SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नैषधीयचरिते विदर्भसुभ्रस्तनतुङ्गताप्तये घटानिवापश्यदलं तपस्यतः / फलानि धूमस्य धयानधोमुखान् स दाडिमे दोहदधूपिनि द्रुमे // 82 // अन्वयः-सः दोहद-धूपिनि दाडिमे द्रुमे विदर्भ-सुभू-स्तन-तुङ्गताप्तये अलम् तपस्यतः धूमस्य धयान् अधोमुखान् घटानित्र फलानि अपश्यत् / टीका-सः नलः दोहदम् = फल-कृष्यादि-समृद्धिकारक-साधनविशेषः (पुष्पाद्यत्पादक द्रव्यं दोहद स्यात्त तत्-क्रिया' इति शब्दार्णवः) च यो धूपः ( कर्मधा० ) सोऽस्यास्तीति तथोक्त दाडिमे द्रुमेदाडिमफलवृक्षे विदर्भ - विदर्भायाम् विदर्भदेशस्य सुभ्र = सुः शोभने भ्रुवौ यस्याः सा ( 30 बी० ) सुन्दरी दमयन्तीत्यर्थः तस्याः यो स्तनौ कुचौ तयोः बा तुङ्गता = उच्चता तस्या अवाप्तये = प्राप्तये ( सर्वत्र प० तत्पु०) अनम् = अत्यधिकं यथा स्यात्तथा तपस्यतः=पस्यां कुर्वाणान् धूमस्य धयान् = पातृन् ( अतएव ) अधः = नोचैः मुखं येषान्तान् ( ब० वी० ) नीचैः कृतमुखान् घटान् = कलशान् वेत्युत्प्रेक्षायाम् फलानि दाडिमानि अपश्यत् / उच्चफलप्राप्तिहेतोः यथा कोऽपि साधको मुख नोचैः कृत्वा धूमपान-रूपां तपस्यां चरति, तथैत्र अधस्तात् दोहदरूपेण धू-धूमं गृह्णानानि दाडिम फलानि दमयन्तीकुचोच्चताप्राप्तिहेतोस्तपस्यन्तः कलशा इव प्रतीयन्ते स्मेति मावः॥२॥ व्याकरण-दोहदः दोहम् = पाकर्ष ददातीति दोह/दा+क। तपस्यतः तपश्चरतीति तपस्+क्यङ् 'तपसः परस्मैपदं च' इस वातिक से परस्मैपद (नाम धातु)। धयान् धयतीति Vधे+शः कर्तरि / हिन्दी-उस ( नल ) ने धूप का दोहद लिये अनार के पेड़ पर फलों को ऐसा देखा मानो वे विदर्भ देश की सुन्दरी ( दमयन्ती ) के कुचों को ऊँचाई प्राप्त करने हेतु अत्यधिक तपस्था में लगे, धूम-पान कर रहे, नोचे मुँह किये कलश हो // 82 // टिप्पणी-दोहद-आधुनिक भाषा में दोहद फर्टलाइज़र ( Fertilizer ) को कहते हैं। विविध फल-फूलों के विविध दोहद हुआ करते हैं / अनार का दोहद देखिये-'मत्स्याज्यत्रिफलाले. पैर्मासैराजाविकोद्भवैः / लेपिता धूपिता सते फलं तालीव दाडिमी // मछली की खाद अंगूर लीची 'आदि फलों में काम आती है। कन्धारी अनार को बकरी के खून की खाद भी दी जाती है। कुछ फूलों के विचित्र. ही प्रकार के दोहद देखिये:-"पादाहतः प्रमदया विकसत्यशोकः शोकं जहाति बकुलो मुखसीधुसिकः / आलोकनात् कुरवकः कुरुते विकासम् प्रालिंगितस्तिलक उत्कलिको विमाति // अर्थात् अशोक सुन्दर नवयुवती के पाद-प्रहार से, मौलसरी उसके मुख की मदिरा की कुल्लोसे, कुरबक उसके मधुर दृष्टिपात से और तिलक उसके आलिंगन से फूल उठते हैं। श्लोक में अनार के फलों पर तप में लगे घटों की कल्पना करने से उत्प्रेक्षा अलंकार है, जिसका वाचक 'इव' शब्द है / वृत्त्यनुपास शब्दालंकार है / / 82 / / वियोगिनीमैक्षत दाडिमीमसौ प्रियस्मृते: स्पष्टमुदीतकण्टकाम् / फलस्तनस्थानविदीर्णरागिहृद्विशच्छुकास्यस्मरकिंशुकाशुगाम् // 8 //
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy