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________________ नैषधीयचरिते पदैश्चतुर्मिः सुकृते स्थिरीकृते कृतेऽमुना के न तपः प्रपेदिरे / भुवं यदेकाविकनिष्ठया स्पृशन् दधावधर्मोऽपि कृशस्तपस्विताम् // 7 // अन्वयः-अमुना कृते सुकृते चतुभिः पदैः स्थिरीकृत ( सति ) के तप: न प्रपेदिरे ? यत् कृशः अधर्मः अपि एकाधिकनिष्ठया भुवम् स्पृशन् तपस्विता दधौ // ____टीका-अमुना=अनेन नलेनेत्यर्थः कृते सत्ययुगे ( युग-पर्याप्तयोः कृतम्' इत्यमरः ) सुकृते = धर्मे ( 'स्याद् धर्ममस्त्रियां पुण्यश्रेयसी सुकृतं वृषः' इत्यमरः) चतुर्मिः = चतुःसंख्यकैः पदैः= पादैः स्थिरीकृते = निश्चलीकृते इति यावत् ( सति ) के जनाः तपः= तपस्या न प्रपेदिरे - प्रापुः अपि सर्वे एव तपश्चरन्तो धर्मपरा बभूवुः, यत् यतः कृशः = दुर्बलः क्षोण इति यावत् अधर्मः अपि एका०-एकः अधिः पादः ( द्विगु ) यस्या तथाभूता (ब० वी० ) या निष्ठा= स्थितिः तया एकचरणस्थित्या इति यावत् भुवम् = पृथिवीम् स्पृशन् = स्पर्शविषयोकुर्वन् तपस्विताम् = तापसस्वम् अथ दीनत्वम् ('मुनि-दोनौ तपस्विनौ' इति विश्वः ) दधौ = दधार / अधर्मोऽपि तपस्यति स्म अन्येषां तु वातव का इति मावः // 7 // व्याकरण-स्थिरीकृते = अस्थिरे स्थिरे सम्पद्यमाने कृते इति स्थिर+च्चि+/+क्त ( कर्मणि ) / प्रपेदिरे=+/पद् +लिट् ब० व० / निष्ठा-नि+ स्था+अ+टाप् / तपस्विताम् तपः अस्यास्तीति तपस् +विन् (मतुबर्थ )+तल् ( मावे ) / हिन्दी-उस ( नल ) के द्वारा सत्य युग में धर्म के चारों पैरों पर स्थिर कर दिये जाने पर कौन तप नहीं करने लगे थे ? क्योंकि दुर्बल हुआ पड़ा अधर्म भी एक पैर से खड़ा है। पृथिवी को छूता हुआ तपस्त्री ( तापस, दोन ) बन बैठा था // 7 // टिप्पणी-सत्युग में धर्म के चार पैर होते हैं, जिन्हें नारायण ने इस तरह गिनाया है :सत्य, अस्तेय, शम और दम अथवा तप, दान, यश और ज्ञान / अधर्म का एक ही पैर होने से उसका दुर्वल पड़ना स्वाभाविक ही है। उसपर कवि की कल्पना है कि वह भी एक पैर से खड़ा हो तप कर रहा था जैसे कि उस समय सभी किया करते थे। यहाँ मल्लि० ने 'एकाधि-कनिष्ठया' का एका : कनिष्ठया = कनिष्ठिकया ( छिगुनी से ) अर्थ किया है। यहाँ 'कृते' 'कृते' में यमक है। विद्याधर के अनुसार यहाँ 'अधोऽपि तपस्वितां दधौ' यह विरोधाभास है, जिसका परिहार 'तपस्विताम्' का 'दीनताम्' अर्थ करके हो जाता है अर्थात् कृश बना हुमा अधर्म लाचार बन गया / मल्लि० ने 'अधर्म मो जब तप करने लग गया तो औरों को तो बात हो क्या। इस तरह कैमुत्य-न्याय से अर्थापत्ति अलंकार माना है // 7 // यदस्य यात्रासु बलोद्भुतं रजः स्फुरत्प्रतापानलधूममझिम / तदेव गत्वा पतितं सुधाम्बुधो दधाति पङ्कीमवदकतां विधौ // 8 // अन्वयः-अस्य यात्रासु स्फुर...जिम बलोद्धतम् यत् रजः ( आर्स त् ) तत् एव गत्वा सुधाम्बुधौ पतितम् पङ्कीभवत् विधौ अङ्कताम् दधाति / टोका-भस्य = नलस्य यात्रासु= दिग्विजयामियानेषु इत्यर्थः / स्फुर०-स्फुरन् प्रकाशमानः
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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