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________________ प्रथमः सर्गः और 'करपत्रमूर्ति' एवं 'दारुणायते' में उपमा है। पूर्वाध और उत्तरार्ध रूपकों को परस्पर निरपेक्ष होने से संसृष्टि है। 'पत्रै' 'पत्र' और 'दारुणि' 'दारुण' में छेकानुप्रास है। किन्तु 'द रु' और 'दार' में यमक भी है जिसका छैक के साथ एकवाचकानु-प्रवेश संकर हो रहा है / / 80 // धनुर्मधुस्विन्नकरोऽपि भीमजापर परागैस्तव धूलिहस्तयन् / प्रसूनधन्वा शरसास्करोति मामिति धाक्रुश्यत तेन केतकम् // 81 // भन्वयः-धनुर्मधु-स्विन्नकरः अपि प्रसूनधन्वा तव परागैः ( आत्मानम् ) धूलिहस्तयन् भीमजापरम् माम् शरसात्करोति' इति तेन धा केतकम् आक्रुश्यत / टीका-धनु०-धनुष-पुष्परूप-चापस्य यन् मधुरसः मकरन्द इति यावत् (10 तत्पु.) तेन स्विन्नौ = आद्रौं ( तृ० तत्पु०) करौ=हस्तौ ( कर्मधा०) यस्य तथाभूनः (ब० बो० ) अपि प्रसूनं = पुष्पं धनुः यस्य स ( ब० बी० ) कामदेवः तव परागैः= धूलिभिः ( आत्मानम् ) धूल: हस्ते यस्य सः धूलिहस्तः (ब० वी०) धूलिहस्तं करोतीति धूलिहस्तयन् अर्थात् हस्तं धूलियुक्त कुर्वन् अन्यथा स्विन्न-करतः धनुर्धेशप्रसङ्ग त् , भीमजा=दमयन्ती परं=प्रधानम् (कर्मधा०) प्राप्ति-लक्ष्यभूतेति यावत् यस्य तथाभूनम् (ब० वी०) मानलम् शरसास्करोति शराधीनी. करोति, मयि शरान् प्रहरतीत्यर्थः। इति एवं प्रकारेण तेन - नलेन ऋधा= क्रोधेन केतकम् केतकीपुष्पम् श्राश्यत अनिन्धत // 81 // व्याकरण-स्विन्न/स्विद्+क्त त को न / धूलिहस्तयन् यहाँ (ब० 0 ) धूलिहस्त से तत्करोति के अर्थ में णिच् कर के नामधातु बनाकर शतृ प्रत्यय है। नारायण ने धूलिहस्तयन्निति धूलियुक्तं हस्तं करोतोति ण्यन्ताच्छतृ माना है किन्तु यह ठीक नहीं क्योंकि इस विग्रह में हस्त पर धुलियुक्तत्वका विधान हो रहा है, इसलिये धूलियुक्तत्व का हस्त के साथ समास हो जाने पर उसकी विधेयता नहीं रहेगी और विधेयाविमर्श दोष हो जायगा / भीमजामीमात् जायते इति भीम+ /जन् +3+टाप् ( उपपद तत्पु०) शरसास्करोति शराणाम् अधीन करोतीनि शर+सात् +vs +लट् 'तदधीनवचने' पा० 5 / 4 / 54 से अधान करने में सात् प्रत्यय हो जाता है / क्रुधा क्रुध +क्विप् भावे तृतीया / भाऋश्यत आ+/क्रुश्+लङ् कर्मवाच्य / हिन्दी-"रे केवड़े ! धनुष के मकरन्द से गोला-हाथ होता हुआ भी कामदेव तेरे पराग से अपना हाथ धूलि-युक्त करके भीमजा ( दमयन्ती ) पर आसक्त हुये मुझे बाणों के अधीन कर देता है "-इस तरह उस ( नल ) ने केवड़े की मर्सना की // 81 // टिप्पणी-धूलिहस्तयन्-गीले हाथों से कोई भी वस्तु फिसल जाती है। फूलों के धनुष से मकरन्द चूने के कारण काम के हाथ गोले हो गये थे, सुखाने हेतु मिट्टी की आवश्यकता पड़ती है, जिसे केतकी अपने पराग से पूरा कर देता है / उक्त तीन श्लोकों में केतक का वर्णन करके कवि आगे 101 तक प्रायः इन फल-फूलों का वर्णन कर रहा है, जो कामोहोरक होकर विरहियों पर बड़ा बुरा प्रभाव डालते हैं / 'परं' परा (गैः ) तथा 'क(धा ) 'कु( श्य)' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / 'प्रसूनधन्वा के यहाँ साभिप्राय विशेष्य होने के कारण परिकरांकुर अलंकार मी है / / 81 //
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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