________________ प्रथमः सर्गः दिगीशवृन्दांश विभूतिरीशिता दिशां स कामप्रसरावरोधिनीम् / बमार शास्त्राणि दृशं द्वयाधिका निजत्रिनेत्रावतरत्वबोधिकाम् // 6 // अन्वयः-दिगो...विभूतिः दिशाम् ईशिता सः शास्त्राणि काम...नीम् निज...धिकाम् दयाधिकाम् दृशम् बभार / टीका-दिगी. दिशाम् ईशाः (10 तत्पु० ) इन्द्रादयोऽष्टदिक्पालाः तेषां वृन्दम् (10 तत्पु०) समूहः तस्य अंशः (10 तत्पु० ) मात्राभिः विभूतिः ( तृ० तत्पु०) उत्पत्तिः यस्य तथा भूतः (ब० वी०) दिशाम् = आशानाम् ईशिता=ईश्वरः शासितेत्यर्थः, सः नलः शास्त्राणि - निगमागमात्मकानि काम-कामस्य इच्छायाः स्वेच्छाचारस्येति यावत् , मदनस्य च यः प्रसर:विस्तारः प्राबल्यमित्यर्थः (प० तत्पु० ) तम् अवरुणद्धि निवारयति अन्यत्र समापयति दहतीत्यर्थः इति तथोक्ताम् ( उप० तत्पु०) निज०-त्रीणि नेत्रापि यस्य सः (ब० वी० ) त्रिनेत्रः शिवः तस्य अवतर:=अवतारः (10 तत्पु०) निजश्चासौ त्रिनेत्रावतरः ( कर्मधा० ) तस्य भावः तत्त्वम् तस्य बोधिकाम् (10 तत्पु० ) ज्ञापिक'म् अर्थात् स साक्षात् शिवावतारः इत्यस्य सूचिकाम् द्वयात प्रधिका अतिरिक्ता ताम् तृतीयामित्यर्थः ( पं० तत्पु० ) हशम् = चक्षुः बभारदधौ / शिवी त्रिनेत्रः अस्यापि तृतीयं नेत्रं शास्त्रमिति मावः // 6 // व्याकरण-ईशः-ईष्टे इति श्+क ( कर्तरि ) विभूतिः-वि+Vs+क्तिन् (मावे)। ईशिता = ईश्+तृच ( कर्तरि ) / प्रसरः-प्र+V+अप ( भावे ) / रोधिनीम्-Vs+ पिन् ( ताच्छील्ये ) / अवतरस्व-यहाँ अव पूर्वक तृ धातु से 'अवे -बोर्षम्' ( पा० 3 / 3 / 120) से घञ् का विधान होने से 'अवतारः' बनेगा, 'अवतरः' नहीं, अतः यहाँ तृ धातु से ऋदोरम् (पा० 2 / 3 / 57 ) से भाव में अप् प्रत्यय करने के बाद 'अ' उपसर्ग का 'तरः' से 'सुप्सुग' से समाल करके 'अवतरः' बनाइये। हिन्दी-दिक्-पालों के समूह के अंशों से उत्पन्न, दिशाओं के स्वामी उस ( नल ) ने अपने को महादेव का अवतार बनाने वाली दो से अधिक ( अर्थात् तीसरी) आँख शास्त्रों के रूप में धारण कर रखी थो // 6 // टिप्पणी-दिगीश०-नारायण ने यहाँ 'दिगीशवृन्दे अंशेन विभूतिः ( ऐश्वर्यम् ) यस्य सः 'ऐसा विग्रह करके यह विकल्पार्थ सिद्ध किया है कि नल तो 'दिशाम् ईशिता' था जब कि दिक्पाल एक-एक दिशा के ईशिता थे, उनमें नल का आंशिक ऐश्वर्य ही था। इस तरह नल में अधिकता बताने के कारण यहाँ व्यतिरेकालंकार है। विद्याधर ने 'अत्रोपमालङ्कारः' कहा है, क्योंकि नल की महादेव से तुलना को गई / महादेव त्रिनेत्र हैं, नल मी शास्त्ररूपी ने रखकर त्रिनेत्र है, महादेव कान ( मदन ) का प्रसर उसे भस्म करके रोक देते हैं, नल भी काम (इच्छा ) अर्थात् शास्त्र-शन के कारण अपना और लोगों का भी स्वेच्छाचार रोक देता है। शास्त्रों पर नेत्रत्वारोप होने से रूपक है / लोकरालों का अंश लेकर उत्पन्न होने वाले राजा के सम्बन्ध में देखिये मनुस्मृति:-'यस्मादेषां सुरेन्द्राणां मात्राभ्यो निर्मितो नृपः' / अपि च-'अष्टानां लोकपालानां वपुर्षारयते नृपः // 6 //