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________________ नैषधीयचरिते __ व्याकरण-परःशताः-'शतात् परे' में 'राजदन्तादिषु परम्' (पा० 2 / 2 / 31) से पर शब्द का पूर्व निपात तथा पारस्करादित्वात् सुडागम / निस्वनः-नि+Vवन् + अप् ( मावे ) व्यथितस्य-वि+/अय्+क्त (कमणि) हिन्दी-युद्ध में सैकड़ों शत्र चमकते हुए धनुष ( चाप, इन्द्रधनुष ) एवं निस्वन ( टंकार, गड़गड़ाहट ) वाले नल-रूपी मेघ के आशुगों ( बाणों, जोर ) की बड़ी मारी वर्षा से बुझे हुऐ अपने तेज-रूपी अग्नि के अंगारे-जैसे अपयश को फैला देते थे // 9 // टिप्पणी-स्फुरत्-यहाँ कवि शब्दों में श्लेष रखकर नल को मेघ और शत्रओं के तेज को आग बना रहा है। चमकते हुए इन्द्र धनुष और गर्जन को साथ लेकर मेव बोर की वृष्टि से आग को बुझा देता है / नल भी चमकते हुए अपने चाप और उसको टंकार-ध्वनि के साथ बाणों की बौछार से शत्रुओं का सारा तेज (शौर्य) ठंडा कर देता था। अग्नि के बुझ जाने पर जैसे काला कोयला शेष रह जाता है, वैसे ही नल द्वारा पराजित हो जाने पर शत्रुओं का तेज उनके अपयश ( बदनामी ) के रूप में परिणत हो जाता था। कवि-जगत में यश श्वेत और अपयश काला बताया गया है। यहाँ नल पर मेघरब के आरोप का और शत्रओं के तेज पर अग्नित्व आरोप का परस्पर अङ्गाङ्गिमाव है, अतः यह साङ्गरूपक है और वह भी श्लेषगर्भित / 'इङ्गालमिव' में उत्प्रेक्षा होने से रूपक और उत्प्रेक्षा नीर-क्षीरन्याय से अङ्गाङ्गिभाव संकर है / / 6 / / अनरूपदग्धारिपुरानलोज्ज्वलैनिजप्रतापैवलयम्ज्वलगुवः / प्रदक्षिणीकृत्य जयाय सृष्टया रराज नीराजनया स राजधः // 10 // अन्वयः:-राजघः सः अनल्प...ज्ज्वलै: निज-प्रतापैः ज्वलद् भुवः वलवम् प्रदक्षिणीकृत्य जयाय सृष्टया नीराजनया रराज / टीका-राजधः=राशा हन्ता नतु भद्रायामित्यर्थः सः= नलः अनरूप०-अनल्पानि बहूनि दग्धानि = प्लुष्टानि च तानि भरिपुराणि = शत्रु नगराणि (कर्मषा० ) शत्रूषां पुराणि ( 10 तत्पु० ) यः तथाभूतैः (20 नो०) अथ च अनलवत् अग्निवत् उज्वले. (उरमान तत्पु० ) निजा:=स्वीयाः प्रतापाः- प्रभावाः तैः (कर्मधा० ) चलत् =दीप्यमानम् भुवः पृथिव्याः वलयम् = मण्डलम् प्रदक्षिणीकुस्य = परिक्रम्य भ्रमित्वेत्यर्थः ( गृहागमने ) जयाय = कृतसर्वभू. विजयनिमित्तमित्यर्थः सृष्टया= कृतया पुरजनैः पुरोहितैर्वा नीराजनया = आरात्रिकया रराजशुशुमे / दिग्विजये शत्रुनगराणि प्रज्वाल्य मुशतरमुज्ज्वलो नलप्रतापो नीराजनाकार्य करोति स्मेति मावः // 10 // व्याकरख-राजधः-राशो हन्तीति राजन्+ हन् 'राजघ उपसंख्यानम्' इति निपातनात साधु / प्रदक्षिणीकृत्य = अप्रदक्षिणं प्रदक्षिणं सम्पधमानं कृत्वेति प्रदक्षिण+चि+ ल्यप् | हिन्दी--राजाओं का बध करने वाला वह ( नल ) बहुत से शत्रु-नगरों को जला देने वाले एवं अग्नि-जैसे उज्ज्वल अपने प्रतापों के रूप में, देदीप्यमान भू-मण्डल का ( विजय हेतु) चारों ओर चक्कर काटकर विजयोपलक्ष्य में ( पुरोहितों एवं प्रजाजनों के द्वारा ) की हुई आरती से शोमित होता था // 10 //
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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