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________________ प्रथमः सर्गः भी फूलों में कोटे की तरह एक दोष घुस ही बैठा और वह है विधेयाविमर्श / 'अनोदृशाम्स अर्थ है 'जो ( घोड़े ) रेसे नहीं है। उनकी नल के घोड़े ने खिल्ली उड़ाई / यहाँ प्रतिषेध की प्रधानता है, इसलिए प्रतिषेध-वाचक नञ् का समास नहीं होना चाहिए था। समास होने से प्रतिषेधी प्रधानता अथवा विधेयता नष्ट हो रही है। इस तरह विधेय का विमर्श न होने के कारण बहा विधेयाविमर्श दोष है // 6 // . सितविषश्चञ्चलतामुपेयुषो मिषेण पुच्छस्य च केसरस्य च / स्फुट' चलचामरयुग्मचिह्न रनिह्ववानं निजवाजिराजताम् // 62 // अन्वयः-सित-विष: चञ्चलताम् उपेयुषः पुच्छस्य च केसरस्य च मिषेण चलच्चामर-युग्मचिह्नः निज वाजि-राजताम् अनिढुवानम् इति स्फुटम् / / टीका-सिता-शुभ्रा स्विट =कान्तिः (कर्मधा०) यस्य तथा भूतस्य ब० वी०) चञ्चलताम् = चञ्चलस्य मावम् उपेयुष = प्राप्तस्य पुग्छस्य-लाङ्गलस्य केसरस्य= स्कन्धगतकेशसमूहस्य सटाबा इति यावत् मिषेण = व्याजेन चामरयोः युग्मम् =द्वयम् (10 तत्पु० ) चामर-युग्मम् चल इतस्ततः प्रचलद चामरयुग्मम् ( कर्मध० ) तस्य चिह्नः लक्षणः ( 10 तत्पु०) ताजिनां राजाइति वाजिराजः ( 10 तत्पु० ) वाजिराजस्य भावः वाजिराजता निजा=चासौ बाजि० ( कर्मधा) ताम् अनिझुवानम् = प्रकटयन्तम् इति स्फुटम् उत्प्रेक्षे / कस्यापि राशो वीज्यमानं चामर द्वयं चिदं भवति, नलस्य वाजिराजोऽपि केसर-पुच्छच्छलेन तद् राजचिहूं धारयति स्मेति भावः // 6 // व्याकरण-कान्तिः कम्+क्तिन् भावे। उपेयुषः उप+Vs+वसुः ( लिडर्थ ) चिह: चिह्न करोतीति चिह्न + णिच् ( नामधा० )+ल्युट भावे / वीजन क्रिया बार-बार होती रहने से चिहः यह बहुवचन हुआ। अन्यत्र चिह्नकैः पाठ मिलता है। वहाँ चिह्नानि एव चिह्नकानि इस पानम् न नि+/हु = शानच् कर्तरि / हिन्दी-जो (घोड़ा ) सफेद छटा वाले एवं हिलते हुए पूंछ और केसर ( अयाल ) के बहाने ( आगे-पीछे ) डुलाये जा रहे दो चामरों के चिह्नों से मानो अपना वाजिराजत्व प्रकट कर रहा था // 62 / / टिप्पणी-यहाँ भी पूंछ और केसर के बहाने राज-चिह्न-रूप दो चामरों की कल्पना करने से अपह्नति और उत्प्रेक्षा का संकर है / 'स्फुट' शब्द उत्प्रेक्षा का वाचक है। अनिवानम् में भी नम् को विधेयता बनाये रखने के लिए उसे समास में नहीं लाना चाहिए था। विधेयता नष्ट होने से वहां भी विधेयाविमर्श दोष है / / 6 / / अपि द्विजिह्वाभ्यवहारपौरुषे मुखानुषक्तायतवल्गुवल्गया। उपेयिवांसं प्रतिमल्लतां रयस्मये जितस्य प्रसमं गरुत्मतः // 63 // अन्वयः-रय-स्मये प्रसभम् जितस्य गरुत्मतः मुखा."या द्विजिह्व..रुषे अपि प्रतिमल्लवार उपेयिवासम् ( हयम् ) / 1. स्फुटा, 2. चिह्नकैः /
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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