान्तं प्रियं पान्थमनुव्रजे'। इसलिए यहाँ श्लिष्टोपमा है। बन्धु शब्द सादृश्य बताने में 'सखा' शब्द की तरह लाक्षणिक है / 'बन्धु' 'बन्धु' में यमक और अन्यत्र अनुपास है। बनान्त पर्यन्त-यहाँ 'अन्त' और 'पर्यन्त' शब्दों में पुनरुक्ति सी मालूम पड़ रही है किन्तु अन्त शब्द का अर्थ यहाँ 'प्रदेश' है। चाण्डू पण्डित ने 'वनान्तः वनैकदेशः' व्याख्या की है। भवभूति ने मी इसी अर्थ में 'यत्र रम्यो वनान्तः' ( उत्त० 2 / 25 ) प्रयोग किया है। ततः प्रसूने च फले च मञ्जले स सम्मुखस्थाङ्गुलिना / जनाधिपः / निवेद्यमानं वनपालप्राणिना ब्यलोकयत्कानन कामनीयकम् // 76 // अन्धयः-ततः सः जनाधिपः मन्जुले प्रसूने फले च सम्मुखस्थाङ्गुलिना वनपाल-पापिना निवेधमानम् कानन-कामनायकम् व्यलोकयत् / टीका-ततः = अनन्तरम् सः जनाधिपः नरेन्द्रः मम्मुले-रमणीयें प्रसूने पुष्पे फलेच जातावेक-वचनम् पुष्प-फलेष्वित्यर्थः सन्मुखस्था अभिमुखी अहुलिः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतेन (ब० बी० ) वनपालस्य मालाकारस्य पाखिना=करेण (50 तत्पु०) निवेद्यमानम् = ज्ञाप्यमानन् काननस्य=विलासोववनस्य कामनीयकम् =रामणीमकम् सौन्दर्यमिति यावत् व्यलोकयत्= 1. सम्मुखीना 2. रामणीयकम्
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________________ प्रथमः सर्गः / 65 अपश्यत् / अङ्गुलिनिदेशपूर्वकम् मालाकारो राजानं फल-पुष्पसौन्दर्यमदर्शयदिति मावः / / 76 // व्याकरण-अधिपः अधिकं पाति रक्षतीति अविपा+कः ( उपपद तत्पु० ) सम्मुखस्था सम्मुखे तिष्ठतीति सम्मुख+/स्था+कः। वनपालः पालयतीति पाल् +अच् कर्तरि पाल: वनस्य पाक इति / निवेद्यमानम् नि+/विद् +पिच् + शानच ( कर्मवाच्य ) / कामनीयकम् कमनी. यस्य भाव इति कमनीय+वुञ्, 'वु' को अक। __हिन्दी-तदनन्तर उस राजा ने फूल और फल की ओर गंगुलि किये हाथ वाले माली द्वारा बताई जा रही कानन की सुन्दरता देखी / / 76 / / टिप्पणी-यथावस्तु प्रतिपादन होने से यहाँ जाति अथवा स्त्रमावोक्ति अलंकार है / शम्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है // 76 / / फलानि पुष्पाणि च पल्लवे करे वयोऽतिपातोद्गतवातवेपिते / स्थितैः समादाय महर्षिवार्धकाद् वने तदातिथ्यमशिक्षि शाखिमिः // 77 // अन्वयः-वयोऽ... पिते पल्लवे करे फलानि घुष्पाणि च समादाय स्थितेः वने शाखिभिः महर्षिबार्धकात् तदातिथ्यम् अशिस्मि / ___टीका-वयो-बयसाम्=पक्षिषाम् अतिपातेन उपरिउड्डयनेन (10 तत्पु०) सद्गतः उत्थितः उत्पन्न इत्यर्थः ( त० तत्पु० ) यो धातः वायुः ( कर्मधा० ) तेन वेपिते कम्पिते (त० तत्पु० ) अथ व वयसः यौवनस्य अतिपाते अतिक्रमे उद्गतो यो वातः वायु-विकारः तेन वेपिते पल्लवे किसलये एव करे हस्ते अथ च करे एव पल्लवे पल्लवसदृशहस्ते इत्यर्थः फलानि पुष्पाणि कुसुमानि च समादाय गृहोस्खा स्थितः वने कानने शाखिमिः वृक्षः अथ च श्लेषवशात् तृतीयां पञ्चम्या परिवर्त्य शाखिनः वेदानां माध्यन्दिनादिशाखा अनुसरताम् महर्षीणाम् महानश्च ते ऋषयः मुनयः ( कर्मधा०) तेषाम् वाधकात वृद्ध समूहात् तस्य नठस्य भातिथ्यम् अतिथि-सत्कारः पूजादिरित्यर्थः अशिक्षि शिक्षितम् (श्वेत्युत्प्रेक्षायाम् ) भयं मावः यथा वात-व्याधि-कम्पित-करे फळ-पुष्पमादाय तत्तच्छाखाध्यायिनो महर्षयो रायः सत्कारं कुर्वन्तिस्म तथैव वृक्षा अपि पवनप्रकम्पिन पल्लव-गत-फल-पुष्पैः राशः आतिथ्यम् अकुर्वन् / एतेन वने वृक्षाः फल-पुष्पमरिता आसन् , तत्र वृद्ध. महर्षयश्चापि तिष्ठन्ति स्मेति सूचितं भवति। 77 // व्याकरण-प्रतिपात: पतनं पात:/पत्+घञ् मावे अतिशयितः पातः अतिपातः (प्रादितत्पु०)। वेपित/ +क्त कर्मणि / वाधकम् वृद्धानां समूह इति वृद्ध+बु बु को अक / मही णाम् वार्धकम् यह षष्ठो-तत्पुरुष यहाँ नहीं होना चाहिये था, क्योंकि वृद्ध शब्द के साथ तद्धित बृत्ति हुई है, इसलिये उसके एकदेश-भूत वृद्ध से 'महर्षि' का सम्बन्ध अनुपपन्न है अर्थात महर्षयन ते वृद्धाश्च तेषां समूहः ऐसा नहीं बनता / अगतिक गति से यहाँ 'शिव-मागवत' की तरह ही समास मानना पड़ेगा / शाखिनः शाखा ऐषामस्तीति शाखा' इन् / यद्यपि मत्वर्थ इन् अदन्तों से ही होता है, तथापि (ब्रीधादिभ्यश्च पा० 5 / 2 / 116) 'वनमाली' आदि की तरह यहाँ आकारान्त से भी इन् हुआ है / मातिथ्यम् अतिथये इदम् इति अतिथि+भ्य: / प्रशिकि/शि +लुङ कर्मवाच्य। हिन्दी-वयों ( पक्षियों ) के ऊपर उड़ जाने के कारण उत्पन्न वात (पवन ) से हिले हुये 'पल्लव-रूप हाथ में फल और पुष्पों को रखे वन स्थित वृक्षों ने वय ( तारुण्य ) के चले जाने के
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________________ नैषधीयचरिते कारण उत्पन्न वात ( वायुरोग ) से कॉपे हाथ-रूप पल्लव में फल और पुष्प रखे वन-स्थित, ( वेदको तत्र ) शाखाओं वाले वृद्ध महर्षि-गप से मानों उस ( नल ) के आतिथ्यको शिक्षा ली / / 77 // ___ टिप्पणी-यहाँ पल्लव पर करत्वारोप होने से रूपक है, वय वात और शाखि शब्दों में श्लेष है; इनसे उत्प्रेक्षा की भूमि बन रही है, जो वाचक शब्द न होने के कारण गम्य है / रूपक-श्लेषोत्या. पित उत्प्रेक्षा से यह उपमा-ध्वनि निकल रही है कि जिस तरह वृक्ष ऋषिगण राजा नल का फलपुष्पों से अतिथि सत्कार कर रहे थे, वैसे ही वृक्षों ने भी किया। शब्दालंकारों में वृत्त्यनुपास है / 77 // विनिद्रपत्रालिगतालिकैतवान्मुगाङ्कचूडामणिवर्जनार्जितम् / दधानमाशासु चरिष्णु दुर्यशः स कौतुको तत्र ददर्श केतकम् // 78 // अन्धयः-सः तत्र कौतुकी ( सन् ) विनिद्रवीत् मृगाक" जितम् , भाशासु चरिष्णु दुर्यशः दधानम् केतकम् ददर्श। टोका--सः= नलः तत्र = तस्मिन् कानने कौतुकी= कृतूहली सन् विनिद्र-विगता निद्रा येषां तथाभूतानि ( प्रादि ब० वी० ) विनिद्रापि लक्षणया विकसितानि यानि पत्राणि कुसुम-दलानि (कर्मधा० ) तेषां या आलि:= पङ्क्तिः (10 तत्पु० ) तस्यां गताः स्थिता: (स० तत्पु०) ये प्रलयः अमराः ( कर्मधा० ) तेषां कैतवात छळेन मृगा०-मृगः...अतः चिह्न यस्मिन् तथाभूनः (ब०वी०) मृगाङ्कः चन्द्रः एव चूडामणिः शेखरं बस्व तथाभूतः (ब० बी०) महादेव इत्यर्थः तेन धनम् परित्यागः ( तृ० तत्पु० ) तेन अर्जितम् उम्पमित्यर्थः ( तृ० तत्पु० ) प्राशासु दिशासु (दिशातु ककुभः काष्ठा भाशाश्व हरितश्च ताः / इत्यमरः) चरिष्णु समरणशीलं प्रसृतमित्यर्थः दुः दुष्टं यशः दुर्यशः ( प्रादि तत्पु० ) अपयशः दवावम् पारयन् केतकम् केतक्याः पुष्पम् ददर्श अपश्यत् केतकंदलमभ्यस्थितभ्रमरावलि-रूपेण अपकीति पत्ते स्म योग्यपुरुष-वहिष्कारोऽपकीर्तिमेव करोतीति मावः / / 78 // व्याकरण-कौतुकी कौतुकम् अत्तात्तीति कौतुक+इन् / कैतवम् कितवस्य मात्र इति कितव +अण् / चरिशु चरितुं शीलमत्वेति /चर+ष्णुच् कर्तरि / केतकम् केतक्या: विकार इति केतकी+वत् , उसका 'पुष्प-मूलेषु बहुबम्' से लोप और स्त्री प्रत्यय कीप का मी 'लुक् तद्धित०' से लोप। हिन्दी-उस ( नल ) ने वहाँ कौतुक-पूर्व हो खिली हुई पंखुड़ियों को पंक्ति में बैठे भ्रमरों के बहाने महादेव द्वारा त्याग दिए जाने के कारण भर्जित, दिशाओं में फैले अवयशको धारण करता हुमा केवड़े का फूल देखा / / 78 / / टिप्पणी-केवड़े का फूल महादेव के ऊपर नहीं चढ़ता है। इसका कारण शिवपुराणानुसार यह है कि एकवार राम की अनुपस्थिति में सीता ने पितरों का स्वयं श्राद्ध किया। दशरथ मादि पितर प्रकट हुए और केतक आदि समोपपती पदार्थों से कहा कि तुम हमारी उपस्थिति के साक्षी हो / जब राम और लक्ष्मण वापस आये, तो उन्हें पितरों के आने पर विश्वास नहीं हुआ। इतने में सीता ने साक्षियों से कहा कि वे इस बात को प्रमाणित कर दें कि उन्होंने बाद में आये पिवरों को
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________________ प्रथमः सर्गः देखा है, किन्तु वे इनकार कर बैठे / इस पर सीता ने उन समी माक्षियों को शाप दे दिया और केतक को फटकार कर कहा कि 'जा, तू हमेशा के लिए महादेव की पूजा से बहिष्कृत किया जाता है' / पद्मपुराण में भाद्रपद मास में केतकी-पुष्प द्वारा विष्णु की पूजा का भी निषेध है: "न माद्रे केतकी-पुष्पैः पूजितव्यो जनार्दनः। यतो माद्रपदे मासे केतकी स्यात् सुरा-समा।।" ___इस श्लोक में प्रस्तुत 'अलियों' का प्रतिषेध करके उन पर अप्रस्तुत अपयशत्व को स्थापना करने से अपह्नति अलंकार है। प्रस्तुताप्रस्तुत का समान धर्म यहाँ काला रंग है। कवि-जगत् में पश जहाँ श्वेत होता है वहाँ अपयश काला। 'वर्जनार्जितम्' और 'कौतुकी' 'केतकम्' में छेकानुप्रास, 'पत्रालि' 'गतालि' में आलि आलिका तुक मिल जाने से पदान्त-गत अन्त्यानुप्रास तथा अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / 78 // वियोगभाजां हृदि कण्टकैः कटुर्निधीयसे कर्णिकारःस्मरेण यत् / / ततो दुराकर्षतया तदन्तकृद् विगीयसे मन्मथदेहदाहिना // 79 // अन्वयः यत् स्मरेण वियोगमाजाम् हृदि कण्टकैः कटुः ( त्वम् ) कणिशरः निधीयसे, ततः दुराकर्षतया तदन्तकृत् मन्मथ-देह-दाहिना विगीयसे / / टोका-यत् = यस्मात् कारणात् स्मरेण = कामेन वियोगम् - विरहम् मजन्तीति वियोगभाजः तेषाम् ( उपपद तत्पु०) हृदि हृदये कण्टकः कटुः क्रूरः ( त्वम् ) कई = शूलाग्रम् , शल्यनिति यावत् अस्यास्तीति ( कर्ण +इन् ) की कर्णयुक्तं शर:- बाणः ( कर्मधा० ) निधीबसे= निक्षिप्यसे, ततः तस्मादेव कारणात् दुःखेन आकष्टुं योग्य इति दुराकर्षः = तस्य भावः तत्ता क्या उद्धर्तुमशक्यतया तेषाम-वियोगमाजाम् अन्तं = मृत्यु (प० तत्पु० ) करोतीति तथोक्त: ( उपपद तत्पु० ) मन्मथः= कामदेवः तस्य देह =शरीरम् ( 10 तत्पु०) दहतीति दाहीः तेन (उपपद तत्पु०) महादेवेन विगीयसे-विनिन्धसे, वियोगिनां मारणाय स्वं कामदेवस्य सहयोग्यास पिक् स्वामिति भावः / अस्य श्लोकस्य 'इति तेन क्रुधाऽश्यत' इति तृतीयश्लोकेनान्वयः / / 73 // व्याकरण-स्मरः स्मरणं स्मर इति /स्मृ+अप मावे, स्मर अथवा काम एक मनोभाव ही तो है जो प्रिय और प्रेयसा का स्मृति-रूप है। वियोगमाजाम् वियोग+म+क्विप् कर्तरि प०। निधीयसे नि+Vधा+लट् मध्य० कर्मवाच्य / दुराकर्षः दुर्+भा/कृष् + हल् / सतहद तदन्त+/+क्विप् कर्तरि / मन्मथः मनः मथ्नातोति निपातनात् साधु / विगीयसे वि+/गै+ लट मध्य० कर्म वाच्य। हिन्दी-क्योंकि कामदेव द्वारा विरहियों के हृदय में काँटों से तीक्ष्य बना हुआ तू कैंट हे पाप के रूप में रखा जाता है इसी कारण निकालने में कठिन होने से उन (विरहियों ) का प्राण लेवा तू कामदेवका देह मस्म कर देने वाले ( महादेव ) की निन्दा का पात्र बना रहता है / / 76 टिप्पणी-यहाँ कॅटीले केतकी-पुष्प पर कामदेव के कोटेदार ( barbed ) वाण का आरोप किया गया है। इस बाण के अग्रमाग में कर्ण (काँटे ) अथवा उल्टे मुंह के शल्य लगे रहते है
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________________ नैषधीयचरिते जिससे बाण को खींचकर बाहर निकाल देना बड़ा कठिन होता है / रूपकालंकार के साथ साथ यहाँ यह कल्पना भी की जा रही है कि मानों इसीलिये केतक महादेव द्वारा निन्दित किया जाता है कि खबरदार, यदि मेरी पूजा में आया तू / इस तरह उत्प्रेक्षा है, वाचक शब्द न होने से वह गम्य है / शब्दालंकारों में 'देह' 'दाह' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है // 79 / / / त्वदग्रसूच्या सचिवेन कामिनोमनोभवः सीव्यति दुर्यशःपटौ। स्फुटं स पत्रैः करपत्रमूर्तिमिर वियोगिहृ हारुणि दारुणायते // 8 // ___ अन्वय-मनोमय: त्वदा सूच्या सचिवेन कामिनोः दुर्यशः-पटौ सीव्यति, स: स्फुटम् करपत्र. मूर्तिमिः पत्रैः वियोगि-हृद्-दारुणि दारुणायते / टीका-मनोमवः = कामः तव भनम् = अग्रभागः ( 10 तत्पु० ) तत् एव सूची= सीवनसाधन-विशेष: 'सई' इति भाषायां प्रसिद्धः तया ( कर्मधा० ) सचिवेन=सहायेन सहकारिणत्यर्थः (मन्त्री सहायः सचिवः इत्यमरः ) कामिनी कामी च कामिनी चेति कामिनी तयोः (एक शेष द्वन्दः ) दुष्टं यशः दुर्यशः (प्रादि तत्पु.) ते एव पटौ बसने ( कर्मा० ) सीव्यति=योजयबोत्यर्थः अर्थात् काभी कामिनी च त्वामवलोक्य कामोद्रे के मर्यादामुल्लध्य यथेच्छं यत्किमपि कुर्वाणी लोक-निन्दा-पात्रत्वं प्राप्नुतः, सः कामदेवः स्फुटम् स्पष्टं यथा स्यात्तथा करपत्रम् क्रकचम् (क्रकचो. ऽस्त्री करपत्र मारा' इत्यमरः ) तद्वन् मूर्तिः स्वरूपं ( उपमाने तत्पु० ) येषां तथाभूतैः (ब० वी०) पत्रैः दल: वियोगिनश्च वियोगिन्यश्चेति वियोगिनः ( एकशेष द्वन्द ) तेषाम् हृद् हृदयम् (10 तत्पु०) एव दारुकाष्ठम् (काष्ठं दाविन्धनं त्वेधः' इत्यमरः) (कर्मधा०) तस्मिन् दारुणायतेदारुण-वस्तुवत् पाचरति, भीषणीभवतीत्यर्थ अर्थात् क्र कचाकाराणि त्वत्पत्राणि कामिनां हृदयानि विदीर्णानि कुर्वन्ति / / 60 / / - व्याकरण-सूची सूचयति =विधतीति /सूच् +इन् गौरादि-पाठद् डीप / मनोभवः मनसि भवः= उत्पत्तिर्यस्येति / दारुणायते दारुप शब्द यहाँ दारुण पदार्थ परक लेना चाहिये क्योंकि पाचारार्थक क्यङ् उपमान से हो होता है और उपमान हमेशा विशेष्य रहता है, विशेषण नही।' पता नहीं नारायण ने किस तरह 'भोषणवत् आचरति' अर्थ कर दिया है। यही कारण है कि मल्लिनाथ ने 'दारणायते' पाठ दिया है और अर्थ किया है-'दारयतीति दारणः विदारको मेता, स इवापरतीति' अर्थात् आरे-जैसे तुम्हारे पत्ते आरे का काम करते हैं। यह अर्थ ठोक संगत हो जाता है। हिन्दी-कामदेव तेरे नोक रूपी सूई को सहायक बनाकर कामी और कामिनियों को बदनामी के काड़े |सला करता है, वह ( कामदेव ) सचमुच तेरे आरो के से प्रकार के पत्तों द्वारा वियोगी पौर वियोगिनियों के हृदय-रूरी लकड़ी पर दारुय वस्तु का-सा काम करता रहता है / / 80 // टिप्पणी-यहाँ केतकी की नोकपर सूई तथा दुर्यश पर पट का आरोप होने से रूपक है जो दोनों में कार्यकारण भाव होने से परम्परित है / दूसरे श्लोकाध में हृदय पर दारु के आरोप में रूपक १दारणायते, दारूपाक्से।
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________________ प्रथमः सर्गः और 'करपत्रमूर्ति' एवं 'दारुणायते' में उपमा है। पूर्वाध और उत्तरार्ध रूपकों को परस्पर निरपेक्ष होने से संसृष्टि है। 'पत्रै' 'पत्र' और 'दारुणि' 'दारुण' में छेकानुप्रास है। किन्तु 'द रु' और 'दार' में यमक भी है जिसका छैक के साथ एकवाचकानु-प्रवेश संकर हो रहा है / / 80 // धनुर्मधुस्विन्नकरोऽपि भीमजापर परागैस्तव धूलिहस्तयन् / प्रसूनधन्वा शरसास्करोति मामिति धाक्रुश्यत तेन केतकम् // 81 // भन्वयः-धनुर्मधु-स्विन्नकरः अपि प्रसूनधन्वा तव परागैः ( आत्मानम् ) धूलिहस्तयन् भीमजापरम् माम् शरसात्करोति' इति तेन धा केतकम् आक्रुश्यत / टीका-धनु०-धनुष-पुष्परूप-चापस्य यन् मधुरसः मकरन्द इति यावत् (10 तत्पु.) तेन स्विन्नौ = आद्रौं ( तृ० तत्पु०) करौ=हस्तौ ( कर्मधा०) यस्य तथाभूनः (ब० बो० ) अपि प्रसूनं = पुष्पं धनुः यस्य स ( ब० बी० ) कामदेवः तव परागैः= धूलिभिः ( आत्मानम् ) धूल: हस्ते यस्य सः धूलिहस्तः (ब० वी०) धूलिहस्तं करोतीति धूलिहस्तयन् अर्थात् हस्तं धूलियुक्त कुर्वन् अन्यथा स्विन्न-करतः धनुर्धेशप्रसङ्ग त् , भीमजा=दमयन्ती परं=प्रधानम् (कर्मधा०) प्राप्ति-लक्ष्यभूतेति यावत् यस्य तथाभूनम् (ब० वी०) मानलम् शरसास्करोति शराधीनी. करोति, मयि शरान् प्रहरतीत्यर्थः। इति एवं प्रकारेण तेन - नलेन ऋधा= क्रोधेन केतकम् केतकीपुष्पम् श्राश्यत अनिन्धत // 81 // व्याकरण-स्विन्न/स्विद्+क्त त को न / धूलिहस्तयन् यहाँ (ब० 0 ) धूलिहस्त से तत्करोति के अर्थ में णिच् कर के नामधातु बनाकर शतृ प्रत्यय है। नारायण ने धूलिहस्तयन्निति धूलियुक्तं हस्तं करोतोति ण्यन्ताच्छतृ माना है किन्तु यह ठीक नहीं क्योंकि इस विग्रह में हस्त पर धुलियुक्तत्वका विधान हो रहा है, इसलिये धूलियुक्तत्व का हस्त के साथ समास हो जाने पर उसकी विधेयता नहीं रहेगी और विधेयाविमर्श दोष हो जायगा / भीमजामीमात् जायते इति भीम+ /जन् +3+टाप् ( उपपद तत्पु०) शरसास्करोति शराणाम् अधीन करोतीनि शर+सात् +vs +लट् 'तदधीनवचने' पा० 5 / 4 / 54 से अधान करने में सात् प्रत्यय हो जाता है / क्रुधा क्रुध +क्विप् भावे तृतीया / भाऋश्यत आ+/क्रुश्+लङ् कर्मवाच्य / हिन्दी-"रे केवड़े ! धनुष के मकरन्द से गोला-हाथ होता हुआ भी कामदेव तेरे पराग से अपना हाथ धूलि-युक्त करके भीमजा ( दमयन्ती ) पर आसक्त हुये मुझे बाणों के अधीन कर देता है "-इस तरह उस ( नल ) ने केवड़े की मर्सना की // 81 // टिप्पणी-धूलिहस्तयन्-गीले हाथों से कोई भी वस्तु फिसल जाती है। फूलों के धनुष से मकरन्द चूने के कारण काम के हाथ गोले हो गये थे, सुखाने हेतु मिट्टी की आवश्यकता पड़ती है, जिसे केतकी अपने पराग से पूरा कर देता है / उक्त तीन श्लोकों में केतक का वर्णन करके कवि आगे 101 तक प्रायः इन फल-फूलों का वर्णन कर रहा है, जो कामोहोरक होकर विरहियों पर बड़ा बुरा प्रभाव डालते हैं / 'परं' परा (गैः ) तथा 'क(धा ) 'कु( श्य)' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / 'प्रसूनधन्वा के यहाँ साभिप्राय विशेष्य होने के कारण परिकरांकुर अलंकार मी है / / 81 //
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________________ नैषधीयचरिते विदर्भसुभ्रस्तनतुङ्गताप्तये घटानिवापश्यदलं तपस्यतः / फलानि धूमस्य धयानधोमुखान् स दाडिमे दोहदधूपिनि द्रुमे // 82 // अन्वयः-सः दोहद-धूपिनि दाडिमे द्रुमे विदर्भ-सुभू-स्तन-तुङ्गताप्तये अलम् तपस्यतः धूमस्य धयान् अधोमुखान् घटानित्र फलानि अपश्यत् / टीका-सः नलः दोहदम् = फल-कृष्यादि-समृद्धिकारक-साधनविशेषः (पुष्पाद्यत्पादक द्रव्यं दोहद स्यात्त तत्-क्रिया' इति शब्दार्णवः) च यो धूपः ( कर्मधा० ) सोऽस्यास्तीति तथोक्त दाडिमे द्रुमेदाडिमफलवृक्षे विदर्भ - विदर्भायाम् विदर्भदेशस्य सुभ्र = सुः शोभने भ्रुवौ यस्याः सा ( 30 बी० ) सुन्दरी दमयन्तीत्यर्थः तस्याः यो स्तनौ कुचौ तयोः बा तुङ्गता = उच्चता तस्या अवाप्तये = प्राप्तये ( सर्वत्र प० तत्पु०) अनम् = अत्यधिकं यथा स्यात्तथा तपस्यतः=पस्यां कुर्वाणान् धूमस्य धयान् = पातृन् ( अतएव ) अधः = नोचैः मुखं येषान्तान् ( ब० वी० ) नीचैः कृतमुखान् घटान् = कलशान् वेत्युत्प्रेक्षायाम् फलानि दाडिमानि अपश्यत् / उच्चफलप्राप्तिहेतोः यथा कोऽपि साधको मुख नोचैः कृत्वा धूमपान-रूपां तपस्यां चरति, तथैत्र अधस्तात् दोहदरूपेण धू-धूमं गृह्णानानि दाडिम फलानि दमयन्तीकुचोच्चताप्राप्तिहेतोस्तपस्यन्तः कलशा इव प्रतीयन्ते स्मेति मावः॥२॥ व्याकरण-दोहदः दोहम् = पाकर्ष ददातीति दोह/दा+क। तपस्यतः तपश्चरतीति तपस्+क्यङ् 'तपसः परस्मैपदं च' इस वातिक से परस्मैपद (नाम धातु)। धयान् धयतीति Vधे+शः कर्तरि / हिन्दी-उस ( नल ) ने धूप का दोहद लिये अनार के पेड़ पर फलों को ऐसा देखा मानो वे विदर्भ देश की सुन्दरी ( दमयन्ती ) के कुचों को ऊँचाई प्राप्त करने हेतु अत्यधिक तपस्था में लगे, धूम-पान कर रहे, नोचे मुँह किये कलश हो // 82 // टिप्पणी-दोहद-आधुनिक भाषा में दोहद फर्टलाइज़र ( Fertilizer ) को कहते हैं। विविध फल-फूलों के विविध दोहद हुआ करते हैं / अनार का दोहद देखिये-'मत्स्याज्यत्रिफलाले. पैर्मासैराजाविकोद्भवैः / लेपिता धूपिता सते फलं तालीव दाडिमी // मछली की खाद अंगूर लीची 'आदि फलों में काम आती है। कन्धारी अनार को बकरी के खून की खाद भी दी जाती है। कुछ फूलों के विचित्र. ही प्रकार के दोहद देखिये:-"पादाहतः प्रमदया विकसत्यशोकः शोकं जहाति बकुलो मुखसीधुसिकः / आलोकनात् कुरवकः कुरुते विकासम् प्रालिंगितस्तिलक उत्कलिको विमाति // अर्थात् अशोक सुन्दर नवयुवती के पाद-प्रहार से, मौलसरी उसके मुख की मदिरा की कुल्लोसे, कुरबक उसके मधुर दृष्टिपात से और तिलक उसके आलिंगन से फूल उठते हैं। श्लोक में अनार के फलों पर तप में लगे घटों की कल्पना करने से उत्प्रेक्षा अलंकार है, जिसका वाचक 'इव' शब्द है / वृत्त्यनुपास शब्दालंकार है / / 82 / / वियोगिनीमैक्षत दाडिमीमसौ प्रियस्मृते: स्पष्टमुदीतकण्टकाम् / फलस्तनस्थानविदीर्णरागिहृद्विशच्छुकास्यस्मरकिंशुकाशुगाम् // 8 //
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________________ प्रथमः सर्गः अन्वयः-असौ वियोगिनीम् प्रियस्मृतेः स्पष्टम् उदोतकण्टकाम् फलस्तन...शुगाम् दाडिमीम् ऐक्षत / / 83 // टीका-प्रसौनलः वयः पक्षिणः ('नगौको-वाजि-विकिर-वि-विष्किर-पतत्त्रयः' इत्यमरः) ते: योगः=संयोगः संसगोंऽस्या अस्तीति वियागिनी अथांत शुकादिपक्ष्यधिष्ठिता ताम् (नायिकापक्षे) वियोगः प्रियतमस्य विरहोऽस्या अस्तीति विरहिणीत्यर्थः ताम् प्रियम्=दोहदम् धूपधूमादिकम् तस्य स्मृतेः ( लक्षपया) प्राप्ते ( 10 तत्पु० ) स्पष्टम् स्फुटम् यथा स्यात्तथा उदीताः प्रादुर्भूताः कण्टकाः= कण्टकशब्दोऽत्र फलपुष्पाणामपि उपलक्षकः ( कर्मधा०) यस्यां तयाभूनाम् (ब० वी०), (नायिका-पक्षे ) प्रियस्य-प्रियतमस्य स्मृतःस्मरणात् स्पष्टम् उदीताः उद्गताः कण्टकाः रोमान्चा इत्यर्थः यस्यास्ताम् ('वेणौ दुमाङ्ग रोमाञ्चे क्षुद्रशत्रौ च कराटकः' इति वैजयन्ती) फल-फलानि =दाडिमानि स्तना-कुचा व ( उपमित-तत्पु० ) तेषां स्थाने-प्रदेशे (10 तत्पु० ) विदीर्णम = स्फुटितम् ( स० तत्पु०) (दाडिमानि परिपक्वावस्थायां यत्र-तत्र स्थानेषु विदीयन्ते ) रागि रागी लालिमा सोऽस्यामस्तीति रक्तवर्णमित्यर्थः ( दाडिम-बीजानि रक्तानि भवन्ति) यत् हृद् आभ्यन्तर-भागः ( कर्मधा० ) तस्मिन् विशन्ति प्रवेशं कुर्वन्ति ( स० तत्पु० ) यानि शुकास्यानि ( कर्मधा० ) शुकानाम् = कीराणाम् आस्यानि (10 तत्पु० ) स्मरस्य कामस्य किंशकाशुगाः= पलाश-रूपा बाणा ( 10 तत्पु०) इव ( उपमित तत्पु०) यस्यां तथाभूनाम् (ब० बी० ) अर्थात् दाडिमानां स्फुटित भागेषु प्रविष्टानि शुकाना मुखानि कामदेवस्य पलाशपुष्परूपबाणसदृशानि आसन् , शुका हि दाडिमफठवीजानि भक्षयन्तीति स्वाभाविकम् , ( अथ नायिका-पक्षे) फल्ने दाडिमे इत्र यो स्तनौ= कुचौ ( उपमानतत्पु० ) तयोः स्थाने विदोर्ण = प्रियतम-विरहकारणात् स्फुटितं रागि= अनुरागपूर्ण हृद् = हृदयम् तस्मिन् विशन्तः शुकास्यानीव स्मरस्यकिंशुकख्याशुगाः ( उपमान तत्पु० ) यस्याम् ताम् , पलाश-पुष्पं हि शुकास्यवत् रक्तवर्णम् अग्रभागे च कुञ्चितं मवतीति कारणात् सादृश्यम् / विरहित-नायिका-हृदये काम-बाणा प्रविशन्ति स्मेति भावः // 42 // __व्याकरण-दित उत् +vs+तः कर्तरि / विदोर्ण वि+/+क्त त को न, न को प / विशत्/ विश्+शत / स्तनः स्तनतीति / स्तन् + अच् कर्तरि / प्रास्यम् अस्यते क्षिप्यतेऽन्नादिकमति/अस्+मण कर्मणि / ऐचत/क्ष+लङ् / हिन्दी-उस ( नल ) ने दाडिमो देखी, जिसपर पक्षी बैठे थे, दोहद पास करने से कोटे बादि का स्पष्ट विकास हुआ पड़ा था एवं जिसके स्तन जैसे फलों के स्थान में फटे पड़े लाल लाल भीतरी माग में कामदेव के पलाशपुष्प-रूर बाणां जैसे तोतों के मुख प्रवेश कर रहे थे // 8 // व्यज्यमान अप्रस्तुत अर्थः उस ( नल ) ने विरहिणी नायिका देखो, जिसे प्रियतम की स्मृति से रोमाञ्च हो उठा था और जिसके ( दाडिम के ) फल-जैसे स्तनों के ( मध्यवर्ती ) स्थान में (वियोग के कारण ) विदीर्ण हुए पड़े अनुराग-भरे हृदय में तोतों के मुख के समान कामदेव के पलाश-पुष्प-रूप बाण प्रवेश कर रहे थे // 3 //
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________________ 72 नैषधीयचरिते टिप्पणी-इस श्लोक में कवि ने अलंकृत शैली का अच्छा चमत्कार मर रखा है। मल्लिनाथ आदि टीकाकारों ने यहाँ 'रूपकोत्प्रेक्षा संकरः' बताया है, जो श्लेष-गर्भित है / दाडिमी पर वियोगिनी का भारोप करके तदङ्गभूत कण्टकों पर रोमाञ्च का फलों पर स्तनों का रोम पर अनुराग का और तोतों के मुखों पर कामदेव के फूल-रूप वाणों का तादात्म्य बताकर रूपकालंकार का समस्त-वस्तुविषयक रूप चित्रित किया है जो श्लेष और उत्प्रेक्षा को साथ लिए हुए हैं किन्तु हमारे विचार से यहाँ समा. सोक्ति है। कवि का अभिप्राय 'वियोगिनो' पद से विरहिणी-मात्र बताना नहीं, प्रत्युत पक्षिगण' से 'भरी' बताना भी यहां अभीष्ट है। इस तरह यहाँ तीनों विशेषणों एवं दाडिमी गत लिग के साम्य से प्रस्तुत दाडिमी पर अप्रस्तुत विरहिणी का व्यवहार-समारोप हो रहा है। विग्रह-मेद से श्लेष के कारण विशेषण प्रस्तुत दाडिमी और अप्रस्तुत नायिका पर समान रूप से लग रहे हैं। समासोक्ति उसे कहते हैं जहाँ विशेषण-साम्य के कारण प्रस्तुत से अप्रस्तुत गम्य हो, जो यहाँ स्पष्ट ही है / इसीलिए हमने हिन्दी अनुवाद में दोनों ही यर्थ बता दिए हैं। शब्दालङ्कार यहाँ अनुप्रास है।८३।। स्मरार्धचन्द्रेषुनिभे क्रशीयसां स्फुर्ट' पलाशेऽध्वजुषां पलानात् / स वृन्तमालोकत खण्डमन्वित वियोगिहृत्खशिनि कालखण्डजम् // 84 // अन्वय-सः स्मरार्धचन्द्रेषुनिमे वियोगिहृत्-खण्डिनि क्रशीयताम् अध्व-जुषाम् पलाशनात् स्फुट पलाशे अन्वितम् वृन्तम् कालखण्डजम् खण्डम् आलोकत / टीका-सः नलः स्मरस्य= कामस्य यः अर्धचन्द्रः= अर्धचन्द्राकारः इत्यर्थः (10 तत्पु० ) इषः = बापः ( कर्मधा० ) तधिमे तत्सदृशे वियोगिनश्च वियोगिन्यश्चेति वियोगिनः ( एकशेषद्वन्दः) तेषां यत् हृद् - हृदयम् (10 तत्पु०) तत खण्डयति विदायरतीति तथोक्ते ( उपपद तत्प० ) विरहिहृदय विदारके इत्यर्थः अतिशयेन कृशा इति ऋशीयांसः तेषाम् अध्वानं मार्ग जुषते सेवन्ते इत्येवं. शीलानाम् ( उपपत्तत्पु०) प्रवासिनामित्यर्थः पलम् मांसं तस्य अशनात् = भक्षणात् (10 तत्प०) ( 'स्याच्चामिषे पलम् इत्यमरः ) स्फुटम् = प्रत्यक्षम् पलाशे= पलम् अश्नातीत्वन्वर्थ के पलाशे किंशुक पुष्पे अन्वितम् = सम्बद्धम् लग्नमित्यर्थः वृत्तम् = प्रसव-बन्धनम् ( 'वृन्तं प्रसवबन्धनम्' इत्यमरः ) कालखण्डम् = यकृत् दक्षिण-पार्श्वगतं श्यामवर्ण मांसमित्यर्थः तस्माज्जातम् इति तज्ज तदीयमिति यावत् ( उपपद तत्पु० ) खण्डम् शकलम् पालोकत - अएर त् / राशा पलाशपुष्पं तद्वन्तम्च दृष्टम् / पलाशं हि कामदेवस्यार्धचन्द्राकारशरसमानमस्ति, तत्कृष्ण-वर्णवृन्तम् तत्र लग्नं अध्वग-यकृत्-खण्डमिव प्रतीयते स्मेति मावः // 84 // व्याकरण--इनिभे-निम शब्द का समास अस्वपद-विग्रही नित्य समास कहलाता है, यह सदृशार्थ-वाचक है ( 'स्युरुत्तरपदे त्वमो। निम-सङ्काश-नीकाश-प्रतिकाशोपमादयः', इत्यमरः) / क्रशीयसाम् अतिशयेन कृश इति कृश+ई यसुन् , 'कृ' के 'ऋ' को र=कशीयान् / जुषा-/ जुष्+क्विप् कर्तरि प० / ०खएडजम् ०खण्ड-/जन् -H / 1. स्फुटे।
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________________ प्रथमः सर्गः हिन्दी-उस (नल ) ने कामदेव के अर्धचन्द्राकार बाण के समान, विरहियों के हृदयों को विदीर्ण कर देने वाले ( तथा ) कृश हुए पड़े पथिकों का पल ( मांस ) खा जाने के कारण ( पलाश) कहलाये जाने वाले पलाश-पुष्प पर लगे हुए ( काले ) डंठल को कलेजे के टुकड़े के रूप में देखा // 84 // टिप्पणी-पलाश-पष्प कामोत्तेजक होने के कारण विरहियों को असह्य हुआ करता है / दिखाई पड़ते ही वह उनका मांस खा जाता है, इसीलिए तो उसका नाम पलाश ( आमिषभोजी) पड़ा है। हृदय का मांस तो खाकर वह पचा बैठा, लेकिन हृदय-मास से जुड़ा कलेजे का टुकड़ा अभी बाहर हो रहा हुआ है, मांस के साथ उदर में वह उसे सात्म्थ नहीं कर पाया। वही कलेजे का टुकड़ा पलाश का काला डंठल है। कवि की यह बड़ी अनूठी कल्पना है। यहाँ वृन्त पर कालदण्ड (कळेजे ) के खण्ड का आरोप होने से रूपक है, 'पलाशन' से मानो पलाश कहलाता है, यह उत्प्रेक्षा है, जो वाचक पद न होने से गम्य है, 'खण्डि' 'खण्ड' और 'पलाशे' 'पलाश' में छेकानुपास है, किन्तु 'पला' 'पला' में यमक भी होने से छेकानुपास का यमक से एकवाचकानुप्रवेश संकर है // 84 // नवा लता गन्धवहेन चुम्बिता करम्बिताङ्गी मकरन्दशीकरैः / दृशा नृपेण स्मितशोमिकुड्मला दरादराभ्यां दरकम्पिनी पपे // 5 // अन्वयः-गन्धवहेन चुम्बिता, मकरन्द-शीकरैः करम्बिताङ्गी स्मितशोभिकुड्मुला दर-कम्पिनी नवा लता दरादरांभ्याम् ( उपलक्षितेन ) नृपेण दृशा पपे। टीका-गन्धवहन = वायुना चुम्बिता स्पृष्टा मकरन्दस्य = पुष्परसस्य शीकरैः कणैः (10 तत्पु० ) करम्बितम् = मिलितं युक्तमित्यर्थः ( तृ० तत्पु०) अङ्गम् = शरीरं ( कर्मधा०) वस्या तथाभूता (ब० वी० ) स्मितेन=विकसनेन शोमन्ते इति शोभोनि ( उपपद तत्पु० ) कुडमहानि = मुकुलानि ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता (ब० वी०) दरम् ईषत् यथा स्यात्तथा कम्पते इति दरकम्पिनी ( उपपद तत्पु० ) नवा=नूतनपल्लवा लता-वल्लो दर:-मयं च पादर:=संमानश्चेति दरादरी ( द्वन्द्व ) ताभ्याम् उपलक्षितेन ( उपलक्षणे तृ०) युक्तेनेत्यर्थः पुष्पितलतावलोकनेन वियोगिनां भयम् भवति उत्तेजकत्वात् , पशु-पक्षिणां संभोगदर्शनं वियोगिनां कौतुकमावहतीति आदरः, शा=नयनेन पीता सम्यक् दृष्टेत्यर्थः. अत्र गन्धवह-लतादि-वृत्तं नायक-नायिकागतमपि भवति, नवा नवोढा कापि, रत्र्यपि भवति साऽपि सौग्म-युक्तेन वायु तुल्येन केनापि नायकेन चुम्बिता, शरीस्कृतपुष्परसकर्षः स्वित्रा रोमानिता। स्मितेन कुड्मलसदृश-दन्त-शोभिता, साविकमावरूपेण बेपमाना केनाप्यन्येन इयं परस्त्रोति मयेन परमसुन्दरीति आदरेण च दृश्यते // 85 // म्याकरण:--धवहः वहतीति वह् + अच् कर्तरि, गन्धस्य वहः (प० तत्पु०) / स्मितशोमि दरकन्पिनी उभयत्र शीलार्थ पिन् / पपे/पा+लिट् कर्मवाच्य / हिन्दी-वायु द्वारा चूमी, पुष्परस के कप्पों से शरीर में गीली, खिलो हुई कलियों से शोमित हो रही, कुछ हिलती हुई नयी लता राजा नल ने भय और आदर के साथ देखो // 85 //
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________________ नैषधीयचरिते टिप्पणी-इस श्लोक में लता के सभी विशेषण ऐसे हैं, जो किसी नवोढा नायिका पर भी संगत हो जाते हैं / वह भी चूमो जाने पर पसीज जाती है, मुस्कराहट में कली-सी दंतड़ियो दिखला देती है, और साविक भाव में कांप-सी जाती है। इस तरह यहाँ विशेषण साम्य से प्रस्तुत नव उता पर अप्रस्तुत नवोढा का व्यवहार-समारोप होने से सभासोक्ति अलंकार है। 'दरा' 'दरा' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्र.स है / हो सकता है वायु द्वारा झकझोरी बातो हुई 'जुहू की कली' के चेतनीकृत शारीरिक चित्र हेतु प्रेरणा प्रसिद्ध छायावादा कवि निराला को यहीं से मिली हो / / 85 / / विचिन्वतीः पान्यपतङ्गहिंसनैरपुण्वकर्माण्यलिकज्जलच्छलात् / व्यलोकयच्चम्पककोरकावलोः स शम्बरारेवलिदीपिका इव // 86 // भन्धयः-सः पान्थ-पतङ्ग-हिंसनैः अलि-कन्जल-च्छलात् अपुण्य-कर्माणि विचिन्वतीः चम्पककोरकावलीः शम्बरारेः बलि-दीपिका एव व्यलोकयत् / . टीका-सः=नकः पान्थाः पथिकाः इव पतङ्गाः = शलभाः ( कर्मधा०) तेषां हिंसनैःमारणः (10 तत्पु० ) भलयः=भ्रमराः एव कालम् = अज्जनम् (कर्मधा० ) तस्य छलात्पिषात् न पुण्यम् अपुण्यम् पापम् ( न तत्पु० ) तस्य कर्माणि = कार्याणि (50 तत्प०) विचिक्तोः =अर्जयन्तीरित्यर्थः चमकानाम् पीतवर्ण-पष्पविशेषाणाम् यानि कोरकाणि = कुङमलानि (10 तत्पु० ) तेषाम् भावजीः पङ्क्तीः (10 तत्प) शम्परस्व = राक्षसविशेषस्य भरेः शत्रोः (10 तत्पु०) मारकस्येत्यर्थः कामदेवस्येति यावत् बजिःपूजा तस्यै दीपिकाः दीपान् ( च० तत्पु० ) व न्यलोकयत् = अपश्यत् / पीतवर्णचम्पक कलिकाः कामदेव-पूजायां दीपका इव प्रतीयन्ते स्मेति भावः // 66 // ___ व्याकरण-पान्यः पन्यानं गच्छति नित्यमिति पयिन् + पान्थादेशश्च ( 'पन्थो ण नित्यम्' पा०५।१.७५) / पतङ्गः पतन् ( उत्प्लवन् ) गच्छतीति पतत+ गम् +3 / हिंसनम् हस्+ ल्युट भावे / विचिन्वतीः वि+/चि+शत+डीप द्वि० न० / दीपिका-दीप एवेति दीप+कन् +टाप इत्वम् / हिन्दी-उस (नल ) ने परिक-रूपी शलमों को मार देने से भ्रमर-रूपी काजल के बहाने पाप-कर्मों को बटोरती हुई चम्पा को कलियों का समूह ऐसा देखा जैसा कि वे कामदेव की पूजा हेतु, दीये ( रख ) हो // 86 // टिप्पणी-चम्पाको कलिकायें कामोद्दीपक होने से विरहियों को मार ही देती है जैसे दीपको की लौ पतंगों को मारा करती है / दीपकों की लौ से जो काला कज्जल बनता है,वह मौरों के रूप में कलियों में जमा हो रहा पाप है इस तरह यहाँ पान्थों पर पतङ्गत्वारोप में रूपक, अलियों पर कज्जल. स्वारोप में भी रूपक, कज्जलका अपहन करके उस पर पाप को स्थापना में अपह ति और कलियों पर बलि-दीपिकायों को कल्पना में उत्प्रेक्षा होकर इन चारों अलंकारों का अंगागिमात्र संकर बना हुमा है। 'ण्य' 'oय' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास शब्दालंकार है। वैसे कविजगत में यह ख्याति चली आ रही है कि चम्पा के फूलों पर भ्रमर नहीं बैठा करते। इस सबन्ध में देखिए:-रूप-सौरम
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________________ प्रथमः सर्गः समृदिसमेतं चम्पकं प्रति ययुन मिलिन्दाः / कामिनस्तु जगृहुस्तदशेषा ग्राहकादि गुणिनां कति न स्युः // किन्तु कवि ने इस ख्याति के विरुद्ध उन पर भ्रमर बिठाये हैं, इसलिए यहाँ कवि ख्याति-विरुद्धता दोष है / / 86 // अमन्यतासौ कुसुमेषु गर्भगं' परागमन्धङ्करणं वियोगिनाम् / स्मरेण मुक्तेषु पुरा पुरारये तदङ्ग भस्मेव शरेषु सङ्गतम् // 87 // - अन्वयः-असौ कुसुमेषु गर्भगम् वियोगिनाम् अन्धकरणम् परागम् परा स्मरेण पुरारये मुक्तेषु शरेषु सङ्गतम् तदङ्गमरम इव अमन्यत / टोका-प्रसौ- नलः कुसुमेषु पुष्पेषु गर्ने अभ्यन्तरे ( स 0 तत्पु० ) गच्छति इति गर्भगम् ( उपपद तत्पु० ) गर्भस्थमित्यर्थः वियोगिनश्च वियोगिन्यश्चेति वियो गनः ( एकशेष द्वन्द्व ) तेषाम् अन्धं करोतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु० ) अन्धत्वापादकम् , नयनपतितेन भरमना अन्धत्वं जायते एव परागम् = पौष रजः पुरा=प्राचीन-काले स्मरेण = मदनेन पुरारये = महादेवाय महादेवं लक्ष्यीकृत्येत्यर्थः मुक्केषु प्रहृतषु शरेषु बाणेषु सङ्गतम् = लग्नम् तस५ = महादेवस्य अङ्गम् =शरोरम् (10 तत्पु० ) तस्मिन् भस्मविभूतिः ( स० तत्पु०) इव अमन्यत= अतर्कयत् अर्थात् मानबाणगत-परागः महादेव-शरीर-सम्पर्केण संक्रमितं मस्मेव प्रतीयते स्म / / 87 // म्याकरण--गभंगम् गर्म + गम् +ड / अन्धारणम् अनन्धम् अन्धं कुर्वन्त्यनेनेति प्राधान V+ख्युन् ( 'रि' के अर्थ में ) युको मन और मुम् का आगम / हिन्दी-उस ( नल ) ने फूलों के भीतर स्थित एवं विरहियों को अन्धा बना देने वाले पराग को प्राचीन काल में मदन द्वारा महादेव पर फेंके गये बापों में लगा हुआ उन ( महादेव ) के शरीर का भस्म जैसा समझा // 87 // टिप्पणी-इस श्लोक में फूलों के पराग पर कवि-कल्पना यह है कि वह मानों भस्म हो जो महादेव के शरीर पर लगो रहती है और मदन द्वारा उनपर बाण फेके जाने पर उनके शरीर के सम्पर्क से वापों में संक्रामित हुई पड़ी हो। इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षा है, जिसको अमन्यत शब्द वाच्य बना रहा है। मिन् धातु के उत्प्रक्षा-वाचक होने के विषय में देखिये साहित्यदर्पण-'मन्ये, शङ्के ध्रुवम् प्राय उत्प्रेक्षा-वाचका इमे'। 'पुरा' 'पुरा' में यमक है / / 87 // पिकाद्वने शृण्वति भृङ्गकृतैर्दशामुदञ्चत्करुणे वियोगिनाम् / अनास्थया सूनकरप्रसारिणीं ददर्श दूनस्स्थलपमिनी नलः // 88 // अन्वयः-दूनः नलः उदञ्चत्करुणे बने पिकात् भृग हुङ्कृतैः वियोगिनाम् दशाम् शृण्वति (सति) अनास्थया सून-कर-प्रसारिणीम् स्थल-पभिनीम् ददर्श / टीका-दूनः संतसः नलः उदश्चन्तः= विकसन्तः करुणाः=करुपाख्यवृक्षविशेषाः (कर्मधा० ) यस्मिन् तथाभूते (20 बी० ) अथ च सदश्चन्ती लद्भवन्ती करुणा दया यस्मिन् 1. कुसुमेषुगर्भजम्। 2. उदचित्करुणे /
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________________ नैषधीयचरिते बने = कानने पिकात्=कोकिलात् भृङ्गानाम् भ्रमराणाम् हुकृतः, - हुंकार-ध्वनिभिः वियोगिनश्च वियोगिन्यश्चेति वियोगिनः ( एकशेष द्वन्द्वः) तेषां दशाम-दुःखमरितावस्थाम् शृण्वति आकर्षयति सति अनास्थयान आस्था रुचिः इच्छतियावत् तया ( नञ् तत् प० ) औदासीन्येन विरक्त्येत्यर्थः सूनानि पुष्पाणि पद्मानीत्यर्थः एव कराः=हस्ताः ( कर्मधा० ) तान् प्रसारयतीति तथोक्ताम् ( उपपद तत्पु० ) स्थलस्य पदमिनी= कमलिनी ( 10 तत्पु० ) ताम् कमलं जलजं स्थलजमपि च मवति / अत्र स्थलन-पद्मिनी प्रतिपादिता, ददर्श दृष्टवान् , अत्र वियोगिनां करुणदशायाः वक्ता पिकः भ्रमर-झकारधनि-रूपेण हुँकारं ददानः श्रोता वनान्तः, पाश्व स्थिता स्थलपद्मिनी च कष्टां दशां श्रोतुमनिच्छया कर रूपेण पद्मानि प्रसार्य अग्रे कथनात् पिकं वारयति, नलश्च तत्सर्व पश्यतीति सरलार्थः // 88 / / ___ व्याकरण-हुकृतः 'हुम्' इति शब्दानुकृतिः तस्याः करणम् इति हुम् +/+क्त भावे / उदश्चत् उत् + /अञ्च् + शतृ / प्रास्था आ+ ग्था+अङ् मावे श्रद्धेत्यर्थः / दूनः +क्त,'त' को 'न। हिन्दी-(काम-) संतप्त नल विकसित हो रहे करुण के वृक्षों के रूप में करुणा भरे वन के पिक ( के मुँह ) से भ्रमरों की ध्वनि के रूप में हुंकारी भरकर वियोगी और वियोगिनियों की दशा सुनते रहने पर अनिच्छा से पुष्प-रूप कर पसारे स्थल-कमलिनी को देख बेठा // 88 // टिप्पणी-कानन में कोयले कूक रही हैं, भौरे हुंकार रहे हैं; करुण वृक्ष के फूल विकसित हो रहे हैं भोर कमल खिल रहे हैं। ये सारे प्रकृति-तत्त्व विरहियों को बुरी तरह सालते है / कवि ने यहाँ इन सभी का हिन्दो के छायावाद की तरह चेतनीकरण कर रखा है। कोयल कूकने के रूप में वन को विरही-जनों की व्यथा-पूर्ण दशा सुना रही है। वन भी सुनते समय द्रवित हुआ भ्रमरों के हुंकार के रूप में 'हाँ हूँ' कर रहा है। पास में खड़ी पद्मिनी भी विरहियों को जब बुरी हालत सुनती है तो द्रवित हो उठती है और आगे न सुनने की इच्छा से कर के रूप में प्रसून फैला कर कोयल को रोक देती है कि 'बस करो बहिन ! मैं आगे नहीं सुन सकती।' इस तरह यहाँ प्रस्तुत जड़ प्रकृतितत्वों पर अपरतुत चेतन स्त्री पुरुषों का व्यवहार-समारोप होने से समासोक्ति है, 'सूनानि एव करा' में रूपक है और 'कर फैलाकर रोक-जैसे रही है' में उत्प्रेक्षा है। उत्प्रेक्षा गम्य है, वाच्य नहीं। 'करुणे' मैं 'करुण वृक्ष' और 'करुणा' अर्थों का श्हेष है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / चाण्डू पंडित ने जम्बोर को करुण वृक्ष कहा है // 88 // रसालसाल: समदृश्यतामुना स्फुरद्विरेफारवरोषहुकृतिः / समीरलौलमुकुलविंयोगिने जनाय दित्समिव तर्जनाभियम् // 89 // अन्वयः-प्रमुना स्फुरद् कृतिः, रसाठ-सालः समीर-लोलेः मुकुलैः वियोगिने जनाय तर्जनाभयम् दित्सन् इव समदृश्यत / टीका-अमुना नरेन स्फुरद०-स्फुरन्तः =भ्रमन्त: ये द्विरेफाः = भ्रमराः (कर्मधा० ) तेषाम् पारवः = झक्कार-ध्वनिः (10 तत्प० ) एव रोषहुकृतिः ( कर्मधा० ) रोषस्य = क्रोधस्य
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________________ 77 प्रथमः सर्गः हुरुकृतिः 'हुँइति शब्दः (10 तत्पु 0 ) यस्य तथाभूतः ( ब० वी०) रसालस्य आम्रस्य सानः वृक्षः ( 'अनोकहः कुटः शालः ( सालः ) पलाशी द्रु द्रुमागमाः' इत्यमरः ) समोरेण -पवनेन बोलेः चन्चलः मुकुलैः=कुङ्मले (10 तत्प० / वियोगिने = वियोगी च वियोगिनी च तस्मै (एकशेषद्वन्द्वः) जनाय = लोकाय तजनाया:=भत्सनाया: भयम् =मोतिम् दिसन् =दातुमिच्छन् इव समदृश्यत = दृष्टिपथमानोतः वियोगिषु क्रुद्ध आम्रवृक्षः भ्रमरध्वनि-रूपेण हुंकुर्बन, वायुवेपित-कुङ्मल-रूपाङ्गुल्या विभीषयतीवेतिभावः / / 86 / / - व्याकरण-रसाल साल:-रसाल शब्द से यहाँ आम्र वृक्ष न लेकर आम्र फल लेना चाहिये क्योंकि वृक्ष के लिये साल 'शब्द' पृथक दे ही रखा है। रसाल पाम्रवृक्ष को भी कहते हैं, ऐसी स्थिति में वृक्ष शब्द की पुनरुक्ति हो जाती है, इसलिये सामान्य वृक्ष वाचक साल का विशेष वृक्ष. बाचक रसाल के साथ 'सामान्य विशेषयोरमेदान्वयः' इस नियम से 'आम्रवृक्षाभिन्नवृक्ष' अर्थ कर केना चाहिये / हुङ कृति 'हुम्'/+त्तिन् भावे। तजना तर्ज + युच् +टाप् / भोः /भी+ त्रिप भावे / दित्सन्/दा+सन् +शतृ / समदृश्यत सम् +/दृश् +लङ् कर्मवाच्य। / हिन्दी-उस ( नल ) ने मंडराते हुये भ्रमरों की ध्वनि के रूप में क्रोध-भरा हुँकार छोड़ते हुये ( तथा ) हवा से हिल रहे मुकुलों ( के रूप में अंगुलियों ) से वियोगी-जनों को तर्जना का भय देते जैसे आम के वृक्ष को देखा / / 86 / / टिप्पणी-यहाँ भ्रमर-झंकार पर रोष हुँकृतित्व के आरोप से रूपक है, किन्तु साथ हो कवि को मुकुलों पर अंगुलित्वारोप भी कर देना चाहिये था, जिसे विवक्षित होने पर भी वह कर न सका इसलिये रूपक का समस्त-वस्तु-विषयक रूप न वनकर एक-देश विवौ रूप ही रह गया है। मुकुल रूपी अंगुलियों से मानों तर्जना देना चाह रहा है-इस कल्पना में उत्प्रेक्षा है। रसा' 'रसा' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है / / 89 / / दिने दिने स्वं तनुरेधि रेऽधिकं पुनः पुनर्मूर्छ च तापमृच्छ च / इतीव पान्थान्शपतः पिकान् द्विजान सखेदमैक्षिष्ट स लोहितेक्षणान् // 90 // अन्वय-रे ( पान्थ ) त्वम् दिने दिने अधिकं तनुः एधि, पुनः पुनश्च मूर्छ, तापं च ऋच्छ' इति पान्यान् शपतः इव लोहितेक्षणान् पिकान् दिजान् स. सखेदन ऐक्षिष्ट / / टीका-रे अरे इत्यनादर-पूर्वक सम्बोधने अव्ययम् , दिने दिने प्रतिदिनम् अधिकं यथा . स्वातथा तनुः = कृशः एधि मव, पुन-पुनश्च बारं वारं च मच्छ = मूर्छा प्राप्नुहि, तापम:ज्वरमित्यर्थः च ऋच्छ प्राप्नुहि' इति=एवम् इव पान्थान् = पथिकान् विरहिण इत्यर्थः शपतः - शापविषयीकुर्वतः पान्थेभ्यः शापं ददत इति यावत् लोहिते रक्तवणे ईवणे= नयने / कर्मधा० ) येषां तान् (ब० वी० ) पिकान् = कोकिल्लान द्विजान् = पक्षिणः अय च ब्राह्मणान् सः नल: सखेदम् खेदेन सहितं यया स्यात्तथा ऐक्षिष्ट = दृष्टवान् / / 90 / / .: व्याकरण-दिने-दिने वीप्सा में द्वित्व / एधि/अप्स+लोट् मध्य० एक० / अछ/ऋ को छ आदेश करके या सीधे ऋच्छ धातु का लोट मध्य० एक० बना हुआ है। पान्थः नित्यं
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________________ नैषधीयचरिते पन्यानं गच्छति इस अर्थ में पथिन् शब्द से प और पन्थादेश / द्विजान् द्विजायते इति द्वि+/जन् +ड। पक्षी पेट और अण्डा, ब्राह्मण भी पेट और संस्कार-इन दोनों से होने के कारण दिन कहलाते हैं, देखिये धर्मशा० 'जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते / ईक्षणम् ईक्ष्यतेदृश्यतेऽनेनेति / +ल्युट करणे / ऐतिष्ठ-/ईक्ष् +लुङ कर्तरि / हिन्दी-"अरे ( यटोही!) तू दिन-प्रतिदिन अधिक कृश होता जा, फिर-फिर मूर्छा खाता जा और ताप रखता जा"-इस प्रकार बटोहियों को मानो शाप देते हुये लाल-लाल आंखों वाले कोयल-पक्षियों को नल ने खेद के साथ देखा / / 90 // टिप्पणी-यहां कोयलों को शाप देते हुये-जैसे बनाकर उत्प्रेक्षा है, जो इव-शब्द वाच्य है। कोयलों की आंखें स्वमावतः लाल हुआ करती हैं किन्तु यहां क्रोध के कारण लाल होने को कल्पना को गई। द्विज शब्द श्लिष्ट होने के कारण ब्राह्मणों का वाचक मी है। क्रोष में आकर आंखें लाल किये भी शाप दे देते हैं / इस तरह यहां-जैसे क्रोध में लाल-लाल आंखे किये ब्राह्मण शाप दिया करते हैं, उसी तरह कोयल-पक्षो. मी पथिकों को शाप दे रहे थे यह उपमा-ध्वनि निकल रही है। 'रेधि' '२ऽधि' में यमक है / 'दिने-दिने' 'पुनः पुनः ‘में वीप्सार्थक द्विरुक्ति को कितने ही आलंकारिक वीप्सालंकार मान लेते हैं / / 99 // अलिस्रजा कुडमलमुच्चशेखरं निपीय चाम्पेयमधीरया धिया। स धूमकेतुं विपदे वियोगिनामुदीतमातक्षितवानशङ्कत // 9 // अन्वय-अलि-सजा उच्च-शेखरम् चाम्पेयम् कुङ्मलम् अधीरया धिया निपीय मातङ्कितवान् ( सन् ) सः वियोगिनां विपदे उदीतम् धूम-केतुम् अशङ्कत / टीका-भलीनाम् =भ्रमराणाम् स्त्रक-माला पंक्तिरित्थर्थः तया (10 तत्पु०) उच्चम् - उन्नतम् शेखरम् = अग्रम् ( कर्मधा० ) यस्य तत् (ब० वी०) चाम्पेयम् = चाम्पेयस्य = चम्पकस्य विकारं ( 'चाम्पेयश्चम्पको हेमपुष्पकः' इत्यमरः) कुछमलम् - कोरकम् चम्पकपुष्पकलिकामिति यावत् ( 'कुङ्मलो मुकुले पुसि' इत्यमरः अधीरया- धैर्यरहितया धिया=मुद्धया निपीय = सादरमवलोक्येत्यर्थः भातहितवान् = चकितो मीतश्च सन् सः नलः वियोगिनश्च वियोगिन्यश्चेति वियोगिनः = ( एकशेषद्वन्द्वः) तेषाम् विपदे विनाशाय उदीतम् - उदितम् प्रकटितमित्यर्थः धूमकेतुम् = उल्काम् उत्पात-सूचकं पुच्छलतारकमित्यर्थः प्रशइतः= तर्कितवान् // 91 // व्याकरण-चाम्पेयम् चाम्पेयस्य विकार इति चाम्पेय+यत् जिसका 'पुष्प-मूळेषु बहुलम् / से लोप होकर चाम्पेय ही रह जाता है किन्तु अर्थ-'चाम्पेय का विकासभूत' हो जाता है। निपीय इसके लिए इस सर्गका पहला श्लोक देखिए। भातरितवान् मा+Vतङ्क+कवत् / उदीतम् उत् +5+क कतरि / धूमकेतु धूमः केतुः-चिह्नं यस्य सः। हिन्दी-भ्रमरों की पंक्ति से ऊपर उठे अग्रभाग वाले चम्पक-कुङ्मल को अधीर मन से देखकर 1. दशा 2. माशाकितवान्
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________________ प्रथमः सर्गः मातंकित हुए उस (0) को यह शंका हुई कि वियोगी और वियोगिनियों के विनाश हेतु उदय हुबा यह पुच्छल तारा तो नहीं // 11 // -टिप्पणी-दीप-ज्वाला-सदृश पीली चम्पक कली के ऊपर भ्रमरपंक्ति बैठ जाने से वह ऊपर से काली हुई पड़ी थी। इस पर कवि ने उसपर धूमकेतु की कल्पना कर दी। धूमकेतु पुच्छल तारे को कहते हैं, जो धुओं सा छोड़ता दिखाई देता है / यहाँ भ्रमर-समूह धुंआ का स्थानापन्न है / जब कभी पुच्छल तारा दिखाई दे तो महाविनाशको शंका हो जाती है वन की चम्पक-कली मो विरहियों हेतु बड़ा खतरा बनी रहती है। यहाँ उत्प्रेक्षा है और उसका वाचक शङ्क धातु है, देखिये-'मन्थे, शके ध्र वं प्राय उत्प्रेक्षा-वाचका इमे' ) शब्दालंकार 'पीय' 'पेय' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। चम्पक कलियों पर भ्रमर-पंक्ति पिठाकर कवि फिर कविख्याति-विरुद्धता दोष ला गया है। हो सकता है कि उसे चम्पक-भ्रमर विषयव कवि ख्याति स्वीकार न हो // 11 // गलत्परागं भ्रमियङ्गिमिः पतत्प्रसक्तभृङ्गावलि नागकेसरम् / स मारनाराचनियर्षणस्वलज्ज्वलत्कणं शाणमिव व्यलोकयत् // 92 // अन्वय:-सः गलत्परााम् भ्रमि-मङ्गिमिः पतत्प्रसक्तभृङ्गावलि नागकेसरम् मारकणम् शापम् इव व्यलोकयत् // 92 // ___टोका-स नलः गन् - पतन् = परागः रजः ( कर्मधा० ) यस्मात् तथाभूतम् (ब० वी०) भ्रमिः= भ्रमणम् तस्याः मणिभिः = रचनाविशेषः प्रकारैरिति यावत् पतन्ती= वृक्षात् आगत्य उपरि 'भ्रमन्तीत्यर्थः च प्रसक्त = लग्ना च ( कर्मधा० ) भृङ्गावलिः भ्रमर-पंक्तिः (कर्मधा० ) यस्मिन् तथा मूतम् ( ब० वी० ) मावलिः भृङ्गाणाम् आवकिः (ष० तत्पु. ) नागकेसरम् = पृष्पविशेषम् मार०. मारः कामः तस्य नाराचाःबाणाः तेषां निघर्षयात् - तीक्ष्णीकरणादित्यर्थः (10 तत्पु०) स्खलन्तः श्यन्तः(पं० तत्पु०) च ज्वलन्तः= देदीप्यमानाश्च (कर्मधा०) कणाः = स्फुल्लिङ्गाः ( कर्मधा० ) यस्मा तथाभूतम् ( ब० वी०) शाणम् =निकषोपलम् ('शाणस्तु निकषः कषः' इत्यमरः) इव व्यतोकयत् अपश्यत् // 92 // व्याकरण-गलत गल्+शत / भ्रमिः भ्रम् +इमावे / प्रसक प्र+/सज्ज+क्त कर्तरि / निघषण नि+/पष् + ल्युट मावे / ज्वलन् /ज्वल् +शत् / हिन्दी-रस (नक ) ने नागकेसर-पुष्प को जिससे पराग झड़ रहा था और जिस पर मंडराने के ( नाना )कारों से भ्रमर-पंक्ति टूट पड़ रही थी तथा बेठी हुई थी, ऐसा देखा मानों वह शाप हो, जिससे तेज करने हेतु) कामदेव के वाणों के रगड़े जाने के कारण जलते अग्नि-कण निकल रहे // 12 // टिप्प-नागकेसर एक काफी बड़ा गोल-गोल फूल होता है जिसे हिन्दी में नाहोर कहते हैं / इसकी पंखुर्या श्वेत और केसर चमकीले पोले रङ्ग के होते हैं नल ने उस पर तरह-तरह से मण्डराती र बैठी भ्रमर पंक्ति देख ली। बस फिर क्या था, उस पर गोल-गोल शाण की कल्पना कर बैठा कालो भ्रमर-पंकि शाप पर तेज किये जा रहे कामदेव के बाप बोर मड़ते हुये पी.
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________________ नैषधीयचरिते चमकीले पराग-कण शाण से निकल रहे अग्नि-स्फुलिंग वन गये। इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षा है, जोक्स शम्द द्वारा वाच्य है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है // 12 // तदङ्गमुद्दिश्य सुगन्धि पातुकाः शिलोमुखालीः कुसुमाद् गुणस्पृशः / स्वचापदुर्निर्गतमार्गणभ्रमात् स्मरः स्वनन्तीरवलोक्य लज्जितः // 93 // अन्वयः-सुगन्धि तदङ्गम् उद्दिश्य गुणस्पृशः कुसुमात् पातुकाः स्वनन्तोः ( च ) शिलीमुखाली: अवलोक्य स्मरः स्व-चाप-दुनिर्गत-मार्गण-भ्रमात् लज्जितः // 12 // टीका-सु+सुष्टु गन्धो यस्य तत् (प्रादि ब० बो०) तस्य = नलस्य अङ्गम् शरीरम् (10 तत्पु० ) उद्दिश्य= लक्ष्योकृत्य गुणम् = गन्धम अथ च नौज़म् स्मृशतीति तथोक्तात् ( उपपद तत्पु०) कुसुमात % ( जातावेकवचनम् ) पुष्पेभ्यः अथ च पुष्प रूपाच्चापात् पातुका:-- पतन्तीः स्वनन्तीः= शब्दायमानाः शिलीमुखानाम् नमराणाम् अथ च वापानाम् ( 'अलिबायो शिलीमुखौ' इत्यमरः ) पाली:=पंक्तोः (10 तत्पु० ) अवलोक्य =ष्ट्वा स्मरः कामः स्वः= स्वकीयः चापः= धनुः (कर्मधा० ) तस्मात् दुर्निर्गताःन सम्यग गताः ये मार्गणाः = बाणा: (पं० तत्पु० ) तेषां भ्रमात् = भ्रान्तेः लज्जितः= लज्जांगत (2) अमवादति शेषः, बाणो हि धनुषा न सम्यक् मुक्तः शब्दायमानश्च लक्ष्यं यदि प्राप्नोति, तहिं धारिणो लज्जा सामाविकीति भावः // 93 // ध्याकरण-सुगन्धि गन्धान्त बहुव्रीहि में समासान्त '' प्रत्यय हो जाता है। पातु काः पतितुंशीलमेषामिति/पत् + उकञ् (ताच्छील्ये ) / गुणस्पृशः /स्पृश् +क्विप् तिरि / स्वनन्तीः। स्वन्+शतृ +ङीप द्वि० ब०। हिन्दी-उस ( नल ) के अच्छो सुगन्धि-युक्त शरीर को लक्ष्य बनाकर ण (गन्ध ) वाले कुमुम से हटकर जा रहो एवं शब्द कर रही शिलीमुखों (भ्रमरों) की पंक्तियों के देखकर कामदेव इस भ्रान्ति से लज्जित जैसे हो उठा कि गुण ( प्रत्यञ्चा) वाले कुसुम-रूर चाप से गलत तरीके से छूटी एवं सनसना रही यह मेरे शिलीमुखों (बापों) की पंक्तियाँ तो नहीं वया // 63, टिप्पणी-इस श्लोक में कवि का युण, कृनुम और शिलीमुख शब्दों में श्लेष ‘खा हुमा है अर्थात् गुण गन्ध और धनुष की डोरो को, कुसुम फूल और फूल रूप धनुष को तथा ठिोमुख भ्रमर और बाणों को भी बता देता है / झकारती हुई भ्रमर-पंक्ति में काम को अपनी गलत छो हुई बाणपंक्ति का भ्रम हो उठा / गलत छोड़ा हुआ बाण शब्द करता हुआ लक्ष्य पर नहीं पहुँता बोच में होफिस हो जाता है / इस तरह यहाँ भ्रमरों पर बाणों की भ्रान्ति होने से भ्रान्तिमान अंकार है। भ्रान्ति के कारण कामदेव के लज्जित होने की कल्पना की जाने मे गम्य उत्प्रेक्षा है, बिका श्लेष और भ्रान्तिमान् से अङ्गाङ्गि-माव संकर हो जाता है। किन्तु श्लेषमुखेन ने शिलीमुख सेणां तथा कुसुम से धनुष का पूर्व प्रतिपादन हो जाने पर भी कवि ने बाद को मार्गण और चाका फिर - उल्लेख करके यहाँ पुनरुक्ति दोष के लिए स्थान दे दिया है / / 13 / /
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________________ प्रथमः सर्गः मरुल्लल पल्लवकण्टकैः क्षतं समुच्चनच्चन्दनसारसौरमम् / स वारनारीकुचसश्चितोपमं ददर्श मालूरफलं पचेलिमम् // 94 // अन्वयः-सः मरुल्ललत्पल्लव-कण्टकैः क्षतम् समुच्चरच्चन्दन-सार-सौरभम् वारनारी कुचसश्चितोपभम् पचेलिमम् मालूर-फलम् ददर्श / टीका-सः= नलः मरुत्-मरुता वायुना बलन्तः = चलन्तः कम्पमाना इति यावत् (तृ० तत्पु० ) ये पल्जवाः = किसलयाः ( कर्मधा० ) तेषां कपटकैः-तीक्ष्णाः अवयवैः (10 तत्पु० ) क्षतम् = पाहतम् अथ च मरुता=( लक्षणया ) मरुता इव वेगवता कामेन ललन्तः = विलसन्तः ये पल्लवाः = विटा भुजङ्गा इति यावत् तेषां कण्टकैः = कण्टकसदृशैः नखैः क्षतम् , समुच्च०-समुच्चरत् उद्गच्छत् अथवा प्रसरत् चन्दनवत् ( उपमान तत्पु० ) सारं= श्रेष्ठम् सौरभम् = परिभलः= ( कर्मधा 0 ) यस्मात् अथ च चन्दनस्य सारं (प० तत्पु० ) सौरभं वस्मात् तथाभूतम् (ब० वी०) वारनारी= वेश्या तस्याः कुचाभ्याम् = स्तनाभ्याम् (10 तत्पु०) सञ्चिता=अजिंता ( तृ० तत्पु०) उपमा सादृश्यम् ( कर्मधा० ) येन तथाभूतम् (ब० वी०) पचेलिमम् पक्वम् मालुर-फलम् = बिल्वफलम् ('विल्वे शाण्डिल्य शैलूषो मालूर-श्रीफलावपि' इत्यमरः) बदर्श = अवालोकयत् / / 64 / / . म्याकरण-बलत् लल्+शत् / क्षत/क्षण+क्त / सौरमम् सुरमेः भाव इति सुरमि+ अप / पचेलिमम/पच+केलिमर् ( 'कर्मकर्तरि केलिमर उपसंख्यानम् ) / . हिन्दी-उस ( नल ) ने मरुत ( काम-विकार ) के कारण विलास करते हुए पल्लवों (कामुकों) के कण्टको ( नखों)द्वारा क्षति-ग्रस्त हुए, ( तथा ) फैल रही चन्दन की अच्छी सुगन्धि वाले गणिका के कुचों का सादृश्य लिये मरुत ( वायु ) से हिल रहे पल्लवों ( पत्तों ) के कंटकों (काँटों) से पति-प्रस्त ( तथा ) चन्दन की-सी अच्छी सुगन्धि वाले पके हुए बिल्व-फल को देखा / / 94 / / टिप्पणी--यहाँ पके हुए गोल-गोल बेल की गणिका के कुचों से तुलना को गई है। विशेषण श्लिष्ट होने से दोनों में बराबर लग जाते हैं। लेकिन 'मरुत्' शब्द को कामुकों की तरफ कोई भी टोकाकार नहीं लगा सका है। हमारे विचार से 'कंटक' का जब सादृश्य-मूलक लाक्षणिक अर्थ नख किया जा रहा है तो 'मरुत्' का भी लाक्षणिक अर्थ 'काम' क्यों न लिया जाय / काम भी तो एक हवा है जो मनुष्य को विचलित कर देती है। और हवा की तरह ही वेग वाला काम भी है। पसलिए हमने भी यही लाक्षणिक अर्थ लिया है। कुचों पर चन्दन लेप करने की प्रथा बड़ो पुरानी है। बेल में चन्दन की-सी गन्ध आती ही है। इसलिर यहाँ श्लेषानुप्राणित उपमा है / चन्दनवारसार-सौरभम् में लुप्तोपमा है। 'सार' 'सौर' में छेक, अन्यत्र वृत्यनुप्रास तथा प्रत्येक पाद के अन्त में अम्' 'अम्' को तुक मिलने से अन्त्यानुपास भी है / / 94 / / युवद्वयीचित्तनिमज्जनोचितप्रसूनशून्येतरगर्मगह्वरम् / स्मरेषुधोकृत्य धिया भयान्धया स पाटलायाः स्तबकं प्रकम्पितः // 95 // 1. ल्लसत् / 2. भियान्धया।
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________________ नैषधीयचरिते अन्वयः-स: युव. गह्वरम् पाटलायाः स्तबकम् मयान्धया धिया स्मरेषुधीकृत्य प्रकम्पितः। टीका-सः=नलः युवा तरुषश्च युवती-तरुपी चेति युवानी ( एकशेष द्वन्द्वः ) तयोः द्वयी युगलम् तस्याः चित्तयोःनिमज्जनम् = वुडनम् ( उमयत्र 10 तत्पु० ) तस्मिन् चितानि = ( स० तत्पु० ) यानि प्रसूनानि = पुष्पाणि ( कर्मधा० ) तैः शून्येतरम् = अशून्यम् पूर्णमिति यावत (तृ० तत्पु० ) शून्यात् इतरत् इति शून्येतरत् ( पं० तत्पु० ) गर्भ गह्वरम् = मध्यबिलम् (कर्मधा० ) गर्भस्य गह्वरम् इति ( 10 तत्पु० ) यस्य तथाभूतम् ( ब० वी० ) पाटलायाः= पाटल्याः ( पाटलिः पाटला मोषा' इत्यमरः) स्तबकम्-गुच्छम् (10 तत्पु० ) भयेन-मीत्या अन्धा=मूढ़ा भ्रान्ता इति यावत् ( तु. तत्पु० ) तया धिया=बुद्धया स्मरस्य = कामस्य इषुधिः=तूपीरः (10 तत्षु० ) ('तूणोपासन- तूखीर निषङ्गा ०इषुधियोः' इत्यमरः) अस्मरेषुधिं स्मरेषुधिं कृत्वेति स्मरेषुधोकृत्य भ्रान्त्या कामदेवस्य तूणीर एष इति मत्वेत्यर्थः प्रकम्पितः = कम्पितवान् // 95 / / व्याकरण-द्वयी दौ अवयवो अस्येति द्वि+तयप् , तयप को विकल्प से अयच+ ङोप / स्मरेषुधीकृस्य स्मरेषुधि+क्वि+ल्यप् / हिन्दी-वह ( नल ) युवा-युवतियों के युगल के मनों को डुबा देने में सक्षम फूलों से भरे हुए भीतरी भाग बाले पाटल के गुच्छे को भय से भ्रान्त हुई बुद्धि द्वारा कामदेव का तरकश समझ कर कॉप उठा / / 95 / / टिप्पणी-निमज्जनोचितः भल्लिनाथ ने नि+/मस्ज धातु को ण्यन्त (निमज्जयति ) बनाकर तब ल्युट करके 'डुबो देने में सक्षम' अर्थ किया है जबकि अन्य टीकाकार बिना पिच के ही ल्युट करके चित्तों के 'डब जाने योग्य' अर्थ कर रहे हैं। भाव यह है कि पाटला के सुन्दर भरपूर गुच्छ को देखकर युवा-युगल का चिंत्त उसमें गढ़ जाता है और वह काम-विहल हो उठता है। पाटला जंगली गुलाब को कहते हैं, जो शहरों में बाड़ के काम में थी आता है। यहाँ राजा नल को पाटला-स्तबक पर कामदेव के तरकस का भ्रम होने से थान्तिमान् अलंकार है। 'चित्त' 'चितं तथा 'मिया' 'पिया' में छेकानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है // 15 // मुनिद्रुमः कोरकितः शितिद्युतिर्वनेऽमुनामन्यत सिंहिकासुतः / तमिस्रपक्षत्रुटिकूटमक्षितं कलाकलापं किल बैधवं वमन् // 96 // भन्वयः-अमुना वने कोर कितः शितिद्युतिः मुनिद्रुमः तमिन "क्षितम् वैधवम् कला-कलापम् वमन् सिंहिका-सुतः अमन्यत किल। टीका:-भमुना=नलेन बनेकानने कोरकित्तः=कुड्मल-युक्तः शितिः = कृष्णवर्षा ( शिती= धवल मेचकी' इत्यमरः) पतिः= कान्तिः (कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब० बी० ) मुनिद्रुमः अगस्त्य-वृक्षः तमित्र = तमिस्रम् अन्धकारः ( 'तमिस्र तिमिरं तमः' इत्यमरः ) तस्य पचे= पञ्चदशाहोरात्रा: (10 तत्पु० ) तस्मिन् या त्रुटि:= चन्द्रस्य कला-हासः ( स० तत्पु०) सा एव कूटम् =न्याजः (कर्मधा० ) वेन भषितम् = खादितम् ( 10 तत्पु० ) वैधवम् = विधुः चन्द्रः
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________________ प्रथमः सर्गः स्येति तत्सम्बन्धिनमित्यर्थः कलानान् = चन्द्रमण्डलस्य षोडश-मागानाम् ('कला तु षोडशो मागः' इत्यमरः) कलापम् = समूहम् (10 तत्पु० ) वमन् = उगिरद् सिंहिका= एतत्संशका राक्षसी तस्याः सुतः पुत्रः राहुरित्यर्थः (प० तत्पु० )भमन्यत-अतर्कयत् किलेति निश्चये / अगस्यवृक्षो कृष्यो भवति, तस्य कुड्मलानि च श्वेतानि भवन्ति, अतएव वृक्षस्य राहुणा तत्कोरकाप्पाञ्च चन्द्रकलाभिः सादृश्यम् // 66 / / ___ व्याकरण-कोरकितः कोरकाः सम्जाता अस्येति कोरक+इतच ('तदस्य सजातम्' इस अर्थ में 'तारकादिभ्य इतच्' ) / त्रुटि /त्रुट +इन् कित्वम् / वैधवम् वि|ः इदम् इति विधु+यण। हिन्दी-उस / गल ) ने वन में ( श्वेत ) कलियाँ निकाल रहा, काले रंग की कान्ति वाला अगस्त्य-वृक्ष 'सचमुच ऐसा समझा कि मानों राहु हो जो कृष्णपक्ष में ( चन्द्रमा की कलाओं के हास के बहाने ) खाए हुये चन्द्रमा के कला-समूह को उगल रहा है / / 66 // टिप्पणी-अगस्त्य वृक्ष के पत्ते गहरे हरे रंग के होने के कारण वह काला दिखाई देता है लेकिन उससे निकलने वाली कलियों श्वेत होती हैं। इसी तरह राहु भी काला होता है और चन्द्रमा की कलायें श्वेत होती हैं। कृष्णपक्ष में चन्द्रमा की एक-एक कला का क्षय होता रहता है / इस तथ्य को छिपाकर कवि की कल्पना यह है कि राहु चन्द्र की कलाओं को खाता जाता है / शुक्लपक्ष में चन्द्रमा की एक-एक कला फिर प्रकट होती रहती है। इस पर कवि कल्पना कर रहा है कि मानो राहु पहले कृष्णपक्ष में खाई हुई चन्द्रमा को कलाओं को उगल रहा हो। यहाँ 'अमन्यत' उत्प्रेक्षा का वाचक है, अतः उत्प्रेक्षा है किन्तु उसके मूल में अपह्न ति काम कर रही है, इसलिये यहाँ इन दोनों का अगाङ्गिभाव संकर है। 'कला' 'कला' 'किल' में दो से अधिक बार आवृत्ति होने से छेक न होकर वृत्त्यनुप्रास है // 66 // 'पुराहठाक्षिप्ततुषारपाण्डुरच्छदावृतेर्वीरुधि बद्ध विम्रमाः। मिलन्निमीलं ससृजुर्विलोकिता नमस्वतस्तं कुसुमेषु केलयः // 17 // अन्वयः-पुरा हठा...वृतेः नमस्वतः वीरुधि बद्धविममाः कुसुमेषु केलयः विलोकिताः सत्यः तं मिलन्निमीछम् विदधुः। टीका-पुरा पूर्वम् आदी इत्यर्थः हठा०-हठात् बलात् माक्षिप्ताः आकृष्टाः (पं० तत्पु.) तुषार-पाण्डुराः ( कर्मधा० ) तुषारेण = हिमेन पाण्डुराः = श्वेताः (10 तत्पु० ) ये छदा% पत्रापि ( कर्मधा० ) तेषाम् आवृत्ति:= आवरणम् ( प० तत्पु० ) येन तथाभूतस्य ( ब० वी०) नमस्वतः वायोः वीरुधि= लतायाम् ('खता=प्रतानिनी वीरुद्' इत्यमरः ) बद्धाः = कृता इत्यर्थः विभमाः=भ्रमणानि (कर्मधा०) तुषारश्वेतपत्राणि बलात् उछ्यवायोः लतायां विविध भ्रमणा नीत्यर्थः कुसुमेष - पुष्पेषु केलयः क्रीडाः (च) विलोकिताः दृष्टाः सत्यः सम् = नलम् मिलन संयुज्यमान: निमीलः= नेत्र संकोच; ( कर्मधा० ). यस्य तथाभूतम् निमीलितचक्षुष्कमित्यर्थः (ब० बी० ) संसृजुः चक्रुः / वायोः लतायां पुष्पेषु च विविध-क्रीडामवलोक्य विरहित्वात् असम 1. पुरो 2. पाण्डर
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________________ _ नैषधीयचरिते खान नलो नेत्रे निमीलितवानिति मावः / अयं च वायुस्थानीय; कोऽपि नायको वीरुत्-स्थानीयायाः करया अपि नायिकायाः तुषारवत् श्वेतम् आवरणम् ( वसनम् ) अपनीय तस्यां विविधविभ्रमपूर्वक कुसुमेषु-केलिम् काम-क्रीडाम् करोति, पर संभोगदर्शनानषेधात् राजा च नेत्रे निमीलयति यथोक्तम्'नेक्षेतार्क न नग्नां स्त्री न च संसक्त-मैथुनाम्' / एषोऽस्तुतोऽर्थोऽपि व्यज्यते / / 97 / / / . म्याकरण-छन्दः छदति ( आच्छादयति ) इति / उद्+अच् कर्तरि / श्रावृत्ति आ+/ +चिन् भावे / नमरवान् नमः= आकाशं स्थानत्वेनास्यास्तीति नमस्+मतुप् म को व / ससृजु; /सुज्+लिट ब० व०। हिन्दी--पहले पाले से सफेद वने पत्तों का आवरण बलात् पकड़े हुये वायु की लता पर किये हुये विलास ( और बाद को ) फूलों पर की हुई अठखेलियों ( नल के ) देखने में आई हुई उसकी बाँखें बन्द करवा देती थीं / / 97 // हिप्पणी- यहाँ कवि श्लोक 85 में आया हुआ प्रकृति का चेतनीकृत चित्र दोहरा रहा है। वायु में नायक और लना में नायिका का चित्रण करके कवि ने यहाँ भी समासोक्ति बनाई है। यहाँ भी विशेषण जड़ प्रकृति तत्वों तथा चेतन नायक-नायिकाओं में समान रूप में लग जाते हैं / हाँ नायक की ओर 'बद्ध-विभ्रमाः' बद्धाः विभ्रमा यासु ताः यों ( 10 वी०) कर लें, जो 'कुसुभेषु केलयः का विशेषण है और 'कुसुमेषु केलयः को 'कुसुमेषु केलयः' एक ही समस्त पद रखें अर्थात् कुसुमेषोः = काभस्य फेलयः = क्रीडाः संभोग इत्यर्थः / बाकी हेरफेर के लिये संस्कृत टीका देखिये / / 97 // गता यदुत्सङ्गतले विशालतां द्रुमाः शिरोमिः फलगौरवेण ताम् / कथं न धात्रीमतिमात्रनामितैः स वन्दमानानमिनन्दति स्म तान् // 98 // अन्वयः-( ये ) द्रुमाः यदुत्सङ्ग-तले विशालताम् गताः, ताम् धात्रीम् फल-गौरवेण अतिमात्रनामितेः शिरोभः वन्दमानान तान सः कथं न अभिनन्दति स्म / टीका- (ये ) द्रुमाः वृक्षाः यस्याः= धाव्या: उत्सङ्ग = मध्यम् तस्य तजे रथले अथ च उत्सङ्गः= अङ्कः ('उत्सङ्ग चिह्नयो ङ्कः' इत्यमरः ) तस्य तले प्रदेशे (10 तत्पु०) विशालताम् = वृद्धिम् गताः= प्राप्ताः, ताम् धात्रीम् - पृथिवीम् अथ चोपमातरम् (ध त्रीबनन्यामलकी-वसुमत्युपमा तृषु इति विश्वः ) फलानाम् = आम्रादीनाम् गौरवेण - बाहुल्येन मथ च पुण्यफलस्य आतशयेन ( 50 तत्पु० ) अतिमात्रम् = अत्यधिकं यथा स्यात्तथा नामितैः = नम्रीकृतैः शिरोमिः = अग्रभागैः अथ च भस्तके: वन्दमानान् स्पृशतः अथ च अभिवादयमानान् तान्द्रु मान् ( पुत्रांश्च ) स नलः कथं न भभिनन्दति स्म = अभ्यनन्दत् अस्तीत् इति यावत् अपि तु अभिनन्दति स्मैवेति काकुः / समुचित-कार्य-कारिणां स्तुतिः समुचितैव / कानने वृद्धिं गताः वृक्षाः फलमरेण नमिता आन् दृष्ट्वा च तान् नलः परमप्रसन्नोऽभवदिति भावः / अत्र फलवृक्षवत् धात्र्या अके पलिताः पुष्टाः वृद्धिश्च मताः पुत्राः पूर्वजन्मसृकृतफलस्वरूपं विनयादि-गुणसम्पन्नाः ताम् अमिवादयन्ते इति ते स्तुतियोग्या इत्यप्रस्तुतार्थोऽपि विशेषण-साम्यात् गम्यते // 98 //
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________________ प्रथमः सर्गः 8 व्याकरण-धात्री दधति याम् इति धा+ष्ट्रन् + ङोप ( धाय ) / नामितः /नम् +णि+ तः कर्मणि / हिन्दी-(जो ) वृक्ष जिसकी गोद में बड़े हुए हैं, उस धात्री (भूमि, धाय ) को फलबाहुल्य के कारण अत्यन्त झुके हुये सिरों से नमन करते हुए उन ( वृक्षों ) का वह ( नल ) क्यों न अभिनन्दन करता ? / / 18 // टिप्पणी-यहाँ भी कवि ने प्रकृति का चेतनीकरण किया है। धात्री आदि शब्दों में श्लेष रखकर ध त्री ( पृथिवी) पर बड़े होकर ( फलों की प्रचुरता के कारण उसकी ओर नमन कर रहे प्रस्तुत वृक्षों पर धात्रो (धाय ) को गोद में पले-पुसे और बाद को उसे नमन करने वाले अप्रस्तुत पुत्रों का व्यवहार-समारोप करके यहाँ भी कवि समासोक्ति बना रहा है। पहले और दूसरे पाद में 'अनाम्' 'अनाम्' की तुक बन जाने से अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है / / 98 / / नृपाय तस्मै हिमितं वनानिलैः सुधीकृतं पुष्परसैरहमहः / विनिर्मितं केतकरेणुमिः सितं वियोगिनेऽदत्त न कौमुदीमुदः // 99 / / अन्वयः-वनानिलैः हिमितम् पुष्प-रसैः मुधोकृतम् , केतक-रेणुभिः ( च ) सितं विनिर्मितम् अहमहः वियोगिने तस्मै नृगय कौमुदी-मुदः न अदत्त / टीका -वनस्थ-काननस्य अनिलाः = पवनाः तैः (10 तस्पु०) हिमितम् = हिमोकृतम् शीतली कृतमिति यावत, पुष्पाखां कुसुमानां रसैः = मकरन्दैरित्यर्थः सुधीकृतम् = अमृतीकृतम् (50 तत्पु० ) केतकोनाम् = केतकी-पुष्पाणाम् रेणुभिः-धूलिभिः परागैरिति यावत् सितम् = श्वेतम् विनिर्मितम् = कृतम् अहमंडः अह्नः = दिवसस्य महः = तेजः ('महस्तून्सव-तेजसोः' इत्यमरः) (10 तत्पु० ) वियोगिने= विरहिणे तस्मै नृगय=राशे नलाय कौमुद्याः=चन्द्रिकायाः मुदः आनन्दान् न अदत्त = प्रायच्छत् , दिने सर्वस्या अपि चन्द्रिका-स मग्रथा उपपादनेऽपि नलो विरहिवात् न प्रसन्नो जात इति भावः। व्याकरण-हिमितम् = हिमम् शीतलं करोतीति हिम+ पिच् ( तत्करोत्यर्थे ) हिमयति (नामधातु बनाकर ) निष्ठा में क्त। ध्यान रहे कि हिम शब्द विशेषण है ( 'तुषारः शीतलः शीतो हिमः सप्तान्यलिङ्गकाः' इत्यमरः)। सुधीकृतम् असुधा सुधा सम्पद्यभानं कृतम् इति सुधा+चि+ छ। अर्महः अहन्+महः सन्धि में ('रोऽनुपि' पा० 8.2.66 ) से रेफादेश / मुद:/मुद्+ वित्र मावे। हिन्दी-वन की पवनों से शीतल बनाया हुआ पुष्प-मकरन्दों से अमृतमय किया हुआ और केड़े के परागों से श्वेत बनाया हुआ ( भी ) दिन का तेज उस विरही नल को चौदनी के आनन्दों को नहीं दे पाया // 99 / / 7 टिप्पणी-यहाँ आनन्द के कारण वनानिल आदि के होते हुए भी आनन्द-रूप कार्य नहीं हो रहा है, इसलिए विशेषोक्ति अलंकार है / 'मुदी' 'मुदः' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 16 //
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________________ नैषधीयचरिते 'अयोगमाजोऽपि नृपस्य पश्यता तदेव साक्षादमृतांशुमाननम् / पिकेन रोषारुणचक्षुषा मुहुः कुहूरुतायत चन्द्रबैरिणी // 10 // अचयः-आयोगमाजः अपि नृपस्य तत् आमनम् साक्षात् अमृतांशुम् एव पश्यता रोषारुप. चक्षुषा पिकेन मुहुः 'कुहू'-रुता चन्द्र-वैरिणी ( कुहूः) आहूयत। टीका-अयोगम् = विरहम् दमयन्त्या इति शेषः मजति - जुषते इति तथोक्तस्य ( उपपद तत्पुर) अपि नृपस्य = राशो नलस्य तत् = प्रसिद्धम् प्राननम् =मुखम् साक्षात् = प्रत्यक्षम् अमृतम् अंशुष = किरणेषु यस्य तथाभूतम् ( ब० बी०) चन्द्रमित्यर्थः एव पश्यता अवलोकयता विरहेऽपि चन्द्रवत् मुख सौन्दर्य दृष्ट्वोत्यर्थः रोषेण क्रोधेन अरुणे = रक्ते ( तृ० तत्पु०) चक्षुषी= नेत्रे (कर्मधा० ) यस्य तथाभूतेन ( ब० वी०) पिकेन-कोकिलेन मुहुः पुनःपुनः 'कुहू' इति हताशब्देन चन्द्रस्य वैरिणो शत्रुभूता कुहूः भाहू यत= आकारिता वियोगकारणात् नलस्य मुख-चन्द्रं नेषदपि म्लानि मजतीति कोपारुणचक्षुः पिकः 'कुहू-कुहू' इति रुतेन कुहूमाकारयदिति भावः ('कुवः स्यात् कोकिलालाप-नष्टेन्दुकलयोरपि' इति विश्वः ) // 10 // व्याकरण-माजः म+विष् कर्तरि / चक्षुः चष्टे पव्यतीति /चश् + उस शिच्च / रुव/+विप् भावे / आहूयत आ+V+लङ् कर्मवाच्य / हिन्दी-( दमयन्ती के ) वियोग में रहते हुए भी राजा (नल ) के मुख को साक्षात् चन्द्रमा ही देखते हुए, क्रोध में आँखें लाल-लाल किये कोयल ने 'कुहू' 'कुहू' शब्द से ( मानो ) चन्द्रमा की वैरी कुहू बुलाई // 100 / टिप्पणी--इन में कोयल स्वभावतः 'कुहू' 'कुहू' करके कूक रही थी। इस पर कवि 'कुहू' शब्द में श्लेष रखकर यह कल्पना कर रहा है कि मानो 'कुहू' 'कुहू' पुकार कर वह कुहू ( अमावास्या ) को बुला रही है जिससे नल के मुख-चन्द्र को चमक जाती रहे। कोयल की आखें भी स्वमावतः लाल होती हैं। उसपर गो कवि-कल्पना यह है कि मानो वह क्रोध से आँखें लाल किए हुए हो / ये दोनों उत्प्रेक्षायें गम्य हैं, वाच्य नहीं / कार नल के आनन पर जमृतांशुत्व का आरोप होने से रूपक है / इस प्रकार रूपक, श्लेष और दो उत्प्रेक्षाओं का संकर है। शब्दालंकार वृत्त्यनु. प्रास है / 'अमृतांशु' शब्द से सम्बन्ध रखने वाले अवधारणार्थक 'एव' शब्द को वहाँ न रखकर 'तत्' के साथ रखने में अस्थानस्थपदव दोष बन रहा है // 10 // अशोकमर्यान्वितनामताशया गतान्शरण्य गृहशोचिनोऽध्वगान् / अमन्यतावन्तमिवैष पल्लवैः प्रतीष्टकामज्वलदस्त्रजालकम् // 101 // . ___ अन्वयः-एषः पल्लव: प्रतीष्ट...कम् अशोकम् अर्थान्वितनामताशया शरण्यम् गतान् गृहशोचिनः अध्वगान् अनन्तम् इव अमन्यत / टोका-एषः = नलः पल्लवैः= किसलयैः प्रतीष्ट०-प्रतीष्टम् = प्रतिगृहीतं कामस्य = मदनस्य ( 10 तत्पु० ) ज्वलत् = दीप्यमानम् अस्त्र-जालकम् = अस्त्रसमूहः ( कर्मधा० ) अस्त्राणाम् १.वियोग
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________________ प्रथमः सर्गः बालकम् ( प. तत्पु० ) येन तयाभूतम् (ब० वी०) प्रशोकम् =एतदाख्यवृक्षविशेषम् अर्थन मन्वितं = सम्बद्धम् नाम अभिधेयम् ( कर्मधा० ) यस्य तथा भूतस्य (ब० वी. ) भावः तत्ता तस्या प्राशया=(१० तत्पु०) शरण्यम् शरणे साधुन संरक्षणदायकमित्यर्थः ( 'शरणं रक्षणे गृहे' इति विश्वः ) गतान् = प्राप्तान् शरणागतानिति यावत् गृहान् =गृहिणीः पत्नीरित्यर्थः ( 'न गृहं गृहमित्याहुः गृहिणी गृहमुच्यते' इत्यमियुक्ताः 'गृहाः पत्न्यां गृहे स्मृताः' इहि विश्वञ्च ) शोचितुं = चिन्तयितुं शोलमेषां तथोक्तान् ( उपपद तत्पु० ) प्रियासु समुत्कण्ठितानित्यर्थः अध्वगान् =पान्थान् प्रवासिन इति यावत् अवन्तम् =रक्षन्तम् इव अमन्यत=अतर्कयत् / 'न शोकः यत्रेति अशोकः' इत्यशोकस्यान्वर्थतां हृदि निधाय पथिकास्तच्छरणमागताः, सोऽपि च 'शरणागत-रक्षणं महान् धर्मः' इति कृत्वा पुष्परूपान् काम-बाणान् स्वशिर उपरिगृहीत्वा शरणागत-पान्थान् रक्षतीवेति भावः॥१०१।। - व्याकरण-शरएवम् शरणे साधुः इति शरण+यत् ( 'तत्र साधुः' पा० 4 4 / 98) / शोचिनः शुच्+णिन् ताच्छील्ये। प्रतीष्ट प्रति+ इ +क्त कर्मवाच्य / अध्वगान् अधानं गच्छन्तीति अवन् + गम् +ङः / जालकम् जालमेवेति जाल+क ( स्वाथें ) / हिन्दी-उस ( नल ) ने पत्रों द्वारा कामदेव के नलते हुए अत्रों का समूह ( स्वयं) ग्रहण किये हुए अशोक को, अन्वर्थ नाम वाला होने की आशा से शरण में आए ( तथा ) पत्नियों की सोच में पड़े पथिकों को रक्षा हुआ-जैसा समझा / / 101 / / टिप्पणी-पथिकों पर कामदेव के बाण पड़ रहे थे वे प्रशोक की शरण चले गये यह सोचकर कि उसका नाम ही लोगों को शोक-रहित करना है। अशोक ने भी अपने नाम की लाज रख ली। उसने आगे खड़े हो काम के बाण अपने ऊपर पड़ने दिए और शरणागत पथिकों की रक्षा कर दी। यह अर्थ यहाँ हमें कुछ ठीक नहीं जॅच रहा है / कारण यह है कि-जैसा हम पोछे बता आए हैंअशोक तो स्वयं कामदेव के पाँच बाणों में से अन्यतम हैं। वह विरहित जनों का रक्षक नहीं, भक्षक है / नाम के भरोसे बटोही उसके पास गए / वह देखो तो उन पर उल्टा और मुसीबतें ढहाने लगा। 'नाम नयन-सुख और आँख का अन्धा' वाली बात हो गई / इसलिए / अव धातु को हम यहाँ रक्षार्थ में न लेकर हिंसार्थ में लेंगे जैसे भट्टोजी दीक्षित लिखते हैं-'अब रक्षण-गति-कान्ति-प्रीति-तृप्यव. गमन-प्रवेश-श्रवण-स्वाम्यर्थयाचनक्रियेच्छा-दीप्ति व्याप्त्यालिङ्गन-हिंसा-दहन-माव-वृद्धिषु / नारायण ने वैकल्पिक-रूप में इस अर्थ को ओर संकेत किया है, किन्तु जिनराज और कृष्णकान्त ने सीधा हिसा अर्थ ही लिया है / रक्षार्थ में उत्प्रेक्षा-मात्र है, किन्तु हिंसार्थ में उत्प्रेक्षा के साथ साथ विषमा. लकार भी है / विषम वहाँ होता है, जहाँ कोई भलाई हेतु जावे किन्तु मलाई के स्थान में मुसीबत में फंस जाय' / बटोही गये थे शोक मिटाने, लेकिन उल्टा प्राप्त कर बैठे शोक। शब्दालंकार वृत्यनुपास है // 10 // विलासवापीतटवीचिवादनात् पिकालिगीतेः शिखिलास्यलाघवात् / वनेऽपि तौयंत्रिकमारराध तं क्व मोगमाप्नोति न माग्यमाग्जनः // 102 // अन्वयः-विलास...नात् , पिकालिगीतेः, शिखिलास्यलाघवात् तौर्यत्रिकम् बने अपि तम् आरराध / माग्यमाक् जनः क्व मोगम् न आप्नोति ?
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________________ नैषधीयचरिते टीका-विलास-विलासः- क्रीडा तस्मै वापी=दोधिका ( च० तरपु० ) तस्याः तटे =तीरे / 10 तत्पु० ) ये वीचयः तरङ्गाः ( स० तत्पु० ) तेषाम् वादनात् वाद्य व्यापारात पिकानाम् = कोकिलानाम् पाले: पंके: गीतेः- गानात् / 10 तत्पु० ) अथवा पिकाश्च भलयः=भ्रमराश्चेति ( इन्द्रः ) तेषां गीतेः शिखिनाम् मयूराणाम् यत् लास्थम् = नृत्यम् ( 10 तत्पु० ) तस्य लाघवात् नैपुण्यात् ( 10 तत्पु०) तौयत्रिकम् = वाद्य-गीत-नृत्यम् ('वौर्यत्रिक नृत्य-गोतवाद्यम्' इत्यमरः) एतत् त्रयं संगीतमप्युच्यते यथोक्तम्-'गीतं वाद्यं नर्तनश्च त्रयं संगीतमुच्यते'। वने = कानने अपि तम् नलम् आराध% सेवितवान् / भाग्यं भजतीति भाग्यभाक् = ( उपपद तत्पु० ) माग्यशाली जन:व्यक्तिः क्व कुत्र मोगम् = सुखम् न प्राप्नोति लमते अपितु सर्वत्रेवाप्नोतीति क'कुः / भाग्यका. रणात् यः सुखी स यत्र कुत्रापि गच्छति सुखमेव लभते यश्च दुःखी स यत्र कुत्रापि गच्छति दुःखमेव लमते इति भावः // 102 // व्याकरण-लास्यम् लसितुं योग्यमिति/लस्+ण्यत् / लाघवात् लघोः (निपुणस्य ) भाव इति लघु+अण् / तौर्यत्रिकम् त्रयाणां समूह इति त्रिकम् ( त्रि+कन् तूर्यस्य वाद्य विशेषस्येदमिति तौर्यम् ( अण ) तुरही का शब्द उसके साथ गीत और नृत्य भी जोड़ कर एतेषां त्रिकम् तौर्यत्रिकम् भाक/ मज+विप् कर्तरि / हिन्दी-विलास हेतु ( बनी ) बावड़ी के किनारों पर तरंगों के बने, कोयल समूह के गाने तथा मोरों की नृत्य-निपुणता से बना ( त्रिक-रूप ) संगीत बन में भी उस ( नल ) को सेवा कर रहा था। भाग्यशाली व्यक्ति कहाँ सुख नहीं पाता है ? / / 102 / / टिप्पणी-राज-भवन में नल को प्रसन्न करने हेतु मानवीय संगीत तो चलता ही रहता था किन्तु वन में भी प्राकृतिक संगीत उसे प्रसन्न रखने में कोई कसर नहीं छोड़ता था अर्थात् प्रकृति भी उसे रिझाती रहती थी। 'बनेऽपि' में अपि शब्द कैमुत्य न्याय से और जगह की तो बात हो क्या' इस अर्थ को बतलाता है, इसलिये अर्थापत्ति है, नल की आराधना की कल्पना करने से गम्योत्प्रेक्षा है और चौथे पाद में प्रतिपादित सामान्य बात से ऊपर नल वाली विशेष बात का समर्थन करने से अर्थान्तर न्यास है। साथ में वृत्त्यनुपास मिलाकर इन चारों अलंकारों की यहाँ संसृष्टि बन जाती है किन्तु काकु वक्रोक्ति के साथ अर्थान्तर न्यास का एकवाचकानुप्रवेश-संकर रहेगा / / 103 / / ' तदर्थमध्याप्य जनेन तद्वने शुका विमुक्ताः पटवस्तमस्तुवन् / स्वरामृतेनोपजगुश्च सारिकास्तथैव तत्पौरुषगायनीकृतः // 103 // अन्धयः-जनेन तदर्थम् अध्याप्य तदने विमुक्ताः पटवः शुकाः तम् अस्तुवन् ; तथा एव च तत् पौरुष-गायनीकृताः शारिकाः स्वरामृतेन ( तम् ) उपनगुः / टीका-जनेन = भृत्यजनेन तस्मै = नलाय नलस्तुतये इत्यर्थः तदर्थम् - ( तच् शब्देन अर्थस्य चतुर्थ्यां नित्यसमासः ) अध्याप्य = पाठयित्वा तस्य = नलस्य बने = विलासकानने विमुका / स्यक्ताः पटवः = निपुणाः स्फुटोच्चारणा इत्यर्थः शुकाः = कीराः तम् = नलम् अस्तुवन् = स्तुतिमकुर्वन् ) तथा एव = तेनैव प्रकारेण तस्य = नलस्य पौरुषम् = शौर्यम् (10 तत्पु०) तस्य गायिन्यः
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________________ प्रथमः सर्गः 89 - गायिकाः कृता इति गायनीकृताः जनेनेति शेषः (10 तत्पु० ) शारिकाः = 'मैना' इति माषायां प्रतिद्धाः पक्षिविशेषाश्च स्वरः कण्ठध्वनिः अमृतमिवेत्युपमित तत्पु० तेन ( तम् नलम् ) उपजगुः = अस्तुवन्नित्यर्थः // 103 // ___ व्याकरण -अध्याप्य अधि+vs+णिच् + ल्यप् / उपजगुः उप+/गै+लिट प्र० ब० / पौरुषम् पुरुषस्य मावः कर्म वा इति पुरुष+अण। गायनीकृताः गायतीति-/गै+ल्युट ( कर्तरि ) +ङीप गायन्यः अगायन्यः गायन्यः सम्पद्यमानाः कृता इति गायन+वि+/+क्त कर्मणि / हिन्दी-भृत्यों द्वारा उस ( नल-स्तुति ) हेतु सिखा-पढ़ाकर उस (नल ) के वन में छोड़े हुये चतुर तोते उस ( नल) की स्तुति कर रहे थे और उसी तरह उस ( नल ) के शौर्य को गायिकायें बनाई हुई मैनायें अमृत-जैसे स्वर से उत्त ( नल ) का ( शौर्य ) गान कर रही थीं // 103 // ___ टिप्पणो–'स्वरामृत' में लुप्तोपमा और सारे श्लोक में स्वमावोक्ति है, क्योंकि पढ़ाए सिखाये तोते और मैनायें स्वमावतः ऐसा करते ही हैं / शब्दालंकार वृत्त्यनुपास है / / 103 / / इतीष्टगन्धाढ्यमटन्नसौ वनं पिकोपगीतोऽपि शुकस्तुतोऽपि च / भचिन्दतामोदमरं बहिश्चरं विदर्मसुभ्रूविरहेश नान्तरम् // 104 // अन्वयः-इति इष्ट-गन्धाढ्यम् वनम् अटन् पिकोपगीतः अपि शुक-स्तुतः अपि च असौ बहश्वरम् मामोद मरम् अविन्दत, विदर्भसुभ्र -विरहेण आन्तरम् ( आमोद-मरम् ) न ( भविन्दत ) / . . टीका-इति एवं प्रकारेण इष्टः = अमीष्टः प्रिय इति यावत् यः गन्धः = सौरमम् (कर्मधा०) तेन माढ्यम् = समृद्धम् ( तृ० तत्पु० ) अभीष्ट-सौरभपूर्णमित्यर्थः वनम् = काननम् अटन्-भ्रमन् पिके = कोकिलेः उपगीतः स्तुतः ( तृ० तत्पु० ) अपि शुकैः = कीरैः स्मृतः= स्तुतिविषयीकृतः अपि प्रसौनल: वहिश्चरम् = बाद्यम् आमोदस्य सौरभस्य भरम् = अतिशयम् अविन्दत = प्राप्नोत् , ( किन्तु ) विदर्भाणाम् सुभ्रः वैदी सुन्दरी दमयन्तीत्यर्थः (10 तत्पु० ) तस्याः विरहेण = वियोगेन प्रान्तरम् आन्तरिकम् प्रामोदस्य आनन्दस्य भरम= अतिशयम् न अविन्दत ( आमोदो हर्ष-गन्धयोः इति विश्वः) आनन्दस्य वाह्यसामग्रयां विद्यमानायामपि नको विरहकारयात् हृदये आनन्दं प्रापेति मावः / / 104 // - व्याकरण-इष्ट/इष्+क्त कर्मवाच्य / अन् / अट् + शत्। बहिश्वरम् बहिः चरतीति बहिस्+/चर्+ट / आन्तरम् अन्तरस्येदमिति अन्तर+अण् / हिन्दी-इस प्रकार अमीष्ट ( प्रिय ) गन्ध से भरपूर वन में भ्रमण करता हुआ ( और ) कोयकों से गाया एवं तोतों से स्तुति किया जाता हुआ.मी वह ( नल ) बाहरी अत्यधिक प्रामोद ( सौरम) प्राप्त कर रहा था, ( किन्तु ) विदर्भ देश की सुन्दरी के विरह के कारण भीतरी अत्यधिक आमोद (आनन्द ) नहीं / / 104 / / टिपणी-यहाँ आनन्द के कारण के होते-होते मी भानन्द-रूप कार्य के न होने से विशेषोक्ति है। भिन्न भिन्न आमोदों में अमेदाध्यवसाय करने से अतिशयोक्ति भी है // 104 / / . करेण मीनं निजकेतनं दधद् गुमालबालाम्बुनिवेशशङ्कया। व्यतर्क सर्वर्तुघने वने मधुं स मित्रमत्रानुसरनिव स्मरः // 105 //
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________________ नैषधीयचरिते भन्धयः-सः निज-केतनम् मीनम् द्रुमालवालाम्बु-निवेश-शङ्कया करेण दपत् सर्वर्तु-धने अत्र वने मित्रम् मधुम् अनुसरन् स्मर इन व्यतकिं ( लोकैः ) / टीका-सः=नल: निजं = स्वकीयम् केतनम् = चिह्नम् =वजमिति यावत् (कर्मधा० ) मीनम् =मत्स्यम् द्रमाणाम् = वृक्षाणाम् यानि प्रालवालानि=आवागः (10 तत्पु० ) 'स्यादालवालमावालमावापः' इत्यमरः ) तेषु यत् अम्बु = जलम् तस्मिन् निवेश:=प्रवेशः ( उभयत्र स० तत्पु. ) तस्य शङ्कया=भयेन (10 तत्पु० ) अयं मोनः जले प्रवेक्ष्यतीति शङ्कयेत्यर्थः करेण = हस्तेन दधत् = धारयन् सव च ते ऋतवः ( कर्मधा० ) तैः घने पूर्णे (तृ. तत्पु०) अत्र=अस्मिन् वने= कानने मित्रम्स खायम् मधुम्% वसन्तम् अनुसरन् = अविष्यन्नित्यर्थः स्मरः = कामदेव व व्यतर्कि-अमन्यत लोकरिति शेषः। राशो हस्ते सामुद्रिकशास्त्रानुसारं चक्रवति-चिह्न मत्स्य आसोत तदेव वास्तवं निज-केतनं मत्स्यं हस्ते धारयन् राजा कामदेव इव प्रतोपते स्मेति मावः // 105 // व्याकरण-केतनम् = केत्यते ( शायते ) अनेनेति / कत् +लुट करणे / आलवालम् श्रालय+ते ( खन्यते ) इति आ+Vलुञ्+आलच् ( ओणादिक)। दधVधा+शत ( 'नाभ्यस्ताच्छतुः' पा० 7.1.78 ) से नुम् निषेध / व्यतर्किवि /तक् +लुङ् कर्मवाच्य / हिन्दी-वह ( नल ) अपने चिह्न मत्स्य को बावली के जल में प्रवेश कर जाने की शंका से हाथ में धारण किये, सभी ऋतुओं से परिपूर्ण इस कानन में अपने मित्र ( वसन्त ) को ढूँढता हुआ मदन जैसा प्रतीत हो रहा था // 10 // टिप्पणी-राजा के हाथ में मत्स्य की रेखा थो जी चक्रवर्ती का चिह्न मानी जाती है। उस पर कवि ने कल्पना की है कि वह कामदेव है जो अपना भत्स्य रूप ध्वज अपने हाथ में इसलिए पकड़े हुए हैं कि यह कहीं बावली के जल में न घुस जाय / पानी का जीव जो ठहरा। इसलिए रेखारूप मत्स्य को ध्वज-रूप मत्स्य बनाकर नल पर कामदेव की कल्पना करने से उत्प्रेक्षा है, जिससे नल अत्यन्त सुन्दर युवा है-यह वस्तु धन निकल रही है / "मित्र' 'मत्रा' में छेक और अन्यय वृत्त्यनुप्रास है / / 105 / लताबलालास्यकलागुरुस्तरुप्रनगन्धोत्करपश्यतोहरः / असेवतामुं मधुगन्धवारिणि प्रणीतलीलाप्लवनो वनानिलः // 106 // . ___ अन्वयः-लता गुरुः, तरु''हरः मधुगन्धवारिणि प्रणीत-झीला-प्लवनः वनानिलाः अमुम् असेवत। टीका:-लताः= वल्लय एव अबलाः = नायः (कर्मधा० ) तासाम् लास्यम् = नृत्यम् (10 तत्पु० ) एव क जा=विद्या ( कर्मधा० ) तस्याः गुरुः= शिक्षकः (10 तत्पु० ) लता नर्तयन्नित्यर्थः तरूणाम् = वृक्षाणाम् यानि प्रसूनानि =पुष्पाणि तेषां यो गन्धः सौरभम् तस्य य उत्करः= समूहः तस्य पश्यतोहरः= चोरः ( सर्वत्र प० तत्पु० ) मधु = मकरन्दः एव गन्ध-वारि-(कर्मधा०) गन्धयुक्तो वारि गन्धवारि ( मध्यमपदलोपो स० ) तस्मिन् प्रणीतम् = कृतम् लीला-उवनम् = लोलावगाहन ( कर्मधा० ) लीलया = विलासेन प्लवनम् = ( तृ० तत्पु० ) जलक्रीडेत्यर्थः येन
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________________ प्रथमः सर्गः 91 . तथाभूनः (ब० वी० ) वनस्य काननस्य अनिल:= वायुः (10 तत्पु०) अमुम्न लम् असेवत सेवितवान् / अत्र उक्तैः त्रिभिः विशेषणः बायोः मन्दत्वम् सुगन्धित्वम् शीतलत्वं च द्योत्यते / अन्योऽपि सेव्यः पोठमर्दादिपरिचारकैः सेव्यते / व्याकरण--लास्यम्/लस् + ण्यत् / पश्यतोहरः हरतीति हर:/ह+अच् कर्तरि पश्यतः लोकस्य हरः,, यहाँ षष्ठी चानादरे' ( पा० 2 / 338) में षष्ठी और उसका "वादिक, पश्यद्भयो युक्ति-दंडहरेषु' इस वातिंक से लोप-निषेध होकर अलुक समाप्त है। जो लोगों के देखते-देखते वस्तु उड़ा लेता है, उसे 'पश्यतोहर' कहते हैं, देखिये हलायुध-'पश्यतो यो हरत्यर्थ स चौरः पश्यतोइरः' / प्रणीत प्र+/नी+क्त कर्मपि। हिन्दी-लता-रूपी नायिकाओं का नृत्य-कला का गुरु, वृझों के सौरभ-समूह का डाकू ( और ) मकरन्द-रूपी सुगन्धित जल में सविलास स्नान किये हुए वन-पवन उस ( नल ) की सेवा कर रहा था // 106 // टिप्पणी-वन में मन्द-सुगन्ध-शीतल पवन बह रहा था। उस पर कवि सेवकत्व का अरोप कर रहा है। साथ ही लतारूपी नारियों का गुरुत्व और फूलों के चोत्व का आरोप भी उस पर किया गया है / इसलिए यह रूपक है / लता पर नारीत्व और पवन पर गुरुत्व के आरोपों का परस्पर कार्यकारणभाव होने से परम्परित रूपक है, किन्तु पश्यतोहरत्वारोप में निरंग रूपक है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / / 106 / / अथ स्वमादाय मयेन मन्थनाच्चिरत्नरत्नाधिकमुच्चितं चिरात् / निलीय तस्मिन्निवसन्नपांनिधिर्वने तडागो ददृशेऽवनीभुजा / / 107 / / अन्वयः-अथ अवनी भुजा तडागः मन्थनात् भयेन चिरात् उच्चितम् चिरत्न-रत्नाधिकम् स्वम् आदाय तस्मिन् वने निलीय निवसन् अनि धिः ददृशे। टोका-अथ = अनन्तरम् अवनीभुजा-राज्ञा नलेनेत्यर्थः तडागःकासारः मन्थनात् = मथनात् भयेन = भीत्या चिरात् = सुद धकालात् उच्चितम् = सञ्चितम् चिरत्नानि = चिरन्तनानि यानि रत्नानि-ऐरावतोच्चैःश्रव प्रादीनि चतुर्दश ( कर्मधा० ) तैः अधिकम् = अधिकतर मित्यर्थः ( तृ० तत्पु० ) पूर्व तु एकैकान्येत्र ऐरावतादिरत्नानि आसन् , सम्प्रति तु चिराद् दृद्धि गतानि अधिकतराणि तानि जातानीति भावः, स्वम् = धनम् भादायगृहीत्वा तस्मिन् वने = कानने निलीय= अन्तर्धाय तिरोभूनीभूगेति यावत् निवसन् = वासं कुर्वन् अपानिधिः समुद्र इव = ददशे = दृष्टः / एतेन तडागस्य जल-बाहुल्यं सूच्यते // 107 // व्याकरण-अवनीभुजा अवनीम् ( पृथ्वीम् ) भुनक्ति इति/गुज +क्विप कर्तरि तृ० / चिरत्न चिरंभवतीति चिर+त्नः ('चिर-परुत्-परादिभ्यस्त्नो वक्तव्यः', वातिक ) / ददृशे दृश्+ लिट कर्मवाच्य / हिन्दी-इसके बाद राजा ( नल ) ने तालाब देखा, जो ऐसा लग रहा था मानो मन्थन के डर के मारे चिरकाल से सञ्चित ( और ) पहले के रत्नों से ( भी कहीं ) अधिक धन लेकर उस वन में छिप कर रह रहा समुद्र हो // 107 //
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________________ नैषधीयचरिते टिप्पणी-जल-बाहुल्य के कारण तड़ाग पर समुद्र की कल्पना करने से उत्प्रेक्षा है, जो वाचक शब्द न होने से गम्य है। समुद्र के यहाँ आने का कारण यह हुआ कि पहले तो देवासुरों ने मिल कर उसका मन्थन करके उसके सभी चौदह रत्न निकाल लिये थे। मन्यन हुए बहुत समय बीत गया और इस बीच रत्न मी बढ़ कर संख्या में अब पहले की अपेक्षा कितने ही अधिक हो गये। फिर कहीं उसका मन्थन ही न कर बैठे और उसके रत्न न निकाल ले-इस हेतु डर के मारे वह इस वन में छिपकर रह रहा है / कवि की बड़ी अनूठी कस्पना है। पहले के समुद्र की अपेक्षा इस वर्तमान समुद्र में रत्न अधिक होने के कारण व्यतिरेक भी है। उत्प्रेक्षा वाचक शब्द के अभाव में विद्याधर ने यहाँ समासोक्त मानी है और यह अप्रस्तुत अर्थ गम्य कहा है कि जिस तरह कोई धनी अपना बहुत-सा संचित धन यह भय खाकर कि कहीं कोई राजा आदि न ले बैठे, लाकर कहीं जंगल में छिपा कर रहने लगता है, उसी तरह समुद्र ने भी किया है / किन्तु हमारे विचार से समुद्र तो यहाँ प्रस्तुत ही नहीं है प्रस्तुत तो तड़ाग है। अपस्तुत से अपस्तुत की गम्यता में समासोक्ति होती ही नहीं। अतः यहाँ गम्यत्प्रेक्षा हो मानना ठीक है। 'रत्न' 'रत्ना' और 'वने' 'sजनी' में छेक एवं अन्यत्र वृत्त्यनुपास है // 107 // पयोनिलीनाभ्रमुकामुकावल्लीरदाननन्तोरगपुच्छसुच्छवीन् / जनार्धरुद्धस्य तटान्तभूमिदो मृणालजालस्य निभात् बमार यः // 108 // अन्वयः—यः जलाधरुद्धस्य तटान्तभूमिदः मृणाल-जालस्य निमात् अनन्तोरगपुच्छसुच्छवीन् पयो रदान् बभार / / 108 / / टीका-यः= तडागः जलेन = अर्ध यथा स्यात्तथा रुखस्य = छन्नस्य अर्थात् अर्धतिरोहितस्य तटस्य =तीरस्य अन्तःप्रान्तमाग: (10 तत्पु०) तस्मिन् या भू-भूमिः ( स० तत्पु० ) ताम् भिनत्ति = मनक्ति इत्युक्तस्य तीर-समीपभूमिमुभिद्य निर्गतस्येत्यर्थः ( उपपद तत्पु०) मृणालानाम् = विसानाम् जालस्य = समूहस्य (10 तत्पु० ) निभात् = व्याजात् ('निमो व्याज-सदृक्षयोः इति विश्वः ) अनन्त अनन्तः = अनन्ताख्यः य उरगः = नागः शेष इत्यर्थः ( कर्मधा० ) तस्य यत् पुच्छम्लाङ्गलम् (10 तत्पु० ) तद्वत् ( उपमान तत्पु०) सुशोभना छविः क न्ति: ( प्राप्ति तत्पु० ) येषां तथाभूतान् (ब० बी०) पयो० पयसिजले निखीना: भग्नाः ये अभ्रमु कामुकाः ( कर्मधा० ) अभ्रमूखाम् दिग्गजानां करेणूनाम् ये कामुकाः = इच्छुका ऐरावता इत्यर्थः तेषां यां पावली=समूहः तस्या रदान् =दन्तान् ( सर्वत्र प० तत्पु०) बभार=दधौ / तट-पान्तोद्भिन्नमृणालसमूहः / जलतिरोहितैरावधिप्रकाशित आसन्निति तत्र बहव ऐरावतास्तिष्ठन्ति स्मेतिमावः // 10 // व्याकरण-कामुकः कामयते इति/कम् +उकञ्। यहाँ 'न लोकाव्यय०' (पा० 2 / 36) से षष्ठी का निषेध होकर 'अभ्रमूः कामुका' इति द्वितीया समासो भधुपिपासुवत' यह मल्लिनाथ पता नहीं क्यों लिखगये, क्योंकि ' कमेरनिपेषः यह वार्तिक 'काभुक' में षष्ठी के निषेध का निषेव मर्याद षष्ठी का विधान कर रहा है, देखिये मोनी-'लक्ष्म्याः कामुको हरिः' भूमिद भू+/मिद् + क्विप् कर्तरि / 1. सच्छवीन् 2. मिषात् / .
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________________ हिन्दी-जो ( तडाग ) जल से आधा ढके हुए, तट के पास की भूमि को फोड़े ( फोड़कर ऊपर निकले ) मृणाल समूह के बहाने शेष नाग के पूंछ की-सी कान्तिवाले, पानी में छिपे ऐरावत :मूह के दाँतों को धारण कर रहा था / / 108 // टिप्पणी-पिछले श्लोक में तड़ाग-रूपी समुद्र में बहु-संख्यक रत्नों का उल्लेख आया है। यहाँ सबसे पहले बहुत से ऐरावत बताये गये हैं, जो पानी के भीतर छिपे हुये हैं किन्तु श्वेत मृणालदण्डों केबाज से जिनके आधे दाँत ही ऊपर दिखाई दे रहे हैं। इस तरह व्यतिरेकालंकार पूर्ववत् चला आ रहा है, किन्तु यहाँ 'मिष' शब्द वाच्य कैतवापत ति से उसका संकर हो रखा है। 'पुच्छ' 'उछ' घोर 'पाल' 'जाल' में तुक मिलने से पदान्त-गत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 108 / / तटान्तविश्रान्ततुरङ्गमच्छटा-स्फुटानुबिम्बोदयचुम्बनेन यः। बभो बलद्वीचिकशान्तशावनैः सहस्त्रमुच्चैः श्रवसामिवाश्रयन् // 109 // अन्वयः—यः तटान्त "चुम्रनेन वाचिकशान्तशातनैः चलन् उच्चैःश्रवसाम् सहस्रम् अयन् हा बमो। .. टोका-यः = तडागः तटा०-सटस्य = तीरस्य अन्ते प्रान्तमागे ( स० तत्पु०) विश्रान्ताः . विभमं कुर्वाणा: स्थिताः इति यावत् (60 तत्पु०) ये तरंगमाः= अश्वा नलस्येति शेषः (कर्मधा०) रोषां छटा=णिरित्यर्थः तस्याः स्फुरः= स्पष्टः (10 तत्पु०) यः अनुबिम्बः= प्रतिविम्बः (कर्मधा० ) तस्य उदयः= आविर्भावः तस्य चुम्बनेन=सम्बन्धेन ( सर्वत्र प० तत्पु०) जलपतिताना तुरंगम-प्रतिबिम्बानां व्याजेनेत्यर्थः वीचयः=तरङ्गाः एव कशाः अश्वताडिन्यः ( 'अश्वादेस्ताडनी कशा' इत्यमरः ) ( कर्मधा० ) तासाम् अन्ता:=प्रान्ताः (प० तत्पु० ) तैः यानि शातनानि = चाइनानि ( तृ० तत्पु० ) तैः चलम् = चञ्चकम् उच्चैःश्रवसाम् = एतत्संशकानाम् अश्वानाम् सहस्रम् =दशशतीम् श्रयन् = प्राप्नुवन् श्व बभौशुशुमे। तीरप्रदेशस्थितानां नलाश्वानां प्रति. सिम्बनात् जले उच्चैः श्रवसा प्रतीतिर्मवति स्मेति भावः। एतेन नलाश्वानां उच्चैःश्रवोभिः साम्यं धन्यते / / 106 // व्याकरण- विश्रान्त गि/+श्रम् क्तः कर्तरि / तुरङ्गमः तुरं ( शीघ्रं ) गच्छतीति तुर+ Viम् +खच् मुम् / शातनम् शो+णिच् +त+ ल्युट् / हिन्दी-जो ( तड़ाग ) तट के पास विश्राम ले रहे घोड़ों को पंक्ति के स्पष्ट प्रतिबिम्ब पड़ने के सम्बन्ध के कारण, हिलती हुई तरंग रूपी चाबुकों की नोकों के प्रहारों से दौड़े जा रहे हजारों उच्चैः भवाओं को रखता हुआ जैसा लग रहा था / / 109 / / टिप्पणी-पिछले श्लोक में ऐरावतों की अधिकता बताई गई है / तरंगों के हिलने से प्रातिबिम्बों का हिलना स्वामाविक है, अत: घोड़ों की पानी में हिलती हुई परछाइयों ऐसी लग रही हैं मानों का के मोतर रहने वाले हज़ारों उच्चैः श्रवा चाबुक को मार खाकर दौड़े जा रहे हों / इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षा है जिसका व्यतिरेक और वीचि कशा' वाले रूपक के साथ संकर बना हुआ है। विद्याधर ने यहाँ अपहति मी मानी है किन्तु अपह्नति वाचक कैतव आदि शब्द यहाँ कोई नहीं है। यदि अपह्नव
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________________ नैषधीयचरिते अर्थ मान लें, तो बात दूसरी है / इन अलंकारों से यहाँ नल के घोड़े उच्चैः श्रवा की तरह हैंउपमा ध्वनि निकलती है। शब्दालंकार वृत्त्यनुपास तो सर्वत्र रहता ही है // 106 / सिताम्बुजानां निवहस्य यश्छलाद बमावलिश्यामलितोदरश्रियाम् / / तमः समच्छायकलङ्कसङ्कुलं कुल सुधांशोर्बहलं वहन् बहु // 10 // . अन्वयः-यः अलिश्यामलितोदरश्रियाम् सिताम्बुजानाम् निवहस्य छलात् तमः कुलम् सुधांश बहलम् कुलम् वहन् बहु बभौ। टीका-यः=तडागः अलिभिः =भ्रमरैः श्यामलिता = श्यामलीकृता ( तृ० तत्पु० ) उदर श्री (कर्मधा० ) येषां तेषाम् (ब० नो०) उदरस्य =मध्यभागस्व श्रोः=शोमा (ष० तरषु० ) अर्था येषां मध्यभागः तत्र स्थितानां भ्रमराणां कारणात् श्यामवर्णीभूता आसन् , सितानि = श्वेतानि तानि अम्बुजानि = कमलानि ( कर्मधा० ) तेषाम् निवहस्य= समूहस्य छलात् = व्याजात् तमः तमसा=अन्धकारेण समा= तुल्या ( तृ० तत्पु० ) छाया = कान्तिः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूत (ब० बी० ) यः कलङ्कः ( कर्मधा० ) तेन सङ्कुजम् व्याप्तम् (10 तत्पु० ) सुधांशोः चन्द्रमस बहलम् = सान्द्रं धनमितियावत् कुजम्-वहन्-धारयन् बहु = अधिकं यथास्यात्तथा बभौशुरुमै पूर्व समुद्रे एक एव चन्द्रमा आसीत् , अत्र तु भ्रमराधिष्ठितमध्यमागानाम् सितकमलानाम् व्याजे. सकलङ्कानां चन्द्रमा कुलमेव तिष्ठतीति भावः // 110 // ज्याकरण-अम्बुजम् अम्बुनि (जले ) जायते इति अम्बु /जन+ड। श्यामलित श्यामा करोतीति इस अर्थ में णिच् लगाकर श्यामलयति ( नाम धा० ) बना के निष्ठा में का हिन्दी-जो ( तड़ाग) भमरों द्वारा काली बना दो गई मध्य माग की कान्ति वाले श्वेत कमा के समूह के बहाने अन्धकार की सी कान्ति वाले कलक से युक्त चन्द्रमाओं के घने समूह को धारा करता हुआ अच्छा शोभित हो रहा था। टिप्पणी-मन्थन समय में एक ही चन्द्रमा था। किन्तु अब यहाँ चन्द्रमाओं की भरमार है गोल 2 श्वेत कमलों के मध्य भाग पर भ्रमर बैठने से वे काले बने हुये हैं। श्वेत चन्द्रमा पर अन्धेरा सा कलंक रहता है / इस साम्य को लेकर कमलों का अपहन करके चन्द्रमाओं की स्थापन होने से अपहृ ति है, जिसका पूर्ववत् चले आ रहे व्यतिरेक से संकर है। 'कुलं' 'कुलं' में यमा 'वह' 'बहु' में छकानुपात है, लेकिन 'बबयोरभेदः' मानकर यदि 'वह' को भी ले लें, तो एक अधिक वार वर्ण साम्य होने के कारण छैक न होकर वृत्त्यनुप्रास हो जाएगा // 11 // रथाङ्गमाजा कमलानुषङ्गिणा शिलीमुखस्तोमसखेन शाङ्गिणा। सरोजिनीस्तम्बकदम्बकैतवान्मृणालशेषाहिभुवान्वयायि यः // 11 // अन्वय-यः सरो...वात् रथाङ्गमात्रा कमलानुषङ्गिणा शिलीमुखस्तोमसखेन मृणालशेषाहिमुख शाङ्गिपा अन्वयायि।
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________________ प्रथमः सर्गः टीका-यः तडागःसरो०-सरोजिनीनाम् = कमलिनोनाम् ये स्तम्बाः= गुल्माः ('अप्रकाण्डे स्तम्ब गुल्मो' इत्यमरः) तेषां कदम्बस्य= समूहस्य केतवात् = व्याजात् ( सर्वत्र 10 तत्पु० ) रथाङ्गाः = चक्राङ्गाः हंसा इत्यर्थ; ( 'हंसास्तु = श्वेतगरुतश्चक्राङ्गा मानसौकसः' इत्यमरः ) ताम् (विष्णु क्षे ) रथाङ्गम् = चक्रम् सुदर्शनचक्रमिति यावत् तत् भजति-सेवते इति तथोक्तेन ( उपपद तत्पु० ) कमलानाम् = पद्मानाम् अन्यत्र कमलायाः=लक्ष्म्या अनुषङ्गः संसर्गः अस्यास्तीति तथोक्तेन=( तत्पु०) शिलीमुखाः=भ्रमराः तेषां स्तोमः=समूहः तस्य सखा=मित्रम् तेन भ्रमरसहितेनेत्यर्थः। अन्यत्र सदृशः तेन ( उमयत्र प० तत्पु० ) मृणालं शेषाहिः-शेषनाग इवेति मृणालशेष हि- (उपमित तत्पु०) तस्य भूः= उत्पत्तिस्थानम् तया, अन्यत्र मृणालम् = इव शेषाहिः (उपमान तत्पु० ) मूः= स्थानम् शयनस्थानमिति यावत् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतेन (ब० वी०) शाङ्गिणा= कृष्णेन विष्णुनेति यावत् , उपमेयभूतक.दम्बरयैकवचनत्वेन शाङ्गिणेत्यत्रापि एकवचनत्वम् , वस्तुतोऽत्र जातावेकवचनं मत्वा कदम्बैः, शाङ्गिभिरिवि बहुवचनं विवक्षितं विष्णोरेकत्वे व्यतिरेकाप्रसङ्गात् / अत्र तु बहवो विष्णवः सन्तीति व्यतिरेकः, अन्वमायि = अनुगतः: अधिष्ठितः युक्त इति यावत् अस्ति / सरोजिनी-स्तम्ब-कदम्ब-कैत वेनात्र समुद्रे वहवो विष्णवः सन्तीति भावः // 111 // व्याकरण-०माजा मजतोति मज+विप् कर्तरि तृ० / शाङ्गिणा शाम् अस्यास्तीति शा+इन् / शाङ्गम् शृङ्गस्येदम् इति शृङ्ग+अण सींग का बना हुआ धनुष कृष्ण का होता है, इसीलिए उन्हें शाङ्गों कहते हैं। कृष्ण विष्णु हो होते हैं। ०सखेन ध्यान रहे कि राजन् और पथिन् शब्दों की तरह सखिन् भो समास में राम शब्द की तरह अकारान्त बन जाया करता है / अन्वयायि अनु+/या+लुङ् कर्मवाच्य / हिन्दी-जो ( तड़ाग) रथाङ्गों ( हंसों) से सेवित, कमलों से युक्त, भ्रमर -समूह साथ लिए ( तथा ) शेषनाग जैसे ( सफेद ) मृणालों के उत्पत्ति-रथानभूत कमलिनियों की झाड़ियों के समूह के ब्याज से रथाङ्ग ( चक्र) लिये, कमला ( लक्ष्मी) को साथ रखे, भ्रमर-समूह-जेसे ( काले रंग के ) तथा मृणाल के समान ( श्वेत ) शेषनाग को अपना ( शयन)-स्थान बनाये हुए कृष्ण से अनुगत (= मरा हुआ ) था // 111 // टिप्पणी-पहले समुद्र में एक हो विष्णु शेषशयन किया करते थे जबकि यहाँ हज़ारों विष्ण शेषशयन कर रहे हैं / श्लोक में शाङ्गगत एक वचन जातिपरक होने से बर्थ-वाचक है। यहाँ विष्णु बने हैं कमलिनियों के झाड़। कवि ने श्लेष द्वारा ऐसा चमत्कार दिखाया है कि विष्णुगत सभी धर्म झाड़ों में भी पाये जाते हैं मले ही विभक्ति तया समास में थोड़ा-बहुत हेरफेर क्यों न करना पड़े जैसे श्लेष में प्रायः हुआ ही करता है। किन्तु व्याकरण को दृष्टि से रथाङ्गभाना आदि तृतीयान्त विशेषय तृतीयान्त शाङ्गिणा से तो लग जाते हैं किन्तु 'सरोजिनीस्तम्बकदम्ब के साथ नहीं लग सकते, क्योंकि वह कैतव पद के साथ समस्त हो गया है। व्याकरण का नियम है-'सविशेषणानां वृत्तिन, वृत्तस्य च विशेषणायोगो न'। यहाँ समाप्त-वृत्ति हो गई है, किन्तु कवि को वहाँ भी विशेषणयोग विवक्षित है; अतः साहित्य क्षेत्र में, जैसा कि हम अन्यत्र भी देखते हैं, श्लेष-स्थलों में प्रायः विभक्ति-व्यत्यय किया जाता है। हमें भी यहाँ ऐसा ही करना पड़ा। यहाँ श्लेष, उपमा, अपहृति
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________________ 96 नैषधीयचरिते और व्यतिरेक का संकर है। पहले और दूसरे पाद में 'ङ्गिप्पा' 'ङ्गिणा' की तुकान्दी से अन्त्यानुपास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास शब्दालंकार है // 111 // तरङ्गिणीरकजुषः स्ववल्लमास्तरङ्गरेखा बिमराम्बभूव यः। दरोद्गतः कोकनदौघकोरकैश्तप्रवालाङ्करसंचयश्च यः // 112 // __ अन्वयः- यः अङ्कजुषः तरङ्गरेखाः ( एव ) स्व-वल्लमाः तरङ्गिणीः बिमराम्बमूव; यः च दरोद्गतैः कोकनदोष-कोरकैः धृत-प्रवालाङ्कर-सञ्चयः ( आसीत् ) / टीका-- यः- तड़ागः अहम् = मध्यम् जुषन्ते सेवन्ते इति ङ्कजुषः ( उपपद तत्पु० ) तरङ्गाणाम् = वीचीनाम् रेखाः मालाः (10 तत्पु० ) ( एव ) स्वाः= स्वकीया वल्लमाः प्रियाः तरङ्गिणीः नदीः बिमराम्बभूव = दधौ; यः तडागः दरम् - ईषत् यथा स्यात् तथा उद्गतैः= उद्भूतैः ( सुप्सुपेति समासः ) कोकनदानाम् = रत्तोत्पलानाम् यः बोधः = समूहः (10 तत्पु०) तस्य कोरके: कलिमिः त०-प्रवालानाम् = विद्रुमाणाम् अकुराः प्ररोहाः तेषां सञ्चयःसमूह इति प्रवालाकुरसञ्चयः ( उभयत्र 50 तत्पु०) धृतः प्रवाल० येन तथाभूतः (ब० वी० ) आसीत् यथा समुद्र नद्यः प्रविशन्ति विद्रुमाश्च भवन्ति , तथा अत्रापि तरङ्गरूपेण नद्यः कोकनदाङ्कररूपेण च विद्रुमाः सन्तीति भावः // 112 // व्याकरण-जुषः जुषन्ते इति /जुष् +विवप् कर्तरि / बिमराम्बभूव- न+पाम् + +लिट् ( 'भी-हो-भ-हुवा श्लुबच्च' ( पा० 3 / 1136 ) / हिन्दी-जो ( तड़ाग) मध्य-स्थित तरङ्ग-मालाओं के रूप में अपनी प्रियतमा नदियों को रख रहा था; और जो ( तड़ाग ) कुछ ऊपर निकले, लाल कमल-समूह की कलियों के रूप में मूंगों के अंकुरो का समूह रख रहा था // 112 // टिप्पणी-यहाँ तरङ्घमालाओं पर नदीव का और कोकनद-कलियों पर विद्रुमाङ्करत्व का आरोप होने से दो रूपकालंकार है। जिनको परस्पर निरपेक्ष होने से संसृष्टि है। विद्याधर ने आर्थ अपहव मानकर कोकनद-कोरकों के बहाने प्रवालांकुर रख रहा था-इस तरह अपह्नुति मानी है। 'रङ्गि' रङ्ग' तथा 'बिभे' 'बभू' में छेक तथा अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है 112 / / महीयसः पङ्कजमण्डलस्य यश्छलेन गौरस्य च मेचकस्य च / नलेन मेने सलिले निलीनयोस्त्विषं विमुञ्चन् विघुकालकूटयोः // 113 // ___ अन्वयः--यः नलेन महीयसः गौरस्य मेचकस्य च पङ्कज-मण्डलस्य छलेन सलिले निलीनयोः विधु-कालकूटयोः विषम् विमुञ्चन् मेने / टीका-यः= तडागः नलेन=महीयसः- अतिशयेन महतः गौरस्य = श्वेतस्य मेचकस्य = श्यामस्य पङ्कजानाम् = कमलान म् मण्डलस्य = समूहस्य (प० तत्पु० छन्लेन व्याजेन सलिले = जले. निलीनयोः मग्नयोः विधुः = चन्द्रश्च कालकूटः = एतत्संशक विषश्च तयोः (द्वन्दः) विषम् = कान्तिम् विमुञ्चन् = उद्गिरन् मेने = अशङ्कि // 113 // व्याकरण-महीयसः अतिशयेन महान् इति महत् +ईयसुन् / विषा/विष् क्विप् मावे / द्वि० ब० / मेने मन्+लिट कर्मवाच्य /
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________________ प्रथमः सर्गः हिन्दी--जिस (तड़ाग ) को नल ने सफेद और नीले रंग के बड़े मारी कमल-समूह के बहाने पानी के भीतर छिपे चन्द्रमा और कालकूट-विष की कान्ति को छोड़ता हुआ जैसा समझा // 113 // टिप्पणी-चन्द्र के श्वेत और कालकूट के काला होने के कारण यहाँ छल शब्द से श्वेत और नील कमलों का प्रतिषेध करके उनमें विधुत्व और कालकूटस्व की स्थापना करने से अपहृति 'मेने' शब्द से अभिहित उत्प्रेक्षा तथा 'गौर' और 'मेचक' का 'विधु' और 'कालकूट' से क्रमशः अन्वय में यथासंख्य का संकर है / 'नल' 'निलो' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 113 // चलीकृता यत्र तरङ्गारिङ्गणरबालशवाललतापरम्पराः / ध्रुबं दघुर्वाडवहव्यवाडवस्थितिप्ररोहत्तमभूमधूमताम् // 114 // अन्वयः-यत्र तरङ्ग-रिङ्गप्पैः चलीकृताः अबाल-शैवाल-लता-परम्परा: वाडव'धूमताम् दधुः (इति ) ध्रुवम् / टोका-यत्रतडागे तरङ्गाखाम् = वीचीनाम् रिङ्गणैः कम्पनैः स्खलनैरित्यर्थःचलीकृताःचाश्चल्यम् प्रापिता: न बालाः लध्व्यः इति अबालाः =(मञ् तत्पु० ) महत्य इत्यर्थः याःशैवाल. लताः = जलनीलो-बल्लयः ( कर्मधा० ) शैवालाना लता इति (10 तत्पु० ) तासां परमराः= पंक्तयः समूहा इति यावत् (प० तत्पु०) वाडव०-वाडवश्चासौ-हव्यवाट् = वाडवाग्निः अवस्थितिः = समुद्र-जळाभ्यन्तरे अवस्थानम् (10 तत्पु० ) तेन प्ररोहत्तम अतिशयेन प्ररोहन् प्रादुर्भवन्नित्यर्थः ( तृ० तत्पु० ) भूमा-बाहुल्यम् / कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (20 बी० ) धूमः( कर्मधा० ) तस्य मावः तत्ता ताम् दधुः=धारयामासुः ध्रुवमित्युत्प्रेशायाम् , समुद्रे हि वाढवाग्निस्तिष्ठति, सोऽत्रापि तिष्ठति यस्य धूम-समूहस्तरङ्ग वलितशैवाललता-समूह-रूपेणावलोक्यते इति मावः / / 114 // व्याकरण -रिङ्गणम्/रिज+ल्युट् भावे / हव्यवाट् हव्यं वहतीति हव्य = वह +विः 'वहश्च' (पा० 3 / 2 / 64 ), किन्तु यह वैदिक प्रयोग है। लोक में इसके पर्याय हव्यवाहन का प्रयोग होता है। पता नहीं क्यों कवि ने यहाँ वैदेक शब्द का प्रयोग किया है / प्ररोहत्तम प्र+ V +शतप्ररोहन् अतिशयेन प्ररोहन्निति प्ररोहत् तमप् / दधु /धा+लिट / हिन्दी-जिस ( तडाग ) में तरंगों के चलते रहने से हिल रही सिवार की बड़ी-बड़ी लताओं की पंक्तियाँ मानो ( जल के नीचे छिपी ) वाडवाग्नि के रहने के कारण अत्यधिक मात्रा में उठ रहे धुएँ का रूप रख रही हों // 114 // टिप्पणी-समुद्र में वाडवाग्नि रहा करती है। उसे वाडवाग्नि इसलिए कहते हैं कि उसका मुंह वड़वा (घोड़ी) का-सा रहता है / प्रलयकाल में सारा समुद्र सुखाकर वह संसार को मस्म कर देती है / तडाग में हरी-काली सिवार को लताय तरंगों से टकराकर जल के भीतर लहरा रही थी। उनपर कवि वाडवाग्नि के लहराते हुए धुएँ की कल्पना कर बैठा इसलिए यहाँ उत्प्रेक्षा है, जिसका वाचक शब्द ध्रुवम् है। 'बवयोरमेदः' नियम के अनुसार 'बाल' 'वाल' तथा 'बाडव' 'वाडव' में यमक, रङ्ग' 'रिङ्ग' में छेक, और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। 'हव्यवाट्' में अपयुक्तत्व दोष है / / 114 //
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________________ - नैषधीयचरिते प्रकाममादित्यमवाप्य कण्टकैः करम्बितामोदभरं विवृण्वती / धृतस्फुटश्रीगृहविग्रहा दिवा सरोजिनी यत्प्रभवाप्सरायिता // 115 // अन्धयः-आदित्यम् अवाप्य कण्टकैः प्रकामम् करम्भिता आमोद-मरम् विवृण्वती दिवा धृतस्फुट-श्री-गृह-विग्रहा यत्प्रमवा सरोजिनी अप्सरायिता / टीका-आदित्यम् =सूर्यम् अथ च देवम् इन्द्रमित्यर्थः भवाप्य = प्राप्य कण्टक-नालगतेः तीक्ष्याः अवयवैः, अथ च रोमाः प्रकामम् भृशम् यथा स्यात्तथा, आदित्यपक्षे इद आदित्यस्य विशेषणम् प्रकृष्टः कामः= कामविकारो यस्य तथाभूतम् ( ब० वी०) करम्बितायुक्ता आमो. दस्य = सौरभस्य भरम-बाहुल्यम् ( 10 तत्पु० ) अथ च प्रामोदस्य= हर्षस्य भरम् , विवृण्वती प्रकटयन्ती दिवा=दिने धृतः स्फुरानि = विकसितानि श्रीगृहाखि = कमलानि (कर्मधा०) कमलंहि लक्ष्म्या गृहं भवति अतएव सा पद्मालयेत्यप्युच्यते एव विग्रहः-शरीरम् (वर्मधा० ) यया, अथ च दिवा स्वर्गेण धृतः स्फुटाया = देदीप्यमानायाः ( कर्मधा० ) श्रियः=शामायाः (10 तत्पु०) गृहं = प्रास्पदम् (50 तत्पु० ) विग्रहः शरीरं ( कर्मधा० ) यस्याः सा ( ब० व्रो०) स्वर्गवासिनीत्यर्थः यत्प्रभवा = यः (तडागः ) प्रभवः= उत्पत्तिस्यानं यस्याः तमाभूता ( ब० जी०) सरोजिनी कमलिनी अप्परायिता अप्सरा व आचरिता। अत्र सरोजिनीति जातावेकवचनम् सरोजिन्योऽप्सरसा तुल्या आसन्निति भावः // 115 // ग्याकरण-श्रादित्यः अदितेः अपत्यं पुमान् इति अदिति + यः। सरोजिनी सरोजानि अस्यां सन्तोति सरोज+इन् + डीप ( कमललता ) / प्रभवः प्रभवत्यस्मादिति प्र-भू+अप् पञ्चम्यर्थे / अप्सरायिता अद्भूयः सरन्ति = उद्गच्छन्तीति अप+स-+-असुन् अप्सरसः ('अप्सु निर्मथनादेव रसात् तस्माद्वरस्त्रियः। उत्पेतुर्मनुजश्रेष्ट ! तस्मादप्सरसोऽभवन्' (रामा० ) अप्सरा इव आचरतीति अप्सरस् +क्यङ् सलोपश्च / / हिन्दी-आदित्य ( सूर्य के प्रकाश ) को प्राप्त करके कण्टकों ( कोटी ) से भरी, आमोद ( सौरम ) का अतिशय प्रकट करती हुई, दिन में खिले हुए कमलों को ( हो ) शरीर-रूप में धारण किये हुए जिस ( तडाग ) को कमलिनियो अत्यधिक कामविकार वाले आदित्य ( इन्द्र ) को प्राप्त करके कण्टकों (रोमाञ्चों ) से भरी, आमोद ( हर्ष ) का अतिशय प्रकट करती हुई उन अप्सराओं के समान थीं / जिन देदीप्यमान सौन्दर्यास्पद शरीरवालियों को स्वर्गलोक धारण किये हुए है // 115 // टिप्पणी--अप्सराये समुद्र में रहा करतो हैं और मन्थन के समय निकलीं। इस तड़ाग में भी सरोजिनियों के रूप में अप्सरायें वास कर रही हैं। दोनों का समान धर्म बताने हेतु कवि ने श्लेष का सहारा लिया है। अधिकतर साधर्म्य श्लेष के कारण शाब्द हो है, किन्तु जलनिवास और सौन्दर्य में साधर्म्य वास्तविक भी है। इस तरह यहाँ श्लेषानुपापित उपमा है। शब्दालंकार वृत्यनुपास है।।११।। यदम्बुपूरप्रतिबिम्बितायतिमरुत्तरङ्गस्तरलस्तटद्रुमः। निमज्य मैनाकमहीभृतः सतस्ततान पक्षान्धुवतः सपक्षताम् // 116 //
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________________ प्रथमः सर्गः अन्वयः-यदम्नु-पूर-प्रतिविम्बितायतिः मरुत्तरङ्गः तरलः तट दुमः निमज्य सतः पक्षान् धुवतः मैनाक-महीभृतः सपक्षताम् तनान / ____टीका-यस्य तडागस्य अम्बु-जलम् तस्य यः पूरः= प्रवाहः ( उभयत्र 50 तत्पु० ) तस्मिन् प्रतिबिम्बिता= प्रतिफलिता ( स० तत्पु० / प्रायतिः= दैय॑म् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः (ब०बी०) महता-वायुना चालिताः तरङ्गाः मरुत्तरङ्गाः (मध्यमपदलोपो स० ) तेः तरल:चल:, तटस्य = तीरस्य द्रुमः = वृक्षः (10 तत्पु० ) निमज्ज्य =जले निलीय सतः = विद्यमानस्व पवान् = मरुतः धुवतः= कम्पयतः मैनाकः = एतत्ससंशकश्चासौ महीभृत = पर्वतः ( कर्मधा० ) तस्य सपक्षताम् =सादृश्यम् अथ च पक्षप्तहितत्वम् ततान = विस्तारयामास / तडागतीरस्थितवृक्षो जळे प्रतिविम्बितः, चञ्चलतरङ्गकारणात् चञ्चलीभवन् जलान्तनिलीन-मैनाकपर्वत-समानो दृश्यले स्मेति भावः // 116 // व्याकरण-पूरः पूर्+घञ् वृद्धयभाव / प्रतिबिम्बित प्रतिबिम्बः संजातोऽस्येति प्रविबिम्ब+इतच् / धुवतः धू+शत+पसपक्षता पक्षः ( गरुद्भिः) सह वर्तमान इति सपना. अथ च समानः पक्षः ( स्थितिः ) यस्य स सपक्षः सह और समान को स आदेश, तस्यमावः तत्ता। हिन्दी-जिस ( तड़ाग ) के जल-पवाह में प्रतिबिम्बत हुई लम्बाई वाला, वायु से हिलाई गई तरंगों से चञ्चल बना हुआ तट का वृक्ष ( पानी में ) डूबे और पंखों को हिला रहे मैनाक पर्वत की सपमता (समानत; पक्षयुक्तता ) कर रहा था // 116 // टिप्पणी-समुद्र के भीतर मैनाक पर्वत रहता है। इस तालाब में किनारे की वृक्ष को हिलतो हुई लंबी पर छाई मैनाक के समान बनी हुई है अर्थात् यहाँ भी मैनाक पर्वत रह रहा है। मैनाक हिमालय का पुत्र, पार्वती का भाई है, जो इन्द्र द्वारा सभी पर्वतों के पंखों के काटे जाने के समय माग कर समुद्र में जा छिगा था और अब भी डर के मारे वहीं रह रहा है। यहाँ मैनाक की वृक्षप्रतिविम्ब के साथ समानता बताई जाने से उपमा है, जो सपक्षता शब्द में श्लिष्ट है। सखा आदि शब्दों की तरह सपक्ष शब्द सादृश्य अर्थ बताने में लाक्षणिक है ! प्रतिबिम्बित वृक्ष की लहराती टहनियों में हिलते हुए पंखों की समानता थी। 'तर' 'तर' और 'पक्षा' पक्ष' में छेक और अन्य वृत्त्यनुपास है / / 116 // पयोधिलक्ष्मीमुषि केलिपल्वले रिंसुहंसीकलनादसादरम् / स तत्र चित्रं विचरन्तमन्तिके हिरण्मयं हंसमबोधि नैषधः // 117 // प्रियासु बालासु रतिक्षमासु च द्विपत्रितं पल्लवितं च विभ्रतम् / स्मरार्जितं रागमहीरुहाङ्कुरं मिषेण चञ्च्चोश्चरणद्वयस्य च // 118 // अन्वयः-स नैषधः तत्र पयोधि-लक्ष्मी-मुषि केलि-पल्वले रिरंसु-हंसी-कल-नाद-मादरम् , अन्तिके विचरन्तम् , बालासु रति-क्षमासु च पियासु चञ्च्चोः चरण-द्वयस्य च मिषेष द्विपत्रितम् पल्कवितम् / स्मराजितम् राग-महोरुहाङ्करम् बिभ्रतम् , चित्रम् हिरण्मयम् हंसम् अबोधि // 117-198 // 1. चञ्चा:
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________________ नैषधीयचरिते टोका -स नैषधः = निषधाधिपतिर्नलः तत्र-तस्मिन् पयोधिः =समुद्रः तस्य लचमी:-शोभा (10 तत्पु०) तां मुष्णाति = अपहरतीति तथोक्ते ( उपपद तत्पु०) समुद्र-सदृशे इत्यर्थःकेलयेक्रीडार्थ पल्वलम् = सरः (च० तत्पु० ) तस्मिन् रिरंसु० =रन्तुमिच्छन्तीति रिरंसपश्च - ताः इंस्यः = हंसपल्यः ( कर्मधा० ) रमणेच्छावत्यो हंस्य इति यावत् तासां कलः=अव्यक्तमधुरः (घ. तरपु०) नादः शब्दः (कर्मधा० ) तस्मिन् सादरम् = आदरसहितम् उत्सुकमित्यर्थः ( स० तत्पु० ) अन्तिके-हंसीनां समीपे विचरन्तम् = विचरणं कुर्वन्तम् बालासु किशोरीषु = आसन्नयौवनास्वित्यर्थः रतिः= संभोगः तस्मिन् क्षमासु = समर्थासु च प्रियासु = प्रणयिनीषु विषये सम्बोः त्रोटयोः ( 'चन्नुस्रोटिरुमे स्त्रियाम्' इत्यमरः) चरणयोः पादयोः द्वयम् - युगलम् (10 तत्पु० ) तस्य (प. तत्पु०) मिषेख = कैवेन द्विपत्रितम् = पत्रव्ययुक्तं पल्लवितम् = सजात पल्लव च स्मरेण कामेन अर्जितम् = उत्पादितमित्यर्थः ( तृ० तत्पु० ) राग:- अनुराग एक महीमहः = वृक्षः ( कर्मधा० ) तस्य अकुरम् = प्ररोहम् विभ्रतम् = धारयन्तम् , बालासु हंसीषु द्विषत्रितम् रागाङ्करम् स्वल्यानुरागमित्यर्थः युवतिषु च हंसीषु पल्लविताङ्करम् भूयांसमनुरागमित्यर्थ इति क्रमशोऽन्वयः, चित्र = अद् सुतम् हिरण प्रयम् = सुवर्णमयम् हंसम् प्रबोधि - अशासीत् वानित्यर्थः // 117-118 // व्याकरण-नैषधः इस शब्द के सम्बन्ध में पोछ 36 वा श्लोक देखिए / मुषि/मुष् + विप् कर्तरि स० / रिरंसुः रन्तुमिच्छुः इति / म् + सन् + उ / रतिः (म् +क्तिन् मावे / द्विपत्रि. तम् दे पत्रे सजातेऽस्येति द्विपत्र+इतच् / पल्लवितम् पल्लवानि सजातान्यस्येति पल्लव+इतन् / विनतम् भृम्+शत, नुम् का अभाव द्वि० / हिरण्मयम् हिरण्यम् एवेति हिरण्य+मयट (स्वाथें ) 'दाण्डि हिरण्मयानि' (पा० 6 / 4 / 174 ) से निपातित / प्रबोधि/बुध् +चिण लुङ (कर्तरि ) / .. हिन्दी- वह निषधाधिपति नल समुद्र की शोभा चुराने वाले उस क्रीड़ा-सरोवर पर रमण को इच्छा रखने वाली हंसिनियों के मधुर शब्द की ओर आदर-भाव रखे, समीप में ही विचरण करते हुए, किशोरियों और संभोगसमर्थ प्रियतमाओं के पति चोंच और दो चरणों के बहाने दो पत्ते तथा (बहुत ) पत्ते वाले, काम द्वारा लगाये अनुराग-रूपी वृक्ष का अंकुर धारण करते हुए एक विचित्र सोने के हंस को देख बैठी // 117-118 // टिपपणी-जहाँ एक हो वाक्य एक श्लोक में समाप्त न होकर दो में चला जाता है, उसे युमक कहते हैं / ये दो श्लोक भी युग्मक हैं, इसलिए एक ही साथ दोनों की व्याख्या करना हमने उचित समझा है जबकि अन्य टीकाकार पृथक् 2 व्याख्या कर रहे हैं। हंस को चोंच और दोनों पैर राग वाले ( लाल ) थे। इस पर कवि कामवृक्ष के अकुर को कल्पना कर रहा है। चों व ओर पैरों का राग ( लाली) तया हृदय का राग ( अनुराग ) दोनों अभिन्न होकर एक बन गये हैं / अन्य वृक्षों की तरह काम-वृक्ष पर मो अंकुर फूट कर पहले दो पत्ते निकले जो हंस के चञ्च पुट रूप में थे / ये दो पत्तोंवाला अनुराग बालाओं-आसन्न-यौवनाओं के प्रति था, जो अभो रति-क्षम नहीं होने पाई थीं, लेकिन दो चरणों के रूप में अनुराग पल्लवित हो उठा था जो रति-क्षम पूर्ण-यौवन-प्राप्त. रमणियों के लिए था। इस तरह सबसे पहले यहाँ कवि दो विभिन्न रागों के अभेदाध्यवसाय. द्वारा
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________________ प्रवमः सर्गः मेदे अमेदातिशयोक्ति खड़ी करके काम पर वृक्षत्वारोप से रूपक बनाता है, फिर उनसे चन्चु और चरणों का अपहव करके उनमें द्विपत्रित और पल्लवित अंकुर की स्थापना से अपह ति जोड़कर द्विपत्रित और पल्लवित अनुराग का क्रमशः बालाओं और रतिक्षमाओं से सम्बन्ध बताकर यथासंख्य भी दिखा रहा है / इसके बाद यह कल्पना करता है कि चोंच और चरणों का यह राग मानो बाहर प्रकट हुआ। हंस का भीतरी राग (प्रेम ) है। यह उत्प्रेक्षा है, जो गम्य है वाच्य नहीं / इस प्रकार यहाँ इन सभी का अङ्गाङ्गिभाव संकर है। ‘पयोधिलक्ष्मीमुषि' में उपमा है, क्योंकि हम पीछे बता आये है कि दण्डी ने 'सौन्दर्य चुराना' आदि लाक्षणिक मुहावरों का सादृश्य में हो पर्यवसान माना है। उपमा की यहाँ संकर से ससृष्टि हो मानी जाएगी। केलिपल्वले-एक ओर कवि सरोवर को 'पयोधि लचमीमुषि' बता रहा है. तो दूसरी ओर उसे 'केलिपल्वले' कह रहा है। पल्वल अल्प जल वाली तलैया को कहते हैं जिसमें मला इतनी शक्ति कहाँ कि वह ‘पयोधि-लचमी-मुट' बने / यह कवि का अनौचित्य ही समझिये। यहाँ केलिपरसि कहना ही उचित था / / 117-118 // महीमहेन्द्रस्तमवेक्ष्य स क्षणं शकुन्तमेकान्तमनोविनोदिनम् / प्रियावियोगाद्विधुरोऽपि निर्भरं कुतूहलाक्रान्तमना मनागभूत् // 119 // अन्वयः-स महीमहेन्द्रः एकान्त-मनोविनोदिनम् तम् शकुन्तम् क्षणम् अवेक्ष्य प्रिया-वियोगा निर्मरम् विधुरः अपि ( सन् ) मनाक् कुतूहलाक्रान्त-मनाः अभूत् / टोका-सःमधाः इन्द्रः महेन्द्रःपृथ्वीन्द्रः (10 तत्पु.) एकान्तम् नितान्तं यथा स्यात्तथा मनोविनोदयति रजथतीति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु०)। तम् शकुन्तम् पक्षिणम् हंसमित्यर्थः क्षणं मुहूर्तम् अवेच्य अवलोक्य प्रियायाः प्रणयिन्याः दमयन्त्या इति यावत् वियोगात् विरहार (प० तत्पु० ) निर्भरम् भृशं यथा स्यात्तथा विधुरः विह्वलः अपि ( सन् ) मनाक् ईषद् यथा स्यात्तथा कुतूहलेन-कौतुकेन आक्रान्तम् अधिष्ठितम् (तृ० तत्पु०) मनः चित्तम् ( कर्मधा.) यस्य तथाभूतः (20 बी०) प्रभूत् सनातः // 116 / / म्याकरण-समम् कालात्यन्त-संयोग में द्वि० / विनोदिनम् वि+नु+पिच्+पित् ताच्छील्याथें द्वि०। विधुरः विगता घूः-कार्य-मारो यस्मादिति ( प्रादि ब० वी० ) दुःखी। हिन्दी-वह पृथ्वी का इन्द्र ( नल ) अतिमनो-रजक उस पक्षी को अपमर देखकर प्रिया-वियोग के कारण अन्यन्त विह्वल होता हुआ मो मन में कुतूहल-पूर्ण हो उठा // 19 // टिप्पणी-'मही' 'महे' और 'कुन्त' 'कान्त' में छेक, 'मना' 'मना' में यमक और अन्यत्र वृत्यनुप्रास है / / 116 // अवश्यमव्येष्वनवग्रहग्रहा यया दिशा धावति वेधसः स्पृहा / तृणेन वास्येव तयानुगम्यते जनस्य चित्तेन भृशावशास्मना // 120 // अन्वयः-प्रवश्य-मन्येषु अनवग्रह-अहा वेधसः स्पृहा यया दिशा, धावति, तया भृशावशात्मना बनस्य चित्तेन तृणेन वात्या इव ( वेधसः स्पृहा ) अनुगम्यते / टीका-अवश्यं यथा स्यातथा भव्येषु भवितव्येषु शुमाशुमायेंषु (सुप्-सुपेति समासः)
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________________ वैषधीयचरिते भवग्रह:रोधः वाधेति यावत् न अवग्रहः इत्यनवग्रहः (नञ् तत्पु० ) यस्मिन् तथाभूत: (ब० बी० ) यो ग्रहः अभिनिवेशः निर्बन्ध इत यावत् / 'ग्रहोऽनुग्रह-निबन्ध ग्रहणेषु ग्णोद्यमे इति विश्वः ) ( कर्मधा० ) यस्यां तथाभूना (ब० वी० ) निरङ्कशाभिनिवेशेति यावत् वेधसः= विधातुः स्पृहा=इच्छा यया दिशा=मार्गेण धावति गच्छति, तया= दिशा एव, भृशम् = नितान्तम् पथा स्यात्तथा अवशः==न वशं = नियन्त्रणम् यस्मिन् तथाभूनः (ब० बो०) प्रात्मा स्वरूपं बस्य तेन (ब० व . ) विधात्रिच्छाधीनेनेत्यर्थः जनस्य = लोकस्य चित्तेन = मनसा भृशावशात्मना तृणेन घासेन वात्या=वातानां समूह इव =बेयसः स्पृहा अनुगम्यते = अनुस्त्रियते, अवशो हि तृषो येन यथा वात्या गच्छति तेनैव पथा यथा गच्छति तथैव पया विधातेच्छति तथैव लोकानां मनोऽपि करोतीति भावः // 120 / / व्याकरण-अवश्य भन्य-भवतीति भू+यत् कर्तरि ( भव्य-गेय-प्रवचनीयो०' (पा. श४।६८) से निपातित अवश्यं भव्य इति 'लुम्पेदवश्यमः कृश्ये' इस नियम से अवश्यम् के म का लोप / अवग्रहः अव+/ग्रह +पञ् / वात्या वातानां समूह इति वात+ य ('पाशादिभ्योयः' पा० 4 / 2 / 46 ) / - हिन्दी-अवश्य होनहार बातों में जिस ओर विधाता की बेरोक-टोक हठ वाली इच्छा जाती है, उसी ओर लोगों का अत्यन्त विवश हुआ मन (भी) उसके पीछे-पीछे इस तरह जाता है जैसे अत्यन्त विवश हुआ तिनका आँधी-तूफान के पीछे-पोछे जाया करता है // 120 // टिप्पणी-यह कितनी विचित्र बात है राजा नल के धीरोदात्त नायक होने पर भी उसका मन हंसके प्रति चञ्चल हो उठा और वह उसे पकड़ने की सोचने लगा। नल भी क्या करता। यह तो सब विधाता की इच्छा है कि नल हम को पकड़े और उसे माध्यम बनाकर दमयन्ती के साथ विवाह की योजना बनावे / यहाँ विधाता को इच्छा के पीछे जन-मन के जाने की तुलना वात्या के पीछे-पीछे नाने वाले तृण से करने से उपमा है। “ग्रहग्रहा" में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 120 // भथावलम्ब्य क्षणमेकपादिकां तदा निदद्रावुपपल्वलं रखगः / स तिर्यगावर्जितकन्धरः शिरः पिधाय पक्षेण रतिलमाल सः // 121 // अन्धयः-अथ तदा रति क्लमालमः स खगः एकरादिकाम् अबलम्ब्य तिर्यगावर्जित-कन्धर: पक्षेप शिरः पिधाय क्षणम् उपल्बलम् निददौ / टोका-अथ = अनन्तरम् तदा तस्मिन् समये रतेः = सम्भोगस्य यः क्लमः खेदः ( ष. तत्पु० ) तेन अलसः= आलस्ययुक्तः ( तृ० तत्पु० ) स खग = पक्षी हंस इत्यर्थः एकपादिकाम् = एक: पादोऽस्थामस्तोति तथोक्ताम् स्थिनिम् अवलरूप = आश्रित्य एकपादेन स्थि वेत्यर्थः लियंक = वकं यथा स्यात्तथा श्रावर्जिता = नीचैः कृता ( सृप्सुपेति समासः ) कन्धरा=ग्रीवा ( कर्मधा० ) येन तथाभूतः ( ब० व्र'०) पक्षण = गरुता शिरःशीर्षम् पिधाय = आच्छाद्य उपपल्वलम् = पल्बलस्य समीपमिति ( अव्ययीभाव ) क्षणम् = मुहूर्तम् निदद्रौ= सुष्याप / ब्याकरण-रकपादिकाम् ( स्थितिम् ) एकश्चासौ पादः एकादः सोऽस्यामस्तोति एकपाद +
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________________ प्रथमः सर्गः 103 छन् (मतुबर्थे ) ठ को इक् +टाप् द्वि०। वैसे देखा नाय, जो 'न कर्मधारयात् मत्वर्थीयः' इस नियमानुसार यहाँ मत्वोंय प्रत्यय न होकर एकः पादो यस्याम् इस तरह ब० वी० करके कुम्भपद्यादि मैं एकपदी शब्द का पाठ पाने से पाद शब्द के अन्तिम अकार का लोप करने के बाद डीप प्रत्यय उंगाकर और पाद को ( भत्वात् ) पदादेश करके 'एकपदोम्' बनना चाहिए था, किन्तु कवि ने 'न कर्मधारयन्मत्वथीयः' इस नियम को अनित्य मानकर मत्वर्थीय ही किया है। पिधाय अपि+ Vवा+ ल्यप् भागुरि के मतानुसार अपि के अ का लोप ) / निदद्रौ/निद्र+लि ! - हिन्दी-तदनन्तर उस समय संभोग की थकान से अलसाया हुआ वह पक्षी ( हंस ) एक पैर पर खड़े होने की स्थिति अपनाये ( और ) गर्दन को तिरछे नीचे झुकाये, पंख से सिर छिपाकर घोड़ी देर के लिए सरोवर के पास सो गया / / 121 / / टिप्पणी-यहाँ कवि ने 'हंस का जाति-स्वभाव बताकर यथावत् बस्तु वर्णन किया है, अतः यहाँ स्वभावोक्ति अलंकार है, 'स्वभावोक्तिरलङ्कारो यथावद् वस्तु-वर्णनम्' इसी का दूसरा नाम जाति भी है / शन्दालङ्कार वृत्त्यन्प्रास है / / 121 / / सनालमात्मानन निर्जितप्रमं हिया नत काञ्चनमम्बुजन्म किम् / अबुद्ध तं विद्रुमदण्डमण्डितं स पीतमम्भ:प्रभुचामरं नु किम् // 12 // - अन्वयः-सः तम् आत्मानन निर्जित-प्रभम् , हिया नतम् मनालम् काञ्चनम् अम्बुजन्म किम् / बेदुम-दण्ड-मण्डितम् पीतम् अम्भः-प्रभु-चामरं च किम् ? ( इति ) अबुद्ध / टीका-सः नलः तम् =निद्राणं, हंसम् अस्मनः स्वस्य यत् प्राननम् =मुखम् ( 10 परपु० ) तेन निर्जिता= परास्ता ( तृ० तत्पु० ) प्रभा= कान्तिः ( कर्मधा० ) यस्य तत् (ब० वी०) अर्थात् नलेन निजमुखद्वारा येन सौन्दय जितामिति कृत्वा हिया = लज्जया नतम् =नम्रम् सनालम् बातम् = काण्डः मृणालदण्ड इति यावत् तेन सह वर्तमानम् (ब० प्र०) सवृन्तमित्यर्थः काम्चसम् = सुवर्णमयम् अम्बुजन्म = अम्बुन्दि जले जन्म यस्य तत् (ब० वी०) अम्बुजम कमलमिति पावत् अन्योऽपि परेण निजितो निम्नमुखी भवति / विद्रमस्य = प्रवालस्य यो दण्ड = (10 वरपु० ) तेन मण्डितम् = अलङ्कृतम् ( तृ० तत्पु० ) पीतम् = पीतवर्णम् अम्मः = जलम् तस्य प्रमुः स्वामी ( 10 तत्पु० ) जलाधिदेवो वरुण इत्यर्थः तस्य चामरम् = प्रकीर्णकम् च किम् ? एकादस्थितो हंसः सदण्डं श्वेत चामरम् प्रतीयते स्मेति भावः / / 122 / 3. व्याकरण-काञ्चन = क चनस्य विकार इति काञ्चन +अञ् ('अनुदात्तादेश्च' ) पा० 4 / 3 / 140, प्रबुद्ध =Vबुध् + लुङ्+तङ् त को ध / है हिन्दी-"मेरे मुख द्वारा सौन्दर्य में हार खाये ( इसीलिये ) लज्जा से झुके, नालदण्ड सहित सोने का कमल है क्या ? तथा मूंगे के दण्ड से मंडित, पीले रंग का जलाधिपति ( वरुण ) का चंवर है क्या ?" ( इस तरह ) नल ने उस ( हंस ) को समझा / / 122 // टिप्पणी-यहाँ अपनी एक लाल टॉग पर खड़ा हुआ और सिर को पंखों के भीतर छिपाये सुवर्णप्रिय हंस नाल-सहित सुवर्ण कमल और मूंगे की मूठबाला वरुण का पीला चंवर जैसा लग रहा था।
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________________ 104 नैषधीयचरिते मल्लिनाथ ने यहाँ उत्प्रेक्षा मानी है। 'किम्' शब्द उत्प्रेक्षा-वाचकों में गिना हुआ है ही किन्तु हमा: विचार से कवि ने अप्रस्तुत की दो कोटियों जो यहाँ खसी की हैं, वे सन्देह के लिये भी पूरी बना रही हैं 'अर्थात् यह नाल-सहित स्वर्ण-कमल तो नहीं क्या ? अथवा वरुप देव का विद्रुम का मूठ वाला चंवर तो नहीं क्या ? इस तरह हम यहाँ उत्प्रेक्षा और सन्देह का संकर हो मानेंगे। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / / 122 // कृतावरोहस्य हयादुपानही ततः पदे रेजतुरस्य बिभ्रती। तयोः प्रवालवनयोस्तथाम्बुजैनियोद्ध कामे किमु बद्धवर्मणी / / 123 / / अन्वयः-ततः हयात् कृतावरोहस्य अस्य उपानही विभ्रती पदे तयोः वनयोः प्रवालः तथा अम्बुजैः नियोधुकामे वद्ध-वर्मणी किमु ( इति ) रेजतुः। टीका-ततः= तदनन्तरम् हयात् = अश्वात् कृतः= विहितः अवरोहः = उत्तरणम् येन तथा मूतस्य ( ब० बी० ) अस्य = नलस्य उपानही पादत्राणे ( पादत्राणे उपानहीं' इत्यमरः / विनती = धारयती पदे चरणौ तयोः = प्रकृतयोः बनयोः = कानन-जलयोः ( 'नने सलिल-कानने इत्यमरः ) प्रवालै: - किसलयः तथा अम्बुजैः = कमलैः ( सह ) नियोद्ध युद्ध कर्तुम् कामः = इच्छा ययोः तथाभूते ( सती ) (20 बी० ) बद्धम् =द्धम् वर्म= कवचं याभ्यां तथा मूते (ब० वी०) किमु इति सम्भावनायाम् रेजतुः शुशुमाते उपानही धारयन्तौ नलस्य चरणौ वनस्य (काननस्य) प्रवाले: तथा वनस्य ( जलस्य ) अम्बुजैः सह युद्ध कर्तुम् बद्धकवचाविव प्रतीयेते स्मेति भावः // 123 // व्याकरण-विभ्रती भृ +शत नपुं० प्र० द्विव० अम्बुजम् अम्बुजलम् तस्माज्जायते. इति अग्बु+/जन्+ड / नियोकामे ( तुम् काम-मनसोरपि ) इस नियम से तुम् के म का लोप हिन्दी-तत्पश्चात् घोड़े से उतरे उस ( नल ) के दोनों पैर जूता पहने ऐसे लग रहे थे मानों दोनों वनों (कानन, जल ;) के पल्लवों और कमलों के साथ युद्ध ठानना चाहते हुए कवच बाप हुये हों। 123 / / टिप्पणी-राजा नल के जूते पहने पैर अपनी मृदु लाल छटा में वन के प्रवालों और जल के रक्त कमलों से बढ़-चढ़ कर थे। इस पर कवि ने कल्पना को है कि मानों वे उन दोनों से लड़ने हेतु कवच पहने हुए हों। युद्ध में बीर कवच पहन कर ही लड़ा करते हैं। जूते कवच बन गये / इस तरह यहाँ उत्प्रेक्षा है वन शब्द में श्लेष और कानव और जल का क्रमशः पल्लव तथा कमल से अन्वय होने से यथासंख्य अलंकार है / शब्दालकार वृत्त्यनुपास है // 123 / / विधाय मूर्ति कपटेन वामनी स्वयं बलिध्वंसिविडम्बिनीमयम् / उपेतपाश्र्वश्चरणेन मौनिना नृपः पतङ्ग समधत्त पाणिना // 124 // " अन्वयः-अयम् नृपः कपटेन वामनीम् बलि-ध्वंसि-विडम्बिनी मूर्तिम् विधाय मौनिना चरण; उपेतपाश्वः पाणिना पतङ्गम् स्वयम् ( एव ) समधत्त / टीका-अयम् एष नृपः राजा नलः कपटेन=छलेन वामनीम् =हस्वाम् बलिम् = एतत्संशक राक्षसराजम् ध्वंसयतौति बलिध्वंसी-( उपपद तत्पु० ) विष्णुः तम् विडम्बयति
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________________ प्रथमः सर्गः अनुरोतीत्येवंशीलाम् ( उपपद तत्षु० ) मतिम = स्वरूपम् विधाय= कृत्वा वामनावतारवत् शरीरे लघुभूयेत्यर्थः मौनिना- तूष्पोकेन निःशम्देनेति यावत् परणेन = पादेन उपेतम् = प्राप्तम् पाश्वम् हंसस्य सामीप्यं येन तथाभूतः (10 बी०) सन् निभृतं हंस समीपे गत्वेत्यर्थः पापिना करेष जाम् = पक्षियम् हंसमिति यावत् स्वयम् = आत्मना (एव) समधत्त = धृतवान् गृहीतवानित्यर्थः // 124 // व्याकरण-वामनीम् वामन डी ( गौरादिस्वात् / ध्वंसी, विम्बिनी ताच्छील्ये णिनिः मौनी मुने व इति मुनि+मण , तदस्यास्तीति मौन+न् ( मतुपये ) / पता = पतन् = उत्पतन् गच्छतोतिपत् + गम् + / समधत्त सम् +/पा+रुङ् / हिन्दी-इस राजा नल ने छल से वामनावतार का सा छोटा शरीर बनाकर, दवे पाँव पास पहुँचकर हाथ से पक्षी को स्वयं (ही) पकर लिया / / 124 // टिप्पणी-यहाँ पक्षी पकड़ने की क्रिया का यथावत् वर्णन होने से स्वम वोक्ति है, साथ में शरीर को वामनावतार के शरीर से तुरुना में उपमा है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप स है / वामनावतार के पारापिक संकेत के सम्बन्ध में पीछे 70 वौ श्लोक देखिये // 124 // तदात्तमात्मानमवेत्य संभ्रमात् पुनः पुनः प्रायसदुस्प्लवाय सः / गतो विरुत्योड्यने निराशतां करौ निरोक्षुर्दशति स्म केवचम् // 125 // अन्धवः-स आरमानम् तदायत्तम् अवेत्य संभ्रमात् उत्प्लवाय पुनः पुनः प्रायसत् ; उड्डयने निरामताम् गतः ( सन् ) विरुत्थ केवलम् निरोधु: करौ दशति स्म / ; टीका-सः हंसः पाप्मानम् = स्वम् तस्य = नलस्य भावचम् - अधीनम् तद्गृहीतमित्यर्थः (10 तत्पु०) भवेत्य =शात्वा संभ्रमात्म यात् उस्लवायड्डीय गमनाय पुनः पुनः वारं वारं प्रायसत् = प्रयासम् अकरोत् , उड्यने उत्पतने निर्गता भाशा-वस्मादिति निगशः (प्रादि ब० बी० ) तस्य मावः तत्ता ताम गतः प्राप्तः सन् निराशो मूत्वेत्यर्थः बिरुस्य = विश्व होनं शब्दं कृत्वेति यावत् केवलम् निरोदधुः = निरोधकस्य ग्राहकस्व नलस्येत्यर्थः करो-हस्तो शतिस्म =दष्टवान् / / 125 / / व्याकरण-मासम् आ+/दा+क्त द को त / प्रवेत्य अव+V+ ल्यप् / प्रायसत्+ I+Vयस् + लुङ् / उखवः उत् +/प्लु अप् / उड्ड्य ने उत् +डो+ल्युट् / निरोद्यःनि+/रुध् +तृच् कर्तरि प० / हिन्दी-उस ( हंस ) ने अपने को पकड़ा हुआ जानकर भय से उड़ने हेतु बार-बार प्रयत्न किया, ( किन्तु ) उड़ने में निराश हुआ ( वह ) क्रन्दन करके पकड़ने वाले (नल ) के हाथों को ही काटता जाता था // 125 / / टिप्पणी-यहाँ पकड़े जा रहे पक्षी के स्वभाव का यथावत् वर्णन होने से स्वमावोक्ति अथवा बाति अलंकार है / पुनः पुनः में वीप्सालंकार और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है / / 125 / /
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________________ मैषधीयचरिते ससंभ्रमोस्पातिपतस्कुलाकुलं सरः प्रपयोस्कतयानुकम्प्रताम्। तमूर्मिलोलेः पतगग्रहान्नृपं न्यवारयद् वारिरुहैः करैरिव / / 126 // अन्वयः-ससंभ्रमोत्पति-पतव-कुलाकुलम् सर: उत्कतया उत्कम्पिताम् प्रपद्य ऊमि-लोलेः वारिरुहै: करैः नृपम् पतग-ग्रहात् न्यवारयत् इव / टीका-ससंभ्रमम् संभ्रमो =भयम् तेन सहितं तथा स्यात्तथा ( ब० बी० ) उत्पतन्ति = उड्डीयन्ते इति उत्पातिनः=( उपपद तत्षु० ) ये पतन्तः पक्षिणः (कर्भधा०) ('पतत्रि-पत्रि. पतग-पतत्-पत्ररथा-ण्डजाः' इत्यमरः ) तेषां यत् कुलम् = समूहः = (10 तत्पु०) तेन भाकुलम् - क्षुब्धम् (प० तत्पु०) सरः=क्रोडासरोवरः उत्कतया स्क- उन्मनाः तस्य भावः तत्ता तया दुःखितयेत्यर्थः / ( 'उत्क मनाः' इत्यमरः ) अनुकम्प्रताम् = दयालुताम् प्रपथप्राप्य दयां करवेत्यर्थः उर्मिमिः तरङ्गः लोलेः= चञ्चलैः ( तृ० तत्पु० ) वारिरहैः कमलेः ( एव ) करः- हन्तैः नृपम् - राजानम् नलम् पतगस्य = पक्षियः हंसस्येत्यर्थः ग्रहात्=ग्रहणात् न्यवारयत् = न्यषेधत् श्वेत्युस्प्रेक्षायाम् / सरोवरः नलकर्तृक-हंसग्रहणात् दुःखीभूय करुणाद्रः सन् चलद्भिः कमलं एव करैः राजानं न्यवारयदिवेति भावः // 116 // व्याकरण-उस्कः उत् = उद्गतमनस्क+क: स्वाथे ('उत्क उन्मनाः' पा० 52 80) से निपातित / अनुकम्प्र अनुकम्पते इति अनु+/कम्प+र: ( 'नमि-कम्पि०' पा० 3.21167 ) / पतगः पतन् = उत्सवन् गच्छत्तीति पतन् + गम् +डः विकल्प से न का लोपः / वारिरहैः वारिणी = जले रोहन्तीति वारि+/ह+कः / ग्रहात् यहाँ निवारणार्थ में पञ्चमी हुई है। हिन्दी-भय के कारण उड़ जाने वाले पक्षिसमूह से क्षुब्ध हुआ क्रीडा सरोवर दुःखी होने से दया में आकर तरंगों से हिल रहे कपल रूपी हाथों द्वारा राजा ( नल ) को मानो पक्षो को पकड़ने से रोक रहा था // 126 // टिप्पली-हम देखते हैं कि किसी को मारने को तय्यार हुए बैठे किसी आदमी को देखकर पास में खड़ा कोई भी व्यक्ति दुःखित हो दयापूर्वक हाथों से मना कर देता है न मारो, न मारो। इस तथ्य की कल्पना कवि क्रीडासरोवर पर कर रहा है। क्षग्ध हुए जल के कारण हिरू रहे कमल उसके हाथ बन गये। इस तरह यहाँ रूपक और उत्प्रेक्षा का अगाङ्गिभाव संकर है / यथावत् वस्तुवर्णन देखकर हम यहाँ स्क्मावोक्ति भी कह सकते हैं। 'पाति' 'पत' 'पत (ग) में वर्ण-साम्य एक से अधिक वार होने से छेक न होकर वृत्यनुपास है, किन्तु 'कुला' 'कुल' में छेक ही है / / 126 / / पतत्रिणा तनुचिरेण वञ्चितं श्रियः प्रयान्त्याः प्रविहाय पावलम् / चलत्पदाम्मोहहनूपुरोपमा चुकूज कूले कलहंसमण्डली // 12 // अन्वयः-रुचिरेण पतत्रिपा वश्चितम् तत् पल्वलम् प्रविहाय प्रयान्त्याः श्रियः चलत्-पदाम्भोरुहनूपुरोपमा कलहंसमण्डली कूले चुकूज / 1. अनुकम्पिताम्
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________________ प्रथमः सर्गः टोका-रुचिरेण-सुन्दरेण पतत्रिणा पक्षिणा हंसेनेत्यर्थः वशिसम -रहितम् तत् पश्यपम् =सरः प्रविहाय त्यत्रो प्रयाम्स्याः = गच्छन्त्याः श्रियः सोमायाः अब च लक्ष्म्याः चलत. पहे-चरणो अम्मोहे- कमले इवेति पदाम्मोर ( उपभित तत्पु० ) चलन्ती च ते पदाम्भोरुहे (वर्मपा० ) तयोः तत्र स्थितयोरित्यर्थः यौ नूपुरौ = मन्जोरे ( स० तत्पु.) ताभ्याम् उपमा=सादसम् ( तृ० तत्पु० ) यस्याः तयाभूता (ब० बो०) कलहंसानाम् = राजहंसानाम् मण्डल्लीसमूहः (प० तत्पु०) कूले = सरसः तटे चुकूज= शब्दयाञ्चक्र // 127 // ग्याकरण-पतत्री = पतत्रे गरुतौ अस्यास्तीति पतत्र+इन् ( मतुवर्थ ) / रुचिर-रोचते इति +किरच / चुकूजज् +लिट / हिन्दी-सुन्दर पक्षा से वञ्चित. उस सरोवर को छोड़कर जा रही श्री (शोमा, लक्ष्मी) के हिछ रहे कमल-जैसे चरणों के नुपूरो के समान राजहंसों को मण्डलो तोर पर शम्द करने मो॥ 127 // टिपली-यहाँ कवि ने श्री शब्द में श्लेष रखकर बड़ी अनोखी कल्पना की है। श्री शोभा और लक्ष्मी देवी को भी कहते हैं / उस स्वर्ण हंस के नल द्वारा पकड़े जाने पर क्रोडासर की सारी शोमा बाती रही। इस पर कवि कन्पना यह है कि मानो सरोवर के कमलों में रहने वालो (पद्मालया)छक्ष्मी देवी चली जा रही है और साथी के एकडे जाने पर तीर पर शन्द करते हुए हंस लक्ष्मीदेवी के बजते हुए नुपूर हों। वैसे मो कोई नायिका प्रियतम के चले जाने पर मिलन-स्थान को छोड़कर नुपूरों को झनझनाती हुई वापस चली जाती है। यहाँ दो विमिन्न श्रियों के अभेदाध्यवसाय से अतिशयोक्ति, कलहंस-मण्डी की नूपुरों से तुलना में उपमा, अपने साथी के पकड़े जाने पर अन्य हंसों के उड़कर कूजने में यथावत् पक्षि-स्वभाव के वर्णन से स्वभावोक्ति और कल्पना में गम्योत्प्रेक्षाइन समी का अङ्गाङ्गिभाव संकर है। कूले 'कल' में छंक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास शब्द लंकार है // 127 न वासयोग्या वसुधेयमीदृशस्त्वमङ्ग यस्याः पतिरुज्जितस्थितिः / इति प्रहाय क्षितिमाश्रिता नभः खगास्तमाचुक्रुशुरारकैः खलु // 128 // अन्वयः- “अङ्ग यस्या उज्झित-स्थितिः ईदृशः त्वम् पतिः ( असि ) ( सा ) इयम् वहुधा वास. गोबा म ( अस्ति ) / " इति क्षितिम् प्रहाय नमः आश्रिताः खगाः मारवैः तम् आचुक्रुशुः खलु // टीका-श्रङ्ग ! हे ! यस्याः वसुधायाः उमिता= त्यक्ता स्थितिः = मर्यादा येन तय भूतः (20 बो०) ईशः= एतादृशः निरपराधस्यास्माकं सह नरस्य ग्रहणे अधर्म कुर्वाण: स्वम् पतिः= पालक: बसीति शेषः, सा इयम् वसुधा पृथिवी वासस्य योग्या (प० तत्पु०) निवासान बस्तीति शेषः, इति क्षितिम् - वसुधाम् प्रहाय त्यक्त्वा नभः=आकाशम् प्राश्रिताप्राप्ता: खगाः पक्षिणः हंसा इत्यर्थः आरवैः शन्दः तम् = नलम् प्राचुकुशुः=निन्दितान्तः खलु स्युस्प्रेक्षायाम् // 128 // म्याकरण वसुधा वसूनि ( रत्नानि ) दधातीति वसु+Var+कः / क्षितिः क्षियन्ति =
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________________ 108 . नैषधीयचरिते निवसन्ति प्रापिनोऽत्रेति /क्षि+क्तिन् अधिकरणे / खगाः खे=आकाशे गच्छन्तीति ख+ गम् + ड। पारवैः आ+/+अप् मावे। :प्राचुकशुः आ+/कश् +लिट (प्र० पु० व०)। हिन्दी-"अरे, जिस ( वमुधा ) का मर्यादा भंग किये हुए तू पति है, ( वह ) यह वसुधा रहने योग्य नहीं"-इस तरह वसुधा को छोड़कर आकाश में गये हुए पक्षी कूजन-शब्द से मानो उस (नल ) को धिक्कार रहे थे // 1.8 // टिप्पणी-कोई स्थान यदि अच्छा भी क्यों न हो, किन्तु खतरे से भरा हो तो उसे छोड़ना हो पड़ता है-इस सार्वजनीन तथ्य पर कवि की कल्पना यह है कि मानो वसुधा के पति को मर्यादा विरुद्ध आचरण वाला देखकर हंसों को वसुधा-रत्नगर्मा-छोड़नी ही एड़ो और आकाश में जाकर दुष्ट राजा को चिल्ला-चिल्लाकर विक्कारना ही पड़ा। यहाँ उत्प्रेक्षा है, जो खलु शन्द द्वारा वाच्य है। वसुण शब्द के सामिप्राय होने से परिकरार हैं। 'वास' 'वसु' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। पहले वसुधा शब्द से उद्देश करके बाद को प्रतिनिर्देश भी कवि को वसुधा शब्द से ही करना चाहिए था न कि क्षिति शब्द से। उद्देश प्रतिनिदेशभाव-भंग साहित्य-दृष्टि से दोष ही माना जाता है।१२८॥ न जातरूपच्छदजातरूपता द्विजस्य दृष्टेयमिति स्तुवन्मुहुः / अवादि तेनाथ स मानसौकसा जनाधिनाथः करपारस्पृशा // 129 // अन्धयः-अथ 'इयम् जातरूपाच्छद-जात-रूपता द्विजस्य न दृष्टा' इति मुहुः स्तुवन् स जनाधिनाथः कर-पज्जर-स्पृशा तेन मानसौकसा अवादि। टोका-अथ = एतदनन्तरम् इयम् एषा जातरूपस्य = सुवर्णस्य ( 'चामीकरं जातरूपंमहार जत-काश्चने'=इत्यमरः ) यौ छदौ= पक्षी (10 तत्पु० ) ताभ्याम् जातम् उत्पन्नम् ( त. तत्पु० ) रूपम् = सौन्दर्यम् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतस्य (ब० बी० ) भावः = तत्ता सुवर्णपक्षकृतसौन्दर्यमित्यर्थः द्विजस्य = पक्षिणः हंसस्येति यावत् न-( मया ) दृष्टा= अवलोकिता' इति = हेतो मुहः पुनः पुनः स्तुवनू = तत्सौन्दर्य प्रशंसन्नित्यर्थः सः-प्रसिद्ध; जनानाम् अधिनाथः= अधि पतिः ( 10 तत्पु० ) राजा नल: करौ एव पारः ( कर्मधा० ) तम् सृशतीति तयोक्तेन ( उपपद तत्पु० ) करतल-गतेनेत्यर्थः तेन मानसोकसाहसेन (हंसास्तु-श्वेतगरुतश्चक्राङ्गा मानसौकस इत्यमरः ) प्रवादि = कथितः // 129 // व्याकरण-छदः छदतीति / छद्+अच् कर्तरि द्विजस्य इस शब्द के लिए पीछे श्लोक है। देखिए / मानसौकाः मानसम् एतत्सशकं सरः भोकः निवासस्थानं येषां ते (ब० वी०) प्रवादि Vवद्+लुङ् कर्मवाच्य / हिन्दी-तदनन्तर-"पक्षी ( हंस ) को सोने के पंखों से उत्पन्न हुई यह सुन्दरता (कमो नहीं देखो" इस तरह बार-बार प्रशंसा करते हुए इस नरेश की हाथ रूपी पिंजरे में बंधा वह हो बोला // 126 // टिप्पणी-यहाँ करों पर पजरत्वारोप में रूपक है। 'जातरूप' 'जातरूप' में यमकई अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। 'द्विज' और 'जातरूपच्छद' शब्दों में श्लेष है। 'द्विज' का दूसरा
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________________ प्रथमः सर्गः ब्राह्मण और 'नातरूपच्छद' का सुवर्ण जैसी (पीली ) चादर है। पीत वर्ण हमारे यहाँ बड़ा पवित्र माना गया है, इसी कारण मांगलिक कार्यों में पीले वस्त्र पहनने का विधान है। भगवान कृष्य स्वयं पीताम्बर है / इस श्लेष से कवि को यहाँ यह उपमा ध्वनि विवक्षित है कि जिस तरह सोने को-सी पालो चादर बोढ़े ब्राह्मय का सौन्दर्य बढ़ जाता है, वैसे ही सोने के पंखों ने हंस की सुन्दरता पर चार चाँद लगा दिए थे। 129 // धिगस्तु तृष्णातरलं भवन्मनः समीक्ष्य पक्षान्मम हेमजम्मनः / तवार्णवस्येव तुषारसीकरैमवेदमीभिः कमलोदयः कियान् // 14 // अन्वयः-(हे राजन् ! ) हेम-जन्मनः मम पक्षान् समीक्ष्य तृष्णा-तरलम् मवन्मनः धिक् अस्तु / तुषार-शीकरैः अर्षयस्य कमलोदयः इव तव अभीमिः कियान् कमलोदयः भवेत् / टीका-(हे राजन् !) हेम्नः- सुवर्षात् जन्म ( पं० तत्पु० ) येषां तथाभूतान् (10 बी० ) मम पक्षान् =गरुतः समीच्य-ष्ट्वा तृष्णया-लोमेन तरतम् = चञ्चलम् ( तु. तत्पु० ) भवतः मनः= अन्तःकरणम् (10 तत्पु०) विक प्रस्तुनिन्दितमस्तु (घि निर्भर्त्सन-निन्दयोः इत्यमरः) तुषारस्य-हिमस्य शीकरैः कणिकाभिः (10 तत्पु०) अर्णवस्य समुद्रस्य कमस्य-जलस्यउदयः-वृद्धिः (10 तत्पु०) 'सलिलं कमलं जलम्' इत्यमरः) इव तबमवतः प्रमोमिः एत: सुवर्षपः कियान् = कियत्परिमाप: कमलायाः= लक्ष्म्याः उदयः वृद्धिः भवेत् - स्यात् न कोऽपीति काकुः, अर्थात् यषा तुषार-कणेः समुद्र-जलस्य न कापि वृद्धिः जायते, तथैव मत्पक्षगत-सुवर्णेन तव धनस्यापि न कापि वृद्धिः भविष्यति // 130 // व्याकरण-धिक् मनः धिक् के योग में मनस्शब्द को द्वितीया / तृष्णा- तृष् +न+टाप् किवं च / अर्णवः प्रति जठानि अस्मिन् सन्तोति अप्पस्+व स का लोप / हिन्दी-हे राजन् 1) सोने के पखों को देखकर लोम से चनउ बने आपके मन को धिक्कार हो। मोस के कषों से समुद्र के कमल ( जल ) को वृद्धि की तरह ( मेरे ) इन ( सोने के पंखों) से तुम्हारी कमला ( लक्ष्मी धन ) की कितनी वृद्धि हो सकती है ? // 130 / / टिप्पणी-यहाँ जिस तरह बोस की बूंदों से समुद्र के जल की कुछ भी वृद्धि नहीं हो सकती, जैसे ही मेरे सोने के पखों से तुम्हारे कोश की मी वृद्धि क्या होगी -इस तरह सा-दृश्य बताने से उपमा है, जो कमलोदय में श्लिष्ट है। शब्दालंकार काकु वक्रोक्ति एवं वृत्त्यनुपास है / / 130 / / न केवलं प्राणिवधो वधो मम स्वदीक्षणाद्विश्वसितान्तरात्मनः। विगर्हितं धर्मधनर्निवहणं विशिष्य विश्वासजुषां द्विषामपि // 131 // अन्वयः-(हे राजन् ! ) स्वदोक्षपात् विश्वतितान्तरात्मनः मम वधः केवलम् प्रापि-वधः न, विश्वासजुषाम् द्विषाम् अपि निवह पम् धर्म-धनः विशिष्य विगहितम् ( मस्त ) / टीका-(हे राजन् ! ) तव ईक्षणम् =दर्शनम् (प० तत्पु० ) तस्मात् विश्वसितः = विश्वासं प्राप्तः अन्तरात्मा=मनः (कर्मधा० ) यस्य तथाभूतस्य (ब० वी०) मममे वधःहिंसा केवलम् प्राणिनः=जोवस्य वधः (10 तत्पु० न ) अपितु विश्वास-घातोऽपि वर्तते इत्यर्थः,
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________________ 11. नैषधीयचरित ( यतः ) विश्वासं विनम्मम् जुषन्ते = सेवन्ते इति तथोक्तानाम् विश्वासमाप्तानामित्यर्थः ( उपपद तरपु० ) द्विषाम् =शत्रषाम् अपि निवहणं = वधः धर्म एवं धनं येषां तथाभूतैः ( ब० बी०) धर्मपरायणे: धर्मशाखिभिरित्यर्थः विशिष्यअतिरिच्य विशेषरूपेणेत्यर्थः विगहितम् = निन्दितम् अस्तीतिशेषः / साधारणतया धर्मात्मभिः पुरुषः जीवमात्रस्य हिंसा निन्दिता, विश्वसितस्य शबोरपि हिंसायास्तु कथैव का? विश्वासघातिनः कृते महाप्रायश्चित्तस्य विधानादिति मावः // 131 / व्याकरण-जुषाम् जुष+श्विप् कर्तरि 10 ब० / द्विषाम् द्विषन्तीति/विष् +विप् कतरि प०५०। निवहंणम् नि+Vवह +ल्युट मावे। विशिष्य वि+/शिष् + ल्यप् / हिन्दी-(हे राजन् / ) तुम्हें देखने से मन में (पूर्ण) विश्वस्त हुए मेरा वध न केवल प्राषिवध है (प्रत्युत विश्वास-घात भी है)। धर्मधनियों (धर्मशास्त्रकारों) ने विश्वास में पाए हुए शत्रुओं तक के भी वध की बड़ो भारी निन्दा कर रखी है / / 131 // टिप्पणी-उक्त श्लोक में द्विषामपि' के अपि शम्द द्वारा •औरों की-निरपराधियों को तो बात ही क्या'-यह अथ निकलने से अर्थापत्ति-अलङ्कार है। 'वो' 'क्यो' में यमक तो नहीं बन सकता है, क्योंकि अर्थ-मेद नहीं है। शब्दार्थों के पौनरुत्व में लाटानुपास बनता है लेकिन अर्थों में तात्पर्य भेद होना चाहिये। यहाँ तात्पर्य भेद है। 'मम वधः' में बध शब्द सामान्य पका वाचक है जब कि 'प्राणि-वधः' वाला वध विशेष वध अर्थात् विश्वासपात पूर्वक वध का वाचक है, इसलिए यहाँ लाटानुप्रास है। लाट विदग्ध (निपुण ) को कहते हैं। उनके द्वारा प्रयोग में खाने से लाटानुप्रास नाम पड़ा / कई आलंकारिकों ने इसे विदग्धानुपास भी कहा है / अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 131 // पदे पदे सन्ति मटा रणोद्धटा न तेषु हिंसारस एष पूर्यते / घिगीशं ते नृपतेः कुविक्रमं कृपाश्रये यः कृपणे पतमिणि // 132 // अन्वयः-पदे-पदे रणोद्भटाः मटाः सन्ति, एष हिंसा-रसः तेषु ( कस्मात् ) न पूर्यते ? हशम् ते नृपतेः कुविक्रमम् धिक् , यः कृपाश्रये पतत्रिणि ( वर्तते ) / टीका-पदे पदे= स्थाने स्थाने रणेषु = युद्धेष उनटाः = प्रचण्डाः ( स० तत्पु० ) भटाःयोधाः सन्ति = वर्तन्ते; एषः = अयम् हिंसायाः=मारपस्य रसः= अनुरागः (10 तत्पु०) तेष = मटेषु ( कस्मात् ) न पूर्यते-पूर्व क्रियते अर्थात् प्रचण्ड-मटानां वधं कृत्वा स्वहिंसाविषयकानुरागः प्रदश्यताम् / ईरशम् = विश्वस्तजनवधविषयकम् ते नृपतेः- तव राशः कुविक्रमम् = कृत्सितं विक्रमम् शौर्यम् (प्रादि तत्पु०) धिक्विक्रमो धिक्कार योग्य इत्यर्थः यः= कुविक्रमः कूपायाः=दयायाः भाश्रयः= पात्रम् तस्मिन् ( प० तत्पु० ) पतत्रिणि = पक्षिणि मयि हंसे इत्यर्थः वर्तते इति शेषः / दया-पात्रे निरपराधे मयि स्व.विक्रम मा दर्शयेत्यर्थः / / 132 / / / व्याकरण-पदे पदे वीप्सा में द्विरुक्ति / पूर्यते पूर्+रुट कर्मवाच्य / हिंसा हिंस्+म+ टाप् / धिक कुविक्रमम् धिक् के योग में द्वितीया। पतत्री-पतत्रं गरुत् अस्थास्तीति पतत्र+इन् (भतुबोय)।
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________________ प्रथमः सर्गः हिन्दी-स्थान-स्थान में रणाकरे योद्धा ( मौजूद); उनमें ( अपना ) यह मारने का शौक क्यों नहीं पूरा कर लेते ? तुझ राजे के इस कुत्सित शौर्य को धिक्कार है, जो (मुझ-जैसे ) दया-पात्र, दीन पनी पर (प्रदर्शित ) हो रहा है / / 13.2 / / टिप्पणी-पदे पदे में वीप्सालंकार, 'मटा' भया' में यमक 'कृपा' 'कृप' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 132 / / फलेन मूलेन च वारिभूरुहां मुनेरिवेत्थं मम यस्य वृत्तयः / स्वयाच तस्मिन्नपि दण्डायरिणा कथं न पत्या धरणी हणीयते // 133 // अन्वय.-(हे राजन् ) वारि-भू रूहाम् फडेन मूळेन च मुनेः इव यस्य मम इत्थम् वृत्तयः ( सन्ति ), तस्मिन् अपि दण्ड-धारिणा त्वया पस्या अब धरणी कथं न हृणीयते ? टीका-वारिबलं च भूः-पथिको चेति वारि-भुवी (इन्द्र ) तयोः रोहन्तीति तथोक्तानाम् (माह तत्पु० ) कमलानाम् वृक्षाणां च, अथ च पारि एव भूः= उत्पत्तिस्थानम् ( कर्मधा० ) तस्या रोहन्तीति तथोक्तानां कमलानाम् फलेन=पद्माक्षसंशकेन 'कमल डोडा' इति भाषायां प्रसिद्धन मूलेन कन्दादिना अथ च मृणालेन मुनेः = ऋषे इव यस्प.मम-हंसस्य इत्थम्-एवं प्रकारेण वृत्तयःजीवनसाधनानि आजीविका इत्यर्थः सन्तीति शेषः तस्मिन् -निरपराधे ऋषि-तुल्ये मयि हंसे अपि दण्ड धारयितुं शीलमस्येति तथोजेन ( उपपद तत्पु० ) दण्ड-कारिणा अदण्डय-दण्डकेनेति यावत् त्वया-पत्यामा सता अच धरणीपृथिवी कथं = कस्मात् न हणीयते - लज्जते ? त्वाम् अन्यायिनं पतिमवाप्य तत्पत्नीभूतया पृथिव्या अवश्यं लज्जितव्यम् , प्रिये अन्यायकारिणि सति स्त्रियों ज्जन्ते एवेति भावः // 113 / / ग्याकरण-हाम्/रुह+निवप् कर्तरि 50 व० / इस्थम् इदम् + थम् ( प्रकारे) / धारिणा V+पिन् ( ताच्छील्ये)] हीयते। हृषीङ् ( लज्जायाम् कण्ड्वादि ) यक् (सार्थे ) / हिन्दी-कमलों और वृक्षों के फल एवं कन्दमूल पर जीवन निर्वाह करने वाले मुनि की तरह जिस मुम हंस के कमलों के फल ( कसलडोडे ) और मूल ( मृणाल ) जीवन-साधन है, उस (निरपररापी) को भी दण्ड देने वाले तुझ पति से आज पृथिवी क्यों लज्जित नहीं हो रही है ? टिप्पणी-यहाँ हंस फल मूल पर जीवन-निर्वाह करने वाले ऋषि-मुनि से अपनी तुलना कर रहा है, इसलिए उपमा है जो 'वारिभूरुहाम् में श्लिष्ट है / 'वारि रुहाम् एवं भूरुहाम्' का मुनि के साथ और केवल 'वारिभूरुहाम्' का हंस के साथ क्रमशः अन्वय जुड़ने से यथासख्य भी है। 'न' 'हम' यमक धारिणा 'धरणी' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है / / 133 // इतीदृशस्तं विरचय्य वाङ्मयः सचित्रलक्ष्यकृपं नृपं खगः / दयासमुद्रे स तदाशयेऽतिथीचकार काल्पयरसापगा गिरः // 11 // अन्वयः-इति ईदृशैः वाङ्मयः तं नृपम् सचित्र-वैलक्ष्य-कृपम् विरचय्य स खगः दयासमुद्रे तदाशये कारुण्यरसारगाः निरः अतिबीचकार / 1. पृषीक्ते
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________________ 112 नैषधीयचरिते टीका-इति एवं प्रकारेण ईदृशैः= एतादृशः वाडमयै वाग्विकारः= वचोभिरित्यर्थः तं नृपम् =राजान नलम् चित्रम् = आश्चर्य ( 'आलेख्याश्चर्ययोश्चित्रम्' इत्यमरः) च वैलच्यं = लज्जा च कृपा' = दया चेति० कृपाः (द्वन्दू ) तैः सह वर्तमानमिति सचित्र० (ब० वा०) विरचय = कृत्वा नले आश्चर्य लज्जा दयावोत्पाद्यत्यर्थः स खगः= पक्षी हंस इत्यर्थः दया= कारुण्यम् एव समुद्रः सागरः तस्मिन् ( कर्मधा० ) यस्य = नलस्य प्राशये = हृदये ( 10 तत्पु० ) 'प्रहमात्मा गुडाकेश सर्व भूताशये स्थितः' इति गोता) कारुण्यंकरुणभावरूपः रसः= काव्यरसेषु अन्यतमः करुणरस इति यावत् (कर्मधा०) तस्त्र प्रापगाः नदीः (10 तत्पु० ) गिरः वाचः अतिथीचकार = प्रवेशयामासेत्यर्थः, यथा नद्यः समुद्रं प्रविशन्ति, तथैव हंसस्य करुषा-पूर्णवाचः नलहृदये प्राविशन् , हसः स्वकरुपवचनानि नलम् अश्रावयदिति मावः // 134 // म्याकरण-ईरशैः अयम् इव दृश्यते इति इदम् +/दृश् +कञ् तृ० ब० / वाङ्मयः वाचा विकारैः ( 'एकाचो नित्यं भयटमिच्छन्ति' ) इति वाच्+मयट ( विकारे ) तृ० ब० / वैलच्यम् विलशस्य माव इति विलक्ष +ष्यञ् ( आत्मनश्वरिते सम्यग् शातेऽन्यैर्यस्य जायते / अग्नपाऽतिमहतो स विलक्ष इति स्मृतः) अपनी पोल खुल जाने से होने वालो लज्जा को वैलक्ष्य' कहते हैं / विरचरय वि+ रच+ल्यप् हस्त्र पूर्व में होने से पि को अयादेश / खगः खे = आकाशे गच्छतीति ख+/ गम् +3 / भापगा अपां = जलानाम् समूहः आपम् तेन गच्छतीति आप+ गम् +ड+टा। अतिथीचकार अनतिथिम् अतिथिं चकारेति अतिथि+चि/+लिट् / हिन्दी-इस तरह ऐसे-ऐसे वचनों से उस राजा ( नल ) को आश्चर्य, लज्जा और दयायुक्त करके उस पक्षी (हस ) ने उन ( राजा ) के दया के समुद्र-रूपो हृदय में वायोरूप करुणरस को नदियों को प्रवेशार्थ प्रेरित किया ( अर्थात् वह करुणा-भरे शब्दों में बोला ) // 134 // टिप्पणी-सचित्र वैलचय-पम्-हंस ने नल को आश्रर्य में इसलिए डाला, क्योंकि एक तो यह कि वह सोने का था, दूसरे, वह मनुष्यों की वाणी बोल रहा था; लज्जित इसलिए कर डाला कि वह राजा के चरित्र की बड़ी बुरो आलोचना कर रहा था; दया राजा के हृदय में उसने इसलिए उत्पन्न कर दी कि वह दोनता-भरी वाणी बोल रहा था। यहाँ हृदय पर दया-समुद्रत्व का और गिराओं में करुण रस की नदीत्व का आरोप होने से रूपक है। यदि 'रस' शब्द को श्लिष्ट माना माय, तो काव्य के रस-विशेष पर रसत्व ( जलस्व ) का आरोप मी रूपक बन जायेगा, क्योंकि नदियों जल की ही हुआ करती हैं / इस प्रकार यह सांग रूपक है। 'कार' 'क'रु' में छेक, 'कृपम्' 'नृगम्' पदान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 134 // मदेकपुत्रा जननी जरातुरा नवप्रसूतिवरटा तपस्विनी। गतिस्तयोरेष जनस्तमर्दयमहो विधे त्वां करुणा रुणद्धि न // 135 // अन्वयः-जननी जरातुरा मदेकपुत्रा ( चास्ति ) तपस्विनी वरटा नव-प्रमूतिः ( अस्ति ) / तयोः एव जनः गतिः ( अस्ति ) / तम् अर्दयन् (हे ) विधे, करुया त्वाम् न रुयद्धि ? टीका-जननीमम माता जरया - वृद्धावस्थया आतुरा=पीडिता ( तृ० तत्पु० ) अहम् एव
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________________ प्रथमः सर्गः ए कः पुत्रः ( कर्मधा०) यस्याः तथाभूता (10 वी०) अस्तीति शेषः। तपस्विनो=वराकी वरटाहंसी ( 'हंसस्य योषिद् वरटा' इत्यमरः ) मम मायेंत्यर्थः नवा- प्रत्यग्रा प्रसूतिः प्रसवः (कर्मधा०) यस्याः सा (ब० ब्रो०) चिरप्रसूतेत्यर्थः / अस्तीति शेषः / तयोः=मातृ-मार्ययोः एष जनः=अहमेवेत्यर्थः गतिः = आभयः (अस्ति) / सम्ज नम् मामित्यर्थः भदयन् पीडयन् हे विधे= विधातः करुणादया स्वाम् = विधिम् न रुणद्धि-निवारयति ? स्वमातृ-मार्ययोः एकमात्र-शरणं मां मारयत: तव हृदये दया नौदेति किम् ? इति भावः // 135 // व्याकरण--जननी जनयतीति जन्+पिच्+ल्युट्+ङीप् / जरा ज+अङ् ( भावे )+ टाप् / मदेकपुत्रा अस्मद् और युष्मद् शब्दों को समास में एक वचन में क्रमशः मत् और त्वत् हो जाता है। प्रसूतिः प्र+/+क्तिन् मावे / गतिः गच्छन्त्यति गम्+क्तिन् सप्तम्यर्थे / अदयन् यह चुरादिक अर्द का बना संबोधन है, 'सम्बोधने च पा० 3 / 2 / 125 से शतृ हुआ है। कितने ही वैयाकरषों ने इस धातु को आत्मनेपद ही माना है। उस स्थिति में अदनम् = अर्दः सोऽस्यास्तीति अर्द+अच् ( मतुवथें ) करके अर्दम् - अर्दवन्तं करोतीति ( नामधा० ) बनाकर यह शत्रन्त का सम्बोधन हो सकता है। हिन्दी-(मेरी ) माँ बूदी है जिसका एक मात्र पुत्र मैं ही हूँ; बेचारी हंसी ( मेरी भार्या) अभी-अभी जच्चा बनी है; उन दोनों का ( एकमात्र ) सहारा मैं ही हूँ। उसको मारता हुआ हे विधाता ! तुम्हें दया नहीं रोकती-यह कितनी आश्चर्य की बात है / / 135 // टिप्पणी=यहाँ दया का कारण होते हुए मी दया-रूप कार्य न होने से विशेषोक्ति है / जननी और वरटा के विशेषण सामिप्राय होने से परिकर मी है। 'रुषा' 'रुप' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 135 // मुहूर्तमानं भवनिन्दया दयासखाः सखायः नवदश्रवो मम / निवृत्तिमेष्यन्ति परं दुरुत्तरं त्वयैव मातः सुतशोकसागरः // 136 // अन्धयः-मम सखायः दया-सखाः सवदश्रवः च ( सन्तः ) मुहूर्त-मात्रम् मव-निन्दया निवृत्तिम् एष्यन्ति, परम् हे मातः सुत-शोक-सागरः खया एव दुरुत्तरः भविष्यतीति शेषः / टीका--मम सखायः=मित्रापि दया= करुणा सखी-सहचरी येषां (ब० बी० ) पुंवद्भावे दया-सखाः = दयासहिताः सहानुभूतिपूर्णा इति यावत् सन्तः, तथा नवन्ति गलन्ति अणि अस्राणि येषां तथाभूता, (ब० वी०) शोके अभूणि विमुञ्चन्तः इत्यर्थः मुहुतम् एव मुहूत्तमात्रम् =क्षणमात्रम् भवस्य = संसारस्य निन्दया = ( 10 तत्पु० ) गर्हणेन अनित्य-संसारस्य एतायी एव स्थितिरस्तीति तदालोचनां कृत्वेति भाव। निवृत्तिम्-शोकोपरमम् एण्यन्ति प्राप्स्यन्ति शोक विस्मरिष्यन्तीत्यर्थः परम्: परन्तु हे मातः!=जननि / सुतस्य-पुत्रस्य शोकः=(१० तरपु०) एव सागरः= समुद्रः ( कर्मधा० ) स्वया एव=दुरुत्तरः-दुःखेन उत्तरितुं शक्यः, मित्राणां दुःखं क्षणिकमेव, किन्तु तव दुःख यावज्जोवनं स्थास्यतीति भावः // 136 //
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________________ 114 नैषधीयचरिते __व्याकरण-मुहुर्तमात्रम् कालात्यन्त-संयोग में द्वि० / दयासखाः समास में सखिन् शब्द राम शब्द की तरह अकारान्त बन जाता है। दुरुत्तरः दुर+उत् +त+खल खल् का योग होने से षष्ठी-निषेध होकर 'स्वया' में तृतीया हुई ( 'न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतनाम्' पा० 2 / 360) हिन्दी-मित्र लोग दया-पूर्ण हो, आँसू बहाते हुए थोड़ी देर संसार की निन्दा के साथ शान्त हो जाएंगे; किन्तु हे माँ ? पुत्रशोक-रूपी सागर पार करना तेरे लिए ही कठिन होगा // 136 // टिप्पणी-संसार में यह स्वामाविक बात है कि यार-दोस्त भाई-बन्धु थोड़ी देर शोक व्यक्त करके बाद को उसे भूल-माल जाते हैं, किन्तु माँ हो एकमात्र ऐसी है, जो भरण-पर्यन्त पुत्र-शोक में जलती रहती है / यहाँ पुत्र-शोक पर सागरत्व का आरोप होने से रूपकालंकार है। 'दया' 'दया' में इलेष 'सखाः' 'सखा' में छेक और अन्यत्र वृत्यनुप्रास है // 136 // मदर्थसन्देशमृणालमन्थरः प्रियः कियदूर इति स्वयोदिते। विलोकयन्त्या रुदतोऽथ पक्षिणः प्रिये स कीडग्मविता तव क्षणः // 137 // अन्वयः-(हे ) प्रिये ! 'मदर्थ-सन्देश-मृणाल-मन्थरः प्रियः कियद्दूरे ( वर्त्तते )' इति त्वया उदिवे ( सति / अथ रुदतः पक्षिणः विलोकयन्त्याः तव स क्षणः कीदृग् मविता ? टोका-हे प्रिये, सन्देशः= वाचिकश्च मृणालम्-विसम्चेति सन्देश-मृपाले (द्वन्द) मद्यम् - इति मदर्थे ( 'अर्थेन सह नित्यसमासो विशेष्यलिङ्गता चेति वक्तव्यम्' ) ( च० तत्पु० ) च ते सन्देशमसाले ( कर्मधा० ) तयोः विषये मन्थर:- मन्दः अलस इति यावत प्रियः = पति: कियच्च तरम् ( कर्मधा० ) तस्मिन् कियद्विप्रकृष्ट पदेशे वर्तते इति शेषः इति स्वया उदिते= कथिते पृष्टे सतीत्यर्थः अथ = अनन्तरम् रुदतः रोदनं प्रकुर्वतः अनिष्ट-वार्ताकथनमयादिति शेषः पक्षिण:विहगान् विलोकयन्त्याः = पश्यन्त्याः तव स क्षणः समयः कोहग = कीदृशो भविता भविष्यति ? मत्सहचराणां रोदनेन मनिधनस्यानुमानं कुर्वत्यास्ते वज्राहतस्येव हृदयस्य तदानी काप्यनिर्वचनीया दशा मविष्यतीति मावः // 137 // व्याकरण-सन्देशः सम् +/दिश् +घञ् / उदिते वद्+क्त व को उ सम्प्रसारण स० 10 / विलोकयन्स्या वि+लोक्+श+प 10 ए० / रुदतः रुद्+शतृ द्वि० व० / भविता/ भू+लुट् / हिन्दी--हे प्रिये,-"मेरे हेतु सन्देश और मृणाल ( मेजने ) के विषय में देरी कर रहा मेरा प्रियतम कितनी दूर है ?" इस तरह तेरे कहने पर बाद को पक्षियों को रोता देखते हुए तेरा वह आप कैसा ( मयंकर ) होगा ? टिप्पणी-उक्त श्लोक में हंस की पत्नी-विषयक चिन्ता बताई जाने से भावोदयालंकार है। 'क्षिषः, 'क्षण:' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है / / 137 // कथं विधातर्मयि पाणिपङ्कजात्तव प्रियाशैत्यमृदुत्वशिल्पिनः / वियोक्ष्यसे वल्लमयेति निर्गता लिपिर्ललाटन्तपनिष्ठुराक्षराः // 138 // अन्वय:-हे विधातः / प्रिया-शैत्य-मृदुत्व शिल्पिनः तव पाणि-पङ्कजात् मयि 'वल्लभया वियोक्यसे' इति ललाटन्तपनिष्ठुराक्षरा लिपिः कथं निर्गता ?
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________________ प्रथमः सर्गः 115 टीका-हे विधातः हे विधे ! शैत्यं -शीतलत्वं च मृदुत्वं - सुकुमारत्वं चेति शैत्य-मृदुत्वे (इन्द्र) पियायाः शैत्यः (10 तत्पु० ) शिस्पिनः निर्मातुः (10 तत्पु० ) तव ते पाणिः हस्तः एव पङ्कजम् = कमलम् तस्मात् मथि = मद्विषये वल्लभया=प्रियतमया वियोग्यसे= वियुक्तो भविष्यसि इति बलाटतपानि=शिरोदाहकानि च निष्ठुराणि चेति ( कर्मधा० ) अक्षराणि यस्या तथाभूता (ब० वी० ) लिपिः लेखः कथंकेन प्रकारेण निर्गता निःसूता, येन शीतल-मृदुना ते करकमलेन प्रियतमायां शीतलत्वं कोमलत्वं च विनिर्मितम् तेनैव करकमलेन मल्ललाटे प्रियावियोग विषयकाषि तापकानि कठोराणि वाक्षराणि कथं लिखितानीति भावः // 138 // व्याकरण-शिल्पी शिल्पमस्थास्तीति शिल्प+इन् ( मत्वर्थीय) पङ्कजम्=पङ्काज्जायते इति पक+/जन्+ड / वियोग्यसे वि+ युज्+ लृट् ( कर्मवाच्य ) ललाटन्तप-ललाट तपतीति कलाट+Vतप् +खश् मुम् च। हिन्दी-हे विधाता, प्रियतमा में शीतलता और कोमलता का सृजन करने वाले तेरे कर-कमल से मेरे विषय में 'तेरा प्रियतमा से वियोग होगा' यह ललाट को तपादेने वाली कठोर अक्षरों की लिपि ( ललाट पर ) कैसे निकल गई ? टिप्पणी-तर्क शास्त्र का यह नियम है कि 'कारण-गुणाः कार्य-गुणान् आरमन्ते' अर्थात् कार्य में भी वे ही गुण होते है, जो कारण में होते हैं / लिपि के कारण भूत शीतल कोमल कर कमल से लिपि में मो शीतल मृदु अक्षर होने चाहिये थे, जो नहीं होने पाए। इस तरह कारण के गुणों के विरुद्ध कार्य में गुप्य होने से विधमालंकार है, जिसके मूल में पापि पर पङ्कजवारोप काम कर रहा है, इसलिये यहाँ विषम और रूपक का संकर है। ललाटन्तप' के सामिपाय विशेषण होने से परिकर भी है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है // 138 // अयि' स्वयूथ्यरशनिक्षतोपमं ममाघ वृत्तान्तमिमं वतोदिता। मुखानि लोलाशि दिशामसंशयं दशापि शून्यानि विलोकयिष्यसि // 139 // अन्वयः-अयि लोलाक्षि, अद्य स्व-यूथ्यः अशनि-क्षतोपमम् इमम् मम बृत्तान्तम् उदिता ( त्वम् ) दिशाम् दश अपि मुखानि अप्शयम् शन्यानि विलोकयिष्यसि वत। टीका--अयि लोले चम्चके अक्षिणी- नयने (कर्मधा० ) यस्याः तत्सम्बुद्धौ (ब० वी०) लोलाक्षि प्रध= अस्मिन् दिने स्वाः स्वकीया यूथ्याः=वर्याः हंसा: तैः ( कर्मधा० ) प्रशनि = वज्रम् तस्य क्षतम् = प्रहारः (10 तत्पु०) तेन उपमा-तुलना ( तृ० तत्पु० ) यस्य तम् (ब० वी० ) इमम् = एतम् मरणरूपमित्यर्थः वृत्तान्तम् = उदन्तम् उदिता=कथिता (त्तम् ) दिशाम् =दिशानाम् दश = दशसंख्यकानि अपि मुखानि = अग्राणि असंशयम् = न संशयः= सन्देहः यस्मिन्कर्मणि यथा स्यात्तथा (ब० वी) निश्चितमेव शुन्यानि-रिक्तानि विलोकयिष्यसि द्रक्ष्यसि बतखेदे / मम सह चरेम्यः वज्रघातमिव मन्मरणोदन्तमाकण्यं वं सर्वमपि शन्यमिव द्रक्ष्यसोति मावः // 136 / 1. अपि
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________________ 116 नैषधीयचरिते __ व्याकरण-यूथ्यः यूथे मव इति यूथ + यत् उदिता/द+क्त कर्मणि, वद् धातु हिकर्मक है / कर्मवाच्य में गौण कर्म 'लम्' में प्रथमा हो गई है और मुख्य कर्म 'वृत्तान्त' द्वितीयान्त ही रह हिन्दी-ओ चन्चल नयनों वाली, अपने दल के हंसों द्वारा वज्राघात-जैसा मेरा यह ( मृत्युविषयक ) बृत्तान्त कही जाती हुई ( तू ) निश्चय ही दसों दिशाओं के भुख सुना-सूना देखेगी-यह खेद की बात है / / 136 / / टिप्पणी-यहाँ वृत्तान्त की तुलना बज्र-क्षत से की गई है, इसलिये उपमा है। 'दिशा' 'दशा' में छेके और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है // 139 // ममैव शोकेन विदीर्णवक्षसा स्वया विचित्राङ्गि विपद्यते यदि / तदास्मि दैवेल हतोऽपि हा हतः स्फुटं यतस्ते शिशवः परासवः // 14 // अन्वय-हे विचित्राङ्गि, मम एष शोकेन विदीर्ण-वक्षसा खया यदि विपद्यते, तदा हा ! दैवेन हतः अपि ( पुनः ) हतः अस्मि, यतः ते शिशनः स्फुटम् परातवः ( भवेयुः ) / टीका-हे विचित्राणि चञ्चू चरणयोः रक्तवर्णत्वात् शरीरस्य च श्वेतस्वात् विधिधवर्णानि अङ्गानि =अवयवाः ( कर्मधा० ) यस्याः तत्सम्बुद्धौ हे विचित्राणि ( ब० वी० ) मम तव शोकेन मन्मृत्युजनित-दुःखेन विदीण = स्फुटितम् वक्षः हृदयम् ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूतया (ब० वी०) त्वया यदि चेत् विद्यते म्रियते तदा-तहिं हा! खेदे अव्ययम् देवेन =भाग्येन हतः=मारितः अपि%=( पुनः ) हतः अस्मि यतः कारणमिदमस्ति ते शिशवः = बालकाः स्फुटम् निश्चितम् यथा स्यात्तथा परासवः पराः=परागताः प्रसवः प्राणाः येषां तथामूताः मृता इत्यर्थः (प्रादि ब० वी०) भवेयुरिति शेषः, मयि मृते त्वयि जीवितायां च शिशूनां जीवनं कथमपि सम्भाव्यते, किन्तु त्वयि अपि मृतायाम् शिशवोऽपि नूनं मरिष्यन्तीतिहा कष्टमितिमावः / / 140 / / व्याकरण-विदीर्ण वि+t+, (त को न और न कोण) विपद्यते वि/पद्+लट माववाच्य / हिन्दी-हे विचित्र अङ्गोंवाली, मेरे ही शोक के कारण विदीर्ण हुये हृदयवाली तू यदि मर जाती है, तो हाय ! दैव का मारा हुआ भी मैं (दो बारा ) मर गया क्योंकि तेरे बच्चे ( मी) निश्चय ही मर जाएँगे॥१४०।। टिप्पणी-माता यदि जीवित हो, तो पिता के बिना भी बच्चे भीवित रह जाते हैं, किन्तु दोनों के मर जाने पर बच्चे भी भरे समझ लीजिये / इस तरह हंस पत्नी की मृत्यु पर बच्चों की मृत्यु की मी कल्पना करके और भी अधिक दुःखित होरहा है कि भाग्य एक को मार कर कैसे सारे ही परिवार को मार रहा है / यहाँ पत्नी की मृत्यु पर बच्चों की भी मृत्यु बताने से समुच्चयालंकार है / समु. च्चय वहाँ होता है जहाँ एक कार्य के होने पर 'खले कपोत न्याय' से और भी कार्य हो जायें। 'हतो' 'हत' में छेकं तथा 'शसयोरमेदात्' बाले नियम से 'शवः' 'सव.' में यमक और अन्यत्र वृत्यानुप्रास है // 140 //
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________________ प्रथमः सर्गः तवापि हा हा विरहात् क्षुधाकुलाः कुलायकूलेषु विलुट्य तेषु ते / चिरेण लब्धा बहमिमनोरथैर्गताः क्षणेनास्फुटितेक्षणा मम / / 141 / अन्वयः-हा ! हा ! बहुभिः मनोरथैः चिरेण लब्धाः अस्फुटितेश्मणाः मम ते तब ! मम ) अपि विरहाव क्षुधाकुलाः ( सन्तः ) तेषु कुलाय-कूलेषु विलुठय क्षणेन गताः। " टीका-हा हा ! महान् शोकोऽस्ति, बहुभिः = अनेकैः मनोरथैः कामनामिः चिरेण = बहुकालानन्तरम् लब्धाः प्राप्ताः न स्फुटिते उद्घाटिते ईक्षणे= नयने ( कर्मधा०) येषां तथाभूताः (ब० व्रो०) मम ते - शिशवः तव भपि च मम विरहात् वियोगात् क्षुधया बुभुक्षया आकुलाः-विह्वलाः सन्तः तेषु = प्रसिद्धेषु कुलायानाम् =नीडानाम् कुलेषु तटेषु प्रान्तेष्वित्यर्थः दिलुठय ठित्वा क्षणेन गताः = मृता इत्यर्थः // 141 // व्याकरण-ईसणम् ईक्ष्यते = दृश्यतेऽनेनेति + ल्युट करणे / क्षुधा क्षुध् + विप् (मावे)+टाप् / हिन्दी-हाय ! हाय ! बहुत सो कामनाओं से चिरकाल बाद प्राप्त हुए मेरे वे बच्चे, जिसकी आँखें तक नहीं खुली हैं, तेरे और मेरे वियोग के कारण भूख से तड़पते-तड़पते घोंसलों के किनारों पर लुड़ककर शीघ्र ही मरे ( समझो) // 142 // टिप्पणी-यहाँ 'कुलाः' 'कुला' और 'कूले' में वर्षों की एक से अधिक बार आवृत्ति होने से छेक न होकर वृत्त्यनुप्रास और 'क्षणे' 'क्षणा' में छेक है; अन्यत्र' भी वृत्त्यनुपास ही है / / 141 / सुताः कमाय चिराय चुछ कृतैर्विधाय कम्प्राणि मुखानि के प्रति / कथासु शिप्यध्वमिति प्रमील्य स सुतस्य सेकाद् बुबुधे नृपाश्रुणः // 142 // अन्वयः- "हे सुताः ! चिराय चुकृतैः कम् आहूय, कम् प्रति मुखानि कम्माणि विधाय, ( यूयम् ) कथासु शिष्यध्वम्"-इति स प्रमोल्य नृतस्य नृपाश्रुणः सेकात् बुबुधे। टोका-हे सुताः पुत्राः ! चिराय=चिरकालम् चुरू कृतैः चुद्वारैः 'चूँ चूँ'-शब्दैरित्यर्थः कम् पाहूय = आकार्य मक्ष्यं याचिष्यथेति वाक्यशेषः अर्थात् मयि मातरि च गृतायां चुकृत्य चुङ कृत्य अस्मद्-व्यतिरिक्त कम् भोजनं पाचिष्यथ कम् प्रति= ( च ) के लक्ष्वीकृत्य मुखानि = आननानि करमाणि = चम्चलानि विधाय- कृत्या कलायमध्यात् संमुखा धाविष्यथ इति वाक्यशेषः, (यूएम् ) कथासु शिष्यध्वम् = नामशेषा मवत अर्थात् आवयोः मरणानन्तरम् यूयमपि कथामात्रावशेषा एव स्थास्यथ, मरिष्यथेति यावत् इति = एवम् उक्त्वा स हंसः प्रमील्य-मूळापाप्य स्त्रुतस्यगलितस्य नृपस्य =राशो नलस्य अश्रुग्ाः= अस्रस्य (10 तत्पु० ) सेकात् = सेचनात् बुबुधे - संशां प्राप // 142 // व्याकरण-चुङ कृतैः चुङ / कृ+त मावे / कम्प्रम् =फम्पते इति+/कम्प+रः (नर्मिकम्पि० पा० 3 / 2 / 167) / शिष्यध्वम् शिष् + लोट् ( कर्मकर्तरि प्राप्तकाले ) / . हिन्दी--"बच्चो, देर तक चूँ चूँ करके किसको बुलाकर ( तुम चुंगा माँगोगे ? ) ( और ) किसको ओर मुँह हिलाहिलाकर (घोसले के बी व में दोड़ोगे ? ) ( तुम ) कथामात्र शेष हो जाओ"
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________________ नैषधीयचरिते इस तरह ( कहता हुआ ) वह ( हंस ) मूर्छित होकर राजा ( नल) के गिरे हुए आँसुओं के सिंचन से होश में आया // 142 // टिप्पणी-इस श्लोक में कवि ने करुणरस का बड़ा हृदय द्वावक चित्र खींचा है। हंसको इस करुणोक्ति से राजा नल भी आँसू बहाये बिना न रह सका। शोक के कारण गला रुंध जाने से हंस पूरे-पूरे वाक्य ही नहीं बोल सक रहा है। वैसे तो पूरे पदों को न कहने से न्यूनपदत्व दोष हो सकता था, किन्तु यहाँ न्यूनपदत्व करप्परस को और भी पुष्ट कर रहा है, इसलिए दोष के स्थान में सल्टा वह गुण बन गया है / यथावद् वस्तु-चित्रण होने से हम यहाँ स्वमावोक्ति कहेंगे। शब्दालंकार वृश्यनुपास है // 142 // ... इत्थममुं बिलपन्तममुञ्चद् दीनदयालुतयावनिपालः / रूपमदर्शि धृतोऽसि यदर्थ गच्छ यथेच्छमथेत्यमिधाय // 143 // अन्वयः-दोन-दयालुतया भवनिपाल: 'रूपम् अदशिं यदर्थम् (त्वम् ) धृतः असि, अथ यथेच्छम् गच्छ' इति अभिधाय इत्थम् बिलपन्तम् अमुम् अभुञ्चत् / टीका-दीनेषु = आत्तेंषु दयालोः मावः दयालुता तया = कारुणिकतया ( स० तत्पु०) भवनेः पृथिव्याः पाल:=पालकः राजा नल इत्यर्थः रूपम् = सौन्दर्यम् तवेति शेष अदर्शि= दृष्टम् , यस्मै इति यदर्थम् = ( अर्थेन नित्पसमासः ) ( स्वम् ) पृतः गृहीतः असि / अथ = एतदनन्तरम् ( त्वम् ) इच्छाम् अनतिक्रम्येति यथेचछम् = ( अव्ययीमाव स०) स्वेच्छानुसारं गच्छ = याहि इति=एवम् अभिधाय = कथयित्वा इस्थम् पूर्वोक्त-प्रकारेण विलपन्तम् = विलापं कुर्वन्तम् भमुम् एतम् हंसम् अमुञ्चत्त त्याज // 143 // ग्याकरण-दयालु दयते इति दय् +आलुच् / इत्थम् एतेन प्रकारेणेति इदम् +थम् / अदर्शि/दृश्+लुङ् कर्मवाच्य / हिन्दी-दीनों पर दयावान् होने के कारण राजा ( नल ) ने—( नेरा ) सौन्दर्य देख लिया है जिस हेतु तुझे पकड़ा है / इसके बाद तू जहाँ चाहता है, चला जा' यह कहकर इस तरह विलाप करते हुए उस ( हंस ) को छोड़ दिया // 143 // - टिप्पणी-विद्याधर ने 'यथेच्छम्' में यथा शब्द को देखकर यहाँ उपमा कह दी है, किन्तु हमें यहाँ कहीं भी उपमानीपमेय-भाव देखने में नहीं आ रहा है / केवल 'ममुं' 'मनु' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है / महाकाव्यों में सर्ग के अन्त में छन्द बदलने का नियम होने से कवि ने इस श्लोक में दोधक वृत्त अपनाया है जिसका लक्षण यह है-'दोधकमिच्छति भ-त्रितयाद्गौ' अर्थात् तीन मगण (SI ) और अन्त में दो गुरु / / 143 // मानन्दजाश्रुमिरतुत्रियमाणमार्गान् प्राक्शोकनिर्गमि'तमेव पयःप्रवाहान् / चक्रे स चक्रनिमचक्रमणच्छलेन नीराजनां जनयतां निजबान्धवानाम् // 14 // 1. निर्गलित
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________________ प्रथमः सर्गः अन्वयः-स चकच्छलेन नीराजनाम् जनयताम् निज-बान्धवानाम् प्राक: प्रवाहान् आनन्दाअमिः अनुस्रियमाणमार्गान् चक्रे / टीका-सः= हंसः चक्रेण सदृशम् चक्रनिमम् = ( तृ० तत्पु० ) चक्राकार मित्यर्थः यत् चक्रमणम् = पुनः पुनः भ्रमणम् (कर्मधा०) तस्य छलेन=मिषेण ( 10 तत्पु०) नीराजनाम्पारात्रिकम् जनयताम् = कुर्वताम् निजाः= स्वीयाः ये बान्धवाःबन्धु-मित्राणि ( कर्मधा०) तेषाम् प्राक-प्राक्=पूर्वम् नलकर्तृकस्वग्रहणसमये इत्यर्थः यः शोकः ( सुप्सुपेति समासः ) तेन निगमिता:-निर्गन्तुं प्रेरिताः साविता इत्यर्थः ये नेत्र-पयः-प्रवाहाः ( कर्मधा० ) नेत्राणां पयसः प्रवाहाः ( उभयत्र प. तत्पु० ) तान् अश्रु-पूरान् भानन्द-जानि = आनन्दात् जायन्ते इति तथोतानि ( उपपद तत्पु० ) हर्षोत्पन्नानि यानि अणि तैः ( कर्मधा० ) अनुत्रियमाणः = अनुगम्यमानः मागा- पन्थाः येषां तयाभूतान् ( ब० ग्री०) चक्रे अकरोत् / पूर्व नलेन गृहीते हसे ते शोकापि, मुक्ते च भानन्दाअणि प्रामुञ्चन् / बम्धनात् मुक्तं पक्षिणं तज्जातीया अन्यपक्षिणः परितो भ्रमन्नि शम्दा. यन्ते चेति पक्षिस्वभावः // 144 // व्याकरण-अनुस्त्रियमाण-अनु +/स+शानच् कर्मवाच्य / निर्गमित-निर्+/ गम् +णिच्+क्तः कर्मणि / चङ क्रमम् पुनः पुनः अतिशयेन वा इस अर्थ में किसी भी धातु से या प्रत्यय लगाकर धातु को द्वित्व किया जाता है और वह आत्मनेपद बनता है, जैसे-पुनः पुनः मवतोति/भू+यङ्बोभूयते, पुनः पुनः पश्यति /दृश् दरोदृश्यते। इसी तरह यहाँ भी कम्से चकम्यते बनाकर भाव में ल्युट् प्रत्यय से चक्रमणम् बनता है। हिन्दी-उस हंस ने चक्र की तरह बार-बार घूमते रहने के बहाने ( उसकी) आरती करते हुए अपने माई-बन्धुओं के ( नेत्रों के ) जिस मार्ग से पहले शोक के आँसू बहे थे, उससे ( अब ) हर्ष के आँसुओं के प्रवात बहवाये // 144 // टिप्पणी-नीराजना-इसके लिए पीछे का दसवा श्लोक देखिये। कारागार से छूटकर आये व्यक्ति का जिस तरह स्वागत और आरती की जाती है, उसी तरह राजा नल के बन्धन से छूट आये अपने भाई की अन्य हंस भारती उतारने लगे। वैसे देखा जाय, तो नीराजन अपने मूल रूप में पहले एक सैनिक विधि थी। आश्विन में जब राजे लोग युद्ध हेतु निकला करते थे, तो उनकी एवं घोड़े आदि की मांगलिक रूप में आरती उतारी जाती थी जिससे उन्हें विजय मिले। धोरे-धीरे यह प्रथा आन साधारण मंगलाचार के रूप में परिवर्तित हो गई है। जहाँ तक नीराजन शब्द की व्युत्पत्ति का प्रश्न है, हमारे विचार से यह निः+ राज्+पिच्+ल्युट से बना है, इसीलिए माघ ने 'क्षमापतीनिति निरराजयशिव (1716 ) प्रयोग किया है। प्रबोधचन्द्रोदय नाटक में मी 'नीराजयन्ति भूपालाः पादपीठान्तभूतलम्' प्रयोग मिलता है। इसमें कपूर अथवा बत्तियाँ वायकर व्यक्ति आदि का 'निः-निःशेषेण ( अच्छी तरह ) राजनम् +दीपनं क्रियते'। इस श्लोक में हंसों का इर्दगिर्द चक्कर काटने में यथावत् वस्तु-वर्णन से स्वभावोक्ति और चच्कर काटने का अपहन करके उसपर नीराजन की स्थापना करने से अपहृति है। 'चक्र' 'चक्र' में छेक, प्रथम और द्वितीय पाद के
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________________ 120 नैषधीयचरिते अन्त में 'आन्''आन्' का तुक मिलने से अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। श्लोक में वसन्ततिलका वृत्त है जिसका लक्षण है- 'उक्ता वसन्ततिलका त-भ-जा जगौ गः' अर्थात् तगप (SS ) भगण ( SI ) जगण ( 1 ) नगण (ISI) और दो गुरु / सर्ग के अन्त में कवि ने मगल-रूप आनन्द शब्द का प्रयोग किया है और यह भानन्द शब्द सारे काव्य के प्रत्येक सर्ग के अन्त में मिलेगा। यह कवि को एक तरह से अपनी व्यक्तिगत छाप समझिए जैसे भारवि ने अपने किरातार्जुनीय काव्य के प्रत्येक सर्ग के अन्तिम श्लोक पर 'लक्ष्मी' की छाप लगा रखी है। श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रोहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / तच्चिन्तामणिमन्त्रचिन्तनफले शृङ्गारभङ्ग्या महा ___ काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गोऽयमादिर्गतः // 145 // अन्धयः-कवि."होरः श्रीहीरः मामल्लदेवी च यं मितेन्द्रिय-चयम् श्रीहर्षम् सुतम् सुषुवे, तचिन्ता. फले शृङ्गाररस-भङ्गया चारुणि नैषधीयचरिते महाकाव्ये अयम् आदिः सर्गः गतः / टीका-कविषु राजानः इति कविरानाः श्रेष्ठकवयः ( स० तत्पु०) तेषां राजिः= पङ्किः तस्याः मुकुटानाम् = किरीटानाम् अलंकार:= भूषणभूतः (10 तत्पु० ) होरः=होरकसंशकरत्न विशेषः श्रीहीरः एतन्नामा पिता मामल्लदेवी= एतदाख्या माता च यम् इन्द्रियाणां चयःसमूहः इन्द्रियचयः (10 तत्पु० ) जितः= वशीकृत इत्यर्थः इन्द्रियचयः ( कर्मधा० ) येन तथा भूतम (ब० वी०) श्रीहर्षम् - श्रीहर्षनामानम् सुतम् = पुत्रम् सुषुवे = उत्पादयामास तस्य-श्रीहर्षस्य चिन्तामणिमन्त्रस्य = एतन्नामक-मन्त्रविशेषस्य यत् चिन्तनम् = ध्यानम् जपादिकम् उपासनेति यावत् तस्य फले = परिणाम रूपे ( सर्वत्र प० तत्पु० ) शृङ्गारश्चासौ रसः ( कर्मधा० ) तस्य भङ्गया रचनाविशेषेण (10 तत्पु० ) चारुणि = सुन्दरे नैषधस्येदं' नैषधीयम् - नैषधसम्बन्धि चरितम् - चरित्रम् ( कर्मधा०) यस्मिन् तथाभूते ( ब० वी०) महाकाम्ये = महच्च तत् काव्यं तस्मिन् (कर्मधा० ) 'सर्गबन्धो महाकाव्यमित्युक्तलक्षणे रचनाविशेषे अयम् एष भादिःप्रथमः सर्गः गतः समाप्त इत्यर्थः। इति श्रीमोहनदेव-पन्तशास्त्रिणा प्रणीतायां 'छात्रतोषिण्यां' प्रथमः सर्गः। मन्मथोद्भेद. तत् प्रारयति = आगमयति इति शृङ्ग+Vऋ+णिच् पा कर्तरि / नैषधीयम् =नैषा +छ। नैषध शब्द के लिये पीछे श्लोक 36 देखिये। हिन्दी-श्रेष्ठ कवि-मण्डली के मुकुटों के मूषण रूप होरे श्रीहोर तथा मामल्क देवी ने इन्द्रिय गण को जीतने वाले जिस भीहर्षको जन्म दिया, उसके (रचे) चिन्तामणि मन्त्र के चिन्तन-फल रूप, शृङ्गार रस की रचना से सुन्दर बने 'नैषधीयचरित' महाकाव्य में प्रथम सर्ग समाप्त हुआ।। 145 // टिप्पणी-यह अन्तिम श्लोक कथानक से सम्बन्ध न रखकर कवि का व्यक्तिगत परिचय दे रहा है कि उसके पिता का नाम महाकवि-मूषण श्रोहोर और माता का नाम मामल्ल देवी था। इस कान
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________________ प्रथमः सर्गः 111 को लिखने की शक्ति उसे चिन्तामणि मन्त्र के जप और ध्यान से प्राप्त हुई है। वह चिन्तामणि मन्त्र क्या है-इसके सम्बन्ध में कवि यहाँ कुछ न बताकर सर्ग 14 के श्लोक calct में बता गया है। यहाँ प्रसंग-वश उन श्लोकों को उधृत करना मनुचित नहीं होगा। पहले में मन्त्र और दूसरे में उसका फल है। वे ये हैं अवामावामाधैं सकलमुमयाकार घटनाद् द्विधाभूतं रूपं भगवदमिधेयं भवति यत् / तदन्तमन्त्रं मे स्मर हरमयं सेन्दुममतं निराकाथं शश्वज्जप नरपते. सिध्यतु स ते // क्योंकि मन्त्र गुह्य गोप्य हुआ करते हैं, इसलिए कविने गहन-गूद माष में उसे यहाँ छिपा रखा है। टीकाकार 'यदा' 'यदा' करके कठिनता से उसे ढूँढ पा रहे हैं। हम यहाँ चाण्डूपण्डित की व्याख्या उदधृत करते हैं, जिसे हम ठीक समझते हैं 'बामे अर्धे = वामपक्षाधे प्रथमम् अवा = ॐकारेण मथा कामकारेण ॐकारेणेत्यर्थः यत् रूपं द्विधादिप्रकारं भूतं सत् = द्वितीयेन ॐकारेण दक्षिणाधेऽपि भूतम् - प्राप्तम् भगवदभिधेयं भवति ब्रह्मवाचकम् / किंभूतम् -उसयाकारस्य = ॐकारद्वयस्य घटनात्मे लनात् सकलम् / तदन्तः तयोः ॐकारयोरन्तः- मध्ये हरमयम् =ईश्वरमयम् मन्त्रं मम स्मर / अथ च हकारो रेफकारो मकार ईकारश्च / चतुष्टयेऽपि अकार उच्चारणार्थः। ईकारस्य पुरत: अकारस्य सुखाच्चारणार्थ य आदेश हीकारः। उमयपक्षे ॐकारेण संपुटित इत्यर्थः / सेन्दुम् =अर्घमात्रायुक्तम् / ' ____ मावार्थ यह निकला कि वायीं ओर और दायीं ओर ब्रह्मा चक मोम्' रखो जिसे संपुट कहते उन दोनों प्रोकारों के बीच में सेन्दु = अर्धचन्द्र के साथ हर म-य' रखो। मुखोच्चारण हेतु यहाँ ईकार के स्थान में यकार कर रखा है। इन सभी में अकार केवल उच्चारणार्थ है। सबको जोडकर अर्थात् ह+र+म् +ई+अर्धचन्द्र मिलकर='ही रूप 'ॐ ह्रीं ॐ निकलता है। यही चिन्तामणि मन्त्र है। तान्त्रिक माषा में नारायण ने इसमें प्रमाण दिया है-'शिवान्त्यो वहिसंयुक्तो ब्रह्मद्वितयमन्तरा / तुरीयस्वरशीतांशुरेखातारासमन्वितः // एष चिन्तामपि म मन्त्रः सर्वार्थसाधकः जगन्मातुः सरस्वत्या रहस्यं परमं मतम् // [शिव-ह, वहिः- रेफ, ब्रह्मान् = प्रणव, तुरीयस्वरः= 'शीतांशु रेखा चन्द्रकला अर्धचन्द्र तारा-विन्दुः%ॐ ह्रीं ॐ / इस सारस्वत चिन्तामणि मन्त्र की फलश्रुति कवि ने दूसरे श्लोक में इस प्रकार बताई है : सर्वाङ्गीय-रसामृत-स्तिमितया वाचा स वाचस्पतिः, स स्वगाय-मृगोदशामपि वशीक राय मारायते। यस्मैयः स्पृहयत्यनेन स तदेवाप्नोति किं भूयसा,येनायं हृदये स्थितः मतिना मन्मन्त्र-चिन्तामणिः। बह चिन्तामणि मन्त्र प्रकट होकर स्वयं भगवती सरस्वती ने राजा नल को जपने को कहा था। आगे इसका विधान मी बता रखा है। कवि के व्यक्तिगत परिचय वाले श्लोक में श्रीहोर पर हीरत्वारोप होने से रूपक है। 'होरः' 'हीर' में यमक 'चिन्ताः 'चिन्त' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 145 / / / नैषधीय-चरित काव्य का प्रथम सर्ग समाप्त / /
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________________ हमारे महत्त्वपूर्ण छात्रोपयोगी प्रकाशन [जिनमें मूल पाठ के साथ संस्कृत-हिन्दी टीका, भूमिका, नोट्स एवं अन्य छात्रोपयोगी सामग्री है] अभिज्ञानशकुन्तलम् / सुबोधचन्द्र पन्त उत्तररामचरित आनन्दस्वरूप कादम्बरी (कथामुख) रतिनाथ झा काव्यदीपिका परमेश्वरानन्द किरातार्जुनीय (1-6 सर्ग) जर्नादन शास्त्री पाण्डेय चन्द्रालोक सुबोधचन्द्र पन्त नागानन्द नाटक संसारचन्द्र नीतिशतक जनार्दन शास्त्री प्रतिमानाटक श्रीधरानन्द शास्त्री प्रसन्नराघव रमाशंकर त्रिपाठी बालचरित कमलेशदत्त त्रिपाठी भट्टिकाव्य पाण्डेय-शुक्ल (1-4 सर्ग) मृच्छकटिक रमाशंकर त्रिपाठी मालविकाग्निमित्र संसारचन्द्र मेघदूत संसारचन्द्र रघुवंश महाकाव्य ( सम्पूर्ण) धारादत्त शास्त्री रत्नावलीनाटिका रमाशंकर त्रिपाठी वेणीसंहार रमाशंकर त्रिपाठी शिशुपालवध (1-4 सर्ग) जनार्दन शास्त्री पाण्डेय स्वप्नवासवद साहित्यदर्पणनमित्र सौन्दरनन्दक हितोपदेशे: झिाव्य (सम्पूर्ण) धारादत्त शास्त्री रमाशंगीत्रिपाठी मरसादास दिल्ली * मुम्बई * कलकत्ता * चेन्नई * बंगलौर पुणे : वाराणसी * पटना मूल्यः रु०२८ रमाशंक विद्यालंकार संसारचम शास्त्री संसारचन्द्र पारी का