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________________ प्रथमः सर्गः प्रतापः तेजः एव अननः= वह्निः (कर्मधा० ) तस्य यः धूमः (10 तत्पु. ) तस्य मञ्जिमा सोन्दर्टम् (10 तत्पु० ) इव मञ्जिमा यस्य तथाभूतम् (ब० बी० ) बलेन=सेनया उद्धतम् - उत्क्षिप्तम् यत् रजा-धूलिः (आसीत् ) तत् एव गरवा = प्रसृत्य सुधायाः- अमृतस्य भम्बुधिः= समुद्रः क्षीरसागरः तस्मिन् ( 10 तत्पु० ) पतितम्=च्युतम् पतोमवत्-कर्दमरूपे परिणममानम् विधी- चन्द्रे अङ्कस्य भावः अकृता ताम् चिह्नत्वमिति यावत् दधाति = धारयति अर्थात् क्षीरसागरात उदयमानो विधुः कर्दमचिहितो भूत्वेव निस्सरति // 8 // व्याकरण-स्फुरत- स्फुर+शत / मञ्जिमा = मोः भाव इति मन्जुइमनिच / ध्यान रहे कि इमनिच से बने महिमा मन्जिमा आदि सभी शब्द पुल्लिङ्ग होते हैं, न कि स्त्रीलिंग / अम्बुधिः-अम्बु ( जलम् ) धीयते भत्रेति अम्बु+/धा+कि ( अधिकरणे ) / पवीभवत् = अपङ्कः पङ्कः सम्पद्यमानं भवत् इति पक+च्चि+/भू+शत। हिन्दी-इस ( नल ) की विजय-यात्राओं में चमकते हुए प्रताप-रूपी अग्नि के धुएँ की तरह मनोहर, सेना द्वारा उड़ाई हुई जो धूलि ( थी ) वहीं जाकर क्षीर-सागर में पड़ी ( और / कोचर बनती हुई चन्द्रमा में कलंक का रूप धारण कर रही है // 8 // हिप्पणी--प्रकृताम्-वैसे चन्द्रमा में काला धब्बा स्वभावतः रहता है, लेकिन कवि की अनोखी कल्पना देखिये कि मानो नल की सेना के चलने से उठी और समुद्र में गिरी धूलि से बना कीचड़ चन्द्रमा पर लग गया हो / सूर्य और चन्द्रमा अस्त-समय समुद्र में डूब जाते हैं और फिर समुद्र से ही उदय होते है-यह मारतीयों की धारणा है। किन्तु यहाँ कल्पना-उरप्रेक्षाका वाचक व आदि शब्द कोई नहीं है, अतः यह गम्योत्प्रेक्षा है। प्रताप पर अनलव का आरोप होने से रूपक है। परस्पर निरपेक्ष होने से दोनों की हम यहाँ तिल तंडुल न्याय से संसृष्टि कहेंगे // 4 // स्फुरद्धनुर्निस्वनतद्धनाशुगप्रगल्मवृष्टिव्ययितस्य सगरे / निजस्य तेज:शिखिनः परशता वितेनुरिङ्गालमिवायशः परे // 9 // अन्वयः-सङ्गरे परःशता: परे स्फुरद्...व्ययितस्य निजस्य तेजः-शिखिनः इङ्गालम् इव अयशः वितेनुः। टीका-सगरे=संग्रामे ('प्रतिशाजि-संविदापरसु सङ्गरः' इत्यमरः) पर:०शतात् परे इति पर:शताः ( पं० तत्पु०) शतशः इत्यर्थः परेशत्रवः स्फुरद् धनुश्च निस्वनश्चेति धनुर्निस्वनीचापः तहकारश्च (द्वन्द ) अन्यत्र इन्द्रचापः, गजितश्च स्फुरन्तौ प्रकाशमानौ धनुनिस्वनी (कर्मधा०) यस्य अब च यत्र तयाभूतः ( ब० वो०) चासौ सः नलः ( कर्मधा० ) एव धनः- मेघः (कर्मधा०) तस्य भाशुगानाम्-वाणानाम् (10 तत्पु०) प्रगहमा-महतो वृष्टिः अन्यत्र आशु गच्छतीति आशुगाशीघ्रगामिनी चासौ प्रगल्मा वृष्टिः (कर्मधा०) तया व्ययितस्य-निर्वापितस्य निजस्य= स्वकीयस्य तेजः= प्रतापः एव शिखी= अग्निः ( कर्मधा० ) तस्य इसालम उल्मुकम् अयशः= अपकीर्तिम् वितेनुः = विस्तारयामासः, अर्थात यथा मेषः गर्जन् धारासारेणाग्निमुपशमयति, तथैव नलोऽपि स्ववाणपरम्पराभिः शर्मा शौर्यामिमानम् अमन // 9 //
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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