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________________ नैषधीयचरिते बष्टादशसंख्याकता ताम् भगाहप्राप अर्थात् नलेन पूर्वोक्त-चतुर्दश-विद्यामिः सह 'आयुर्वेदो बनुवेदो गान्धर्वश्चार्थशास्त्रकम्' इत्युक्त-चतुर्विधानाम् अपि परिशीलनेन अष्टादश-विद्या-पारंगतत्वं कन्धमासीत् // 5 // म्याकरण-रसना-रस्यते अनयेति स्+युच् (करणे )+टाप् / नतंकी-नृत्यतीति नृत्+वुन् ( कर्तरि )+ङीप् / विस्तरम्-वि+/स्तृ+अप् (मावे ) / यी-त्रयोऽयवा अत्रेति त्रि+अयच्+डीप् / जिगीषा=जेतुमिच्छेति जि+सन्+म+टाप् / द्वयम् -द्वौ अवयवो अति द्वि+अपच् / जयः-/जि+अच् ( मावे ) / हिन्दी-जिह्वा की नोक पर नाचनेवाली उस ( नल ) की विद्या बङ्गों के गुणने से विस्तार को प्राप्त हुई वेद-त्रयी की तरह अठारह द्वोपों को पृथक्-पृथक् विजयलक्ष्मियों को जीतने की इच्छा से (मानो ) अट्ठारह हो गई // 5 // . टिप्पणी-पूर्वोक्त श्लोक में बताई हुई 14 विद्याओं में आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्व और अर्थशान-इन चारों को जोड़कर विद्याओं की संख्या 18 हो जाती है जो नल की जिला की नोक पर बी। इसकी तुलना त्रयी से की गई। त्रयी तीन वेदों को कहते हैं। उनमें प्रत्येक के अपने-अपने पृथक् छ:-छ; अङ्ग-शिक्षा, कल्प, व्याकरण निरुक्त छन्द और ज्योतिष-होते हैं। इस तरह' त्रयी मो छः से गुणा करके अठारह है। यहाँ मल्लिनाथ ने यह शंका उठाई है कि वेद तो चार होते हैं, भापर्वण चौथा वेद है। इसलिए-"अङ्गानि वेदाश्चरवार इत्याथर्वणस्य पृथग्वेदत्वे त्रयीत्व-हानि:, अव्यनन्तर्भावे नाष्टाद शवसिद्धिरिति चिन्त्यम्" अर्थात् त्रयी में आथर्वण जुड़ जाने से उसके भी छः अङ्गों के साथ त्रयो 24 हो जायेगो, अट्ठारह नहीं / इसे मल्लि० ने 'चिन्त्यम्' कहकर छोड़ दिया है, समाधान कोई नहीं किया / वस्तुतः देखा जाय, तो वेद चार हो हैं, त्रयी के साथ उसका कोई विरोध नहीं। कारण यह है कि संहिताओं की दृष्टि से विचारें, तो वेद की संहितायें चार हैं, किन्तु यदि चारों का वाक्य-निर्माण देखा जाय, तो वह पद्य, गध और पद्य-गद्योभयात्मक-तीन प्रकार का मिलेगा। ऋक् और साम पद्यात्मक हैं, यजुः गद्यात्मक है तथा आथर्वण उमयात्मक है, इसलिए वाक्य-निर्माण की दृष्टि से चार वेदों को 'त्रयो कह देते हैं। प्रकृत में त्रयी के भीतर आथर्वण स्वतः आया हुआ ही है, अतएव कवि का 18 कहना कोई 'चिन्त्य' नहीं। नारायण ने 'रसना' शब्द के आधार पर विद्या से पाक-विद्या का मो ग्रहण किया है जिसमें नल पारंगत थे और उसके 18 भेद बताये, किन्तु यह खींचातानी है। नवद्वयद्वीप०-वैसे यदि बड़े-बड़े दीपों को ले तो पृथिवी को 'सप्त-दोपा वसुन्धरा' कह रखा है। पुराणानुसार सात द्वीप हैं-जम्बू, लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्रौत्र, शाक और पुष्कर / इनमें से सब से बड़ा जम्बूदोष ( एशिया ) है, जिसमें भारतवर्ष स्थित है। लेकिन छोटे-मोटे 11 दीप और मिलाकर अट्ठारह हो जाते हैं / वे 11 १-कुरु, चन्द्र, वरुण, सौम्य, कुमारिक, गभस्तिमान् , रुममान, ताम्रपर्ण, कशेरू और इन्द्र। ___ इस श्लोक में नल की विद्या का प्रयी से सादृश्य बताया गया है, इसलिए उपमा और जिगीषवा में गम्योत्प्रेक्षा होने से दोनों की संसृष्टि है / / 5 / /
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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