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________________ प्रथमः सर्गः वहाँ का हो सकती है कि अधीति शब्द की अपेक्षा बोध शब्द अल्पाच् होने के कारण दन्द्र में पहले आना चाहिए था, पीछे नहीं, किन्तु स्मरण रहे कि इसका अपवाद 'अभ्यहिंतं च' है अर्थात् मुख्य चीज अल्पाच से पहले आ जाती है, मुख्य तो अध्ययन ही है, शान तो बाद की बात है। प्रवन्--प्र-नी+शत् / हिन्दी-यह (न्ल ) 'चतुर्दश' ( चौदह ) विद्याओं में अध्ययन, शान, आचार और प्रचार(इन चार ) प्रकारों से चार अवस्थाएँ बनाता हुआ स्वयं 'चतुर्दशत्व' (चौदह संख्या कैसे कर बैठा-( यह बात मैं ) समझ नहीं पा रहा हूँ // 4 // टिप्पणी-चतुर्दशत्वम्-यहाँ कवि ने चतुर्दश शब्द में श्लेष रहकर एक पहेली-सी खड़ी कर दी है। विद्यार्य चतुर्दश चौदह होती हैं ("अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा-न्यायविस्तरः। पुराणं धर्मशास्त्रश्च विद्या घेताश्चतुर्दश // ") नो स्वयं ही 'चतुर्दश' हैं, उन्हें फिर 'चतुर्दश' करना पिष्टपेषण न्याय से विरुद्ध बात है। इस विरोध का परिहार 'चतुर्देश' शब्द का 'चतस्रः दशा यासा ता. इस तरह ब० बी० करके किया जा सकता है अर्थात् उसने चौदह विद्याओं को चौदह संख्या वाला नहीं, अपितु ( अधीति आदि ) चार अवस्थाओं वाला बनाया-स्वयं पढ़ा, समझा, आचरण में लाया और प्रचार भी किया। इस तरह यहाँ विरोधाभास अलंकार है। जहाँ विरोध-जैसा हो, वास्तविक विरोध न हो, वहाँ विरोधाभास होता है। यह हमेशा श्लेषगर्भित रहता है। किन्तु नरहरि एक नया ही विकल्प देकर यहाँ विरोधाभास की जड़ ही काट गये। उनका कहना है-"यद्वा चतुर्दशसु विद्यासु चतुर्दशत्वं कुतो न कृतवान् = कया युक्त्या न कृतवान् , अपि तु सर्वथापि कृतवान् इति वेनि" / वे "न शब्द का वेभ से अन्वय नहीं करते, काकु बना देते हैं अर्थात् क्या नल ने चौदह (चतुर्दश) विद्याओं की 'चतुर्दशता' चार अवस्थायें-नहीं बनाई ? अपि तु बनाई। इस तरह यह काकु वक्रोक्ति है। प्रथम पाद के 'चरप' 'चारणै' में छेकानुप्रास और तीसरे एवं चौथे पाद के 'स्वयं' 'स्वयम्' में यमक है // 4 // भगाहताष्टादशतां जिगीषया नवद्वयद्वीपपृथग्जयश्रियाम् // 5 // अन्वयः- रसनाय-नर्तको अमुष्य विद्या अङ्ग-गुणेन विस्तरं नीता त्रयी इत्र नव श्रियां जिगोषया अष्टादशताम् अगाहत। टीका-रसना०-रसनायाः अग्रम् ( 10 तत्पु० ) तस्मिन् नतंको ( 10 तत्पु० ) जिह्वाग्र-. मागे स्फुरन्तीत्यर्थः, अस्य = नलस्य विद्या = पूर्वोक्ता चतुर्दशश्कारा, अङ्ग-मनानाम् 'शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्द एव च। ज्यौतिषञ्च षडङ्गानि वेदस्याहुर्मनीषिणः” इत्यात्मकानाम् गुणेन = गुप्पनेन (10 तत्पु०) विस्तरम् विस्तारम् वृद्धिमिति यावत् नीता=प्रापिता प्रयी= वेदत्रयी व नव०-नवानां द्वयम् (10 तत्पु० ) अष्टादशेत्यर्थः च ते दीपाः ( कर्मधा० ) तेषां पृथग= मिन्नाः या जयश्रियः (10 तत्पु० ) जयसूचिकाः श्रियः जयश्रियः (मध्यमपदलो० स०) तासाम जिगीषया=जेतुमिच्छा जिगीषा तया जयेच्छयेत्यर्थः अष्टादशानां भावः अष्टादशता
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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