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________________ [ 15 ] के बाद नल के जीवन का भविष्यगर्भ-निहित, कलिकृत, संकटमय कृष्प्यपक्ष भो शेष है जो मेरा विषय नहीं है-इसकी सूचना-मात्र अपने पाठकों को दे देने में हम नहीं समझ पाये कि बीहर्ष ने कौन-सा अनुचित काम किया है / काव्य के संविधान में यह लिखा हुआ है-जैसे कि हम आगे बताएंगे"कवि को प्रत्येक सर्ग के अन्त में अगले सर्ग में आने वाले कथानक की ओर संकेत कर देना चाहिए" / क्या इससे वह ध्वनित नहीं होगा कि कवि के काव्य के अन्त में भी कानक के अवशिष्ट भाग की ओर संकेत कर देना चाहिए ? हमारे मत का समर्थन प्रसिद्ध टोकाकार नारायण ने भी किया है-महामारतादौ वर्णितस्याप्युत्तरनलचरित्रस्य नीरसत्वानायकानुदयवर्णनेन रसमङ्ग सद्भावाञ्चोत्तरचरित्रं श्रीहर्षख न वर्णितम्'। इसलिए हमारे विचार से उपलब्ध नैषध काव्य का कथानक अपने में पूरा हो है, अधूरा नहीं / काव्य भी पूरा हो है, अंशतः लुप्त नहीं। कथानक का मूल-स्रोत और कविकृत परिवर्तन-वैसे तो नल-दमयन्ती की प्रसिद्ध कथा ब्राह्मण-ग्रन्थों से लेकर मत्स्य, पद्म, वायु आदि पुराणों एवं परवर्ती कथासरित्सागर आदि कथा-ग्रन्थों में भी मिलती है, किन्तु विस्तार के साथ यह मुख्यतः महाभारत में आई हुई है जिसे वृहदश्व युधिष्ठिर को सुना रहे हैं / यह वनपर्व में 53 से लेकर 79 तक 27 अध्यायों में 'नलोपाख्यान' नाम से प्रसिद्ध है। यहो उपाख्यान श्रीहर्ष ने अपने नैषध महाकाव्य के मूल स्रोत रूप में अपनाया है / इसकी स्वयंबर तक को कथा महाभारत के 53 से 57 तक केवल पाँच अध्यायों के 166 श्लोकों में आई हुई है जबकि कवि ने कल्पना-शक्ति द्वारा अपनी तरफ से इधर-उधर कुछ और जोड़कर इसका 22 सर्गों के अन्तर्गत 2804 श्लोकों में विस्तार कर रखा है। सच पूछो तो कवि का काम इतिवृत्त मात्र बनाना नहीं होता। वह तो इतिहासकार का काम है। व्यक्ति-विवेककार ने ठीक ही कहा है-'न हि कवेरितिवृत्तमात्रनिर्वाहेणात्मपदलाभः, इतिहासादेव तसिद्धेः' / कवि तो अवलम्ब-मात्र हेतु इतिहास का आँचल पकड़ता है। अपनी कल्पना-परो को उड़ान भरने देने के लिए इतिहास को धरा पर एक छोटा-सा 'रन-वे' हवाई पट्टी-चाहता है जहाँ से उड़कर वह अपने 'करिश्मे'-नैपुण्य-भरे करतब-दिखा सके अथवा यों समझ लीजिए कि इतिहास अतीत के गर्भ-गत गों में दबे पड़े नर कंकालों का एक संग्रहालय है, जहाँ से कवि अभिप्रेत कुछ कंकाल बाहर निकाल लेता है, उनमें कल्पना-शक्ति द्वारा रुधिर-मांस भरता है, फिर रस की प्राण प्रतिष्ठा करके हमारे आगे इस प्रकार जीवन्त रूप में खड़ा कर देता है कि देखते ही हृदय आनन्द-विभोर हो उठता है। इसी में कवि के कवित्व को अर्थवत्ता निहित है। कालिंदास, भारवि, बाण आदि सभी कलाकार ऐसा करते आये हैं। श्रीहर्ष ने भी ऐसा ही किया। वे निष्धाणों के प्राण-प्रतिष्ठापक हैं, नीरसों के रसस्रष्टा हैं। उन्होंने महाभारत से उक्त कथा-कंकाल निकाला और निज नर-नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा और उर्वर काना-शक्ति द्वारा उसे-उन्हीं के शब्दों में--'शृङ्गारामृतशीतगुः' अथवा 'अमृतभरे क्षीरोदन्वान्' में परिणत कर दिया। इस प्रक्रिया में उन्हें बहुत कुछ अपनी तरफ से जोड़ना पड़ा / 6, 7, 15, 19, 20, 21 सर्गों का प्रतिपाद्य महाभारत में कहीं नहीं है। इसी तरह 10 से 14 तक पाँच सगों में स्वयंवर का विस्तृत-विवरण, उसमें भोजन के समय हास्य-रस की सृष्टि कवि
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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