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________________ ( 24 ) छन्द मिले हैं जिनके नाम इस प्रकार है-वंशस्थ, वैतालीय, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, इनका सम्मि. श्रित रूप उपजाति, द्रुतविलम्बित, स्वागता, दोधक, तोटक, वसन्त-तिलका, मालती, हरिणी, शिखरिणी, रयोद्धता, पृथ्वी, शार्दूलविक्रीडित, स्रग्धरा, पुष्पिताया, मन्दाक्रान्ता और अनुष्टुप् / समी सगों में वैसे तो उपजाति, वैतालीय, वंशस्थ आदि छोटे-छोटे छन्दों का प्रयोग हुमा है, लेोकन सर्गान्तों में छन्द बदल देने के नियमानुसार शिखरिणी, स्रग्धरा, शार्दूलविक्रीडित-जैसे लम्बे लम्बे छन्दों को कवि खूब काम में लाया है / उन्नीसवा सर्ग तो प्रायः हरिपी में ही चलता है, जो लम्बे छन्दों में गिना जाता है। वैतालीय को छोड़कर ये सभी छन्द वर्ण-छन्द हैं, मात्रा-छन्द नहीं / इन छन्दों में श्रीहर्ष ने अच्छा कौशल दिखाया है यद्यपि कठिन और कठोर शब्दों के आ जाने से उनमें कही-कहीं सहज माधुर्य बोर लय की कमी अवश्य अनुभव हो जाती है। इसी प्रकार कविका ज्योतिष-शान भी यत्र-तत्र झलक जाता है, जैसे-प्रातःकाल सूर्य के साथ बुध और शुक्र का चलना (1 / 17), और विशाखा नक्षत्र का लोप हो जाना (1957), राहु द्वारा चन्द्रमा का ग्रास (4.64) अमावास्या को चन्द्रमा का सूर्य में विलय ( 2.58 ) झोण चन्द्रमा का पापग्रह होना, (4 / 42) सम्मुख सूर्य में यात्रानिषेध (31) मनुष्यों, देवताओं और ब्रह्मा के दिनों, वर्षों, तथा युगों का परिगणन (4 / 44), यात्रा के समय नलपूर्ण कलश और आम्रफल दर्शन का शुम होना (2 / 65-66) इत्यादि, इत्यादि / पुराणों और धर्मशास्त्र के सम्बन्ध में भी थोड़ा-सा देखिये। श्रीहर्ष प्रारम्म से हो पौराणिक कथाओं का यत्र-तत्र उल्लेख करते आ रहे हैं, जैसे-श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न के साथ अनिरुद्ध को छुड़ाने वाणासुर के शोणितपुर को जाना (1 / 32), काम द्वारा रति में अनिरुद्ध की उत्पत्ति (1954), विष्णु द्वारा वामनावतार धारण कर एक ही पग से आकाश माप लेना (1170,124), त्रिशंकु को देवताओं द्वारा सशरीर स्वर्ग न आने देने पर विश्वामित्र की नव सृष्टि-निर्माण को धमको (2 / 102), परोपकार हेतु दधीच द्वारा अस्थियों, शिवि द्वारा निज मांस और कर्ण द्वारा निज स्वचादान (385,3.129) अगस्य द्वारा समुद्र-पान (4 / 51,58) आदि कहाँ तक गिनाये ? स्वयम्बर में सरस्वती द्वारा राजाओं का परिचय देने के प्रसङ्ग में जगत् के समी समुद्रों, दीपों, वर्षों और देशों से सम्बद्ध मूगोल का चित्रण और विष्णु के दश अवतारों तथा सूर्यादि देवताओं का विस्तृत उल्लेख-यह सब कुछ पौराणिक तो है, यहाँ तक कि काव्य का कथानक भो स्वयं पौराणिक पृष्ठाधार पर ही खड़ा हुआ है / धर्मशास की बातों का मी हम काव्य में यत्र-तत्र उल्लेख पाते हैं, जैसे-अपकारक पशुओं के बध में धर्मशास्त्र की अनुमति (2 / 9), प्रवास में जा रहे मास्मीयजन को जल-सीमान्त तक छोड़ने जाने का विधान (1175, 31131), इष्ट और पूर्व अर्थात् यशानुष्ठान और परोपकार हेतु कुआँ, प्याऊ, धर्मशाला, वृक्षारोपण मादि का विधान (3 / 21), दानार्थियों को द्रव्यदान-विधि (5586) दत्त वचन का प्रतिपालन (5 / 135) इत्यादि बातें धर्मशास्त्र से सम्बन्ध रखती हैं। दर्शनों का तो ऐसा लगता है कि श्रीहर्ष ने जैसे समुद्र का-सा मन्थन कर रखा हो। पहले चार्वाक, बौद्ध और जैन-इन तीन नास्तिक दर्शनों को ले लीजिये। मात्मा-परमात्मा, स्वर्ग-नरक आदिको न मानने वाले शरीरात्मवादी चार्वाकों का दृष्टकोण कलि और उसके सहयोगियों के माध्यम से
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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