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________________ मैषधीयचरिते नाम् अर्थात् परापेक्षोदहनात् ईदृशयशोरहितानाम् असितानाम् हरितामित्यर्थः भवंताम् अश्वानाम् बलम् शक्तिम् अन्तः मुखमध्ये हसन्तम् हासविषयीकुर्वन्तम् ( हयम् ) / केवलम् आत्मना महारथिनं बसमुदहन् हयः सप्तमिलित्वा रविम् उदहतां तदश्वानामुपरि हसति स्मेति भावः / / 21 / / व्याकरण- चक्रवर्तिनः चक्र+Vवृत् +णिन् ताच्छील्ये। ईदृशाम् अयम् इव दृश्यते इति दम् +/दृश् + क्विन् कर्मणि / न्दिी -जो ( घोड़ा ) महारथ ( महारथी ), चक्रवतों ( सार्वभौम ) नल के मार्ग में बिना अन्य ( घोड़ों ) को आवश्यकता के ( उसे ) ले जाने के कारण ( अजित ) यश से सफेद बना हुआ पा (और इसीलिए ) जो महारथ ( विशाल रथ वाले ) चक्रवर्ती ( एक चक्र से काम लेने वाले ) सूर्य के मार्ग (आकाश ) में ( उसे ) उसी तरह न ले जाने के कारण वैसे-जैसे ( सफेद ) न बने हुए बोड़ों के बल पर ( अपने ) दांतों की निर्मल किरणों के बहाने भीतर ही भीतर हँस रहा था / / 6 / / टिप्पणी-श्रध्वनि चक्र० -चाण्डू पण्डित ने सूर्य-पक्ष में अध्वनि शब्द को पृथक् न रखकर बज्यनिचक्र. एक समस्त पद बनाया है और अर्थ किया है-'अध्वनि ध्वनिरहिते चक्रे वर्तते श्त्येवंशोकस्य' अर्थात् जिसका रथ-चक्र शब्द नहीं करता है। सूर्य के रथ के सात घोड़ों और एकही चक्र के लिए देखिये ऋ० ०-'सप्त युआन्ति रथमेकचक्रम्'। घोड़े भी हरे रंग के होते हैं / जिससे सूर्य का नाम हो हरिदश्व पड़ा हुआ है। इस श्लोक में नल के अश्व की सूर्य के अश्वों से तुलना करता हुआ कवि पहले तो साम्य बताता है कि सूर्य के घोड़े यदि महारय और चक्रवती को ले जाते है, तो नल का घोड़ा भी महारथ और चक्रवतों को ले जाता है, किन्तु ध्यान रखिये कि :यह साम्य केवल शाब्दिक ही है, आर्थ नहीं। बैसे सूर्य का महारथत्व और चक्रवर्तित्व और ही है लेकिन कवि ने निपुणता के साथ दो मिन्न भिन्न बों का समान शब्दों द्वारा अमेदाध्यवसाय कर रखा है, इसलिए इस अंश में यहाँ मेदे अमेदातिभयोक्ति है और वह मी श्लेष गर्भित / साम्य के बाद कवि बैषम्य बताता है कि नल का घोडा जहाँ अकेले ही उन्हें ले जाता है जिसके कारण वह यश से धलित बना हुआ है, बहीं दूसरी मोर सूर्य को एक नहीं, बल्कि मिलकर सात घोड़े ले जाते हैं, जिससे बे कुछ भी यश अजिंत न कर पाते और बाल होने के स्थान में हरे के हरे ही रह जाते हैं। इस तरह नल के घोड़े में आधिक्य बताने से व्यतिरेकालंकार है / नल का घोरा सफेद तो स्वभाव से ही था, किन्तु कवि की कल्पना है कि मानो बश से सफेद हो गया हो, इस तरह यह उत्प्रेक्षा बन रही है जो वाचक शब्द न होने से गम्य ही है, वाच्य नहीं होने पाई। अपने विजयाभिमान में नल का घोड़ा सूर्य के घोड़ों की दुर्बलता पर हँस बैठता है / परन्तु घोड़े ने क्या हँसना है; हंसना तो केवल मनुष्य-मात्र की विशेषता है, अन्य कोई चीव नहीं हँसता / इस तरह घोड़े का हँसना केवल कवि कल्पना है, जो यहाँ मी उत्प्रेक्षा बना रही है और वह भी गम्य, वाच्य नहीं। हंसने की कल्पना के पीछे जो तत्त्र काम कर रहा है वह है घोड़े के दांतों की सफेद छटा। इस प्रस्तुत तथ्य का अपह्नव-प्रतिषेध-करके ही कवि ने हासत्व की स्थापना की है, इसलिए यह अपह्नति है और वह भी कैतवापह्नुति / इस तरह इन सभी अलं. कारों का संकर बनाकर कवि ने अपनी अलंकृत शैली का यहाँ अच्छा प्रदर्शन किया है। किन्तु फिर
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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