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________________ मैषधीयचरिते ससंभ्रमोस्पातिपतस्कुलाकुलं सरः प्रपयोस्कतयानुकम्प्रताम्। तमूर्मिलोलेः पतगग्रहान्नृपं न्यवारयद् वारिरुहैः करैरिव / / 126 // अन्वयः-ससंभ्रमोत्पति-पतव-कुलाकुलम् सर: उत्कतया उत्कम्पिताम् प्रपद्य ऊमि-लोलेः वारिरुहै: करैः नृपम् पतग-ग्रहात् न्यवारयत् इव / टीका-ससंभ्रमम् संभ्रमो =भयम् तेन सहितं तथा स्यात्तथा ( ब० बी० ) उत्पतन्ति = उड्डीयन्ते इति उत्पातिनः=( उपपद तत्षु० ) ये पतन्तः पक्षिणः (कर्भधा०) ('पतत्रि-पत्रि. पतग-पतत्-पत्ररथा-ण्डजाः' इत्यमरः ) तेषां यत् कुलम् = समूहः = (10 तत्पु०) तेन भाकुलम् - क्षुब्धम् (प० तत्पु०) सरः=क्रोडासरोवरः उत्कतया स्क- उन्मनाः तस्य भावः तत्ता तया दुःखितयेत्यर्थः / ( 'उत्क मनाः' इत्यमरः ) अनुकम्प्रताम् = दयालुताम् प्रपथप्राप्य दयां करवेत्यर्थः उर्मिमिः तरङ्गः लोलेः= चञ्चलैः ( तृ० तत्पु० ) वारिरहैः कमलेः ( एव ) करः- हन्तैः नृपम् - राजानम् नलम् पतगस्य = पक्षियः हंसस्येत्यर्थः ग्रहात्=ग्रहणात् न्यवारयत् = न्यषेधत् श्वेत्युस्प्रेक्षायाम् / सरोवरः नलकर्तृक-हंसग्रहणात् दुःखीभूय करुणाद्रः सन् चलद्भिः कमलं एव करैः राजानं न्यवारयदिवेति भावः // 116 // व्याकरण-उस्कः उत् = उद्गतमनस्क+क: स्वाथे ('उत्क उन्मनाः' पा० 52 80) से निपातित / अनुकम्प्र अनुकम्पते इति अनु+/कम्प+र: ( 'नमि-कम्पि०' पा० 3.21167 ) / पतगः पतन् = उत्सवन् गच्छत्तीति पतन् + गम् +डः विकल्प से न का लोपः / वारिरहैः वारिणी = जले रोहन्तीति वारि+/ह+कः / ग्रहात् यहाँ निवारणार्थ में पञ्चमी हुई है। हिन्दी-भय के कारण उड़ जाने वाले पक्षिसमूह से क्षुब्ध हुआ क्रीडा सरोवर दुःखी होने से दया में आकर तरंगों से हिल रहे कपल रूपी हाथों द्वारा राजा ( नल ) को मानो पक्षो को पकड़ने से रोक रहा था // 126 // टिप्पली-हम देखते हैं कि किसी को मारने को तय्यार हुए बैठे किसी आदमी को देखकर पास में खड़ा कोई भी व्यक्ति दुःखित हो दयापूर्वक हाथों से मना कर देता है न मारो, न मारो। इस तथ्य की कल्पना कवि क्रीडासरोवर पर कर रहा है। क्षग्ध हुए जल के कारण हिरू रहे कमल उसके हाथ बन गये। इस तरह यहाँ रूपक और उत्प्रेक्षा का अगाङ्गिभाव संकर है / यथावत् वस्तुवर्णन देखकर हम यहाँ स्क्मावोक्ति भी कह सकते हैं। 'पाति' 'पत' 'पत (ग) में वर्ण-साम्य एक से अधिक वार होने से छेक न होकर वृत्यनुपास है, किन्तु 'कुला' 'कुल' में छेक ही है / / 126 / / पतत्रिणा तनुचिरेण वञ्चितं श्रियः प्रयान्त्याः प्रविहाय पावलम् / चलत्पदाम्मोहहनूपुरोपमा चुकूज कूले कलहंसमण्डली // 12 // अन्वयः-रुचिरेण पतत्रिपा वश्चितम् तत् पल्वलम् प्रविहाय प्रयान्त्याः श्रियः चलत्-पदाम्भोरुहनूपुरोपमा कलहंसमण्डली कूले चुकूज / 1. अनुकम्पिताम्
SR No.032783
Book TitleNaishadhiya Charitam 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year1997
Total Pages164
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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