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________________ कवि ने सविस्तर सत्रहवै सर्ग में स्पष्ट कर रखा है कि किस तरह वे ऐन्द्रिय मोग को ही जीवन का परम पुरुषार्थ मानते हैं। सरस्वती का ममी विद्याओं के अधिष्ठान रूप में वर्णन करते हुये बोहर्ष ने बौद्धों के सोमसिद्धान्त शून्यात्मवाद ('सर्व शून्यं शन्यम्'), विज्ञानसामस्त्य ("विशानमेवात्मा' ) और साकारता-सिद्धि ( विशनं साकारम्' ) का उल्लेख किया है (10 / 87) इसी प्रकार नल द्वारा दशावतारों की अर्चना के प्रसंग में भगवान् बुद्ध का 'चतुष्कोटि-विमुक्त 'षडमिश' आदि विशेषणों द्वारा संबोधन भी बौद्ध सिद्धान्त की ओर संकेत है (21188) / 'विहार देश' को प्राप्त होकर नल के घोड़ों के मण्डलाकार भ्रमणों की कवि द्वारा 'विहारदेश' को प्राप्त हो जैनियों के मण्डलाकार बैठने से उपमा जैनसिद्धान्त की ओर संकेत करती है (1971) / इसी तरह देवताओं में में किसी एक को वरने हेतु रखे नल के प्रस्ताव को ठुकराती हुई दमयन्ती के मुख से उल्लिखित 'रत्नत्रय' जैन (9.71) दर्शन के सम्यग् दर्शन, सम्यग शान और सम्यक चारित्र का प्रतिपादन करता है। मम्य चारित्र के भीतर जैनियों के अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये पाँच अणुव्रत आते हैं / अब आस्तिक दर्शन लें, दमयन्ती के कुचकुम्भ चित्रण में निमित्त कारण चक्र के 'भ्रमि' गुण का कार्य में आना (2 / 32), मन का अणु परिमाग होना (5 / 29), मुक्ति का सुखदुःखादि राहित्य रूप (1775) हत्यादि बातें जहाँ न्यायदर्शन के सिद्धान्तों से सम्बन्ध रखती हैं, वहाँ द्वयणुक से सृष्टि उत्पत्ति (31125) दशम द्रव्य तम (22:36) इत्यादि वैशेषिक दर्शन में आती हैं। सांख्य दर्शन का सत्कार्यवाद हमें 'नास्ति जन्य जनकव्यतिमेद:' में दीखता है (594) / यशों में पशु-हिंसा को पाप हेतु बताना (22.76) भी सांख्यों का ही दृष्टिकोण है। योगदर्शन के संकेत मी यत्र-तत्र मिल जाते हैं जैसे-तिवप्रावलि योगपट्टया' (2 / 78), 'समाधिशास्त्रश्रुतिपूर्णकर्णः' (3 / 44), योगिधीरपि न पश्यति यस्मात्' (5 / 28) 'संप्रज्ञात-वासिततमः समपादि' (21 / 119) इत्यादि, शान का स्वतः प्रामाण्य (2 / 61), देवताओं का शरीर न होकर मन्त्र रूप होना (5 / 32, 14 / 73) ईश्वरकी अस्वीकृति (21164) आदि बातें मीमांसादर्शन-सम्बन्धी हैं / वेदान्त दर्शन की ओर तो श्रीहर्ष का बहुत ही अधिक चाव रहा। कहीं वे यों ही अपने ब्रह्मवाद को ध्वनित कर जाते हैं भले ही प्रसंग हो,न हो, जैसे अधिगस्य जगत्यधीश्वरादथ मुक्ति पुरुषोत्तमात् ततः। वचसामपि गोचरो न यः स तमानन्दमविन्दत द्विजः // (21) कहीं उसे वे अप्रस्तुत-विधान के रूप में रख देते हैं, जैसे नेत्राणि वैदर्मसुतासखीनां विमुक्ततत्तद्विषयग्रहाणि / प्रापुस्तमेकं निरूपाख्यरूपं ब्रह्मव चेतांसि यतव्रतानाम् // (3 // 3) अन्य संकेतों के लिये 'श्रीहर्ष का व्यक्तित्व' स्तम्भ देखिये / इस तरह कवि ने अपनो रचनायें नल को तरह निज चतुर्दशविद्याभिशता बता रखी है। १-न सन्नासन्न सदसन्न चाप्यनुभयात्मकम् / ' चतुष्कोटि-विनिर्मुक्तं तत्त्वं माध्यमिका विदुः / २-'दृष्टवदानुभविकः स विशुद्धिक्षयातिशययुक्तः // (सt० का०)२
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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