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________________ कि जो इन्द्रादि देवों और नल-दोनों बोर ग जाती है। इस पर बेचारी दमयन्ती असमजप्त में पड़ जाती है और जान नहीं पाती है कि असली नल कौन है, जिसपर वह अयमाला डाल सके। अन्त में विषाद और चिन्ता में हुबो वह मरी सभा में इन्द्रादि चारों देवों की करुणा-मरी प्रार्थना करने लगती है। इससे देवों का हृदय कुछ पिघल जाता है और वे निनिमेषता आदि अपने कुछ मेदक चिह्नों को प्रकट कर बैठते हैं। प्रसन्न हुई राजकुमारी अवशिष्ट मयं नल के गले में वरमाला डाल देती है। जाते समय अपने स्वाभाविक रूप में प्रकट हुए देव दमयन्तो के सतीत्व से प्रसन्न हो उसके वृत पति को अपना-अपना वर देते हैं। सरस्वती भी अपने असली रूप में आकर वर-वधू को आशीष देकर चली जाती है। ___ अब विधिवत् पाणिग्रहण-संस्कार होना है। शिविर से बड़ी धूमधाम के साथ नल की बारात मीम के राजमहल को चल पड़ी। राजा भीम ने नल और बारातियों के आदर-सत्कार में कोई कोरकसर नहीं रखो। मोन में खूब चहल-पहल मची रहो। भोजन परोसने वाली नवयुवति दासी छोकरियों और नवयुवक बारातियों का परस्पर हास-परिहास और कमी-कभार छेड़छाड देखते ही बनती यो / पाणि-ग्रहण संस्कार सम्पन्न हो जाने पर नल चार-पाँच दिन ससुराल में रहे और बाद को वधू. सहित निषष वापस आ गये। ___ उधर अपने-अपने स्थान को जाते हुए इन्द्रादि देवों को रास्ते में अपने काम, क्रोध, लोम, मोह साथियों को साथ लिये कति स्वयंवर में जाता हुआ मिल पड़ा / 'स्वयंवर हो चुका है और दमयन्ती ने नल का वरण कर ख्यिा है' यह समाचार देवताओं से सुनकर कलि क्रोध में आग-बबूला हो उठा / वह चाहता था कि दमयन्ती मुझे वरे / तत्काल उसने दमयन्ती को नल से पृथक् करने की ठान ली, साथ ही उसने और उसके मौतिकवादी साथियों ने देवताओं के आगे वेद-पुराणों ऋषि-मुनियों और आस्तिक दर्शन-शास्त्रों को खूब खिल्ली उड़ाई। बाद को मछे ही देवता उनका खण्डन कर चुके थे, देवताओं के मना करने पर मी आखिर दुष्ठ कलि बदला लेने विदर्भ का मार्ग छोड़कर निषध का मार्ग पकड़ बैठा और वहाँ पहुँच हो गया। , राज्य-मार मंत्रियों को सौंप राजा नल का प्रेयसी के साय अपके 'सौध-भूधर' में हनीमून-आनन्द मास-भारम्भ हो गया। वे दोनों के दोनों अपनी चिर-संचित कामनाओं-आकांक्षाओं और आशाप्रत्याशाओं को मूर्त रूप देने लगे। युगल के लिए इस ऐन्द्रिय पर्व के दिन स्वपिल और राते मधुमयी पनी रहने लगी। परस्पर की लुका-छिपी, आँखमिचौनी, छेड़-छाड़ मान और अनुनय-विनय आदि प्रणय-डीलाओं और भोग-विकास के नव अनुभव जीवन में सुधारस बरसाने लगे। अभिप्राय यह कि बोवन का मोगपक्ष पूरी तरह काम कर रहा था। किन्तु यह सब कुछ होते हुए भी नल ने मियमपूर्वक अपनी धार्मिक क्रियाओं एवं देवी-देवताओं की अर्चना-पूजना से कमो मुंह नहीं मोड़ा। हमेशा धर्म और कर्तव्यनिष्ठ रहे, हालांकि विभीतक वृक्ष पर बैठे कर कलि को कुटिल आँख राजा के किसो धर्मभ्रंश के क्षण को भातुरता से एकटक बरावर देखती रहती थी। कथानक की अपूर्णता और उसका निराकरण-कुछ आलोचकों का कहना है कि नैषधीय
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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