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________________ 34 नैषधीयचरिते अन्धयः-निद्रया निमीलितात् पक्षियुगात् बाह्येन्द्रिय-मौन-मुद्रितात् हृदः अपि च सङ्गोप्य कदा अपि अवीक्षितः महत् रहस्यम् सः महीपतिः अस्याः पदशिं / टीका-निद्रया निमीलितात् मुद्रितात् निजव्यापार-विरतादित्यर्थः अषणोः युगम् दयम् / इत्यक्षि-युगम् (10 तत्पु०) तस्मात् बाझे०-बाह्यानि बहिर्भवानि इन्द्रियाणि चक्षुरादानि अथवा बान्द्रियम् अत्र निमीलितं चक्षुरेव ग्राचं दर्शने इन्द्रियान्तराणामसम्बन्धात् (कर्मधा० ) तस्य मौनम् वृत्त्यमावः स्वविषयग्रहणाभावः इति यावत् ( 10 तत्पु० ) तेन मुद्रितात् पिहितात् ( तृ० तत्पु०) हृदः मनसः अपि सङ्गोप्य गोपयित्वा अर्थात् अक्षियुग-मनसोरपि द्रष्टुम् अदत्वा कदाऽपि अधो. क्षितः न अवलोकितः महत रहस्यम् अतिगोपनीयम् वस्तु स महीपतिः राजा नलः अस्या दमयन्त्या भदर्शिदर्शितः / अस्या इति सम्बन्ध-विवक्षायां षष्ठी / / 40 / / - व्याकरण-निनोलितात् नि+/मोल्+क्त कर्मणि / मौनम् मुने व इति मुनि + अण् / मुद्रितात् मुद्रा मुद्रायुक्तमिति यावत् ( 'सुखादयो वृत्तिविषये तदति वर्तन्ते' ) करोतीति मुद्रयति (नामधातु ) बनाकर निष्ठा में क्त / सङ्गोप्य-सम् +/गुप् + ल्यप् / प्रदर्शि-दृश् + पिच्+ लुङ् प्र० पु०। हिन्दी-बन्द हुई पड़ी दोनों आँखों और बाहरी इन्द्रियों के मौन हो जाने से बन्द हुए पड़े मन से भी छिपाकर निद्रा ने उस ( दमयन्ती ) को पहले कभी देखने में न आया हुआ वह ( नल) / राजा-रूप महारहस्य दिखा दिया / / 4 / / टिप्पणी-इस श्लोक में 'निद्रया' शब्द संशयास्पद है। इसका यदि स्वप्न अर्थ ले, तो यह पुनरुक्ति-सी हो जाती है, क्योंकि पूर्व श्लोक में स्वप्न-दर्शन बता ही रखा है। दूसरी आपत्ति यह है कि स्वप्न में मन काम करता ही रहता है, इसलिए मुद्रितात् हृदोऽपि' संगोप्य वाली बात नहीं बनती है। इसका समाधान भल्लिनाथ ने यह दिया है-'अदर्शन चात्र मन्सो बायेन्द्रियमौनमुद्रितादिति विशेषण सामादिन्द्रियार्थसंप्रयोगजन्यज्ञानविरह एवेति शायते, स्वप्नशानं तु मनोजन्यमेव' अर्थात् मन के 'बाह्य०' विशेषण के आधार पर यहाँ उस मन से भभिप्राय है, जो अर्थ से सन्निकर्ष ( 'संप्रयोग' ) रखने वाली बाह्येन्द्रियों से सन्निकृष्ट होकर देखा करता है। प्रकृत में चक्षु का नल रूप अर्थ से सनिकर्ष ही नहीं; तो मन का भी चक्षु से सन्निकर्ष नहीं; फिर वह मन देखे तो कैसे देखे ? हाँ, इन्द्रियार्थ-सन्निकर्ष-निरपेक्ष स्वतन्त्र मन स्वप्न में देखा ही करता है और उसने नल को दिखा ही दिया है। किन्तु यह समाधान कुछ अँचता नहीं। यही कारण है कि नारायण और नरहरि यहाँ निद्रा से सुषुप्ति लेते हैं। दर्शनशास्त्रों में जीवन को तीन अवस्थायें-जाग्रत् , स्वप्न और सुषुप्ति-मानी गई हैं। जायदवस्था में बाह्यन्द्रियों के साथ मन काम करता है, स्वप्नावस्था में बाह्यद्रियाँ 'मुद्रित' हो जाती हैं और केवल मन हो काम करता है, सुषुप्त्यवस्था गहरी नींद (Sound sleep) की होती है। जब स्वप्न भी नहीं होते हैं। जैसे माण्डूक्य उपनिषद् में लिखा है-'यत्र सुप्तो न कश्चन कामं कामयते, न कश्चन स्वप्नं पश्यति तत् सुषुप्तम्'। इसका कारण है सुषुप्ति में मन का पुरीतति नाम की नाड़ी में चला जाना। इसलिये
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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